मोहनदास फिल्म का पोस्टर |
हिंदी के कथा संसार में सघर्षशील आमजन की कहानियां संख्या की दृष्टि से भले ही कम हैं पर वे हमारे समाज के सच के बड़े हिस्से पर रोशनी डालती हैं। आज के दौर में संघर्षशीलता और आमजन के मायने बहुत हद तक बदल गए हैं। बाज़ार और मीडिया की जुगलबंदी ने झूठ और बेशर्मी का एक ऐसा मायाजाल रचा है जिसमें हर शब्द का आशय प्रश्नांकित हो गया है। एक विराट छद्म ने हमारी सामूहिक चेतना पर कब्जा जमाना शुरू कर दिया है और आज हम आमजन का मतलब उस वर्ग से लगाते हैं जो या तो बाज़ार में उपलब्ध बेशकीमती उपभोक्ता वस्तुओं से अपना घर भर रहा है या उसके लिए लालायित है। वस्तु-संग्रह की उद्दाम लालसा से उसके द्वारा किए जा रहे उचित अनुचित क्रिया-कलापों को ही संघर्ष के रूप में प्रचारित करने की प्रवृत्ति इधर काफी तेज हुई है। इस प्रक्रिया में जो वास्तविक आमजन हैं वे दृश्य से लगातार ओझल होते गए हैं और उनकी जगह उनके विलोम ने ले ली है। हमारे कथा साहित्य का अधिकांश प्रायः मध्यवर्गीय शहरी जीवन, इस जीवन की कुंठाओं, सेक्स-प्रसंगों, अहं के टकराव से टूटते-बिखरते परिवारों, भूमंडलीकृत परिवेश में अपनी पहचान तलाशते व्यक्तियों और विचाराधारात्मक दबावों में गढ़ी गई कहानियों से ऊभ-चूभ हो रहा है। इन कहानियों की व्याख्या आसान है और उस व्याख्या से सहमत होने वालों की बहुतायत भी है।
जो कहानियां रोटी की जद्दोजहद से आकार लेती हैं उनमें बहुत आकर्षण नहीं होता। पेट की भूख प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त नहीं की जा सकती और न ही इससे जुड़े संघर्ष में इशारों की भाषा काम आती है। इन कहानियों के भीतर जो भूख बिलबिलाती है वह समकालीन साहित्य के रंग में भंग डालती है और संस्कारी पाठकों को बोर करती है, इसलिए अक्सर उन पर चुप्पी साध ली जाती है। आमजन का संघर्ष चूंकि वैविध्यपूर्ण, अपरिचित रास्तों पर चलने वाला और अमूनन अप्रत्याशित होता है इसलिए कहानीकार के लिए कठिन चुनौती पेश करता है। उदय प्रकाश इस चुनौती को आगे बढ़कर स्वीकार करने वाले कथाकारों में अपनी विशिष्ट पहचान रखते हैं और ‘मोहनदास’ जैसी अपनी कहानियों में उन्होंने हमारी सामूहिक चेतना पर व्याप्त इसी छद्म को काटने और हमारी धुंधलाती समझ को लीक पर लाने का प्रयास किया है। 2010 के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित उनकी इसी महत्वपूर्ण कहानी पर आधारित नाटक ‘मोहनदास’ का मंचन विगत 11 और 12 फरवरी को प्रख्यात रंगकर्मी और निर्देशक राजिन्दर नाथ के निर्देशन में श्रीराम सेन्टर रंगमंडल के कलाकारों द्वारा किया गया।
नाटक का एक दृश्य |
संवेदनात्मक धरातल पर आमजन के संकट को मुखरित करने वाली कहानियों मंे एक खास मुकाम हासिल करने के बावजूद ‘मोहनदास’ नाटक इस जनसमुदाय के संकट के बहुआयामों को परिधि के बाहर ही रखता है और यहां पर आकर वह खुद भी संकटग्रस्त दिखाई पड़ने लगता है। प्रश्न उठता है कि क्या यह संकट गरीबी और बेरोजगारी तक सीमित है या उसका विस्तार उपभोक्तावाद, सांप्रदायिकता, आतंकवाद और वैश्वीकरण तक है? नाटक में ‘मोहनदास’ की विडंबना कुलीन तंत्र की आस्वादपरकता से आक्रांत होती प्रतीत होती है और एक ‘ग्लोबल’ स्वीकृति की दावेदारी प्रस्तुत करती है। ‘मोहनदास’ में संवेदनाओं का घटाटोप जितना है उसके बरक्स जीवंत सामाजिक सच्चाइयां क्षेपक की तरह सामने आती हैं। निर्देशक ने ‘मोहनदास’ की त्रासदी को उसके जीवन संग्राम से उद्घाटित करने के बजाए एक शाब्दिक विन्यास रचा है जिसमें उलझकर दारुण और त्रासद जीवन स्थितियां विलक्षण और अद्वितीय तो दिखती हैं पर उनके अंतर्विरोध हमारे दृष्टिपथ से गायब हो जाते हैं। ‘मोहनदास’ जैसे दलित की त्रासद कथा में सामाजिक यथार्थ का इस प्रकार अनुपस्थित होना संभवतः यथार्थ के विकृतिकरण की उसी प्रवृत्ति का परिचायक है जो समस्याओं को एक रूपवादी-कलावादी नजरिए से देखती है और अभिजन रूचियों का पोषण करने में ही अपनी सार्थकता तलाश करती है। नाटक में मोहनदास के चरित्र में समीप सिंह ने मानवीय निश्छलता का समर्थ संधान किया है और उदय प्रकाश के चरित्र को अभिनीत करने वाले अभिनेता श्रीकांत वर्मा काफी सहज और समकालीन लगते हैं। अन्य कलाकारों में मुकेश भारती, शोभा शर्मा, सुनील मैसी और एस.एम. शरीफ प्रभावशाली लगे।
आज हिंदी का रंगमंच अगर आमजन से दूर हुआ है तो वह किसी भ्रम के कारण नहीं बल्कि अपनी समझदारी के कारण हुआ है। यह वही समझदारी है जिसका प्रदर्शन तथाकथित तेजी से विकास कर रहा मध्यवर्ग आए दिन करता ही रहता है। सुरक्षा और यातना की सीमारेखा पर धूनी रमाए हुए हम जीवन में भले ही डिक्लास नहीं होना चाहते पर अपनी अभिव्यक्तियों में अवश्य डिक्लास होते हुए दीखना चाहते हैं। इसलिए जब हम आमजन के संघर्ष की बात करते हैं तो वहां कोई क्रांतिकारी संघर्ष नहीं होता। इसके पीछे शायद यह भय काम करता है कि यदि हमने समाज के हाशिये पर पड़े और विश्व पूंजीवाद के हाथों तबाह लोगों और वर्गों के पक्ष में बोलना शुरू किया तो पूंजीवादी सांस्कृतिक बाजार हमें हाशिये पर फेंक देगा।
इस नाट्य प्रस्तुति पर अमितेश कुमार की समीक्षा भी यहाँ पढ़ी जा सकती है . समीक्षा पर क्लीक करें.
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