रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

रविवार, 14 अक्तूबर 2012

रंगमंच के नए रंग : अमितेश कुमार


दॄश्यएक
मंच पर जोकरों का एक समूह अपने एक साथी के आने का इंतज़ार कर रहा हैसाथी जोकर आगमन के साथ ही अपने आगमन में विलंब का कारण दर्शकों को बताता हैजोकरों का वह समूह शेक्सपीयर के नाटक हेमलेट के मंचन की योजना बनाते हैं और अभ्यास शुरु होता है.मंचन के दौरान नाटक की जो व्याख्या वे जोकर करते हैं वह एकदम अलग तो हैं ही जोकर होने के नाते गड़बड़ियां भी मंच पर घटित होती हैंपूरी प्रस्तुति के दौरान अभिनेता दर्शकों पर टिप्पणी कर के प्रस्तुति को जीवंत बनाये रखते हैं.[1]
दृश्यदो
दर्शक एक खुले मंच के इर्द गिर्द इकट्ठा हैंवहां पर बुंदेलखंड का राई नृत्य हो रहा हैउसकी समाप्ति के बाद दर्शकों को दूसरे मंच के पास बुलाया जाता है वहां पद्मावती नौटंकी का एक दृश्य संपन्न होता हैफ़िर सभी दर्शक बहुमुख में प्रवेश कर जाते हैंबहुमुख एक ऐसा सभागार हैं जहां दर्शक और अभिनेता लगभग एक ही धरातल पर मौजुद होते हैं वहां नाटक का मुख्य हिस्सा संपन्न होता हैएक कोने में एक पात्र दूसरे को कहानी सुना रहा हैबीच में दृश्य चल रहें हैं.[2]
दृश्य – तीन
कमानी सभागार में मंच के पीछे एक प्लेटफ़ार्म बनाया गया है जिसपे झोपड़ी का दृश्य़ निर्मित किया गया हैउसके आगे तमाशे का एक तंबु बनाया गया हैमंच के इस झोपड़ी वाले हिस्से में सखाराम बाईंडर’ का दृश्य चलता हैआगे वाले हिस्से में सखाराम और अन्य नाटकों के बहाने नाटकों के सेंसर और प्रतिबंध की ऐतिहासिक पड़ताल और व्याख्या अभिनेता करते हैंतंबु कभी कभी पर्दे में भी बदल जाता है जिस पर बीच बीच में वीडियो प्रक्षेपित किया जाता है.[3]
यह कुछ उदाहरण हाल के चर्चित नाटकों के हैंउदाहरण और भी हो सकते हैंये उदाहरण संकेत है कि रंगमंच कैसे अपना स्वरूप बदल रहा हैमसलन पहले उदाहरण में आधार शेक्सपीयर का नाटक हेमलेट’ है पर वह बस आधार हैप्रस्तुति इस नाटक से उड़ान भरती है और अपने मिज़ाज़ में अलग ही हो जाती हैये एक स्थिर आलेख की निर्देशक और अभिनेता की अलग व्याख्या हैया युं कहें कि नाटक को उसके अर्थ से निकाल कर उसमें नया अर्थ भरना हैकुछ ऐसा ही प्रयोग शेक्सपीयर के ही एक अन्य नाटक ओथैलो के साथ रायस्टन एबेल ने किया था ओथैलो इन ब्लैक एंड व्हाईट’ के नाम से.
 अन्य दोनों प्रस्तुतियों में नाट्यालेख तैयार किया गया है. ‘रंगधूलि’ के नाट्यालेख को आशुअभिनय और रीसर्च के सहारे त्रिपुरारी शर्मा ने स्वंय तैयार किया हैऔर इसे विकसित(Devised) नाटक कहा है.  ‘सेक्स,मोरैलिटी और सेंसरशिप’ को  शांता गोखले और इरावती कार्निक ने लिखा है.
