रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

साहित्यकार विजयदान देथा से एक मुलाकात


विजय दान देथा 

राजस्थानी के चर्चित साहित्यकार विजयदान देथा उर्फ बिज्जी को इस बार के नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया था. खांटी किस्सागोई के बीच तना बिज्जी का कथा-संसार लोक राग, लोक आग, लोक रंग तथा लोक गंध का आधुनिक अजायबघर है. पेश हैं  शिरीष खरे से उनकी बातचीत के अंश:   

इस बार आपको नोबेल पुरस्कार की संभावित सूची में शामिल किया गया था. यूरोप के कई सर्वे भी आपको पुरस्कार का प्रबल दावेदार मान रहे थे. मगर जो नतीजा आया उस पर आप क्या कहेंगे?

मुझे नोबेल न मिलने का दुख नहीं है. हां, खुशी तो है ही कि मैंने अपने जीवन में अच्छी किताबें लिखीं और साहित्य जगत में अहम जगह बनाई. नोबेल की संभावित सूची में आने को भी मैंने सामान्य तरीके से ही लिया. मैंने तो कभी किसी पुरस्कार के लिए कोई प्रविष्टि नहीं भेजी. नोबेल के लिए भी नहीं. दुनिया भर की कहानियां पढ़ने के बाद मैं अपनी कहानियों को लेकर आश्वस्त हूं. मुझे मेरी कहानियों की कमजोरियां भी पता हैं और मजबूत पक्ष भी मैं जानता हूं. मैंने अपने बुजुर्गों से सुनी कहानियों को सामाजिक मुद्दों से जोड़कर पेश किया है. यह मेरी खुशकिस्मती है कि राजस्थानी में लिखी मेरी किताबों को एक बड़े फलक पर सराहा गया है.

जब साहित्य आधुनिकता की ओर बढ़ा जा रहा था, आप लोक की तरफ क्यों लौट आए?

कई बार लोक चेतना सामंती और जनविरोधी होती है. इसलिए मैं केवल कथानक के स्तर पर लोक में गया हूं, जबकि दृष्टिकोण या मूल्यबोध के स्तर पर आधुनिकता, प्रगतिशीलता और बहुजन हिताय की चेतना को ही अपनाया है. मैंने कथानक के बुनियादी ढांचे को ज्यों का त्यों रखा है मगर मूल्यबोध बदल दिया है. इसलिए मेरी कहानियां लोक साहित्य का पुनर्लेखन भी नहीं हंै. इसलिए आपको मेरी कहानियों में फैंटेसी और आधुनिक यथार्थ का ऐसा ताना-बाना मिलेगा जो एक नया रूप संसार सामने लाता है.

आपने लोक चेतना में किन पक्षों का विरोध किया है?

मैंने सबसे ज्यादा ईश्वर और उसकी सत्ता का विरोध किया है. मैं मानता हूं कि मनुष्य ने ईश्वर को गढ़ा है, इसलिए मेरे लिए मानवीय गरिमा ही सबसे ऊपर है और इसीलिए मैंने सभी कहानियों के अलौकिक, चमत्कारी और दैवी प्रसंगों में मानवीय गरिमा को ही सर्वोपरि रखा है. मेरी कहानियों में पुरोहितवादी, बनियावादी और सामंतवादी ताकतों का भी विरोध किया गया है.

राजस्थान की लोककथाओं पर लिखने के बारे में कैसे सोचा?

पच्चीस-छब्बीस साल में रूसी साहित्य का अनुवाद पढ़ने का बड़ा उत्साह था. फ्रेंच साहित्य भी पढ़ा था. उसी से जाना कि रूस का संभ्रांत तबका फ्रेंच पढ़ता था और गंवार माना जाने वाला तबका रूसी बोलता था. शुरू में रूसी लोगों ने अनुवाद किए और जब उन्होंने मातृभाषा रूसी में लिखना शुरू किया तो पचास-साठ साल में ऐसे रूसी लेखक पैदा हुए जो फ्रेंच लेखकों का मुकाबला कर सकते थे. रूसी लेखकों से प्रेरणा लेकर सोचा कि मुझे अब राजस्थानी में ही लिखना चाहिए. राजस्थानी में लिखे बिना मेरे सृजन का विस्तार नहीं हो सकता. मैं अपने आसपास के लोगों से लोकगीत और पारंपरिक कथाएं सुना करता था. मुझे लगा कि लोकसाहित्य अगर लोगों की जुबान पर जिंदा है तो उसमें जरूर कोई ताकत है. इसके पहले कई प्रेसों में काम करके हिंदी में तेरह सौ कविताएं और तीन सौ कहानियां लिख चुका था. एक दिन बड़े उद्योगपति और राजस्थान संगीत अकादमी के प्रथम अध्यक्ष शाह गोवर्धनलाल जी काबरा के सामने मैंने अपनी इच्छा प्रकट की. कहा, बाबा-सा म्हें तौ अबै राजस्थानी में लिखण रो मतो करयो. उन्होंने बहुत समझाया मगर मैं जिद पर अड़ा रहा तो बोले जोधपुर छोड़कर अपने गांव बोरूंदा क्यों नहीं चले जाते, वहां कई पीढि़यों से चली आ रही लोककथाओं को सुनो और उन्हें अपनी कहानी कला का बाना पहनाओ.

