अमितेश
कुमार का यह आलेख उनके
ब्लॉग रंगविमर्श से साभार. अमितेश कुमार से amitesh0@gmail.com पर संपर्क
किया जा सकता है.
स्त्री आज जिन चौतरफ़ा दबावों में घिरी
है, वह बाहर तो निकल गई है लेकिन घर से छूटी नहीं है. उसे घर
और बाहर दोनों की जिम्मेवारियों का निर्वाह करना पड़ रहा है और साथ ही उस अधिकार के
अंदर भी रहने को विवश होना पड़ रहा है जो पुरूष या पितृसत्ता का है. इन जटिल परिस्थितियों
में भी ‘अलका’ स्त्रीत्व के मौलिक गुण
मातृत्व को बचाए रखती है, और इसे बचाना जरूरी भी है. उमा
झुनझुनवाला निर्देशित ‘अलका’(नाटककार
मनोज मित्रा) प्रारंभ में ‘आधे अधूरे’ का
संस्करण लगती है. संपन्नता से पतित मध्यवर्गीय परिवार जिसमें आर्थिक अभाव के कारण
परेशानियां है और अलका को बहुत कुछ संभालना है. दो बच्चे जो उसके गर्भ से नहीं है
लेकिन फिर भी वह उसे अलग नहीं करती, उनकी परेशानियां उसे ही
संभालनी है, लकवाग्रस्त पति जो खुद से चाय पीने में भी अशक्त
है लेकिन चाहता है कि अलका उसके आदेश पर ही चले, नाटक के अंत
में वह एक नया बच्चा गोद लेती है. प्रस्तुति और नाटक यथार्थवादी मुहावरे में
हैं. मध्यवर्गीय ड्राइंग रूम के सेट पर ही सब कार्यव्यापार संपन्न होता है,
और परिवार की परिस्थितियों पर से एक एक कर पर्दा हटता है. दृश्यबंध
में ऐसे स्पेस बनाये गये हैं जहां नाटक यथार्थवाद से बाहर निकलता है, नाटक के कुछ प्रभावी बिंब इन्हीं स्पेस में निर्मित किये गये हैं. प्रकाश
नाटक की घटनाक्रम में व्याप्त अवसाद को और गाढ़ा करता है. आज के मध्यवर्ग के यथार्थ
से मेल नहीं खाने के कारण नाटक का कथ्य एकांगी और पुराना मालूम पड़ता है, पात्र भी व्याकरणिक ढंग से अभिनय करते हैं. ‘अलका’
की भूमिका में उमा झुनझुनवाला और पति की भूमिका में अज़हर आलम
प्रभावी है बाकी अभिनेता अतिअभिनय के शिकार हैं. कुछ बिंदुओं पर नाटक
संवेदनाओं को छूती है लेकिन अंततः लंबी होने के कारण ऊब भी पैदा करती है. इसलिये
कुछ अनावश्यक दृश्यों को संपादित करने की जरूरत है. ऐसी प्रस्तुतियां बताती हैं कि
मंच पर यथार्थवादी मुहावरे को बरतने के तरीकों में नयापन लाना होगा. लेकिन यहां
एकबात उल्लेखनीय है कि ऐसी प्रस्तुतियां दर्शकों का मनोरंजन करती है और तालियां
बटोरती हैं.
खचाखच भरे अभिमंच सभागार में नौटंकी ‘अमर सिंह राठौड़’ खेला गया. यह प्रख्यात नौटंकी हिंदू
मुस्लिम एकता का संदेश देती है. शाहजहां की भूमिका कर रहे मुन्ना मास्टर मंच
से एक के बाद हिंदू मुस्लिम एकता वाले संवादों की झड़ी लगाते हैं जो
दर्शकों को लुभाती है. नौटंकी हिंदू-मुसलिम एकता को मुगल और राजपूत एकता के
संदर्भों के जरिये प्रदर्शित करती है. इस संदेश के साथ कि हिंदुस्तान की
एकता के लिये हिंदु और मुसलमान दोनों कौम की एकता जरूरी है. शाहजहां को उसके
दरबारी, सिपहसालार अमर सिंह राठौड़ के खिलाफ़ कर देते
हैं, बादशाह उस पर जुर्माना लगा देते हैं जिसे वसुलने के
क्रम में सलावत खां मारा जाता है. अपनी बेगम के उकसाने पर बादशाह अमर सिंह को
मारने के लिये इनाम घोषित करते हैं, लालच में धोखे से अमर
सिंह का साला अर्जुन गौड़ धोखे से अमर सिंह को मार देता है. बादशा इसकी सजा अर्जुन
गौड़ को देते हैं, अमर सिंह का शव लेने उसका नाबालिग भतीजा
राम सिंह, नबी अली के साथ आता है और बादशाह उन दोनों
की बहादुरी से प्रसन्न हो अमर सिंह की पदवी राम सिंह को देते हैं. कथानक में
घटनाक्रम में बहादुरी, धोखा, विश्वास,
इर्ष्या, प्रेम जैसे मानवीय स्वभावों का
प्रदर्शन होता है. अभिनेताओं के हाव भाव से हास्य भी भरपूर उभरता है. कथानक घटनाओं
की जगह पद्यबद्ध संवादों से उभरता है. कथानक के क्रम में अभिनेता सामयिक संदर्भों
से भी नाटक को जोड़ते चलते हैं. प्रस्तुति की यात्रा में अभिनेता दर्शकों को अपने
साथ ले कर चलते हैं, नौटंकी का रस भी तभी आता है.
संवाद अदायगी के बाद अभिनेता दर्शकों की प्रतिक्रिया के लिये रूक रहे थे और
संवाद को ऐसी जगह पर लाकर छोड़ रहे थे जहां से दर्शक पूरा कर सके. नौटंकी की इस
शैली में गायकी ही प्रधान है. कमाल की गायकी और छंदो का गायन में बरतने का सामर्थ्य
दिन प्रतिदिन दुर्लभ होता जा रहा है. इस दल में युवा अभिनेता नहीं दिखे जो
इस तथ्य का प्रमाण है कि युवाओं की दिलचस्पी इस ओर नहीं है. इसका कारण हिंदी
प्रदेश की सामाजिक मान्यताओं में है. नक्कारे, नाल और
हार्मोनियम से संगत करते हुए संवाद जादूई असर करते हैं. इन शैलियों को जीवंत बनाने
के लिये आवश्यक है आधुनिक रंगकर्मी इन शैलियों से साक्षात्कार इनमें कुछ नया
परिष्कार करे जो इसे भविष्योन्मुखी बनाए, क्योंकि इन शैलियों
मे न्यूनतम साधनों से ही बड़े स्तर पर दर्शकों को संबोधित करने की क्षमता है. ऐसी
जीवंत शैली को संग्रहालय की कला में नहीं बदलना चाहिये.
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