 हिन्दी रंगमंच वर्षों पाठ्य नाटक और मंचीय नाटक के द्वंद्व मे उलझा रहाइस उलझन के परिणाम स्वरूप विदेशी और अन्य भारतीय भाषाओं का हिन्दी में मंचन हुआ और साथ ही कुछ अच्छे नाटक भी लिखे गये जो रंगमंच पर वर्षों से अभिनीत हो रहे हैंतथाकथित नाटकों की कमी की पुर्ति के लिये या रंगमंच के विस्तार के उद्देश्य से धीरे धीरे कहानी,उपन्यासकविता इत्यादि का मंचन होने लगाकहानी का रंगमंच नामक एक नयी विधा ने रंगमंच पर अपनी सशक्त उपस्थिति दिखाईइसका विस्तार आज भी हो रहा है और कथेतर पुस्तकों पर भी प्रस्तुति तैयार हो रही हैकीर्ति जैन ने उर्वशी बुटालिया के किताब  ‘द अदर साईड आफ़ साइलेंस’ के आधार पर ‘और कितने टुकड़े’ जैसी सफ़ल प्रस्तुति कीखैर,आशय यह है कि रंगमंच  साहित्य की सर्वाधिक  गतिशील विधा हैइसके फ़ार्म में और आधार सामग्री में निरंतर बदलाव होता रहा है
हिन्दी में एक बड़ा अकादमिक समुदाय इस बात का रोना रो रहा है कि हिन्दी में नाटक नहीं लिखे जा रहें है या हिन्दी के नाटक नहीं खेले जा रहें हैं या हिन्दी रंगमंच में दर्शक कहां हैं ?आदि आदिइन सबसे बेखबर या बाखबर होकर हिन्दी रंगमंच की धारा प्रवाहित हो रही है.सफ़ल या असफ़ल प्रयोग निरंतर हो रहें हैं और दर्शक भी बढ़ रहा हैजो अपने  हिसाब से नाटको को स्वीकृत और खारिज़ कर रहा हैभारत रंग महोत्सव में हिन्दी के नाटकों  के टिकट सबसे पहले बिकते हैं . अभी हाल ही में रानवि रंगमंडल की प्रस्तुतियों बेगम का तकिया’ और जात ही पूछो साधु की’ देखने के लिये  दर्शक भारी संख्या में उमड़ेमेरा स्वंय का एक अनुभव भोपाल का हैजहां ‘हबीब उत्सव’ के दौरान शहर से खासे दूर श्यामला हिल्स पर स्थित मानव संग्रहालय के प्रेक्षागृह में हर प्रस्तुति के दौरान दर्शकों की एक बड़ी संख्या को बाहर लगे प्रोजेक्टर पर नाटक देखकर संतोष करना पड़ापटना के मित्र बताते हैं कि भीषण गर्मी और उमस के बावजुद कालिदास रंगालय में दर्शक अच्छी संख्या में मौजुद होते हैंऔर रंगकर्मियों को रंगालय की बुकिंग कराने के लिये महीनों पहले अर्जी देनी पड़ती है.
खैररंगमंच पर कैसी प्रस्तुतियां हो रही हैं इसका अवलोकन करने पर यह पता लगता है कि एक शिफ़्ट तो आ ही चुका है . अब निर्देशक परंपरागत तरिके से किसी नाटक का मंचन करके संतुष्ट नहीं हैंवह अब प्रस्तुति के रूप में अपनी कृति रचने में अधिक दिलचस्पी दिखा रहें हैंअपनी कृति रचने में चूंकि आलेख को अपने हिसाब से बदलना पड़ता है अतः अब निर्देशकों की रूचि आलेख लिखवाने में बढ़ रही हैये उस किचकिच से निज़ात पाने के लिये भी है जो