अमितेश कुमार का यह आलेख उनके ब्लॉग रंगविमर्श से साभार. अमितेश कुमार से amitesh0@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.
पिछले कुछ भारंगम से अनुरूपा राय की प्रस्तुतियां भारंगम की उल्लेखनीय प्रस्तुतियों में से रही है. अनुरूपा राय ने कठपुतली कला और आधुनिक रंग शैली के मिश्रण से एक प्रभावी रंगभाषा और उसके विशिष्ट दर्शक वर्ग तैयार किये हैं. उनकी रंगभाषा में प्रयोग और तकनीक का जो संयम है वह समकालीन प्रयोगशील निर्देशकों में बमुश्किल मिलता है. उनकी रंगभाषा में शैली के आग्रह में कथ्य की उपेक्षा नहीं होती. इस बार भारंगम में वह अपनी ‘प्रस्तुति ‘लाइफ़ इन प्रोग्रेस’ के साथ आई है. इस प्रस्तुति के बारे में उनका कहना है कि इसमें कोई रैखिक आख्यान नहीं है लेकिन मंच पर विकसित हो रही प्रस्तुति आख्यानात्मक रूप लेने लगती है और जीवन के विकास के आख्यान और उसकी चक्रियता को प्रदर्शित करती है. प्रस्तुतियां विभिन्न नाटकीय छवियों में आकार लेती है जिसे अभिनेता, सामग्री और कठपुतलियों से संभव करते हैं.
प्रस्तुति
में बहुत सी छवि रोजमर्रा के जीवन की है जो रोजमर्रा के जीवन की वस्तुओं से ही निर्मित होती है जैसे अखबार, कचरा, झाड़ू आदि. बहुत सी छवियां आख्यान को तोड़ती है और इसे समकालीनता से जोड़ते है. अखबार के पन्नो को जोड़कर एक सामग्री तैयार की गई है, जिसे कठपुतली कह सकते हैं. इसी से मंच पर विभिन्न आकृतिआं तैयार कर ली जाती हैं. कचरे से बनी एक भयावह जीव सब कुछ अपने में समाहित कर लेता है, और फिर उससे कुछ जीव निकलते है जिसे मक्खियां मार देती हैं. एक अदृष्ट भविष्य के भय को भी प्रदर्शित करता है. जीवन चक्र में मनुष्य की आदिम प्रवृतियों की छवि भी हैं जो सभ्यता के हर चरण में बनी रहती है. जैसे कब्जा जमाने की प्रवृति, अपना क्षेत्र विस्तार की प्रवृति. प्रस्तुति का वह बिंब प्रभावित करता है जिसमें रोचक ढंग से आधुनिक मनुष्य के निरंतर मशीन बनते जाने और एक दूसरे को पछाड़कर आगे निकलने की गलाकाट प्रतिस्पर्धा को दिखाया गया है. प्रस्तुति में जीवन कि विविधता को अभिव्यक्त करने वाली अनेक अनेक एक के बाद एक आती हैं लेकिन इन छवियों कि अधिकता ही प्रस्तुति कि कमजोरी बन जाती है. ऐसा लगा कि यह कचरे के निरंतर बढ़ते ढेर के परिणामों की ओर इशारा करती हुई प्रस्तुति है जो यह करती भी है लेकिन फिर इससे आगे निकल जाती है. इस क्रम में बहुत से नाटकीय बिंब साफ नहीं हो पाते और उनकी दृश्यता भी कुछ निर्मित नहीं कर पाती , इस पर काम करने की जरूरत है. अनुरूपा राय के नाटकों की चुस्त और तीखी संप्रेषणीयता उसकी विशेषता रही है, लेकिन इस नाटक में इसका अभाव है और इसे संपादित किये जाने की जरूरत है. इस बार अनुरूपा उम्मीद से कम हैं आगे उनसे और बेहतर की उम्मीद है.
जापानी प्रस्तुति ‘उत्सुसी’ नृत्य सरंचना है. प्रस्तुति में नृत्य के विभिन्न टुकड़ों में हम नर्तकों की लयकारी देखते हैं. देह पर नियंत्रण और फिर उसको संगितमय बना देना स्तब्ध करता है लेकिन इस नृत्य सरंचना में कुछ अतिरंजनाएं भी है. एक जैसे चेहरों और अलग अलग वेशभुषा में उनके आगमन से और हर दूसरे दृश्य में नृत्य का तरीका बदलने से नाट्य उभरता है संगीत जिसे आधार देता है और विविध भाव स्थितियों को प्रतिध्वनित करता है. अभिमंच के मंच को ये नर्तक अपने नृत्य से उर्जावान कर देते हैं. नृत्य सरंचना में एक टुकड़ा ऐसा है जिसमें दो नर्तक मिरर इमेज की तरह आते हैं. नत्य अमूर्तता में है और लंबाई भी अपेक्षाकृत अधिक है जो दर्शकों को अखरती है. गौरतलब है कि जापान की यह प्रस्तुति जापानी रेपर्टरी कंपनी सनाकी
जुकु में नृत्य सरंचनाकार उशियो अमागात्सु
द्वारा किये गये
विविध
नृत्य प्रस्तुतियों में से कुछ कुछ हिस्सों को संपादित करके एक प्रस्तुति तैयार की गई है. इन हिस्सों को एक आख्यान में ढालने के लिये इन पर नये सिरे से काम किया गया. इसके बहुत से अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शन हो चुके हैं.
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