रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.
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मंगलवार, 1 नवंबर 2011

एकजुटता का सपना देखना चाहता हूँ .


भारतभूषण तिवारी
सभी मनुष्य समाज अपने रोज़मर्रा के जीवन में 'दर्शनीय' होते हैं और विशेष अवसरों पर 'दृश्य' उत्पन्न करते हैं. सामाजिक संगठन के स्वरुप के तौर पर वे 'दर्शनीय' होते हैं और ऐसे 'दृश्य' उत्पन्न करते हैं, जैसा आप देखने आये हैं.



मशहूर ब्राजीलियन नाटककार और रंगकर्मी ऑगस्टो बोआल ने गत 27 मार्च को विश्व रंगमंच दिवस पर अपनी मातृभाषा पुर्तगाली में दिए गए संदेश की शुरुआत इन शब्दों से की थी. बोआल पिछले पचास सालों से रंगमंचीय अभिव्यक्ति के विविध स्वरूपों को आकार देने में रत रहे हैं. इन सारे स्वरूपों ने पॉलिटिक्स,प्रक्टिस और पोएटिक्स के मेल से एक सधी हुई और एकीकृत नाटकीय स्थापना खड़ी करने की कोशिश की है. रंगमंच को 'मंच' से उतारकर जनता के बीच ले जाने, उसे लोकप्रिय और पुनः प्रासंगिक बनाने में उनके योगदान को कोई नकार नहीं सकता.

रियो दे जनिरो की मज़दूर बस्तियों में पले-बढ़े बोआल ने अपने इर्द-गिर्द दमन और उत्पीड़न का साम्राज्य देखा. इन सबके बीच उन्होंने पंद्रह बरस की उम्र से नाटक लिखना शुरू किया जो शोषण के खिलाफ़ एक किशोर अभिव्यिक्त थी. पचास के दशक में बोआल रासायनिक इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने अमेरिका पहुँचे. वहाँ कोलंबिया यूनिवर्सिटी में केमिस्ट्री के साथ-साथ नाट्य-कला विभाग में भी दाखिला ले लिया. यहीं उन्होंने रूसी नाट्य-निर्देशक कोन्स्तन्तिन स्तानिस्लाव्स्की के यथार्थवादी सिद्धांतों का व्यावहारिक प्रयोग देखा और उस से प्रभावित हुए बिना न रह सके. 'पॉलिटिकल थिएटर' से यह उनका पहला परिचय था.

ब्राज़ील लौटकर वे साओ पाउलो की छोटी-सी संस्था अरेना थिएटर से जुड़े. यहाँ काम करते हुए वे आंदोलनात्मक-प्रचारात्मक (एजिट्प्रॉप) नाटकों को दूर-दराज के देहातों तक ले गए. इसी दौर में उन्होंने एक अनोखी नाट्य-विधा तैयार की, जिसे 'न्यूज़ पेपर थिएटर' कहा गया. इसमें बोआल और उनके साथी गाँवों, कारखानों, मोहल्लों में जाते और लोगों को अखबार में छपे मुद्दों पर बहस करने और उनका नाटकीकरण करने के लिए प्रोत्साहित करते.