नाटककार और निर्देशक के बीच में होती रही हैवैसे अब भी राजेन्द्रनाथ जैसे निर्देशक है जो नाटक को ही प्रस्तुत करते हैदरअसल आलेख लिखवाने का जो चलन है वह रंगमंच पर निर्देशक के प्रभुत्त्व में वृद्धि का संकेत हैअगर नाटककार उसे अपने नाट्यालेख में बदलाव की छूट नहीं देगा तो वह आलेख स्वंय लिख लेगा या लिखवायेगाइस नाट्यालेख पर अधिकार किसका होगा यह लेखक और निर्देशक के आपसी तालमेल से तय होता है.कभी कभी यह विवाद भी होता हैनिर्देशक आलेख  इसलिये लिखता है या लिखवाता है जब उसे लगता है कि वह निजी तौर पर कुछ अभिव्यक्त करना चाहता हैत्रिपुरारी शर्मा जो कि ख्यात  एवं समर्थ निर्देशक है इसे ‘पर्सनल स्टेटमेंट’ कहती हैं.[4]  इस पर्सनल स्टेटमेंट’ को व्यक्त करने के लिये निर्देशक पाता है कि कोई ऐसा नाटक नहीं है जिसकी प्रस्तुति कर वह अपनी बात रख सकता हैइसलिये वह नाटक लिखवाता हैजैसे रामगोपाल बजाज ने कोसी बाढ़ की विभीषिका को सामने रखने के लिये रामेश्वर प्रेम से नाटक ‘जल डमरू बाजेलिखवाया जो उनकी कहानी संग्या पुत्र’ का विस्तार थीइसका मंचन रानावि में तृतीय वर्ष के छात्रों के द्वारा किया गया.  स्वंय त्रिपुरारी शर्मा ने व्यापक शोध करके काठ गाड़ी’, ‘पोशाक’, ‘शिफ़ा’, ‘रूप-अरूप’ जैसी प्रस्तुतियां की है जिसका आलेख उन्होंने स्वंय लिखा है.इन आलेखों में ऐसी कहानियां मंच पर आयी हैं जिन पर अभी तक नाटककार ध्यान नहीं देते थे या निर्देशकों या अभिनेताओं को लगा कि इन विषयों को भी रंगमंच पर आना चाहिये.उपर बताया ही जा चुका है कि सेंसर और नैतिकता जैसे ज्वलंत मसले पर सुनील शानबाग ने सेक्स मोरैलिटी और सेंसरशिप’ जैसी समर्थ प्रस्तुति की.
महिला निर्देशकों में यह प्रवृति अधिक दिखती है खासकर नब्बे के दशक के बाद सेइस दौरान रंगमंच पर अनुराधा कपुरत्रिपुरारी शर्मामाया रावअनामिका हक्सरअमाल अल्लानानीलम मान सिंह चौधरीकीर्ति जैन इत्यादि ने उल्लेखनीय काम किया है.खासकर जेंडर का मसला जो इनकी प्रस्तुतियों में देखने को मिलता है अन्यत्र दुर्लभ हैऔर ऐसी प्रस्तुतियों के लिये फ़ार्म में बदलाव भी करना पड़ाजैसा कि अनुराधा कपुर लिखती हैं, ‘ महिला निर्देशकों ने जेंडर के जिन प्रश्नों को मंच पर लाया उन्हें आधुनिक प्रदर्शनों में अब तक संबोधित ही नहीं किया गया था.इस प्रकार के काम से दो बातें सामने आयीं ; इसने अपने विषय पर इस तरह  से विचार किया जैसे कि इन अनुभवों का अधिकांश हिस्सा अब तक अदृश्य रहा हो और तब इन अनुभवों को  ऐसे प्रस्तुत किया गया जिसने प्रचलित प्रदर्शन आख्यान को विस्थापित कर दिया[5].