लोककथाओं को कहानी कला का बाना पहनाना कितना मुश्किल था?

बहुत मुश्किल था. बोरूंदा में प्रेस लगा लिया. बाबा-सा और जयपुर में उद्योग विभाग के निदेशक त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी जी ने बड़ी मदद की थी. तब गांव में बिजली नहीं थी. एक बड़ा-सा व्हील कबाड़ा लगाकर प्रेस चलाया. 1962 की दिवाली पर ‘बातां री फुलवाड़ी’ का पहला भाग निकाला. उस समय मेरे लिखने की गति थी- 17 कंपोजिटर और मैं अकेला लेखक. सबेर तीन बजे उठता और कंपोजिटरों के नौ बजे आने तक बीस-पच्चीस पेज लिख लेता. इस गति से 1981 तक फुलवाड़ी के पांच-छह सौ पृष्ठों के तेरह भाग तैयार हो गए. आर्थिक तंगी की वजह से प्रेस न बेचना पड़ता तो अब तक पच्चीस-तीस भाग तैयार हो जाते.

आपने हिंदी में भी लिखा. इन दोनों भाषाओं के लेखन में क्या अंतर पाया?

मुझे लगता है वैसी भाषा की सुंदरता, प्रांजलता, माटी की महक जो राजस्थानी में है वह हिंदी में मुमकिन ही नहीं. उसका जायका ही कुछ और है. ऐसा जायका हर मातृभाषा में मिलता है.

कहा जाता है कि अगर आपकी लोककथाओं का हिंदी अनुवाद नहीं किया जाता तो आपको उतनी लोकप्रियता नहीं मिलती जितनी है?

यह सच है कि हिंदी ने मुझे अपनी भाषा के पाठकों से कहीं ज्यादा तवज्जो दी है. मैं सबसे ज्यादा बिहार में लोकप्रिय हुआ और उसके बाद मध्य प्रदेश में. मेरे चिरंजीव कैलाश कबीर ने ‘दुविधा’ और ‘उलझन’ का अनुवाद करके मुझे हिंदी जन मानस में प्रतिष्ठापित किया. अगर कैलाश ने अपनी जिद पर अड़कर अनुवाद नहीं किया होता तो मैं हिंदी पाठकों के सामने कभी नहीं आ पाता. मुझे राजस्थानी भाषा के लिए सबसे पहले साहित्य अकादेमी का पुरस्कार भी मिला. यहां मैं एक बात और जोड़ दूं कि हमने हिंदी में अनुवाद तो किया मगर राजस्थानी की महक का भी ध्यान रखा. लोककथा के मोटिफ से कभी कोई छेड़खानी नहीं की.

आप राजस्थानी भाषा की मान्यता के पक्षधर हैं? 

हां. हिंदी हिंदुस्तान के किसी भूखंड की भाषा नहीं है. जो भी भूखंड है उसकी अपनी मातृभाषा है- अवधी, मैिथली, भोजपुरी, मालवी वगैरह. हिंदी किसी परिवार की भाषा हो सकती है, लेकिन एक बड़े समुदाय की भाषा बिल्कुल नहीं. यह जन्म के साथ नहीं सीखी जाती बल्कि इसकी शिक्षा दी जाती है. हम चाहते हैं कि राजस्थानी भाषियों को भी रोजगार मिले. जो कहते हैं मान्यता के फेर में न पड़ो बस लिखते जाओ या राजस्थानी भी हिंदी ही है तो हमारा सवाल है कि राजस्थानी को हिंदी की किताबों में शामिल क्यों नहीं कर लिया जाता. तब वे कहते हैं भाई यह समझ में नहीं आती. समझ इसलिए नहीं आती कि शब्द-भंडार से लेकर क्रियापद तक राजस्थानी हिंदी से अलग है.

आपको किन साहित्यकारों ने प्रभावित किया है?