एक बार ब्राजील के किसी गाँव में किसानों के बीच वे अपने साथियों के साथ ऐसा ही एजिट्प्रॉप नाटक कर रहे थे. उस नाटक के अंत में नायक कहता है, “ अपनी भूमि को बचाने के लिए हमें अपना खून बहाना पडेगा”. और किसानों के वेश में सारे अभिनेता बंदूकें लिए, गाते हुए यही बात दोहराते हैं. इस से अभिभूत होकर एक किसान उनके पास आया और कहने लगा चलो बंदूकें लेकर लड़ते हैं उन भूस्वामियों से जिन्होंने हमारी ज़मीनों पर कब्ज़ा कर रखा है. हमें खून बहाना है”. नाटक मंडली ने कहा कि ये बंदूकें असली नहीं हैं. किसान ने जवाब दिया कोई बात नहीं, बंदूकें हमारे पास काफी हैं, तुम लड़ाई में साथ चलो”. तो नाटक मंडली ने बताया कि हम सचमुच के किसान नहीं बल्कि कलाकार हैं. तो किसान बोला, “ सचमुच के कलाकार जब खून बहाने की बात करते हैं तो वे अपना नहीं बल्कि सचमुच के किसानों का का खून बहाने की बात करते हैं”. कट्टर पॉलिटिकल थिएटर की निरर्थकता बोआल के लिए उसी क्षण शफ्फाक़ हो गयी. चे ग्वेरा का कथन कि एकजुटता का अर्थ एक जैसे खतरे भी उठाना हैउनके रंग-सिद्धांत का ज़रूरी हस्सा बन गया.

उपदेशात्मक नाटकों से परे जाते हुए उन्होंने कई प्रयोग किये. रंगमंच को और ज़्यादा सहभागी बनाने के उनके शुरूआती प्रयासों में नाटक किसी निर्णायक मोड़ पर आकर रोक दिया जाता. अभिनेता दर्शकों से कहते कि नाटक यहाँ खत्म होता है क्योंकि हमें नहीं पता आगे कैसे बढ़ना है. 

दर्शकों से सुझाव लिए जाते, उन पर बहसे होतीं और सुझाए गए समाधानों से नाटक आगे बढ़ाया जाता. इसी तरह के एक नाटक के दौरान एक महिला के सुझाए हुए समाधान को अभिनेता समझ नहीं पा रहे थे. बहुत कोशिशों के बाद भी उनके अपेक्षित हाव-भाव न ला सकने से वह महिला इतनी नाराज़ हुई कि खुद मंच पर आकर समझाने लगी. बोआल के लिए यह 'दर्शक-अभिनेता' या 'स्पेक्ट-ऐक्टर' के जन्म का क्षण था.

'स्पेक्ट-ऐक्टर' की अवधारणा उनके बाद के प्रयोगों में प्रभावी तौर पर मौजूद रही. फोरम थिएटर, इन्विज़िबल थिएटर, इमेज थिएटर जैसे कई अभिनव नाट्य-प्रकार उन्होंने विकसित किये. कई सालों में विकसित किये गए इन नाट्य-प्रकारों के समुच्चय से बनी पद्धति को उन्होंने 'थिएटर ऑफ़ दि अप्रेस्ड' नाम दिया.


बर्तोल्त ब्रेष्ठ और ब्राजील के मार्क्सवादी शिक्षाशास्त्री पाउलो फ्रेरी के विचारों से गहरे प्रभावित इस नाट्य-पद्धति ने कालांतर में एक विश्वव्यापी थिएटर मूवमेंट का रूप ले लिया. 1974 में 'थिएटर ऑफ़ दि अपेस्ड' के नाम से ही प्रकाशित अपनी पहली सैद्धांतिक कृति में बोआल मुख्यधारा के रंगमंच को शासक-वर्ग द्वारा नियंत्रण बनाए रखने का माध्यम बताते हैं, जिसका उद्देश्य दशर्कों को भुलावे में रखना है. साथ ही वे यह भी दर्शाते हैं कि नाट्य कलाएँ किस तरह हथियार बन सकती हैं, दर्शक को अभिनेता और मज़लूम को इन्क़लाबी बना सकती हैं.