ज़ाहिर है कि जेंडर को उभारने के लिये इन्होंने उपलब्ध नाट्यालेखों से संतुष्ट होने के बजाय नाट्यालेख तैयार करने में अधिक रूचि दिखायीइस क्रम में अनुराधा कपुर ने सुंदरी एन एक्टर प्रिपेयर्स’, ‘उमराव जान’, ‘गोरा’ इत्यादि जैसी प्रस्तुतियां की जिनका आलेख गीतांजली श्री(कथाकारने लिखा था[6]इसी तरह अमाल अल्लाना ने नटी विनोदिनी’ और नीलाभ द्वारा हिम्मतमाई’ के नाम से अनुवादित ब्रेख्त के नाटक मदर करेज’ की प्रस्तुति की थीइस प्रस्तुति में जेंडर को उभारने के लिये एक प्रयोग यह किया गया था कि मदर करेज की केंद्रीय भूमिका मनोहर सिंह ने की थीआगे चलकर सतीश आलेकर के नाटकबेगम बर्वे’  जिसे अमाल अल्लाना ने ही निर्देशित किया था,  में भी मनोहर सिंह ने स्त्री पात्र की भुमिका निभाई थीइस तरह का प्रयोग हबीब तनवीर जिस लाहौर नई देख्या’ में कर चुके थे जिसमें माई की भूमिका को एक पुरुष पात्र ने निभाया थागौरतलब है कि रंगमंच पर जब स्त्रियां नहीं आई थी पुरूष ही स्त्री पात्र की भूमिका निभाते थेजयशंकर सुन्दरी और बालगंधर्व जैसे अभिनेता अपने स्त्री चरित्रों के लिये विख्यात रहें हैअब नब्बे के दशक में पुरुष पात्र स्त्री की भुमिका निभा रहे हैंइससे जेंडरीकरण की वह प्रक्रिया जो सामाजिक पाठ का अंग है और जो शरीर पर घटित होती है की तीक्ष्ण प्रस्तुति संभव हुइ . ‘सुंदरी-एन एक्टर प्रिपेयर’ में अनुराधा सुंदरी के मुख्य चरित्र को तीन भाग में बांट देती हैंये तीन शरीर हैंतीन उपस्थिति हैतीन यौनिकताएं हैं जो सुंदरी के अभिनय जीवन को बचपनयुवावस्था और मध्यवय को अभिव्यक्त करती हैं.[7] इस तरह से प्रस्तुति का विखंडन हो जाता है और मंच पर तीन वय की अवस्थायें और उनके बीच की अंतरक्रिया घटीत होते चलती हैत्रिपुरारी शर्मा अपने नाटक रूप-अरूप’ में जेंडर को एक नया आयाम देती हैंइस नाटक में वे उस प्रक्रिया से दर्शकों को परिचित कराती हैं जिसमें स्त्री पुरूष को मंच से अपदस्थ कर रही है.अब मंच पर यथार्थवाद आ रहा है जिसमें स्त्री ही स्त्री की भूमिका का निर्वाह करेगीअपने स्त्री रूप के मोह में आसक्त पुरूष को इस सत्य को स्वीकारने में क्या दिक्कत होती है और जिस द्वंद्व से वह गुजरता है इसकी तीव्र अभिव्यक्ति प्रस्तुति में हुई हैइस प्रकिया के सहारे स्त्री पुरूष संबंधसमाज में स्त्री की स्थितियौनिकता  इत्यादि कई परतें खुलती चली जाती हैं.
 इस प्रकार तैयार आलेख कोई एक व्यक्ति भी लिख लेता है या यह समूह लेखन भी हो सकता है जिसे निर्देशक या लेखक आकार में ढालता हैअनुराधा कपुर ने जो प्रस्तुतियां की उनका आधार उन्होंने उपन्यासों से लिया जिसे अपने हिसाब से उन्होंने आलेख में रुपांतरित करवायात्रिपुरारि शर्मा ने आलेख के लिये व्यापक शोध कियाफ़िर इस शोध के निष्कर्षों को उन्होंने अभिनेता के सामने रखाअभिनेता आशुअभिनय (Improvisation) के सहारे आलेख रचते हैजिसे बाद में तराश लिया जाता हैयाद करें कि हबीब तनवीर की आलेख रचने की प्रक्रिया भी यही हैंवो अपना विषय लोककथाओं सेकिवंदंतियों से उठाते हैं और इम्प्रोवाईजेशन के सहारे आलेख तैयार करते हैं. ‘चरनदास चोर’ जैसा प्रसिद्ध नाटक इसी प्रक्रिया से निकला हैनब्बे के दशक में भी उन्होंने सड़क’ जैसा नाटक तैयार कियायह नाटक विकास के अंतर्विरोधों की पोल खोलता हैइसमें गांव वालों का मुकदमा शहरी व्यवसायियों से चलता हैगांव वाले एक मासूम सा सवाल पूछते हैं कि उनसे कभी पूछा ही नहीं गया कि उनका विकास कैसे करें
बहरहालइम्प्रोवाइजेशन से तैयार आलेखों में अभिनेता की भूमिका बहुत सजग होती है.उसे एक स्थिर आलेख का उपपाठ करने की बजाय अपने पाठ को निर्मित भी करना पड़ता है इस प्रक्रिया में वह अन्य अभिनेताओं और प्रस्तुति के घटक तत्त्वों से सहयोग करता है.निर्देशक उसके तैयार पाठ को प्रस्तुति के मिजाज के हिसाब से ढाल लेता हैऐसी प्रस्तुतियों में बेजान अभिनेता की उपस्थिति अच्छी नहीं होतीजो तय पाठ की निर्देशकीय व्याख्या के साथ अभिनय करने आते हैंअब तो ऐसा भी होने लगा है कि अभिनेता एकल प्रस्तुतियों के द्वारा अपना आलेख भी खुद रचने लगे हैंअजय कुमार की प्रस्तुति बड़ा भांड तो बड़ा भांडया माया राव’ की प्रस्तुतियों में हम एक अभिनेता की देह को ही आलेख में रूपांतरित होते हुए देखते हैंएक नज़र  देखने पर यह प्रक्रिया अधिक लोकतांत्रिक नज़र आती हैइसमें रंगमंच का लगभग हर घटक अपनी भूमिका की खोज करने के बजाय इसका निर्माण करता है.
