धूमिल की कविता पटकथा की रंग-यात्रा दिल्ली में
जारी है। अब तक इसके तीन मंचन हो चुके हैं। पहला मंचन सत्यवती कॉलेज मे, दूसरा सफदर स्टुडियो मे और तीसरा मंचन
हंसराज कॉलेज में हुआ है। कई अन्य मंचनों का आमंत्रण है – देखते हैं कितना संभव हो
पाता है। अभिनेता और निर्देशक की अन्य रंगमंचीय व्यस्तताएं भी हैं। जैसे अभी इसी महीने की 30 तारीख को पटकथा का शो जबलपुर में प्रस्तावित है। बहरहाल, डीयू में हुए इन मंचनों के दौरान कई छात्र – छात्राओं,
रंगप्रेमियों, रंगकर्मियों, रंगालोचकों, शिक्षकों और कार्यकर्ताओं ने हमारी इस प्रस्तुति को देखा। कुछ ने मौखिक
प्रतिक्रिया ज़ाहिर की तो कुछ ने सोशल मीडिया पर अपनी प्रक्रियाएँ ज़हीर कीं। आपकी
सुविधा के लिए सोशल मीडिया पर दी गई टिप्पणीओ को एक जगह एकट्ठा कर दे रहा हूँ।
मेरी नज़र मे अबतक इतनी ही प्रतिक्रिया आईं हैं।
यदि आपकी नज़र मे तारीफ या आलोचना (किसी भी प्रकार की कोई प्रतिक्रिया) दिखे तो उसे
यह पेस्ट कीजिए। नाटकों पर बिना किसी किन्तु – परंतु के खुलकर बात होनी ही चाहिए।
आलोक झा - बहुत दिनों के बाद नाटक देखने को
मिला एक साथ दो दो नाटक और बेहतरीन नाटक !
सत्यवती कॉलेज दिल्ली विश्वविद्यालय में आज
धूमिल की रचना पटकथा और सर्वेश्वर की बकरी दोनों की नाट्य प्रस्तुति थी। निर्देशक
थे पुंज प्रकाश !
पटकथा एक जटिल भावबोध की रचना है जो पाठक को
लगातार बाह्य यथार्थ से उपजे अन्तः संघर्ष में घेरे रहती है। इसलिए कई लोग उस
कविता को पढ़ने तक की हिम्मत नहीं कर पाते ! ऐसे में उसके मंचन की बात आती है तो वह
भी प्यारा नहीं हो सकता और उसकी माँग होती है कि दर्शक भी उस कुरूप यथार्थ से घिर
जाये। यह काम निर्देशक और अभिनेता ने जिस खूबी से किया वह न तो तसवीरों में आ सकता
है न ही उसे आप व्यक्त कर सकें !
जिस निर्देशक को आप पहचानते हों, जिसकी रचना प्रक्रिया से आप लगातार रू ब रू
होते रहे हों उससे आपकी अपेक्षा बहुत रहती है और यह डर भी बना रहता है कि वह उन
अपेक्षाओं पर यदि खरा नहीं उतरा तो। लेकिन पटकथा के आरंभिक कुछ ही मिनटों में ही
उस डर की इति हो गयी।
पटकथा को मैंने आज दूसरी बार देखा था। दूसरी
बार देखना सबसे पहले तुलना की ही बात सामने लाता है। और उस तुलना में कहूँ तो आज
की प्रस्तुति कमाल थी। इसका सबसे बड़ा कारण था पुंज की प्रयोगधर्मिता ! नाटक के
प्रयोगों ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया चाहे वह अभिनेता आशुतोष के
इंप्रोवाइजेशंस हों या फिर नाटक में आए "सोहर' और 'झरनी' जैसे लोकगीतों का
कविता की अवस्था के अनुरूप इस्तेमाल ! यह बात मैंने पुंज प्रकाश जी से नाटक के बाद
की अनौपचारिक बातचीत के दौरान भी कही !
