अमितेश कुमार का यह संस्मरण उनके ब्लॉग रंगविमर्श से साधिकार कॉपी-पेस्ट.
इस बार मेरी इच्छा बिलकुल नहीं थी कि गाँव में खेले जाने वाले नाटक में मैं वैसी सक्रियता से भाग लूं जैसा कि पिछले सात सालों से लेता आया था. इसकी शुरूआत हुई थी 2005 में. अपने गांव वाले घर में चोरी होने के सिलसिले में बगहा से अचानक गांव पजिअरवा जाना पड़ा. यह भारत के बिहार प्रांत के मोतिहारी जिले के सुगौली प्रखंड में स्थित है जिसमें ग्रामपंचायत भी है. गाँव के लोगों को गर्व है कि पंचायत पजिअरवा नाम से है. संयोग से पंचायती राज की बहाली के बाद एक निवर्तमान मुखिया और एक वर्तमान मुखिया का ताल्लुक़ गाँव से ही है. एक सनातन मुखिया जी भे थे जो दिवंगत हो गये हैं. गाँव से हाइवे और रेल लाइन छः किलोमीटर की दूरी पर है. बचपन में ट्रेन पकड़नेके लिये नजदीकी हाल्ट धरमिनिया पैदल जाया करते औ रआते भी,कभी-कभार बैलगाड़ी रहती. बरसात के चार महीने गाँव टापू बन जाता. कच्ची सड़कों और धान रोपने के लिये तैयार किये खेतों के बीच का फ़र्क़ मिट जाता था. सड़के अलबत्ता खेतों से ऊंची थीं. जब कभी कोई दुस्साहसी वाहन उसमें फँसता तब उसे निकालना या निकलवाना एक सामाजिक कवायद होती. यह वाहन आम तौर पर ट्रैक्टर होते. (जीप और उस जैसी चार पहिये वाहन का आगमन दुर्लभ था इसलिये उनका आगमन बच्चों के लिये जश्न था.वाहन की उड़ाई धूल लेने के लिये उसके पीछे देर तक दौड़ते थे.) ट्रैक्टर पर सवार ड्राइवर को कोई भी और कुछ भी सलाह दे सकता था. जैसेदांया कर, हाईड्रोलिक उठाव, हेने काट, होने काट आदि. बच्चे इस तमाशे के भी मुख्य दर्शक थे और हाथ में कुदाल ले कर पांक काटते युवक पसीना बहाते हुए किसी तरह ट्रैक्टर को निकाल लेते. कच्ची से खड़ंजा, और खड़ंजा से पक्की सड़क कोलतार वाली बन गई है. मेरे बीसबरसा होश में यही ‘विकास’ है. जहाँ आवागमन का एकमात्र साधन पैदल था, वहाँतांगा और जीप चलने लगे. अब धीरे-धीरे टैम्पो तांगे को विस्थापित कर रहे हैं. गाँव के ब्रह्म स्थान से ही जीप या टैम्पो पर बैठकर आप देश-दुनिया की यात्रा पर निकल सकते हैं. बाकी मोबाईल तो घर-घर में है ही. मुआ बिजली भी कुछ दिनों के लिये आयी लेकिन अपने पीछे दो जले ट्रांसफ़रमर छोड़कर दो सालों से लापता है. बिजली के आने के बाद उत्साही घरों में ख़रीदे गयेटेलीविज़न फिर से पैक कर दिए गये हैं. बिजली का भ्रम बरक़रार रखने के लिये रंजीत का महाजनरेटर शाम के तीन घंटे चलता है. ख़ैर, उस साल घर में हुई चोरी की तफ़्तीश के लिए कई रास्तों का सहारा लिया गया था. पुलिसिया रास्ता भी. इन्क्वायरी के लिये आये जमादार साहब की दो हज़ारी की डिमांड को मैंने आदर्शवाद से व्यवहारवाद की धरातल पर उतर कर मोलतोल के उपरांत पांच सौ में निपटाया.
‘गाड़ीका तेल और पुलिस पार्टी में पांच आदमी का खरचा इतना में कैसे होगा जी?’
