रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

अलखनंदन : सरोकारों का एक और मशालची चला गया

अलखनंदन 
राजेश चन्द्र 
हिन्दी रंगमंच के प्रख्यात निर्देशक, कवि, नाटककार और भारत भवन रंगमंडल के सह-संस्थापक अलखनंदन अब हमारे बीच नहीं हैं। 12 फरवरी को 64 वर्ष की अवस्था में उन्होंने शरीर त्याग दिया। 1948 में जन्मे अलखनंदन पिछले कई महीनों से अस्वस्थ थे और उन्हें बार-बार अस्पताल  में  भर्ती कराना पड़ रहा था। चंदा बेड़नी, राजा का स्वांग, उजबक राजा तीन डकैत उर्फ स्वांग मल्टीनेशनल, स्वांग शकुंतला के अलावा विभिन्न बाल नाटकों के सर्जक और निर्देशक अलखनंदन ने अपनी प्रस्तुतियों से हिन्दी के रंगसंसार को निरंतर समृद्धि दी। इन स्वरचित नाटकों के अलावा अलखनंदन ने अन्य नाटककारों की जिन रचनाओं को मंचावतरित कराते हुए देश भर  में  ख्याति अर्जित की थी उनमें ‘‘वेटिंग फॉर गौडो’’, ‘महानिर्वाण’, ‘मगध’, ‘अंधेरे में’, ‘सुप्रीमो’, ‘ताम्रपत्र’, ‘भगवदज्जुकमआदि विशेष रूप से उल्लेख्य हैं।
जिम्मेदार, संवेदनशील और प्रतिबद्ध रंगकर्मी के तौर पर रंगजगत  में  विशिष्ट स्थान रखने वाले अलखनंदन 1987 में  भोपाल में अपनी संस्था नट बुंदेलेके गठन से पहले दो वर्षों तक पंजाब विश्वविद्यालय के रंगमंच विभाग के आमंत्रित निदेशक के पद पर रहे। भोपाल के सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में जब भारत भवन रंगमंडल की स्थापना हुई थी तो इस दौरान 1981 से 1988 तक वे इसके सहायक निदेशक भी रहे। इस यात्रा का एक पड़ाव बंगलोर  में  भी रहा जब वे उर्दू थिएटर ट्रस्ट के संस्थापक निदेशक के रूप  में  वहां रहे थे। अलखनंदन की ख्याति एक नाटककार और निर्देशक के साथ-साथ एक फिल्म लेखक के तौर पर भी थी। अलखनंदन कविता के क्षेत्र में भी प्रसिद्धि पाने में सफल रहे थे।
बुंदेलखंडी स्वांग पर शोध करने के लिए भारत सरकार के संस्कृति विभाग ने अलखनंदन को सीनियर फेलोशिप प्रदान किया था। मध्य प्रदेश सरकार के रंग शिखर सम्मान और उत्तर प्रदेश के मास्टर फिदा हुसैन नरसी सम्मान से भी वे सम्मानित किए गए थे। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के आमंत्रण पर उन्होंने बच्चों के लिए कई रंग कार्यशालाओं का संचालन तो किया ही था, इसके अलावा वे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और बिहार के नवोदय विद्यालयों के थिएटर इन एजुकेशन प्रोजेक्ट के भी प्रधान संयोजक की भूमिका निभा चुके थे। अलखनंदन ने देश के जिन शीर्ष रंगकर्मियों और निर्देशकों के साथ काम किया था उनमें ब.व. कारंत, फ्रिट्ज बेनेविट्ज और के.एन. पणिक्कर प्रमुख हैं।
अलखनंदन के सर्वाधिक चर्चित नाटकों में रामेश्वर प्रेम लिखित चारपाईका उल्लेख खास तौर से करना होगा जिसने राष्ट्रीय स्तर पर दर्शकों की सराहना हासिल की। निम्न मध्यवर्ग और उसकी विडंबनाओं को सामने लाने वाले इस नाटक में आर्थिक दबावों, भावनात्मक उथल-पुथल और सामाजिक ढांचे के टूटने बिखरने के दरम्यान पिस रहे निम्न वर्ग की वास्तविकताओं का साक्षात्कार करने की कोशिश की गई थी। क्रयशक्ति के विस्फोट, आर्थिक विकास और आनंद के कारपोरेटी उत्सव के शोरगुल के बीच झूमते-इतराते मुट्ठीभर लोगों के बरक्स उस विशाल आबादी का दर्द बयान करने में अलखनंदन ने अपनी विशिष्ट रचनाधर्मिता का परिचय दिया था, जो आज भी न केवल विकास की प्रक्रिया से बाहर है बल्कि बुनियादी सुविधाओं की पहुंच से भी दूर है। चारपाईमें निर्देशक ने मंच पर फील-गुड प्रहसनों के कई दृश्य प्रभावशाली तरीके से संयोजित किए थे ताकि नाटक वास्तविक मुद्दों को सामने लाने की अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करे। अलखनंदन भारतीय सिनेमा की दुर्दशा को लेकर भी खिन्न रहा करते थे जहां उनके विचार से एक कृत्रिम खुशहाली गढ़ी जाती है और जहां अधिकांश चरित्र इस तरह का बर्ताव करते हैं मानो आप्रवासी भारतीय हों। उनका देश की वास्तविकताओं से कोई सरोकार ही नहीं है। वे कहते थे कि एक भी हमारा फिल्मी नायक ऐसा नहीं है जिस तक देश के आम आदमी की पहुंच हो और वह उनके जीवन पर कोई प्रभाव डाल सके।