अभिनेता आशुतोष की तारीफ़ कभी खत्म नहीं हो सकती।
पूरी कविता याद रखना और कविता के भावों को शब्दशः उतार देना बहुत आसान नहीं है। और
सबसे बेहतर उनकी टाइमिंग और हास्यबोध रही !
प्रकाश का इंतजाम कमाल था। वह प्रकाश कभी उस
सौंदर्य बोध में जाने नहीं देता जो साधारणतया प्रकाश व्यवस्था का मतलब माना जाता
है। वह प्रकाश कविता के भावबोध को सीधे उतार रही थी।
पटकथा के तुरंत बाद की प्रस्तुति थी बकरी। बकरी
जिसे सत्यवती कॉलेज के पहले वर्ष के छात्रों ने किया उसे देख कर कहीं से नहीं लगा
कि वह पहले वर्ष के छात्रों की प्रस्तुति है। उस प्रस्तुति के साथ कुछ सीमाएँ थी -
पहली बार मंच पर चढ़ने वाले छात्र, कम समय ,
कम अभ्यास। इसके बावजूद उन छात्रों से वैसा जटिल काम करवा ले जाना
निर्देशक पुंज प्रकाश की उपलब्धि ही कहूँगा !
सत्यवती कॉलेज का सभागार बढ़िया है और वहाँ के
लोगों में नाटकों की सलाहियत। मुन्ना कुमार पांडे की सक्रिय भूमिका इसे साबित भी
करती है। हाँ एक कमी यह रही कि उद्घोषणा कमजोर रही। भाषा के स्तर पर भी और उसके
विषय वस्तु के स्तर पर भी। आशा है उसमें बहुत जल्दी सुधार हो जाएगा।
बहुत दिनों के बाद नाटक देखना और देखने से और
देखने की इच्छा पैदा करा देना निर्देशक और अभिनेता की जबर्दस्त सफलता की बानगी है
!
भास्कर झा - पटकथा और धूमिल - आशुतोष ने ब्लॉग लिखने के लिए प्रेरित कर दिया
है।।।काश ! हम आलसी न होते और अपने ब्लॉग पर लिखते। खैर! पठकथा की पूरी टीम को
बधाई और प्यार। एक टीम बिहार से चलकर दिल्ली के सत्यवती कॉलेज में परफॉर्म करती है
और एक सवाल उठाती है कि क्या वाकई धूमिल को पढ़ा है आपने? मैने कभी सरसरी निगाह से पढ़ा था, कल जब आशुतोष अभिज्ञ (नाम अगर गलत लिखूं तो मांफी) का अभिनय देखा तब मैने
धूमिल को जीया भी और साक्षातदेखा भी और दुबारा उसको
पढ़ा। आशु ने बहुत हद तक कथ्य और तथ्य को पकड़े रखा, उर्जा संतुलित, लहर
बरकरार और आवाज़ में खिचाव ज़रूर लेकिन गुर्र्राया उतना ही जितना एक भूखा आदमी
गुर्र्रता है। धूमिल के शब्दों में , ‘जिसके पास थाली है,
हर भूखा आदमी उसके लिए, सबसे भद्दी गाली है’। नाटक आपको एक समय तक एकरस सा लगता है।।एक लय में चला जा रहा है।और
अभिनेता सिर्फ़ बोले ही जा रहा है, बस बोले ही जा रहा है,
पर गर ध्यान दे तो जो बाते वह बता रहा है वह समय की तरह ही गतिमान
है, चपल है, चंचल है, उसमे राजनीतिक कुरीतियाँ हैं, लाचारी है, तथस्ता है, संकल्प है, विचार
है, जो लौह है वही लश्कर है। वह बार-बार बोलता है कि ‘
मैंने देखा’ और सवाल करता है कि ‘क्या आपने देखा?’ वह कहता है :- ‘मैंने देखा कि इस जनतांत्रिक जंगल में हर तरफ़ हत्याओं के नीचे से निकलते हैं