अरे सर! मेरेयहां चोरी हुआ है...पापा नहीं हैं ...इतना ही है घर में ... कहां से लाएं
इंक्वायरी की औपचारिकता के लिये आये इस दल को देखनेके लिये बिना टिकट दर्शकों की भीड़ जमा हो गई थी. जाते-जाते लोगों के छान-छप्पर से कोहंड़ा- भथुआ(जिससे मुरब्बा या पेठा बनता है) लेते गये. बाक़ी के पन्द्रह सौ की भरपाई हो गई. दूसरा रास्ता था ओझा-गुनी वाला. एक साथ ऐसे कितने ओझाओं की ख्याति हमारे पास पहुँच गई जो चोरी करने वाले का एक दम से नाम बता देते थे. इसमें सबसे गुप्त सुझाव देने वाले पड़ोस की एक महिला ने चुपचाप रह कर उपाय करने के लिये कहा औरइसके लिये मुझे प्रेम की सहायता लेनी थी. प्रेम उन महिला के सौतेले पुत्र हैं और गाँव में वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी है. गाँव में नाटक, अष्टयाम, अराधना, कीर्तन, होरी इत्यादि में उनकी उपस्थिति लाजिमी होती है. वे सधे गायक, पके अभिनेता, जमे नाल वादक और तपे-तपाए संगठनकर्ता हैं. उनको बुलाने के लिये उनके घर गया रात में, तो पता चला वो पड़ोस में हैं. वहाँ पहुँचा तो देखा कुछ लोग इकठ्ठा थे. प्रेम भाई भी वहीं थे. मैं उन्हें प्रेम भाई ही कहता हूं और वे मुझे मोनूजी. वहाँ नाटक के पात्र का बँटवारा हो रहा था और नाटक खेलना तय हो गया था. मैंने प्रेम भाई को बाहर बुला कर अपनी बात कही. उन्होंने भरोसा दिया कि कल सुबह वो मेरे साथ चलेंगे. फिर मेरी बुलाहट अंदर हुई. मुझे भी नाटक में एक भूमिका करने के लिए कहा गया.पहला प्रस्ताव था नायिका का, गाँव के नाटकों में अभी भी पुरुष ही स्त्री की भूमिका करते हैं. इसके लिए लड़कों को मनाना मशक्कत भरा काम होता है. लड़को को भी अभिभावक का डर सताता है, जो बेटॊं को बेटी बनने के लिये घर से निकालने की धमकी तक देते हैं. गाँव में कई बार ऐसा भी हो चुका था कि पितृ-भयके चलते पुत्र इच्छा रहते भी नायिका की भूमिका नहीं निभा सके थे. आपात स्थिति में किसी और को भूमिका करनी पड़ी थी. वैसे मेरे गाँव में नाटक की बहुत दीर्घ परंपरा है लेकिन उसका वर्णन बाद में. आइये रोल के लिये हो रही बातचीत पर लौटते हैं. मैंने कहा कि इस मनःस्थिति में मैं नायिका का किरदारनहीं कर सकता. लेकिन एक छोटा रोल मुझे दे दीजिये,मैं कर लूँगा. नाटक मंडली में इस तरह मेरा प्रवेश हुआ. मुझे एक फ़ौजी की भूमिका मिली थी. शायद सिख फ़ौजी की. मेरी काया कतई सिख-सी नहीं थी. फिर भी,दिन में मैं घर के काम में उलझा रहता और रात में रिहर्सल करता. इस भूमिका के मिलने के पहले मैं उस साल दशहरे में जब गाँव गया था तब नाटक खेलनेकी सारी संभावनाओं को टटोल कर निराश हो कर लौटा था.
गाँव में जिस टोले में नाटक होते थे उसके सदस्यों के बीच फूट थी और नाटक होना संभव नहीं था. इससे एक साल पहले की बात है इसी तरह दशहरे में मैं जिस दिन गाँव पहुँचा, उसी दिन मुझे एक भूमिका की स्क्रिप्ट दे दी गई और रात में रिहर्सल में आने को कहा गया. गाँव में उससे साल भर पहले जो नाटक हुआ था उसमें मैं बैकस्टेज सक्रिय था, इसी वज़ह से यह रोल दियागया था. शाम में रिहर्सल में पहुंचा तो पता चला कि नायक का रोल मुझे विवाद की वज़ह से मिला था. दो लोगों की दावेदारी के विवाद का निबटारा मुझे रोल देकर किया गया था. शाम में अनुभव हो गया कि नाटक मंचन की संभावना नहीं थी. खैर इस साल भी वहीं नाटक हो रहाथा, किताब उस टोले की पहली टीम ने उसी टोले की दूसरी टीम को और दूसरी टीम ने हमारे टोले के लडको को दिया था. टोला-टोला में आप भ्रम में पड़ गये होंगे तो आइये इस टोले की गुत्थी को सुलझा लें. वैसे रेणु के उपन्यास के गांव और बिहार के ग्रामीण टोले को तो समझते ही हैं. मेरे गाँव में मुख्यतः पांच टोलें हैं. एक पुर्वारी टोला, जिसमें हम हैं,दूसरा पछियारी टोला, तीसरा पोखरा पर, चौथा टोला और पांचवा बऊधा टोला. पछियारी टोले में नाटक खेलने वाली दो टीम थी. हमारे टोले के लड़के उसी दो टीमों में अपने संघत के हिसाब से नाटक खेलते थे. हमारे टोले को उस टोले के लोग थोड़ा कमतर मानते हैं और यह पूर्वाग्रह उस टोले में निवास करने वाली सभी जातियों का हैं. आखिर गाँव के भूतपूर्व सामंत और ‘दर’बार का वह टोला था, जिसमें एक पोस्ट ऑफ़िस था, पुस्तकालय था, स्कूल था, मंदिर था, माई स्थान था, स्वतंत्रता सेनानी थे, पान दुकानदार थे, पत्रकार थे और एक पूर्वमुखिया भी. हमारे टोले में संपन्न, शिक्षित, नौकरीपेशा लोगों की संख्या कम थी या नहीं के बराबर थी. शक्ति प्रतिष्ठान भी नहीं थ, ले दे कर एक मसजिद और कुछ आटा पिसने की चक्कियाँ थी.
