दिन में स्कूल जाना और पढ़ाई करना, स्कूल से लौटकर घर के ज़रुरी काम
निपटाना । जैसे ही शाम हुई एक जगह इकठ्ठे होना । जिनमें से कोई घर से भाग कर बिना
बताए पहुंचता, तो कोई “नाटक नौटंकी करने जा रहे हो” ये ताना सुनता । किसी से ये
सवाल-जवाब किया जाता कि कुछ मिलता भी है वहां (मतलब पैसे से होता ) और किसी किसी
को तो घर के काम न कर नाटक में जा रहे हो; इस बात पर रोज़ ताज़ी डांट-फटकार
मिलती । लेकिन नाटक करने वाले शायद किसी और मिटटी के बने हुए प्राणी होते हैं ।
कुछ भी हो जाए उन्हें नाटक के लिए पहुँचना ही है । ऐसा अक्सर तब तक होता जब तक कि
नाटक करने वाला ग्लैमर और सफलता के मुकाम पर पहुँच कर पैसे न कमाने लगे ।
इसी तरह एक और स्थिति ! दो-तीन महीने की रात दिन की
मशक्कत करते और एड़ी का पसीना माथे पर पहुंचाते हुए बीतते । पूरे शहर, एक-एक बाजार, दुकान, मोहल्ला, टोला गली-कूचा और हर
परिचित-अपरिचित से व्यक्तिगत संपर्क स्थापित कर उन्हें इप्टा के होने वाले
नाट्योत्सव के बारे में जानकारी देना, साथ ही साथ नाट्योत्सव के लिए आर्थिक सहायता (चन्दा लेना)
लेना । इधर बजट दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है लेकिन सहायता देने वालों की संख्या में
उस अनुपात में इजाफा नहीं हुआ है, जिस अनुपात में खर्चे बढे हैं । चन्दा मांगने पर कहीं से तो
तुरंत मिल जाता है और कहीं ऐसा महसूस होता कि हम अपने व्यक्तिगत ज़रूरतों के लिए
भीख मांग रहे हों । कहीं-कहीं बुरी तरह दुत्कारे जाते और कई बार तो लोग हमारे
ग्रुप को आता देख हमारी नज़रों के सामने ही घर के अंदर चले जाते और अपने नौकर से
कहलवा भेजते कि मालिक नहीं है । पहले तो हमें बुरा लगता था, लेकिन आदत होते ही हम भी कई चक्कर
लगा उनसे चन्दा वसूल कर ही डालते, भले ही वह 10 रूपये होता और कभी-कभी तो उस दुकान या उस घर में फिर कभी
ना जाने की कसम खाते । लेकिन नाट्योत्सव तो करना ही है सो इन्हीं उपलब्ध संसाधनों
के सार-संभाल में ही लगे रहते । स्थितियाँ चाहे जैसी भी हों लेकिन हमारा उद्देश्य
होता नाट्योत्सव की सफलता । अपने अनुभव के आधार पर कह सकती हूँ कि कमोबेश यही स्थिति
हर नाट्यदल की होती है जो हजारों वर्ष से चली आ रही अभिव्यक्ति और लोकतन्त्र की इस
विधा को बचाने में अपने स्तर पर सक्रिय है । पूरे साल थोड़े-थोड़े संसाधन एकत्रित कर
हर बार का उत्सव किया जाता है ।
देश में भले ही संचार क्रांति आ गई हो और देश बहुत
सारे मामलों में आत्मनिर्भर हो गया हो लेकिन कला और संस्कृति के विकास के लिए कोई
सकारात्मक काम होता नहीं दिख रहा है । जो भी काम किए जा रहें हैं, वे चंद संस्कृतिकर्मियों द्वारा
अपनी जिम्मेदारी समझ कर ही किये जा रहे हैं । जबकि हमारा देश सांस्कृतिक रूप से
अत्यंत संपन्न है । लेकिन स्पष्ट सांस्कृतिक नीति के अभाव में इस सम्पन्नता का लाभ
जनता को नहीं मिल पा रहा है और तमाम बाज़ारवादी शक्तियां इसकी मौलिक विशेषताओं का
गला घोंटकर अपने मुनाफे के लिए उनका मनमाना उपयोग कर रही हैं । इसकी तसदीक में हम
कतिपय आइटम सांग्स को देख सकते है । शीला की जवानी, मुन्नी बदनाम हुई जैसे कई गाने है
। हमारे अनुभव बताते है कि यदि किसी भी संस्कृति का जनपक्षीय उपयोग नहीं किया जाए