ब्राजील में सेना के सत्ता हथियाने के बाद बोआल ने अपने नाटकों और गीतों द्वारा इसका सख्त विरोध किया. इस निर्भीकता का खामियाज़ा भी उन्हें भुगतना पड़ा. सैनिक शासन ने उन्हें महीनों जेल में रखा और कई तरह से प्रताड़ित किया. इसके बाद काफी सालों तक अर्जेंटीना, पेरू, पुर्तगाल और फ्रांस में उन्होंने निर्वासित जीवन बिताया. 1986 में सैनिक शासन ख़त्म होने पर ही बोआल ब्राजील लौटे. वे हर जगह पर अपने नाट्य-सिद्धांतों, तरीकों को माँजते रहे, युवा अभिनेताओं, निर्दशकों को प्रशिक्षण देते रहे और जनता के बीच काम करते रहे.

बोआल द्वारा विकसित एक और नाट्य-प्रकार 'रेनबो ऑफ़ डिज़ायर' नाटकों की चिकित्सकीय क्षमता को उद्घाटित करता है. इसमें आंतरिक उत्पीड़न के स्वरूपों पर ध्यान देकर उसे दूर करने की पद्धतियां बताई गई हैं. नब्बे के दशक में बोआल रियो दे जनिरो की नगर पालिका परिषद के सदस्य भी रहे. जन-सहभागिता के नाट्य-तरीकों को यहाँ अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने नागरी कानूनों के निधार्रण के लिए इस्तेमाल किया और इसे 'लेजिस्लेटिव थिएटर' नाम दिया.

बोआल के यहाँ वह स्थिति, जिसमें किसी व्यक्ति पर ऐसा एकतरफा संवाद थोपा जाए जहाँ उसे पलट कर जवाब देने का मौका न मिले, उत्पीड़न है. उनका सारा उद्यम एक पायदान नीचे खड़े लोगों को अभिव्यक्ति के औज़ार मुहैया कराकर उन्हें शक्तिहीनता की स्थिति से बाहर निकालने का रहा है. कुंठा और हताशा को वे सृजनात्मक दखल और अंततः सामाजिक और नागरी दखल की दिशा में मोड़ते हैं. विश्व रंगमंच दिवस पर दिए गए संदेश के अंत में बोआल कहते हैं- हम सब अभिनेता हैं, नागरिक होने का अर्थ केवल समाज में रहना नहीं बल्कि उसे बदलना है.

अपने एक हालिया इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, " मेरा एक ही सपना है. वो यह कि मैं उम्र भर सपने देखता रहूँ. मेरा सिर्फ यही सपना है. मैं सपने देखते रहना चाहता हूँ. देख पाऊँ तो मैं पुरुषों और स्त्रियों के बीच, कालों और गोरों के बीच एकजटुता, देशों के बीच एकजटुता, और एक 'एथोस' तैयार करने की एकजटुता का सपना देखता हूँ."

अपनी मृत्यु से एक दिन पहले यानि मई दिवस पर मजदूरों के साथ एक सांध्य-प्रदर्शन में शरीक हुए ऑगस्टो बोआल के जीवन में यही एकजटुता या सॉलिडैरिटी आखिरी साँस तक देखी गई.