हरे-हरे हाथ, और पेड़ों पर पत्तों की जुबान बनकर लटक जाते हैं
वह ऐसी भाषा बोलते हैं कि जिसे सुनकर नागरिकता की गोधूली में घर लौटते हुए मुसाफ़िर
अपना रास्ता भटक गया है।’ अब अगर आप एक ऐसे इंसान को सुनेंगे
जिसने अपनी ज़िन्दगी में इतना सब सुना- देखा है तो क्या वह मौन रहेगा। वह बोलेगा।।।
मुंह खोलेगा।।। वह हल्ला नहीं।।।उसकी चीख़ में एक गूँज होगी और वह गूंजेगा। अभिनेता
ने पूरी तरह गूँज को बनाये रखा , पर हाँ कुछ जगह पर कुछ
सम्भावनाएं ज़रूर है जिससे गरल और मजबूत हो पर अगर उसे सहज रखा गया है तो बिलकुल
सही है।। हाँ इस बात पर ध्यान देना ज़रुरी है कि गति चाहे जैस भी शब्द गूँज में
खोये ना।।।बल्कि सुनाई दे। दूसरा मंच में बिखराव बहुत था।। अगर थोडा कॉम्पैक्ट
होता तो distraction कम होता। कहीं - न- कहीं वह चुभता है,
पर फिर आशु आपका ध्यान सेट, लाइट,
costume से हटाकर अभिनय पर ले जाता है। मुझे इस गूँज से आगाध प्रेम
हो गया है क्योंकि यह हल्ला बोल तक सीमित नहीं है, बल्कि यह
परेशान करता है। कल का दिन आशु के नाम, पुंज जी का नाम नहीं
लूँगा क्योंकि लेख उनको खुश होने के लिए नहीं लिखा है। बाकी सब डिफ़ॉल्ट है जी।
लेकिन इसपूरेकार्यक्रम के संचालन का कार्य मुन्ना पांडे भाई ने बखूबी किया है।
उनका यह योगदान रंगकर्म के लिए नई प्रेरणा है। मुझे कल आशुतोष ने प्रोत्साहित किया
और आज जब भी मैं धूमिल की किताब उठाता हूँ तब मेरा भी मन पटकथा करने को करता है।।
आप भी पढ़िये , देखिये। अंत में धूमिल के शब्दों में ,
‘जो था उसे जी भर कर प्यार किया और जो नहीं था उसका इंतज़ार किया
मैंने, इंतज़ार किया
ज्ञान प्रकाश - 'पटकथा’
को पढ़ते हुए आज तक जिन अर्थछवियों की ओर ध्यान तक नहीं गया था;आज उसे मंच पर देखते ,सुनते और मंचित होते देखा तो
एहसास हुआ कि वास्तव में आज मैंने धूमिल के तेवर और पटकथा को पढ़ा है।आशुतोष जी का
एकल अभिनय न केवल अचंभित करने वाला था बल्कि मेरे द्वारा अब तक देखे गए नाटकों में
सर्वोत्तम भी।लाज़वाब अभिनय के साथ युवा निर्देशक पुंज प्रकाश जी का कुशल निर्देशन
यह बताने के लिए काफ़ी है कि कला -कुशलता संसाधनों ,संस्थानों
,बड़े बजट आदि की मोहताज़ नहीं है।पटकथा के वास्तविक पाठ को
समझाने के लिए 'दस्तक ,पटना' को धन्यवाद।। लाज़वाब प्रस्तुति।शानदार अभिनय। कुशल
निर्देशन।।मनमोहक संगीत योजना।।।जो नहीं गए उनके लिए सांत्वना भरा अफ़सोस।।।
सिंगर रॉक - कल पटकथा देखी - शानदार अनुभव। निर्देशक की तारीफ़ जितनी की जाए कम है,बधाई पुंज दादा। अशुतोष भाई के अभिनय का बहुत बड़ा फैन रहा हूँ।।कल के बाद तो और हो गया,उनको देखना बेहद सुखद। धुमिल को जिस तरह निर्देशक और अभिनेता ने जिया अद्भुत था। संगीत भी उम्दा - पूरी टीम को बधाई।