चेखव, रवींद्र बाबू और शरत बाबू ने. चेखव से अकिंचन घटनाओं की अकूत सामर्थ्य और लीक से हटकर चलने का अदम्य हौसला सीखा है. रवींद्र बाबू से सामान्य दृष्टांत और उनकी अद्भुत दार्शनिक सूझ-बूझ को आत्मसात किया है. शरत बाबू से सहज संवाद और घटनाओं का संयोजन समझा है.

नयी कहानी के लिए कौन-सा तत्व होना सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है?

चेखव की एक कहानी है ‘डेथ ऑफ ए क्लर्क.’ यह मनुष्य की एक सहज प्रक्रिया छींक पर है. मात्र एक छींक से दुनिया भर के सबोर्डिनेट का चित्रण कर दिया. मेरी दृष्टि से जो घटनाएं अभी तक नहीं आई हैं उनको लाना ही नयी कहानी की जरूरत है. दूसरा, जब कहानी के भीतर पात्रों की दुनिया बदलती है तो उसमें नयापन आता है. पहले सामंतों का दबदबा था, उच्च-मध्यम वर्ग तक कहानी सीमित थी मगर बाद में महाश्वेता जैसी रचनाकार ने कहानी में आदिवासियों के दुख और संघर्षों को जगह दी. ऐसे रचनाकार पुरानी जमीन पर जुताई नहीं करते बल्कि नई जमीन तोड़ते हैं, तब कहीं नयापन पैदा होता है.

एक कलात्मक रचना किन परिस्थितियों में बनती है?

मेरी धारणा है कि कलात्मक रचना अवचेतन मन से बनती है. जो खुद को भी पता न हो और जब पता चले तो चकित कर दे कि अरे यह क्या तुम्हारे ही भीतर था. इसलिए न मैं लिखने से पहले सोचता हूं, न लिखे हुए को काटता हूं और न ही उसे फिर से पढ़ता हूं. जब मेरा प्रेस था तो आधा वाक्य लिखा छोड़कर प्रूफ करने बैठ जाता, और फिर छूटे हुए वाक्य को आगे लिखने लग जाता. प्रेस के शोर-शराबे के बीच ही लिखता रहा हूं, इसलिए कह सकता हूं कि लिखने के लिए कोई मूड नहीं होता.

बीते कई सालों से लोक संस्कृति में आए बदलावों को किस तरह देखते हैं?

यह समय विज्ञान और प्रौद्योगिकी का है. इसने लोक संस्कृति को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है. अगर प्रौद्योगिकी लोक कथाओं को बच्चों की चेतना में डालकर रख पाती तो अच्छा था. ऐसा होता तो हमारे बच्चे परंपरागत खेलों को भूल नहीं पाते और कई कलाएं मर नहीं जातीं. आज अंग्रेजी के वर्चस्व ने लोक भाषाओं के अस्तित्व पर खतरा पैदा कर दिया है. हर देशज चीज को नकारने की साजिश चल रही है. इसका सीधा असर नयी पीढ़ी में देखने को मिल रहा है. उसकी चेतना में लोक जीवन के लिए कोई स्थान नहीं बचा है. सवाल है कि इस विश्व-ग्राम में हमारी लोक संस्कृति का क्या स्थान होगा. स्त्रास ने बहुत बढि़या कहा था, ‘पिकासो आज नहीं तो हजारों साल बाद पैदा हो जाएगा, मगर जाने-अनजाने परंपरागत सांस्कृतिक विरासत को छोड़ दिया तो उसे कभी प्राप्त नहीं कर सकेंगे.’

क्या विकास का मौजूदा मॉडल हमारी विरासत बचा पाएगा?

नहीं. मानवीयता की कीमत पर पशुता के धुआंधार विस्तार का कोई तुक नहीं बनता. आज से चार शताब्दी पहले ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत को लील लिया था, आज वही कंपनी विश्व व्यापार संगठन का रूप धरकर फिर से लीलने को आतुर है और वह भी मानवता की आड़ में. वे भौगोलिक कब्जा किए बिना ही हमें गुलाम बना रहे हैं, जो राजनीतिक गुलामी से कहीं शर्मनाक है. मैंने पहले भी कहा था कि इतिहास अपनी क्रूरतम मंशाओं को दोहरा रहा है और हम इस अधःपतन के जश्न में डूबे जा रहे हैं.

इन दिनों क्या चल रहा है?

लिखना-पढ़ना और क्या! यही मेरा धर्म, भगवान, जीवन और अस्तित्व है. जिस दिन यह निश्चित हो जाएगा कि अब मुझसे पढ़ा-लिखा नहीं जाएगा उस दिन जीने का कोई मूल्य नहीं रह जाएगा. उस दिन  डायबिटीज की दर्जन भर गोलियां एक साथ खाकर सो जाऊंगा.

तहलका से साभार 

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