तो लोग उसका अश्लील उपयोग करना शुरू कर देते हैं । जैसा कि वर्तमान में
लोकगीतों-लोकधुनों का उपयोग सिनेमा में उपयोगकर फिल्मकार लोकसंस्कृति को बचाने का
ढिंढोरा पीट रहें है और आप ही अपनी पीठ ठोंक रहे है । लेकिन हम जानते हैं कि वे
कौन सी और कैसी संस्कृति बचा रहे हैं । स्त्रियों के प्रति ओछी धारणाओं का विकास
लोकसंस्कृति का प्रतीक कत्तई नहीं हो सकता ।
अनेक विद्वानों और संस्कृतिशास्त्रियों का मानना है
कि अपनी संस्कृति से परिचित कराने और चेतना प्रसार के बीजमंत्र से प्रेरित हो कर
देश में जगह-जगह नाट्योत्सव का आयोजन वर्ष में एक बार किया जाना एक महत्वपूर्ण
कार्यभार है । नाट्योत्सव सचमुच एक ऐसा आयोजन जिसमें देश के तमाम छोटे-बड़े और
अलग-अलग क्षेत्रों, शहरों, गांवों के नाट्यदल और रंगमंडलियां
अनेक स्थानों पर जाकर नाट्य प्रदर्शन करती हैं । आयोजक अपनी सामर्थ्य के अनुसार एक
दिन से लेकर कई दिनों तक का नाट्य- मंचन की व्यवस्था करते है, जहाँ सुविधा होती है वहां
आडिटोरियम या हॉल में मंचन की व्यवस्था होती है और जहाँ ये सुविधाएं उपलब्ध नहीं
है वहां टेंट या कनात से सभागार बना मंचन की व्यवस्था की जाती है । निश्चय ही
नाट्योत्सव का आयोजन करना कोई मामूली और आसान काम नहीं है । दरअसल यह एक समाज को
संचालित करने जितना कठिन और चुनौतीपूर्ण है क्योंकि यह मुनाफे का धंधा नहीं है ।
इसलिए आर्थिक मसला सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण होता है । तैयारी से लेकर अंतिम दिन तक
के तमाम खर्चे होते हैं जिनकी व्यवस्था के बिना कोई भी आयोजन सफल नहीं हो सकता ।
पूरे खर्चे और व्यवस्था बेटी की शादी की तरह ही होते हैं । कहा जा सकता है कि यहां
भी शादी होती है - “मंचित नाटक
और दर्शकों की ।” यदि मंचित
नाटक दर्शकों को पसंद आया तो उसके कथानक, पात्रों और सन्देश को अपने मन में बाँध-समेट कर घर ले जाते
हैं और उनकी यादों से बरसों-बरस जुड़े रहते हैं, चर्चा करते हैं, लेकिन मंचित नाटक उन्हें पसंद न
आये तो बिना तलाकनामा लिखे तलाक देने में भी नहीं हिचकते । इस तरह के नाट्योत्सव
को किसी तरह की कोई आर्थिक-सहायता या फण्ड सरकार से नहीं मिलता । गाहे-बगाहे यदि
ये सहायता मिलती भी है तो बहुत दौड़-धूप के बाद जान-पहचान के माध्यम से । कुछ जगहों
पर तो नाट्योत्सव पूरी तरह से जनता से आर्थिक सहायता प्राप्त कर किये जाते है ।
दरवाज़े-दरवाज़े और पूरे बाजार में घूम-घूम कर चन्दा एकत्र कर उत्सवधर्मिता पूरी की
जाती है । हालांकि उत्सव के लिए यह मदद नाकाफी होती है । लेकिन रंगकर्मियों का
जुनून और जज़्बा किसी भी तरह इस काम को पूरा करने का बीड़ा उठा लेता है । कुछ महानगरों में सरकारी सहायता से 10-15 दिनों का नाट्योत्सव का आयोजन
बहुत ही विशाल और भव्य पैमाने पर किया जाता है और करोड़ों रूपए आयोजन में खर्च किये
जाते है । आर्थिक सहायता का विरोधाभास दूसरे आयोजकों और नाट्यदलों की ऊर्जा का
ह्रास करते हैं जो इस कला के लिए खतरनाक साबित हो सकता है ।
नाटक और दर्शक ना तो एक-दूसरे के पर्याय माने जा सकते
है न ही पूरक, बल्कि नाटक
और दर्शकों के बीच एक अनिवार्य सम्बन्ध होता है । अनिवार्यता की दृष्टि से तीन