रविवार से साभार 

सोमवार, 31 अक्टूबर 2011

थियेटर से दुनिया को बदल डाला


- अश्विनी कुमार पंकज

दुनिया के रंगमंच पर कलाकार अपनी-अपनी भूमिका के अनुसार आते हैं और नेपथ्य में चले जाते हैं। 2 मई 2009 को विश्व के महानतम कलाकार और नाट्य निर्देशक ऑगस्टो बोल भी सदा-सदा के लिए नेपथ्य में चले गये। विश्व रंगमंच पर जब तक यह धरती रहेगी वे फिर कभी नहीं दिखेंगे, लेकिन उनके रंगमंचीय प्रयोग और ‘उत्पीड़ितों का रंगमंच’ का सिद्धांत हमेशा रंगमंच और इंसानी समाज को उनकी असाधारण भूमिका से उत्प्रेरित करता रहेगा। भारतेंदु हरिश्चंद्र, भिखारी ठाकुर, स्तांस्लॉवस्की, अंतोनी आर्तोड और ब्रर्तोल्त ब्रेख्त जैसे रंगकर्मियों ने रंगंमच की जिस जनपक्षीय भूमिका को सुदृढ़ और स्थापित किया, उसे पूरी दुनिया में एक संगठित सांस्कृतिक जनांदोलन बना देने का अद्भुत काम ऑगस्टो बोल ने ही किया। बोल के पहले रंगमंच को सिर्फ सामाजिक-राजनीतिक बदलाव के एक कारगर और कलात्मक औजार के रूप में देखा-समझा जा रहा था। लेकिन बोल ने ‘उत्पीड़ितों का रंगमंच’ (थियेटर ऑफ ऑप्रेस्ड) के सिद्धांत से रंगमंच की जनपक्षीय परंपरा को एक जबरदस्त छलांग दी। उन्होंने कहा, ‘यह दुनिया एक रंगमंच है और हम सब कलाकार। यहां दर्शक कोई नहीं है। सबको अपनी-अपनी भूमिका निभानी है क्योंकि हम जिस दुनिया में रहते हैं उसे रहने लायक बनाना और बदलना भी हमारा ही काम है।’

दुनिया एक रंगमंच है और जिंदगी नाटक। यह नई नहीं बल्कि एक आम धारणा है। लेकिन इस एक साधारण पंक्ति की गंभीरता, क्षमता और ताकत से हम अनजान हैं। हम अपरिचित हैं रंगमंच की उस असीमित संभावना और शक्ति से जो किसी भी इंसान को ‘सर्जक’ बनाता है। रंगमंच की तरह ही जीवन-समाज और राष्ट्र में कुछ नया रचने की खोजी भूमिका देता है। इसीलिए पश्चिमी सभ्यता में रंगमंच को ‘व्यस्कों का विद्यालय’ कहा गया है, तो भारतीय परंपरा में इसे ‘पांचवां वेद (नाट्यशास्त्र)’ की संज्ञा दी गयी है। बावजूद इसके हम रंगमंच की क्षमता या यूं कहें कि अपनी क्षमता को समझ पाने में अक्षम हैं। जबकि बीसवीं सदी की शुरुआत से लेकर अब तक इस इंसानी अक्षमता के खिलाफ रंगमंच लगातार जूझ रहा है। बीसवीं सदी में पूरी दुनिया को स्तांस्लॉवस्की, इरविन पिस्केटर, वसेवोलोद मीयरहोल्ड, अंतोनी आर्तोड और ब्रर्तोल्त ब्रेख्त ने अपने रंगमंचीय सिंद्धांतों और प्रयोगों से हमारी इस अक्षमता को दूर करने की कोशिश की। सातवें-आठवें दशक में यह बीड़ा जॉन लिटिलवुड, जॉर्ल वेल्स, दारिया फो, हेनरी मूलर, टोनी कुशनर और ग्रोटोवस्की जैसे अनेक रंगकर्मियों ने उठाया। भारत में मुख्य रूप से रंगमंच को जनपक्षीय बनाने का काम किया दीनबंधु मित्रा, भारतेंदु हरिश्चंद्र, भिखारी ठाकुर, विजय तेंडुलकर, उत्पल दत्त, गिरिश कर्नाड और बादल सरकार ने।