अलखनंदन को जिस एक और संदर्भ  में  विशेष रूप से रेखांकित करने की आवश्यकता महसूस होती है वह है बाल रंगमंच। उन्होंने मध्यप्रदेश में घूम-घूम कर दशकों तक बाल रंगमंच को न केवल एक आंदोलन का स्वरूप दिया बल्कि उसे एक दृष्टि और दर्शन भी दिया। भोपाल से लेकर विलासपुर, रायपुर, बस्तर, अम्बिकापुर, सरगुजा, भिलाई, होशंगाबाद, सिवनी, राजनांदगांव, जबलपुर और शिवपुरी तक व्यक्तिगत रूप से उन्होंने बच्चों के लिए रंग कार्यशालाएं संचालित की और उनके साथ प्रदर्शन तैयार किए। उनकी संस्था नट बुन्देले ने 1995 से बच्चों के रंगमंच  में  पदार्पण किया और अपने कार्य के दो स्वरूप निर्धारित किए। पहला, नट बुन्देले के वयस्क कलाकारों द्वारा बच्चों के लिए नाट्य प्रस्तुतियां तथा दूसरा, बच्चों के लिए नाट्य शिविरों का आयोजन। इस क्रम में संस्था ने प्रतिवर्ष बच्चों के नाट्य समारोह नवजातका आयोजन 1960 से प्रारंभ किया। इसके अंतर्गत भोपाल के स्कूलों में अलखनंदन के संयोजन में 50 से अधिक बाल नाट्य शिविरों का आयोजन किया गया जिसमें हजारों बच्चों की प्रतिभागिता रही। इसके अतिरिक्त वयस्क कलाकारों द्वारा बच्चों के लिए जितने भी नाटक नटबुन्देले ने प्रस्तुत किए वे सभी अलखनंदन द्वारा लिखे गए थे - जैसे कि सलोनी गौरेया, जादू का सूट, नारद जी फंसे चकल्लस में, मूरख गुरू के मूरख चेले, अक्ल से सबकी करो भलाई, भेडि़या तंत्र, हम हवाएं, हमारी पृथ्वी, डॉ. चंद्र, नींद का चक्कर आदि। अलखनंदन के निर्देशन में ही राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के रंग-विस्तार कार्यक्रम के अंतर्गत अम्बिकापुर, सोहागपुर, सिवनी, भोपाल और बिलासपुर आदि में भी एक महीने की अवधि वाले बाल नाट्य शिविर आयोजित हुए। पच्चीस-तीस वर्षों तक बाल नाट्य आंदोलन के क्षेत्र में अलखनंदन द्वारा किए गए अथक प्रयासों से न सिर्फ शिक्षा में रंगमंच की संभावनाएं राष्ट्रीय स्तर पर उजागर हुई बल्कि कई स्तरों पर रंगमंच एक सशक्त कला और सामाजिक-सांस्कृतिक आवश्यकता के रूप में उभर कर आया।
यह अलखनंदन की ही प्रेरणा और अगुवाई का कमाल था कि चैथाई सदी के इस बाल नाट्य आंदोलन में कई नामचीन लेखकों, रंगकर्मियों और युवाओं की सहभागिता रही और 50 से अधिक नाटक लिखे और प्रस्तुत किए गए। अलखनदंन इतने भर से संतुष्ट रहे हों ऐसा कभी नहीं हुआ। मध्यप्रदेश की विशाल आबादी और अमानवीय हालात में जी रहे बच्चों के लिहाज से वे इस कार्य को नाकाफी ही मानते थे। इस कमी के लिए वे प्रतिबद्ध रंगकर्मियों की आर्थिक विपन्नता, आधारभूत संरचना के अभाव और निरंतरता के लिए अवसरों की गैरमौजूदगी को जिम्मेदार मानते थे। वे कहते थे कि ‘‘समाज और अपने को सभ्य तथा जनतांत्रिक कहने वाली सरकारों को इस बोध की जरूरत है कि विकसित रंगमंच किसी भी समाज, राज के सुसंस्कृत होने ही पहचान है। इधर राजनीति में संस्कृति का जितना ढोल पीटा जा रहा है इसके मद्देनज़र मैं यह बात ज़ोर देकर कहना चाहता हूं।’’ सच को सच कहने, सत्ता की संस्कृति को आईना दिखाने और रंगमंच के बुनियादी सरोकारों को मशाल की तरह जलाए रखने के दुर्धर्ष पराक्रम वाले प्रतिबद्ध रंगकर्मी अलखनंदन के चले जाने से हिंदी रंगमंच पर जैसा विराट शून्य उभर आया है उसकी भरपाई निकट भविष्य में नहीं होती दिखाई पड़ती है।
राजेश चन्द्र  - कविरंगकर्मीअनुवादक, नाटककार, अभिनेता एवं पत्रकार. पटना रंगमंच से लंबे समय तक जुडाव. विगत दो दशकों से रंगान्दोलनोंकवितासम्पादन और पत्रकारिता में सक्रिय। हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँआलेख और समीक्षाएँ प्रकाशित। उनसे rajchandr@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. इनका यह आलेख पिछले 14 फरवरी को दैनिक भास्कर में छपा था

1 टिप्पणी:

  1. FIRST & LAST TIME I MET ALAKHNANDAN JEE WHEN HE HAD COME TO PATNA WITH PLAY,'CHARPAI' WRITTEN BY RAMESHWAR PREM,AT KALIDAS RANGALAY.I THINK IT WAS MAY ,2009.REALLY GREAT PERSON .

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