अमितेश कुमार का यह आलेख उनके ब्लॉग "रंगविमर्श" से साभार.
सोलहवें भारंगम के उद्घाटन सत्र के मंचस्थ व्यक्तियों की सूची देख कर कोई भी अंदाजा लगा सकता था
कि मंच पर रंगमंच की प्रतिष्ठा इस बार हुई है. सरकारी प्रतिनिधि की कमी को संस्कृति मंत्रालय के संयुक्त सचिव ने अपनी उपस्थिति से भर
दिया.
अध्यक्ष रतन थियम और निदेशक वामन केंद्रे के साथ मुख्य अतिथि के रूप में बांग्ला रंगकर्मी मनोज मित्र और विद्वान कमलेश दत्त त्रिपाठी थे, विशिष्ट अतिथि थे.
उद्घाटन सत्र में निदेशक और अध्यक्ष दोनों ने यह प्रतिबद्धता दिखाई कि रानावि प्रशासन में वे गुणवत्तापूर्ण बदलाव
के संकल्प के साथ आये हैं. निदेशक
वामन केंद्र ने अपने संबोधन में यह कहा कि अगली बार से भारंगम की चयन प्रक्रिया में व्यापक बदलाव होंगे. विडियो द्वारा नाटक का चयन को गैर जरूरी बताते हुए
चयन के लिये एक व्यापक कार्यक्रम बनाने की बात कही जिसमें निदेशालय बनाना और बोर्ड का गठन इत्यादि शामिल होगा. उन्होंने सरकार से भी अपील की कि रानावि को राष्ट्रीय महत्त्व का संस्थान घोषित किया जाए. इसका विकेंद्रीकरण कर इसका विस्तार सभी राज्यो में किया जाए और दिल्ली इकाई इसमें केंद्रीय संस्थान की
तरह काम करे. रानावि को को उन्होंने उच्चतर
शोध के संस्थान में बदलने की भी बात की. रंगमंच के एक संग्रहालय की जरूरत पर भी बल देते हुए कहा कि रानावि के कई कार्यक्रमों में प्राण डालने की जरूरत है. निदेशक
के भाषण मे उनके इरादों की झलकी थी जिसे अध्यक्ष रतन थियन ने भी पुष्ट किया. उन्होंने कहा कि विश्व के मुकाबले में हमारे रंगमंच में विगत पच्चीस सालों में गुणवत्ता में बदलाव नहीं हुआ. हमारे रंगमंच को वैश्विक पहचान नहीं मिल रही है. भारंगम को अंतर्राष्ट्रीय महत्व के उत्सव में बदलना होगा जो भारत के वास्तविक गुणवतापुर्ण रंगमंच का प्रतिनिधित्व करेगा. अंतरार्ष्ट्रीय मंच में बदलते ही भारतीय रंगमंच को वैश्विक पहचान मिलेगा. उन्होंने कहा कि तेजी से बदलते हुए समय में रंगमंच को भी बदलना चाहिये. तकनीक से घिरे समय में हम तकनीक की उपेक्षा नहीं कर सकते लेकिन इसको हावी भी
नहीं होने दिया जा सकता. रंगमंच वह कला है जो हमारी पारिस्थितिकि को बेहतर कर सकता है और यह
रंगमंच के जरिये ही हो सकता है कि हम अपने अंतः की मजबूती के साथ सामुदायिकता को विकसित
करें.
कमलेश दत्त त्रिपाठी ने थियम की ही बातो को आगे बढाते हुए कहा कि भारत में कला के क्षेत्र में भारतीय पहचान को निर्मित करने की पहल रंगमंच में हुई.
और
आज भारंगम के माध्यम से भारतीय रंगमंच यह काम फिर कर पाता है तो यह बहुत ही सराहनीय है. वैश्विक परिस्थियों में बदलाव और उससे उत्पान स्थितियों में रंगमंच की भूमिका की भी उन्होंने व्याख्या की. मनोज मित्रा ने काफी संक्षिप्त भाषण में सभी का अभिनंदन किया।
भारंगम की शुरूआत के.एम.पणिक्कर के ‘छाया शाकुंतल’ से हुआ. शास्त्रीय गायन के तर्ज पर प्रस्तुति आलाप से द्रुत पक पहूंची.