इस प्रक्रिया में रंगमंच  में कुछ ऐसे विषयों की प्रस्तुति हुई है जिनसे संबंधित नाट्यालेख नहीं थेया उपलब्ध आलेख को अपर्याप्त जानकर निर्देशकों ने आलेख लिखवाया या आलेख को अपने हिसाब से ढालाजैसे नक्सली कार्यकर्ताओं के जीवन में झांकने वाला आसिफ़ अली निर्देशित/लिखित नाटक उनसठ मिनट साठ सेकेंड’ या कुलदीप कुणाल लिखित नाटक द लैंडवीभर’ जिसमें किसानों के जीवन की समस्याओं और बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा उनके अप्रत्यक्ष शोषण को दिखाया गया हैकीर्ति जैन ने  ‘और कितने टुकड़े’ में विभाजन का स्त्रीवादी दृष्टिकोण प्रस्तुत कियाहबीब तनवीर भी टैगोर के नाटक विसर्जन में राजर्षि को मिलाकर एक नया आलेख तैयार कर राजरक्त’ जैसी प्रस्तुति तैयार करते हैं जिसमें राजसत्ता और धर्मसत्ता के बीच के द्वंद्व और उससे जुझते आम आदमी को दिखाया गया हैमानव कौल जो कि उभरते हुए युवा निर्देशक है   भी अपना आलेख खुद तैयार  करते हैं और ‘इलहाम’, ‘ममताज़ भाई पतंग वाले’ जैसी प्रस्तुति दे चुके हैंसुनील शानबाग ने मुम्बई कपड़ा मिल पर व्यापक शोध करके काटन ५५ पालिस्टर ८४’ जैसी प्रस्तुतियां तैयार कीजो काफ़ी प्रशंसित हुईमछिन्द्र मोरे ने किन्नरों पर जानेमन’ जैसा नाटक लिखा जिसे वामन केन्द्रे ने रानावि रंगमंडल ने प्रस्तुत कियारंजीत कपुर जो अपना आलेख खुद लिखते हैं ने एक संसदीय समिति की उठक बैठक’ और शार्ट कट’ जैसी प्रस्तुतियां कीखैरसफ़ल प्रस्तुतियों की संख्या जितनी अधिक है उससे अधिक संख्या असफ़ल प्रस्तुतियों की है परंतु उनकी चर्चा अपेक्षित नहीं है क्योंकि वो अपने प्रयोग की गर्त में समा कर नये प्रयोंगों को सही रास्ता दिखा गये हैं.