जिस तरह ब्रेख्त ने इरविन पिस्केटर और वसेवोलोद मीयरहोल्ड के रंगमंचीय प्रयोगों को विकसित करते हुए उसे एक नई दिशा दी। ऑगस्टो बोल ने उस दिशा को अपनी रंगधर्मिता से निर्णायक अंजाम तक पहुंचा दिया। 1970 के दशक में उन्होंने अपने नाट्यप्रयोगों से यह सिद्ध कर दिया कि रंगमंच दुनिया को बदल सकता है क्योंकि दुनिया रंगमंच है। अपनी नाट्यप्रस्तुतियों के दौरान बोल ने दर्शकों की भूमिका कलाकार में बदल डाली। यह एक निष्क्रिय दर्शक को सक्रिय बनाने का अद्भुत रंगप्रयोग था जो बीसवीं सदी के अंत तक पूरी दुनिया में एक व्यापक सांस्कृतिक जनांदोलन के रूप में फैल गया। बोल इसे ‘उत्पीड़ितों का रंगमंच’ कहते हैं और उनका विश्वास है कि ‘रंगमंच ही उत्पीड़ितों की पहली भाषा’ है। बोल के पहले दर्शकों की सक्रियता के इस महत्वपूर्ण पक्ष पर इतने ठोस ढंग से किसी ने विचार नहीं किया था। थियेटर ऑफ ऑप्रेस्ड ने ही दर्शकों को हॉल से उठकर मंच पर अपनी सोच को साकार करने का अवसर प्रदान किया। यह एक क्रांतिकारी रंगप्रयोग था जिसने कलाकारों के साथ-साथ दर्शकों की भी भूमिका निर्णायक तौर पर बदल डाली।
रंगवार्ता से साभार 

रविवार, 9 अक्टूबर 2011

रंगमंच जीवन का छुपा हुआ सत्य है : आगस्टो बूअल

आगस्टो बूअल

विश्व रंगमंच दिवस संदेश 27 मार्च २००९ - ऑगस्टो बोल (थियेटर ऑफ ऑप्रेस्ड के जनक, ब्राजील)