अपरिहार्य तत्व हैं – 1. रंगस्थल 2. अभिनेता/अभिनेत्री 3. दर्शक । नाटक के
लिए रंगशाला का होना या न होना मायने नहीं रखता । यदि प्रकाश-संयोजन, संगीत-परिकल्पना, प्रॉपर्टी,वस्त्र-विन्यास न भी हो तो नाटक हो
सकता है लेकिन रंगस्थल, पात्र और दर्शक का होना आवश्यक है । संक्षेप में यह कहा जा
सकता है कि ऐसा स्थान जहाँ कुछ लोगों द्वारा, कुछ लोगों के लिए नाटक खेलना ही
ऊपर लिखे तीन तत्वों की अनिवार्यता को सिद्ध करते हैं ।
अंग्रेजी के प्रसिद्ध कथाकार,नाटककार समरसेट माम (1874-1965) के कथनानुसार “नाटक में दर्शक कम महत्वपूर्ण
अभिनेता नहीं होता और यदि वह अपना काम उचित रूप से नहीं करे तो नाटक खंड-खंड हो
जाएगा ।” अर्थात
दर्शक की प्रतिक्रिया और करतल ध्वनि ही नाटक की सफलता और सार्थकता को निश्चित करती
है । इसीलिए नाटक को भी दर्शकों की चिंता करना जरुरी है । दर्शकों की समझ, उनका सामाजिक परिवेश, भौगोलिक स्थिति पर भी विचार करना
जरुरी है । जहाँ महानगर के दर्शक प्रयोगवादी नाटक देख उसके अर्थों को पकड़ने की
क्षमता रखते है वहीं कसबे, गाँव, छोटे शहर के दर्शक सरल, सहज, हास्य नाटकों को देखना चाहते हैं
। सीधे-सीधे कहें तो नाटक दर्शकों तक
संप्रेषित होना चाहिए क्योंकि निर्देशक और कलाकारों का मूल उद्देश्य नाटक को दर्शकों
तक पहुंचाना होता है । उसमें मनोरंजन तत्व का होना अनिवार्य है । भारतेंदु और
ब्रेख्त ने दर्शकों का ध्यान आकर्षित करने और सामाजिक परिवर्तन के लिए मनोरंजन
तत्व को बहुत जरुरी माना है । सबसे बड़ी और जरुरी हस्ती दर्शक ही है । इसके बिना
नाटक का अस्तित्व बरकरार नहीं रह सकता । उन्हें ही समझ कर नाटक लिखे और मंचित किये
जाते हैं ।
नाटक करना अपने ही जीवन को फिर से जीना होता है और
ज़ाहिर है नाट्योत्सव का होना जीवन में उत्सव का होना दर्शाता है । यदि नाटक में
दर्शक-वर्ग शामिल हो जाते हैं तो यह
महा-उत्सव में तब्दील हो जाता है । नाट्योत्सव में दर्शकों को कई नाटक एक
साथ एक स्थान पर देखने को मिल जाते हैं । कई विषयों पर होने वाले नाटक में से कुछ
तो बार-बार दिखाए जाने वाले विषय होते हैं, कुछ एकदम नये और कुछ समसामयिक
विषयों पर आधारित होते हैं जिनसे वे परिचित होते हैं और फिर चर्चा कर उस विषय की
तह तक जाते उसका वास्तविक निहितार्थ निकालते हैं । नाट्योत्सव में प्रदर्शित
नाटकों से दर्शक उस स्थान के आचार-विचार, संस्कृति, बोली-भाषा रहन-सहन, लोक –गीतों, परम्पराओं से परिचित होते हैं और
इससे भारतीय रंगमंच का स्वरुप विकसित होता है । साथ ही दर्शक इसे एक आयोजन के तौर
पर देखते हैं तो उन्हें चर्चा करने में भी सहूलियत होती है ।
रायगढ के दर्शकों से बातचीत कर जब नाट्योत्सव के बारे
में उनके विचार जाने गए तो अधिकांश ने हास्य-व्यंग्य विषय पर नाटक देखने की इच्छा
जताई । कइयों ने बताया कि वे लोग वर्ष भर इस आयोजन का बेसब्री से इंतज़ार करते हैं
और उन दिनों शहर से बाहर नहीं जाते । शाम के कामों से जल्दी फारिग हो ऑडिटोरियम
में पहले पहुँच स्थान ले लेते हैं । कुछ दर्शक आर्थिक सहायता खुद पहुंचा जाते है
और कुछ उनसे चन्दा न लिए जाने की शिकायत भी करते हैं । कुछ लोंगों ने मौसम की
पूर्व जानकारी ले आयोजन करने की सलाह दी, जिससे वे मौसमी कष्ट उठाये बगैर नाटक देखने पहुँच सकें और