 रंगमंच ऐसी कला है जो दूसरी कलाओं या विधाओं पर सर्वाधिक निर्भर हैकोई शिल्पकोई ग्यान..वाला श्लोक प्रसिद्ध ही हैलेकिन रंगमंच पर अन्य कलाओं विधाओं की अराजक उपस्थिति नहीं होती उसे अंततः रंगमंच के उपकरणॊं में घुलना होता हैइसीलिये संगीत रंगमंच पर आकर रंग-संगीत हो जाता है और नृत्य को गति के साथ होना होता हैचित्र दृश्य-बंध में मिल जाते हैं और पाठ्य को अंततः दृश्य में तब्दील होना होता हैपिछले दो दशकों में रंगमंच जिस एक विधा ने अपनी जबरद्स्त उपस्थिति दर्ज की है वह है वीडियो और डिजिटल तकनीकमल्टीमीडिया तकनीक के आ जाने के बाद वीडियो का प्रयोग अब अधिक मात्रा में होने लगा हैगिरिश कर्नाड ने तो वीडियो को एक प्रमुख भाग बनाकर ‘बिखरे बिंब’ जैसा नाटक ही लिखा हैइक्क्सवीं सदी में रंगमंच पर यह एक महत्त्वपूर्ण बदलाव है.लेकिन चूंकि अभी इसकी आयु अधिक दिन की नहीं हुई है तो इसका बेवकुफ़ाना और समझदारी भरा दोनों तरह से इस्तेमाल हो रहा है.वीडियो और एनिमेशन के इस्तेमाल से एक लाभ यह हुआ है कि ऐसे दृश्य जो सहजता से मंच पर उपस्थित नहीं किये जा सकते थे उन्हें दिखाया जा सकता है.
सुनील शानबाग ‘सेक्समोरैलिटी… में विडियो का उपयोग करके साठ और सत्तर के दशक की डाक्युमेंट्री दिखा कर उस समय का परिवेश उपस्थित कर देते हैंरामगोपाल बजाज डिजिटल ध्वनि का उपयोग कर बाढ की भयावहता को स्थापित कर देते हैंअनुरूपा राय कठपुतली और एनिमेशन के सहारे ‘एबाउट राम’ जैसी अभिभूत कर देनी वाली प्रस्तुति रचती हैंवीडियो का एक दिलचस्प प्रयोग हाल ही में इला अरूण निर्देशित मरीचिका’ में देखने को मिला[8]जिसमें प्रोजेक्शन तकनीक का उपयोग कर राजस्थान की लोककलापाबु जी की पड़’ के पड़ों को मंच पर विशालकाय रूप में दिखा दियाअमाल अल्लाना के नाटक नटी विनोदिनी’ में निसार अल्लाना के दृश्य परिकल्पना में प्रोजेक्शन एक अभिन्न भाग हैइसी तरह सुरेश शर्मा काफ़्का-एक अध्याय’ में अस्पताल के सभी दृश्य वीडियो के सहारे दिखा देते हैंवीडियो का उपयोग दृश्य को विखंडित करने और उन्हें अपने आकार से बड़ा दिखाने में भी होता हैइस रूप में वीडियो स्वतंत्र रूप ले लेता हैअनुराधा कपुरमाया राव,अनामिका हक्सर अपने प्रस्तुतियों में इस तकनीक का उपयोग दृश्य को विखंडित करने के लिये करती हैं.
इस मल्टीमीडिया तकनीक या डिजिटल तकनीक का कभी कभी अराजक इस्तेमाल भी होता हैअमितेश ग्रोवर और शांतनु बोस के यहां इसका इतना उत्साही प्रयोग है कि दर्शक उब जाता है[9]बापी बोस अपने नाटक ‘परम-पुरुष ‘ में वीडियो इतना भर देते हैं कि प्रस्तुति लंबी हो जाती हैलेकिन इस तकनीक के आगमन ने एक नयी रंग भाषा के तलाश की पहल शुरु कर दी हैअभिनेताओं की भूमिका इसमें और चुनौती पूर्ण हो गयी हैक्योंकि “रंगमंच पर जब जब दूसरी कलाएं आती हैं तो उनका एक मोटा उद्देश्य अभिनेता की कला को आगे बढ़ाना होता है न कि उसके ऊपर हावी होकर मात्र अपनी पहचान को स्वतंत्र रूप से प्रतिष्ठित करना”.