मृत्युंजय प्रभाकर की समीक्षा
भारत रंग महोत्सव में नाटकों और उनकी परिकल्पना की
चकाचौंध के बीच जिन नाटकों ने अपनी सादगी और अभिनय के कारण प्रभावित किया
"बाघिन मेरी साथिन" उनमें से एक है। नटमंडप, पटना की इस प्रस्तुति
ने अभिनेता पर अपनी केंद्रियता के कारण खासतौर पर अपना प्रभाव छोड़ा। यह एक एकल
प्रस्तुति थी जिसमें अभिनेता के तौर पर उपस्थित थे हिंदी रंगजगत के महत्वपूर्ण
अभिनेताओं में से एक माने जाने वाले जावेद अख्तर खां। जावेद ने अपने अभिनय से
अभिनेता की ताकत का भरपूर प्रदर्शन किया है। वह सूत्रधार, सैनिक, बाघिन और छोटू बाघ की
भाव-भंगिमाओं, आवाज और शारीरिक हरकतों को इस तरह से परोसते हैं कि वह नाट्यधर्मी होते हुए
भी दर्शकों को लोकधर्मी होने का अहसास देती है।
मूलतः "द स्टोरी ऑफ द टाइगर" नाम से नोबल पुरस्कार विजेता दारियो फो लिखित यह नाटक माओ की गुरिल्ला सेना के एक ऐसे सिपाही के बारे में है जो जख्मी हो जाने के कारण अपनी बटालियन द्वारा मरने के पीछे छोड़ दिया गया है। वह जान बचाने के लिए एक गुफा का सहारा लेता है जिसमें पहले से एक बाघिन और उसका बच्चा निवास करते हैं। अविश्वसनीय तौर पर उसकी बाघिन से दोस्ती हो जाती है। भागकर जब वह एक गांव में पहुंचता है तो बानिघ और उसका बच्चा उसका पीछा करते हुए वहां पर पहुंच जाते हैं। गांव पर जब दुश्मन सेना हमला करती है तब बाघ के कारण वह लड़ाई जीत जाते हैं लेकिन जीतने के बाद बाघ को वहां से हटा देने की बात की जाती है। दारियो फो बीसवीं शताब्दी के उन महानतम नाटककारों-निर्देशकों-अभिनेताओं में शुमार हैं जिन्होंने अपना खुद का एक रंगमंचीय व्याकरण गढ़ा है। इसमें यूरोप की प्राचीन रंगशैली कॉमेडिया-डेल-आर्टे की छाप है। वह अपनी बातें व्यंग्य की शैली में कहते हैं जिसमें गहरे लाक्षणिक भाव भरे होते हैं।
नाटक का निर्देशन पटना के चर्चित रंगनिर्देशक परवेज अख्तर ने किया है। परवेज अख्तर ने इस नाटक के निर्देशन के दौरान नाटककार और नाटक की मूल रचना का भरपूर खयाल रखा है। वह इसे रंगमंचीय चकाचौंध में फंसाने के बजाय पूरी तरह अभिनेता केंद्रित रखते हैं। मंच सज्जा से लेकर प्रकाश योजना तक में वह अभिनेता के ऊपर कुछ भी थोपने से बचते हैं जोकि नाटककार की शैली के निकट है।
नाटक के अंत में वह भारतीय राष्ट्रीय राजनेताओं और पार्टियों को लाक्षणिक ढंग से निशाना पर लेने से भी नहीं चूकते। यही राजनीतिक सूक्ष्मता उनके रंगमंच की ताकत रही है
मूलतः "द स्टोरी ऑफ द टाइगर" नाम से नोबल पुरस्कार विजेता दारियो फो लिखित यह नाटक माओ की गुरिल्ला सेना के एक ऐसे सिपाही के बारे में है जो जख्मी हो जाने के कारण अपनी बटालियन द्वारा मरने के पीछे छोड़ दिया गया है। वह जान बचाने के लिए एक गुफा का सहारा लेता है जिसमें पहले से एक बाघिन और उसका बच्चा निवास करते हैं। अविश्वसनीय तौर पर उसकी बाघिन से दोस्ती हो जाती है। भागकर जब वह एक गांव में पहुंचता है तो बानिघ और उसका बच्चा उसका पीछा करते हुए वहां पर पहुंच जाते हैं। गांव पर जब दुश्मन सेना हमला करती है तब बाघ के कारण वह लड़ाई जीत जाते हैं लेकिन जीतने के बाद बाघ को वहां से हटा देने की बात की जाती है। दारियो फो बीसवीं शताब्दी के उन महानतम नाटककारों-निर्देशकों-अभिनेताओं में शुमार हैं जिन्होंने अपना खुद का एक रंगमंचीय व्याकरण गढ़ा है। इसमें यूरोप की प्राचीन रंगशैली कॉमेडिया-डेल-आर्टे की छाप है। वह अपनी बातें व्यंग्य की शैली में कहते हैं जिसमें गहरे लाक्षणिक भाव भरे होते हैं।
नाटक का निर्देशन पटना के चर्चित रंगनिर्देशक परवेज अख्तर ने किया है। परवेज अख्तर ने इस नाटक के निर्देशन के दौरान नाटककार और नाटक की मूल रचना का भरपूर खयाल रखा है। वह इसे रंगमंचीय चकाचौंध में फंसाने के बजाय पूरी तरह अभिनेता केंद्रित रखते हैं। मंच सज्जा से लेकर प्रकाश योजना तक में वह अभिनेता के ऊपर कुछ भी थोपने से बचते हैं जोकि नाटककार की शैली के निकट है।
नाटक के अंत में वह भारतीय राष्ट्रीय राजनेताओं और पार्टियों को लाक्षणिक ढंग से निशाना पर लेने से भी नहीं चूकते। यही राजनीतिक सूक्ष्मता उनके रंगमंच की ताकत रही है
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