आज से लगभग २० साल पहले हिंदी के अन्य नाट्यकर्मियों की भाँति मंजुल भारद्वाज की भी यही धारणा थी कि हिंदी में ना मौलिक नाटक हैं और न सहृदय दर्शक. पर 1992 में नाट्यकर्म की एक असफलता उनके जीवन में एक बड़ा मोड़ लेकर आई, सड़क किनारे सामान बेचने वाले एक आम दुकानदार की जिज्ञासा ने उनके सोच को एक मोड़ दिया. ' मेरे नाटकों से इस आम इंसान का कोई सम्बन्ध क्यों नहीं है? मेरे नाटकों में इस आम आदमी की सहभागिता क्यों नहीं है?' और तब उन्हें महसूस हुआ कि जब तक नाटक इन आम लोगों को अपने से नहीं जोड़ेगा तब तक नाटक विशेषकर हिंदी नाटक इसी तरह से दर्शकों के लिए तरसता रहेगा. और इसी बिंदु से शुरुआत हुई एक ऐसी नाट्य पद्धति, एक ऐसी नाट्य सोच की , एक ऐसे नाट्य दर्शन की जिसमे नाटक के लिए पहला रंगकर्मी दर्शक को माना गया. इस नाट्य पद्धति को नाम मिला " थिएटर ऑफ रेलेवेन्स". इस पद्धति की सोच का आधार यही है कि नाटक का मूल उद्देश्य है लोगों से, लोगों द्वारा और लोगों के लिए. नाटक की सार्थकता तभी है जब उसमे आम आदमी को अपनी अभिव्यक्ति दिखे और वह स्वयं उसका पात्र बन सके.पिछले बीस वर्षों से हज़ारों नाट्य प्रस्तुतियां कर चुके इस नाट्य दर्शन को पहली बार समग्र रूप से संपादित किया है लेखक व नाटककार संजीव निगम ने . और सामने आई है पुस्तक " मंजुल भारद्वाज- थिएटर ऑफ रेलेवेन्स ". इस पुस्तक के अधिकाँश हिस्से स्वयं मंजुल भारद्वाज के अनुभवों, चिंतन और लेखन से उपजे हैं. देश विदेश में हज़ारों हज़ार प्रस्तुतियों और लाखों लोगों की सहभागिता ने मंजुल को इस थिएटर आन्दोलन के अपने सिद्धांतों , प्रक्रियाओं और प्रतिस्थापनाओं को आकार देने में अपनी भूमिका निभाई है. मंजुल भारद्वाज का' एक्सपेरिमेंटल थिएटर फाउनडेशन ' इस आंदोलन की नींव है. मुंबई में 1992 में हुए साम्प्रदायिक दंगों ने सबसे पहले इस नाट्यधारा को अपने प्रभाव को परखने का अवसर प्रदान किया था. इस नाट्य समूह ने समस्त चेतावनियों को अनदेखा करते हुए, दंगों से पीड़ित बस्ती में जाकर दंगों की विभीषिका के ऊपर मंजुल लिखित नाटक 'दूर से किसी ने आवाज़ दी खेला था. इस नाटक को हज़ारों लोगों ने देखा और नाटक का अंत तक आते आते वहां उपस्थित जन समूह भावुक हो गया था. इसके बाद थिएटर ऑफ रेलेवेन्स ने बाल मजदूरों, शोषित महिलाओं, शिक्षा व्यवस्था , नारी मुक्ति, नारी भ्रूण हत्या आदि विषयों पर नाटक खेले पर ये नाटक सिर्फ नाट्यघरों में नहीं खेले गए बल्कि जहां भी दर्शक को सुविधा थी उसी जगह को मंच बना कर खेले गए. इस नाट्य दर्शन में आम आदमी के विषय साफ़ दिखाई दें इसलिए मंजुल ने खुद नाटक लिखने का बीड़ा भी उठाया ताकि विषय का प्रभाव बना रहे. उन्होंने नाटक लिखने के साथ नाटक पेश करने की भी कोई ख़ास बंधी हुई शैली नहीं रखी है. जैसी जगह हो , जैसे साधन हों नाटक उनके अनुरूप प्रस्तुत किया जा सकता है." मंजुल भारद्वाज- थिएटर ऑफ रेलेवेन्स " पुस्तक के एक अहम हिस्सा है मंजुल भारद्वाज से एक लम्बी बात चीत. इसमें न उन्होंने न सिर्फ अपनी नाट्य पद्धति के बारे में खुलासा किया है बल्कि हिंदी नाटकों को क्या कमियाँ सता रही हैं, क्यों दर्शक हिंदी नाटकों से दूर है आदि विषयों पर खुल कर अपने विचार रखे हैं जिनमे से कई विचार आम प्रचलित धारणाओं को तोड़ते हैं, कुछ सवाल उठाते हैं. इसी तरह से एक अध्याय में वे थिएटर से जुडी कई भ्रांतियों को तोड़ते हैं और नाटक को एक सहज रूप में प्रस्तुत करते हैं.नाटक को मनोरंजन से आगे बढ़ा कर परिवर्तन और प्रशिक्षण का माध्यम भी मंजुल ने बनाया है. उसके इन प्रयासों को अन्तराष्ट्रीय स्तर पर सराहना मिली है. इस पुस्तक के आने से अब इस नाट्य पद्धति पर दूसरे विद्वान् भी चिंतन कर सकेंगे. पुस्तक के विभिन्न पाठों में इस पद्धति के अलग अलग पक्षों पर लिखा गया है. इसके अतिरिक्त प्रबंधन, शिक्षा, प्राकृतिक आपदा आदि परिस्थितियों में थिएटर कैसे सार्थक भूमिका निभा सकता है इसका भी विस्तार से एवं व्यावहारिक उद्धरणों के साथ उल्लेख है.
पुस्तक का नाम : " मंजुल भारद्वाज- थिएटर ऑफ रेलेवेन्स "सम्पादक : संजीव निगमप्रकाशक : रवि प्रिंटर्स, औरंगाबाद.मूल्य : 200 /रुपये. उनसे यहाँ संपर्क किया जा सकता है .
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