[10]  अब ये निर्देशक के ऊपर है कि वह अभिनेता के सहायक उपकरण के तौर पर इस तकनीक का इस्तेमाल करते हैं या अभिनेता को इसका सहायक बना देते हैंमाया राव ने इस दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रयोग किये हैंवे अपने अभिनय को इन माध्यमों के सहारे और तीक्ष्ण बना देती है.[11] लेकिन माया राव अनुभवी अभिनेत्री है  और नये अभिनेताओं को इस तकनीक में अपने को ढालने में समय देना होगा नहीं तो वे मंच पर जीवित प्रापर्टी में बदल जायेंगे और जीवंतता समाप्त हो जायेगी (जिसकी संभावना   अधिक है). ज़ुलेखा चौधरी की प्रस्तुतियों में ये अभिनेता निरर्थक नज़र आने लगते है क्योंकि उनको अभिनय भी करना पड़ता है और यंत्रों का संचालन भी.[12]
नाट्य जगत में इस तकनीक को लेकर उत्साह और संदेह दोनों का भाव हैराजेन्द्रनाथ जैसे निर्देशक भी हैं जो वीडियो के इस्तेमाल का एकदम निषेध कर देते हैंलेकिन विडियो का इस्तेमाल ना करने की उनकी जिद ‘बिखरे बिंब’ को असहज बना देती हैअभिलाष पिल्लई जिन्होनें इस तकनीक का व्यापक इस्तेमाल किया है लिखते हैं; “मल्टीमीडिया रोजमर्रा जीवन की ही तरह मनुष्य के शरीर में भी प्रवेश कर गया हैउदाहर्ण के लियेहमारी जेब में मोबाईल फ़ोन से लेकर हमारे शयन कक्ष तकजिसमें टेलीविजन हैइलेक्ट्रानिक\डिजिटल बोर्डो से सज्जित महामार्गों तक और रेलवे स्टेशन पर लगे वीडियो स्क्रीन्स तकजैसा कि हम देख सकते हैंसिनेमा ने रंगमंच में तिमिरण(ब्लैक आउट्सके साथ छोटे दृश्यों का प्रवेश कराया हैजिससे रंगमंच मॆं सिनेमा तथा अन्य मल्टीमीडिया की भाषा की तरह प्रचूरता आ गई हैजो कि नाटककारोंअभिनेताओं और निर्देशकों के लिये रंगमंचीय अभिव्यक्ति को नये तरिके से गढने के ज्यादा अवसर देगाभाषाओं के अलग अलग संश्लेषणॊं की असीमित संभावनाओं के कारण पुराने और नये नाटकों का अन्वेषण करने के और भी कई तरिके  ढूंढे जा सकते हैंयदि हम मीडिया (रेडियोटेलीविजनमोबाईल इत्यादिको अपने जीवन में स्थान  दे सकते हैं तो अपने रंगमंच में क्यों उसे स्थान नहीं दे सकते[13] ? अभिलाष के इस तर्क से असहमति का कोइ कारण नहीं नज़र आताये सही है कि इस तकनीक का कुशलतापुर्वक उपयोग से नाटकों का नये तरिके से अन्वेषण हो सकता हैभारतीय रंगमंच पर पाश्चात्य नाटकों के लिये तो यह शुरु हो चुका है लेकिन भारतीय नाटकों खासकर हिन्दी नाटकों का इससे कितना अन्वेषण होता है यह देखना हैक्या निर्देशक आगे आयेंगे ? क्योंकि इस माध्यम ने इतनी संभावना पैदा कर दी है कि वे पाठ्य को दृश्य में सूझ बूझ के साथ बदल सकते हैं.  उदाहरण के लिये कहा जा  सकता है कि क्या प्रसाद के नाटकों का पुनरान्वेषण होगा ? या निर्देशक नये आलेखों या पाश्चात्य आलेखों की ही व्याख्या करते रहेंगे.