उस टोले की टीम जब भी नाटक खेलती और पात्र बंटवारा करती तब हमारे टोले के लड़कों को कमतर रोल दिया जाता.अधिकतर नायिका का, नौकर का,बुढे का या अन्य हास्य किरदारों का. इस उपेक्षा के प्रतिशोध में टोले के लड़के किताब उस टोले से ले कर आये थे और बुनाद की दुकान पर तराजु छू कर कसम खाई थी कि नाटक होगा. बुनाद की शिक्षा नहीं के बराबर हुई है. हमारे टोले में कुछ हिंदुओं के बीच मुसलमानों का घर था, जिसमें उसका भी था. बुलंदआवाज़, साफ़ उच्चारण और याद करने की जबरदस्त क्षमता. नाटक खेलने की उसकी ललक ने सबको प्रेरित किया था. कसम खा ली गई थी, रोल बंट चुके थे,रिहर्सल शुरू हो गई थी, जो बुनाद की ही झोपड़ी में होती थी. कान से कम सुनने वाली उसकी मां को आखिर क्या फ़र्क पड़ता!रिहर्सल में घुसते ही मुझे किताब दे दी गई.इसका मतलब था पात्र के अभिनय करते समय संवाद की चूकों पर उनका ध्यान दिलाना और संवाद प्रॉम्पट करना फिरधीरे-धीरे बहुत सारी जिम्मेवारियां मैं ओढ़ता गया, और कुछ वो ओढ़ाते भी गये. दिल्ली में रह कर पढने का प्रभाव था ये शायद. मैंने कुछ अपने पसंद के लोगों को दल में शामिल कराया और रफ़्ता-रफ़्ता रिहर्सल से मंच तक नाटक पहुंचा. हम जब चँदा माँगने के लिए गाँव में निकलते लोग हमें हतोत्साहित करते क्योंकि हमारे टोले में नाटक हुए ज़माना हो गया था.जबकि गाँव के सभी हिट नाटकों में से अधिकतर हमारे टोले में हुए थे. हम तर्क देते थे कि हम अठारह पात्र हैं और हमारे घरवाले जो कम से कम सौ होंगे हमारा नाटक देखेंगे. अतः हमारे पास दर्शक तो हैं. गाँव में नाट्य दल का नाम रखने का रिवाज़ था. जिसमें ‘नवयुक नाट्य कला परिषद’ के आगे कोई एक नाम जोड़ दिया जाता था. हमने इस परंपरा को तोड़ के अपने दल का नाम रखा ‘अभिरंग कला परिषद’, जिसमें अभिरंग का आशय था अभिनव रंगमंच. नाटक हुआ और क्या जबरदस्त हुआ! ‘कश्मीर हमारा है’ उर्फ़ ‘आतंकवाद को मिटा डालो’. नाटक कीसमाप्ति के बाद दर्शको को कह के उठाना पड़ा कि नाटक समाप्त हो गया!
पहले साल हमनें प्रबंधन से पैसे बचाये और एक पर्दा ख़रीदा. उसके बाद कारवाँ चला और इन सालों में सिर्फ़ एक साल नाटक नहीं हुआ क्योंकि उस साल ग्रामीण सहकारिता समिति के चुनाव थे. गाँव के कई लोग चुनाव लड़ रहे थे. नाटक के मंच का राजनीतिक इस्तेमाल होने और इस चक्कर में झंझट होने का भय था. दो टोले थे, उनकी टीम थी, टीम के बीच विवाद था और उस विवाद में पक्षधरता दिखा कर कोई भी अपना वोट बैंक नहीं खोना चाहता था. नाटक लिख लिया गया था, (नाटक लिखने का मतलब नाटक लिखनेसे नहीं है, इसका मतलब है कि चुने गये नाटक को पात्र के हिसाब से उनकी भूमिकाएं लिख लेना. पात्र चुन लिये गये थे लेकिन ‘भीष्म प्रतिज्ञा’ की लिखी गयी भूमिकाओंको समेट कर रख दिया गया कि अगले साल खेलेंगे. गाँव के राजनीतिक माहौल में कोई आगे बढ़ कर उस साल नाटक के लिए खड़ानहीं हुआ था. हमारे लिये यह सबक था क्योंकि हमें उस समय संसाधन की किल्लत थी, अब तय हुआ कि नाटक खेलना है तो अपने पास संसाधन पर्याप्त जुटाना होगा जो हस्तक्षेप और दबाव से निकलने में मदद करेगा और नाटक होता रहेगा. जारी.............
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