कभी-कभी रास्ते चलते जब दर्शकों से मुलाक़ात होती है तो हाल-चाल ना पूछ सीधे ये
सवाल करते हैं कि कब हो रहा है नाट्योत्सव ? और एक मजेदार बात, स्थानीय दर्शक यहां रायगढ़ में
नाटक को हमारी संस्था “इप्टा”का पर्याय
मान चुके हैं । वे अक्सर पूछते हैं- अरे भई! इप्टा कब हो रहा है ? आप लोग इप्टा कब करेंगे ? हम सब समझ जाते कि असल में वे नाटक
की बात कह रहे हैं । हम उनकी इस भावनाओं की कद्र करते और मन ही मन उसकी उत्सुकता
से खुश भी होते हैं ।
लेकिन इन सब सकारात्मकता के बाद भी आज जब ऑडिटोरियम
में आए हुए दर्शकों पर नज़र डालते हैं तो हमें नए दर्शकों की संख्या में कोई विशेष
वृद्धि नहीं दिखाई देती और नई पीढ़ी के 5-10% दर्शक ही वहां दिखाई देते हैं । जिन्हें फिल्मों में और
टीवी में काम करना है इसीलिए वे नाटक देखने आते हैं और ग्रुप के साथ जुड़ने का मंशा
रखते हैं । यहाँ भी बाजारवाद का प्रभाव साफ़ नज़र आता है । उन्हें इस बात से कोई
सरोकार नहीं कि बिना पढ़े और चर्चा के अपने वैचारिक स्तर को कैसे सुदृढ़ बनायेंगे ?
सचमुच यह बात एक चिंताजनक स्थिति की ओर संकेत करती है । मुट्ठी भर लोग इसे
बदलने की कवायद में लगे हुए है जो ऊंट के मुह में जीरे के बराबर है । जब तक नईपीढ़ी
में अंदर से बदलाव नहीं होगा यह काम थोडा कठिन ही साबित होगा ।
नाट्योत्सव केवल आर्थिक चुनौतियों का ही सामना नहीं
कर रहा बल्कि प्रचार-प्रसार की कमी ।
जिसमें हमारे संविधान के चौथे खंभे के द्वारा उपेक्षा भी शामिल है ।
बाजारवाद का प्रभाव, संसाधनों की
कमी, दर्शकों की अरुचि जैसी कई
समस्यायों से दो-चार हो रहा है । सरकारी सहायता के बगैर आयोजित होने वाले
नाट्योत्सव में बड़ी टीम और अधिक प्रोडक्शन चार्ज लेने वाली टीम को आयोजक अपनी सूची
से बाहर ही रखते हैं क्योंकि उतने पैसे में 4-5 दिनों का नाट्योत्सव ही संपन्न हो
जाता है । इसी तरह से नाटकों का प्रचार-प्रसार यदि सिनेमा और क्रिकेट जैसे ही कई
दिनों पहले से टीवी और अखबार के माध्यम से किया जाए तो निश्चित ही दर्शकों की
संख्या में इज़ाफा होगा । जैसा कि फिल्म की रिलीज का प्रचार एक पूरी रणनीति से किया
जाता है अथवा क्रिकेट शुरू होने के नजदीक आने वाले दिनों से पहले हर चैनल वाले और
अखबार वाले इतनी प्राथमिकता से इसे दिखाते, छापते और प्रचारित करते हैं कि देश
की अन्य सभी ख़बरें छोटी लगने लगती है । वैसे भी पुरुष क्रिकेट ने देश के अन्य
खेलों को दरकिनार कर दिया है ।
लोकल टीवी चैनल्स तक नाट्योत्सव की एकाध झलक दिखाकर
अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं । अखबारों में भी नाट्योत्सव को उचित स्थान
नहीं मिलता । कुछ पत्रकारों को छोड़ दें तो अधिकांश पत्रकार नाटक को देखकर समीक्षा
या आलोचना करने को तैयार नहीं होते हैं । अधिकतर बार आयोजक ही अखबार में स्थान
पाने की कोशिश में नाट्यप्रदर्शन से पहले नाटक के बारे में लिखकर दे देते है और
अखबार वाले छपने से पहले बिना पढ़े-समझे जहाँ-तहां से काट-छांट कर किसी कोने में
छाप देते है । जब हमारे यहाँ के बुद्धिजीवी पत्रकार वर्ग ही इसे महत्व नहीं देंगे
तो पाठकों और दर्शकों तक इसके महत्व को कैसे प्रचारित किया जाएगा ?
