रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

गुरुवार, 9 मई 2013

दुरभिसंधियों का भारत रंग-महोत्सव -अमितेश कुमार


भारत रंग महोत्सव का पंद्रहवां संस्करण भी संपन्न हो गया। यह आयोजन अब केवल रानावि के सालाना जलसे की तरह हो गया है। प्रस्तुतियों में रानावि से जुड़ीे प्रस्तुतियों की बहुलता तो रहती है, उद्घाटन कार्यक्रम में सभा को संबोधित करते हुए रानावि की नीतियों के बारे में बताया जाता है, भारंगम वहीं से पीछे रह जाता है। इस बार भारंगम में चार खंड थे जिसमें सामान्य खंड के अलावा अन्य तीन खंड अलायड इवेंट, मंटो व पारंपरिक शैली आधारित प्रस्तुतियों के थे। इस वर्ष इस महोत्सव की चर्चा इसमें खेले गये नाटकों की वजह से कम और आमंत्रित पाकिस्तानी नाटकों को बिना किसी वाजिब वजह के रद्द कर देने से हुई जिसमें रानावि की खासी किरकरी भी हुई। जिस मंत्रालय के निर्देश का हवाला देकर प्रस्तुति रद्द की गई, वैसा निर्देश जारी ही नहीं हुआ था। दिल्ली के कुछ युवा रंगकर्मियों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के प्रयासों से भारंगम के आयोजन-स्थल से कुछ दूरी पर स्थित अक्षरा थियेटर में इन नाटकों का प्रदर्शन हुआ।
भारंगम में दर्शक हिंदी नाटक के लिये अधिक आते हैं। हिंदी नाटकों के शो हाउसफुल जल्दी हो जाते हैं ऐसे में हिंदी नाटकों की जिम्मेदारी है कि वह दर्शकों के अनुभव को समृद्ध करें लेकिन हिंदी के जिन नाटकों में दर्शक सबसे अधिक जड़ेे उन नाटकों में जोर दर्शक खींचने और उसे बांधे रहने पर था। इसके लिये अधिकाधिक मसाला रखा गया था। नाटकीय अनुभूति इतनी गहरी नहीं थी कि दर्शक कुछ याद रख पाते। वह खालिस ‘मनोरंजन’ ले कर घर लौटे और यह कहना आवश्यक नहीं है कि मनोरंजन ही एक मात्र ध्येय नहीं है। बंबई में निर्मित नाटक ‘पिया बहुरूपिया’, ‘यार बना बड्डी’ और ‘मसाज’ ऐसे ही नाटक थे। मसाज इनमें थाड़ा अलग अवश्य था। हिंदी नाटकों के प्रति निष्पक्ष रवैया नहीं अपनाने के कारण एक व्यापक रंग समुदाय भारंगम से बाहर रह जाता है। हिंदी नाटकों का आधा हिस्सा रानावि डिप्लोमा प्रस्तुति, रंगमंडल प्रस्तुति और रानवि स्नातकों की प्रस्तुतियों का रहता है। ऐसी हर कच्ची पक्की प्रस्तुति को शामिल करने से यह संदेश बाहर आता है कि हिंदी में नया कुछ हो नहीं रहा है। इसलिये भारंगम से हिंदी रंगमंच या यूं कहें कि भारतीय रंगमंच के ही वास्तविक परिदृश्य का अवलोकन नहीं हो पाता। हिंदी में दर्शकों को खींचने के लिये बंबई के लोकप्रिय नाटक शामिल कर लिये जाते हैं लेकिन कुछ युवा निर्देशकों की, जो जोखिम लेकर प्रयोग कर रहें है और अपनी रंग भाषा गढ़ने की यात्रा में हैं, प्रस्तुतियों को शामिल नहीं किया जाता। हिंदी प्रस्तुतियों में ‘प्रेम की भूतकथा’, ‘गगन दमामा बाज्यो’, ‘रंग बजरंग’, ‘तीसवीं शताब्दी’ औसत से कुछ नीचे ही रहीं। त्रिपुरारी शर्मा की ‘मे बी दिस समर’ को कथ्य के कारण और प्रवीन गुंजन की ‘जर्नी फाॅर फ्रीडम’ फाॅर्म के कारण कुछ अलग रहीं।
भारंगम अब एक कवायद में तब्दील हो गया है। फरवरी से अगस्त तक लोग प्रस्तुति तैयार करते हैं और फिर उसे भारंगम में शामिल करने के जुगाड़ में लग जाते हैं। अगस्त से जनवरी तक चयन की प्रक्रिया चलती रहती है। भारी भरकम स्क्रीनिंग कमिटी के बावजूद दोयम दरजे की प्रस्तुतियां जगह पाती हैं। भारंगम अभी तक उन सवालों का जवाब नहीं दे पाया है जो इसके प्रारंभ के साथ ही इसके साथ लगे हुए हैं, जिसमें नये नये सवाल जुड़ते जा रहे हैं, जिसमें मौसम के चुनाव का भी है जो भारतीय रंगकर्मियों के लिये अनुकूल नहीं है। वैसे वक्त आ गया है कि रानावि को भारंगम का अयोजन छोड़ प्रशिक्षण पर ध्यान लगाना चाहिये, क्योंकि यह वर्ष भर भारंगम आयोजन की दुरभिसंधियों और उससे निबटने में ही लगा रहता है। मंत्रालय को भारंगम के आयोजन के लिए स्वतंत्र निदेशालय बनाना चाहिये, तभी इसका कुछ हो पायेगा।

प्रस्तुति : राजेश चन्द्र. संपादक, समकालीन रंगमंच. यह आलेख अधूरा है। यहाँ आलेख के बीच बीच के कुछ हिस्से रखे गए हैं। .....पूरा लेख पढ़ें समकालीन रंगमंच के आगामी अप्रैल-जून अंक में।

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