टीम पटकथा |
अमन आकाश - कल्पना कीजिए उस मंज़र की, जब
अमेरिका ने हेरोशिमा पर एटम बम गिराया होगा,
कितनी मात्रा में ऊर्जा निकली होगी, किस कदर
दिल दहलाने वाला विस्फोट हुआ होगा और उस विस्फोट के बाद किस तरह की शान्ति छायी
होगी।।
कुछ ऐसा ही मंज़र था दिल्ली
विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज के सभागार में।। मंच पर विस्फोट हुआ था और
दर्शकदीर्घा में सन्नाटा पसरा था।। मौका-ए-वारदात पर मौजूद थे पटना रंगमंच के युवा
अभिनेता आशुतोष अभिज्ञ, जो सुदामा पाण्डेय "धूमिल" की कविता 'पटकथा' को जीवंत कर रहे थे। कविता पढ़ना, कविता सुनना और कविता को घटित होते देखना, तीनों से
अलग तरह के रस की उत्पत्ति होती है।। अभिज्ञ ने अपने अभिनय से तमाम रसों को अपनी
पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया और दर्शक अपलक सराबोर होते रहे। दिल्ली की भीषण गर्मी,
दुपहरिया और शरीर पर सीधे गिरते प्रकाशपुंज, इन
सब के बीच अपनी ऊर्जा बचाए रखना, सभागार में आखिरी बैठे
दर्शक तक अपनी आवाज़ पहुँचाना निस्संदेह काबिलेतारीफ़ है।
इस टीम की दिल्ली में यह
तीसरी प्रस्तुति थी। इससे पहले सत्यवती कॉलेज (डीयू) और सफ़दर स्टूडियो में इसकी
बेहतरीन प्रस्तुति हो चुकी है। कविता 'पटकथा' की अगर बात
करें तो यह स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद आज तक प्रासंगिक है। एक-एक पंक्ति से ऐसा
परिलक्षित होता है मानों ये आज के परिप्रेक्ष्य में ही लिखी गयी हो। दिल्ली
विश्वविद्यालय की राजनीतिक व्यवस्था को देखते ऐसा लगता था कि इस नाटक पर विवाद हो
सकता है, ये विरोध की एक नयी आवाज़ है लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
इसे निर्देशन कुशलता कह लें।
आशुतोष अभिज्ञ नामक बम फटा था, बम बनाने
वाले थे पुंज प्रकाश और बीच-बीच में आग में घी डालते रहे आकाश कुमार। बाकी अगली
प्रस्तुति में ये तिकड़ी आपका इंतज़ार करेंगी। जाइए और विरोध के एक नए रंग में रंगिए।
प्रकाश उप्रेती - दृश्य अब भी
आँखों में हैं और एक गूंज कानों में अब तक सुनाई दे रही है। मैं बात कर रहा हूँ
धूमिल की कविता पटकथा के मंचन की। आज जब पटकथा का मंचन देखा तो कविता का विराट फलक ज़ेहन में गहरे तक धंस
गया। कविता की वो बेचैनी, आक्रोश, छटपटाहट, हताशा,
सब कुछ मंच पर देखने को मिला। पुंज प्रकाश जी का निर्देशन और आशुतोष
अभिज्ञ का अभिनय कमाल का था।
पटकथा, प्रस्तुति
– दस्तक, कविता – धूमिल, अभिनेता – आशुतोष
अभिज्ञ, संगीत संचालन – आकाश कुमार, परिकल्पना
व निर्देशन – पुंज प्रकाश, प्रस्तुति संयोजक - THE THIRD ACT DRAMATIC SOCIETY, सत्यवती कॉलेज
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