सभी मानव समाज अपने दैनिक जीवन में ‘विशिष्ट और अद्भुत’ (शानदार) होते हैं और विशेष क्षणों में कुछ न कुछ ‘अनोखा’ करते हैं। सामाजिक संगठन के रूप में भी वह अद्भुत होता है और विशिष्ट कार्यों को अंजाम देता है जैसे कि कोई भी एक व्यक्ति। हम सब इसे अच्छी तरह से जानते हैं।
यहाँ तक कि जो इसे नहीं जानते हैं, वे भी नाटकीय तरीके से मानवीय संबंधों को संरचित कर रहे होते हैं। स्थान का इस्तेमाल, शारीरिक भाव-भंगिमाएं, शब्दों का चयन और स्वरों की अदायगी, विचारों और भावनाओं का टकराव, वह सब कुछ जो हम रंगमंच पर प्रदर्शित करते हैं, अपने जीवन में कर रहे होते हैं। दरअसल, यह पूरी दुनिया एक रंगमंच हैं!
शादियां और मृत्यु संस्कार अपने आप में विशिष्ट होते हैं, लेकिन इसके साथ ही हमारी रोजाना की जिंदगी में होने वाले दूसरे अनुष्ठान भी उतने ही विशिष्ट होते हैं। जिसके बारे में हम सचेत नहीं होते हैं। जीवन के खास उत्सव और माहौल, विशेष परिस्थितियां भी। यहां तक कि सुबह की चाय, एक-दूसरे को किया जाने वाला अभिवादन, डरा हुआ प्यार और कुछ करने का तूफानी जुनून, या फिर कोई गंभीर राजनैतिक बैठक - सभी कुछ नाटक है।
दैनिक जीवन में घटनेवाली विशिष्ट घटनाओं के प्रति लोगों को संवेदनशील बनाना ही कला का मुख्य कार्य है। जिसे एक कलाकार अपनी अपेक्षाओं के साथ रंगमंच या कहीं भी किसी भी मंच पर प्रदर्शित करता है। इस अर्थ में हम सभी कलाकार हैं। नाटक करते हुए हम स्पष्टता से उन चीजों को देख पाते हैं जो हम आम तौर पर देखते हुए भी नहीं देख पाते हैं। वह सभी कुछ जो हमसे संबंधित होता है, पर अनदेखा रहता है। नाटक के द्वारा हम रोजाना की जिंदगी के उसी अनदेखे को रंगमंच पर भरीपूरी रोशनी में उजागर करते हैं।
पिछले सितंबर में एक नाटकीय घटना ने हम सभी को झकझोर दिया। हम हैरान रह गये। हमने यह मान लिया था कि इस दुनिया में मौजूद युद्ध, नरसंहार, हत्या, उत्पीड़न और जंगलराज से दूर हम एक सुरक्षित दुनिया में जी रहे हैं। हम सभी सुरक्षित हैं अपने उन पैसों के साथ जिन्हें हमने भरोसेमंद बैंकों में जमा कर रखा है। लेकिन एक दिन शेयर बाजार में उन पैसों को सम्हालने वाले ईमानदार व्यापारियों ने हमें यह कह कर असुरक्षित कर दिया कि उन पैसों का अस्तित्व ही नहीं है। पैसा है भी और नहीं भी। दिलचस्प बात यह है कि इस फर्जी सिद्धांत को उन अर्थशास्त्रियों ने विकसित किया था जो कहीं से भी फर्जी नहीं थे, परंतु न ही विश्वसनीय और न ही सम्मानित। यह एक ऐसा बुरा नाटक था जिसमें कुछ लोग तो खूब जीते लेकिन अधिकांश लोगों को अपना सबकुछ गंवा देना पड़ा। अमीर देशों के कुछ राजनीतिज्ञों ने एक गुप्त बैठक कर इसका जादूई समाधान निकाला। और हम, उनके इस फैसले का शिकार हुए। अभी भी हो रहे हैं, अपनी तमाम अपेक्षाओं के साथ, हॉल की अंतिम पंक्ति की सीट पर बैठे किसी दर्शक की तरह।
बीस साल पहले मैंने रियो डी जेनेरो में ‘रेसिन्स फेद्रे’ नामक नाटक किया था। इसकी मंच सज्जा बहुत कमजोर थी। कुछ बांस थे और उसके आसपास जमीन पर गाय की खाल पड़ी हुई थी। प्रत्येक प्रस्तुति से पहले, मैं अपने अभिनेताओं को कहा करता था, हमनें जो सृजित किया है, वह दिन ब दिन खत्म हो रहा है। जिस दिन तुम इस बांस को लांघ कर आगे निकल जाओगे तुम्हें झूठ बोलने का कोई अधिकार नहीं होगा। क्योंकि रंगमंच एक छुपा हुआ सत्य है।
जब हम दिखावे से परे अपनी इस दुनिया पर नजर डालते हैं, तो सभी समाजों, आदिवासी समुदायों, जातियों और सामाजिक वर्गों में उत्पीड़न करने वालों और उनसे उत्पीड़ित होने वाले लोग दिखाई देते हैं। हम एक अन्यायपूर्ण और क्रूर दुनिया को देखते हैं। इसीलिए, हमें एक नई दुनिया का निर्माण करना है। और हम सब जानते हैं कि यह संभव है। लेकिन इस नई दुनिया को हमें स्वयं ही रचना होगा। अपने अभिनय से एक कलाकार की तरह। रंगमंच पर भी और अपने जीवन में भी।
यह विशिष्ट और अद्भुत अभिनय तभी शुरू होगा जब आप इसमें हिस्सा लेंगे और घर लौटने के बाद अपने दोस्तों के साथ अपना नाटक खुद रचेंगे और उसे देखेंगे। तभी आपको मालूम होगा कि अभी तक वह क्या कुछ था जो अनदेखा था। जिसे आप नहीं देख पाते थे। जो संभव है। रंगमंच सिर्फ एक गतिविधि नहीं है, यह जीवन को जीने का एक तरीका है।
हम सभी कलाकार हैं: एक नागरिक के रूप में हमें सिर्फ इस समाज में रहना ही नहीं है, बल्कि इसे बदलना भी हमारा ही काम है।
(अंग्रेजी से अनुवाद: अश्विनी कुमार पंकज)