दर्शक इस माध्यम के साथ कितना तालमेल बिठाता है यह भी एक देखने वाली बाती हैक्या हमारे दर्शक का प्रशिक्षण ऐसा है कि वह इन प्रयोगों को आसानी से आत्मसात कर सकेंऐसे समय में जब टेलीविजन और सिनेमा से उबे दर्शक रंगमंच की तरफ़ लौट रहें हैंयह प्रयोग उसे रंगंमंच में बिठाये भी रख सकता है और उसे दूर भी कर सकता हैलेकिन अधिकांश प्रस्तुतियों में दर्शक पर ध्यान नहीं दिया जातादर्शक इस विखंडन और वीडियो से भ्रमित होते हैंवे अब भी पारंपरिक रंगमंच के आदी हैंअतः उन्हें इन प्रयोगों के लिये प्रशिक्षित भी करना होगामहेश आनंद लिखते हैं; “ दरअसल प्रदर्शन के परिमाण में दर्शक हस्तक्षेप करता हैउसे निर्धारित करता हैचूंकि इन नये प्रयोगों में इस्तेमाल किये गये अनेक माध्यम दर्शक को तो प्रभावित करते हैंस्वंय नहीं होतेअगर उन्हें प्रदर्शन का अनिवार्य हिस्सा बनाना है तो इस प्रश्न से जुझना होगा कि ये माध्यम दर्शक के मानसिक क्षितिज को विस्तार देने में किस प्रकार सहायक बन सकते हैंनिश्चित रूप से दर्शक के साथ उनको सहभाव बनाना होगाअनेक तकनीकी अविष्कार मिल कर भी अभिनेता की जीवंतता का मुकाबला नहीं कर सकतेअपने भारतीय परिवेश में इन माध्यमों की तर्कसंगतता को समझना जरूरी है ताकि अभिनेता की उर्जा को दर्शकों तक संप्रेषित किया जा सकेसंचार क्रांति के नाम पर कच्चे पक्के ढंग से परोसी गयी नवीनता निर्देशकों का आत्मदर्शन हो सकती हैसामाजिक की नहीं[14]
इन उम्मीदों और शंकाओं के बीच से ही रास्ता निकल सकता हैइस में मदद आलोचना कर सकती हैलेकिन हिन्दी का आलोचना जगत रंगमंच के बारे में मौन ही रहता हैयह विडंबना ही है कि हिन्दी में आलोचना की व्यवस्थित शुरुआत नाटक से होती है लेकिन आज नाट्यालोचन कहां है ?
अंत में एक और बात कहना जरूरी है कि रंगमंच में अधिकतर प्रयोगों की सूचना जो प्राप्त होती है वो दिल्ली या मुम्बई की होती हैहिन्दी रंगमंच में व्यापक तौर पर क्या कुछ घटित हो रहा है खासकर हिन्दी क्षेत्रों में उसकी सूचना प्रसारण के पर्याप्त साधन नहीं हैसंचार क्रांति के जमाने में ऐसा नहीं होना दुखद है और इसके लिये प्रयास किया जाना चाहिये.



[1]  रजत कपूर निर्देशित नाटक हेमलेट -  क्लाउन प्रिंस
[2] त्रिपुरारी शर्मा निर्देशित रानावि तृतीय वर्ष की छात्र प्रस्तुति रंगधूलि
[3] सुनील शानबाग निर्देशित सेक्स,मोरैलिटी और सेंसरशिप
[4]  रामजस कालेज में  फ़रवरी को दिये गये व्याख्यान में.
[5]  Anuradha kapur, Modern Indian Theatre, ed. Nanadi Bhatia, oup,2009, p-49
[6]  सुंदरी एन एक्टर प्रिपेयर दिनेश खन्ना के साथ मिल कर लिखा गया थादिनेश जयशंकरसुन्दरी की आत्मकथा ‘कुछ आंसु कुछ फूल’ के अनुवादक हैं.
[7] देखें Poetics,Plays and Performences;The politics of modern indian theatre, vasudhaa dalmia, oup,2009, p-321
[8]  २०१० के इब्सन फ़ेस्टीवल में इब्सन के नाटक ‘लेडी फ़्राम  सी’ का रूपांतरणइला अरूण का निर्देशन
[9] हाल ही में हुए हेमलेट(अमितेश ग्रोवरऔर हजार चौरासी की मां (शांतनु बोसप्रस्तुति में
[10]  देंवेंद्र राज अंकुररंग प्रसंग-३५,पृ-27
[11]  लेडी मैक बेथ रीविजिटेड या क्वालिटी स्ट्रीट (निर्देशकमाया राव) जैसी प्रस्तुतियों में.
[12]  सम स्टेज डायरेक्शन औफ़ जान गब्रियल बोर्कमैन (ज़ुलेखा चौधरी)में
[13]  रंग प्रसंगअंक-३५पृ-35-36
[14] रंग प्रसंग,३७,पृ-128

यह आलेख बनास जन के चौथे अंक में प्रकाशित है. मंडली  के पाठको के लिये हम यहां साभार प्रकाशित कर रहें हैं. अमितेश कुमार से आप यहाँ संपर्क कर सकतें हैं.

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