इस प्रक्रिया में शुरूआती आलाप दर्शको को उबाता है और उनके धैर्य और रूचि
की परीक्षा भी लेता है. वर्तमान समय में गति के हम इतने आदि हो चुके हैं कि स्थिरता हमें ऊबाउ लगती है. उसका आनंद नहीं ले पाते. प्रस्तुति की सफलता इस बात में थी कि उसने
दर्शक के आग्रहों को मंचन के दौरान ही ध्वस्त कर दिया नतीजा था नाटक के अंत में देर तक तालियां बजती रहीं. प्रस्तुति में घटनाक्रम और अभिव्यक्तियों आंगिक
और वाचिक से संभव किया गया था विवरण उल्लेखनीय है.
संस्कृति और आधुनिक रंगमंच की प्रवेश, प्रस्थान और गति योजना के सामंजस्य से भी नाटक की दृश्यता मुखर हुई. निर्देशक ने इस प्रस्तुति में प्रकृति और मनुष्य के संबंध पर
ध्यान केंद्रित किया है. मनुष्य अपनी यात्रा में
निजी संबंधो को तो भूलता ही जिसका स्मरण उसे अंगुठी से हो जाता है
लेकिन वह अपनी पारिस्थितिक से से
अपना नाता तोड़ रहा है और इससे अनजान भी है. दुष्यंत अंगुठी के मिलने के बाद शंकुंतला को तो पहचान लेते हैं लेकिन वह अपने आचरण से प्रकृति और उसके वनचरों का जो नुकसान कर रहे हैं उसको नहीं पहचान रहे हैं. शंकुतला और दुष्यंत दो विरोधी चरित्र हो जाते है जिसमें शंकुअंतला प्रकृति की सहचर है और दुष्यंत
आखेटक. शकुंतला के जाने से सब दुखी है लता, जल, हिरण सब. प्रस्तुति के अंत में अभिनेता गाते हैं कि राजा से पहले प्रकृति है. राजाओं की आदतों पर भी यह प्रस्तुति व्यंग्य करती है, दुष्यंत और शकुंतला का आख्यान अन्य सामयिक संदर्भों से युक्त हो जाता है. इतिवृतात्मक लगती हुई प्रस्तुति वैश्विक परिघटनाओं को प्रतिध्वनित करती है लेकिन इसके संदर्भ कभी उतने मुखर नहीं है, वह न्यस्त है. प्रस्तुति
में कास्ट्युम का विशेष उल्लेख आवश्यक है जो एक विशेष कालखंड में ले जाता है. निर्देशक ने अभिनय के सभी पक्षों कायिक, वाचिक, आंगिक और आहार्य का संतुलित संयोजन किया जिससे संगीत को आधार मिलता है. संस्कृत रंगमंच की रूढ़ियों, आधुनिक रंगमंच के स्थापत्य और केरल की पारंपरिक कलाओं का दृश्यभाषा में अच्छा संयोजन हुआ है. यह रंगमंच का वही रास्ता है जिस पर पणिक्कर सत्तर के दशक से चल रहे हैं. रंगमंडल के अभिनेता बदले हुए रूप मे हैं. निर्देशक की कल्पना को जीवंतता से साकार करते है. संवाद की पद्यात्मकता का भी बेहतर निर्वाह हुआ है. नाटक में हिंदी अनुवाद के संवाद कहीं कहीं खटकते हैं और इससे दर्शल गलत जगह हंसते है लेकिन कालिदास की काव्यभाषा के लालित्य और अर्थगंभीरता का पता लग जाता है. कालिदास ने उस समय ऐसे स्त्री चरित्र रहे हैं जो पुरूष चरित्र के मुकाबले कई गुना उज्ज्वल है. इस भारंगम की शुरूआत एक बेहतर नाटक से हुई है जो ‘भारतीय रंगमंच की निजता की खोज’ के थीम को भी चरितार्थ करता है. के.एम.पणिक्कर और उदयन वाजपेयी की जोड़ी कुछ वर्ष पहले भी ‘उत्तररामचरित’ लेकर आइ थी उससे यह बहुत आगे की और परिपक्व प्रस्तुति है.
अमितेश कुमार से amitesh0@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.
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