वर्तमान समय में बाजारवाद का चुम्बकीय प्रभाव हर
क्षेत्र में दृष्टिगोचर हो रहा है । आज बाज़ार अपने स्थान से चलकर हमारे घरों के
अंदर प्रवेश कर चुका है । इस बाजारवाद के प्रभाव से नाट्योत्सव और दर्शक भी अछूते
नहीं रहे हैं । अपने नाट्योत्सव को सफल बनाने और दर्शकों को आकर्षित करने के लिए
सिनेमा से जुड़े रंगमंच के किसी कलाकार को बुलाया जाता है । तब दर्शक किसी भी जुगाड़
से उस कलाकार को देखने जरुर पहुंचते हैं । आयोजक अपनी इस उपलब्धि पर गर्व महसूस
करता है । हाँ, नाट्यप्रेमी
दर्शकों को कुछ अच्छे नाटक देखने मिल जाते हैं पर आयोजक की इस प्रवृति से बाकी
दलों को नुकसान होता है और नाटकों का पक्का दर्शक-वर्ग भी तैयार नहीं हो पाता ।
कई स्थानों में दर्शक टिकट लेकर नाटक देखने आने को
तैयार रहते हैं और आते भी हैं लेकिन कई स्थानों में टिकट लेकर नाटक देखने की बात
को एक सिरे से खारिज कर फ्री पास की जुगत में लगे रहते हैं । कुछ साल पहले तक और
अब भी देश के कई स्थानों में नाटक दर्शकों के बीच नुक्कड़ शैली में पहुंचा था और
(कई जगहों में) अब भी पहुँच रहा है । इसमें दर्शकों को हॉल तक आने का कष्ट नहीं
करना पड़ता है । दर्शक अपने काम के बीच से 25-30 मिनट निकाल कर नाटक देख लेते ।
लेकिन जब से नाटक हॉल में पहुंचा है । दर्शकों की रूचि कम हुई है आज दर्शक घर में
टीवी के सामने बैठ अपने पसंद के कार्यक्रमों को देख मनोरंजन (या कहे समय काट रहा
है क्योंकि मनोरंजन मन को आनंद प्रदान करता है लेकिन टीवी के कायर्क्रम तनाव और
उतेजना दे रहे है खासकर रियलिटी शो) कर रहे है । इस मनोरंजन (खतरनाक) से समाज सोच
और विचार की किस दिशा में आगे बढ़ रहा है और किन संस्कारों से बच्चों को नवाज़ रहा
है ? यह चिंता का विषय है और इन बातों
को आँख मूंदकर हम नकार नहीं सकते ।
नाट्योत्सव आयोजित करने वाले चाहे जितनी समस्याओं से
जूझते रहें, हजारों
चुनौतियों उनके सामने मुंह बाए खड़ी रहें, चाहे आर्थिक मसला कभी हल ना हो पाए, चाहे संसाधनों की कमी से जूझना पड़े
। लेकिन जब तक दुनिया चलेगी । तब तक नाट्योत्सव आयोजित होते रहेंगे और हर बार एक
नया दर्शक वर्ग अपनी समझ के आधार पर उस आयोजन का अनिवार्य हिस्सा बनता रहेगा ।