पुंज प्रकाश
सिल्क स्मिता |
वर्तमान व्यवस्था में जब कोई भी कला माध्यम
अपने आप को एक उद्योग के रूप में ढाल लेता है तो जहाँ एक तरफ उसके आर्थिक रूप से अपने
पैरों पर खड़े होने की संभावना प्रखर हो जाती है वहीँ कई अन्य चुनौतियां भी सामने आ
खड़ी हो जाती है. अधिकांशतः, सार्थकता से ज्यादा उसका ध्यान घाटे और मुनाफ़े की तरफ हो
जाता है. यहाँ जो हिट होता है वो ही फिट होता है. फिर वो माध्यम मानव और मानवीय मूल्यों
की ज्यादा परवाह किये बगैर अपने को बेचने के लिए फार्मूला गढ़ने लगता है, हिट होने का
फार्मूला. जैसे ही कोई फार्मूला हाथ लगता है सब अंधे भक्त की तरह लकीर के फकीर बन जातें
हैं और शामिल हो जातें हैं पैसा कमाने की एक अंधी रेस में. कला के सारे आयाम फिर टूल
बनके रह जातें है यहाँ तक की हाड मांस और संवेदनायों से लबालब भरा अभिनेता - अभिनेत्री
भी.
सोने पे सुहागा ये कि फिल्मों में निभाए चरित्रों
से अनुसार ही हम उस इंसान ( अभिनेता ) की एक छवि बनातें हैं. ये छवि हमारे मन और
समाज दोनों में कुछ इस कदर बैठ जाती या यूँ कहें की बैठा दी जातीं हैं कि हम ऐसा सोचने
लगतें हैं की अपनी आम जिंदगी में भी वो इंसान ( अभिनेता ) ऐसा ही होगा. जबकि अक्सर
हकीकत इसके ठीक विपरीत ही होती है. जिसका एक उदाहरण ये है कि शताब्दी का महानायक और
उदारता का प्रतीक एक अभिनेता बेशर्मी की तमाम हदें पार करते हुए बड़े गर्व के साथ
आज जुआ खेलवा रहा है और कई मासूम के खून से सने मुख्यमंत्री का ब्रांड एम्बेसडर बन
गुणगान कर रहा है.
दुनियां ऐसे कलाकारों से भरी पड़ी है जिनका
व्यक्तिगत आचरण उनकी कलात्मक छवि के ठीक विपरीत रही है. विपरीत ना भी हो तो भी अलग
तो होती ही है. ऐसा होना गलत भी नहीं है, क्यूंकि कला की दुनिया और यथार्थ जगत एक
दूसरे के पूरक होते हुए भी भिन्न हैं. कला जीवन का एक अंश मात्र है पूरा जीवन
नहीं. और ये छवि बनाता कौन है ? निश्चित रूप से ये काम लोकतंत्र के चौथे खम्भे का
है. अब ये खम्भा किसके हक़ की बात ज्यादा करता है ये भी कोई बताने की बात है क्या
?
भारतीये सिनेमा, खासकर लोकप्रिय सिनेमा हमेशा
से ही छवि (Image) प्रधान रही है. कोई भी अभिनेता
चाहे वो कितना ही बड़ा क्यूँ ना हो इससे बच नहीं सका. एक बार जो ठप्पा लग गया, ताउम्र
या यूं कहें कि मरने के बाद भी उस छवि से पीछा ना छूटा. भारतीय परिवेश में चाहे -
अनचाहे छवि तो बन ही या बना ही दी जाती है जिससे बाहर निकलना किसी भी कलाकार के
लिए उतना ही मुश्किल है जितना रेत से सुई तलाशना. हम अक्सर ये भूल जातें हैं की हर
सिक्के के दो पहलू होतें हैं और चीजें स्याह और सफ़ेद नहीं होती. सिल्क स्मिता का हाल
भी कुछ ऐसा ही है.
सॉफ्ट पोर्न स्टार, बिक्नी गर्ल, सेक्स बम,
ग्लैमर गर्ल, ड्रीम गर्ल आदि - आदि उपनामों से विख्यात सिल्क स्मिता का मूल नाम विजयालक्ष्मी
था. सिल्क तो उनकी एक लोकप्रिये फिल्म के चरित्र का नाम था. जो एक बुरी लड़की थी. पर
विजया को ताउम्र इस नाम और इस छवि (Image) का तमगा ढोना पड़ा और इस
दुनियां को अलविदा कहने के पश्चात भी इससे छुटकारा न मिला.
परीकथा की तरह थी सिनेमा उसके
लिए
८० के दशक में भारतीये फिल्म जगत की अत्यंत लोकप्रिये अभिनेत्री
सिल्क स्मिता का जन्म २ दिसम्बर १९६० में कोव्वली गांव, एल्लेरू, आन्ध्र प्रदेश के
एक साधारण परिवार में हुआ था. आज भी उसका परिवार इसी गांव में रहता है. उनकी मातृभाषा
तेलगु थी. धन की कमी की वजह से उन्हें ४थी क्लास में ही उसे अपनी पढाई छोडनी पड़ी. विजया
दिखने में खूबसूरत थी इस वजह से उसे समाज के बुरी नज़र का अक्सर ही सामना करना पड़ा.
शायद इसी वजह से काफी काम उम्र में ही उसके घर वालों ने उसकी शादी कर दी. शादी शुदा
जिंदगी का उसका अनुभव काफी उथल-पुथल भरा रहा. वो बीमार और चिडचिडी भी रहने लगी. अंततः
एक दिन भागकर मद्रास चली गई. वहाँ वो अपने एक आंटी के साथ रहने लगी. पता नहीं इस बात
में कितनी सच्चाई है कि वहाँ उसे अपने खर्चा पानी जुटाने के लिए एक आटा चक्की मिल में काम
करना पड़ा. पर ये तो सच है की वो सपने सिनेमा के ही देखती थी और एक बड़ी फिल्म स्टार
बनाना चाहती थी.
परीकथा का आगाज़ और अंजाम
उसके सिनेमा जीवन का आगाज़ सन १९७० के दशक में
बी ग्रेड कलाकारों के मेकप – गर्ल के रूप में हुआ. बाद में ये यात्रा फिल्म के एक्स्ट्रा
गर्ल से होते हुए ८० के दशक की दक्षिण भारतीये सिनेमा की सर्वाधिक लोकप्रिये अभिनेत्रियों
में से एक तक पहुंची. लगभग १७ वर्ष के अपने सिनेमाई जिंदगी में उसने तेलगु, तमिल, मलयालम,
कन्नडा एवं हिंदी भाषाओं में कुल ४५० में काम किया. अपने जीवन के अंतकाल में वो अपना
फ़िल्मी जीवन बतौर एक फिल्म निर्माता के रूप में शुरू करना चाहती थी पर शायद पैसों की
कमी कि वजह से ये कभी संभव नहीं हो पाया.
३५ वर्ष की उम्र में २३ सितम्बर १९९६ हो हुई उसकी मृत्यु आकस्मिक
थी, जो आज तक एक रहस्य बनी हुई है. वो चेन्नई के अपने अपार्टमेंट में मृत पाई गई थी.
उसके जानकारों का कहना है – “आपने मौत के दिन उसने अपनी बहन से कहा कि वो अपने बच्चे
को उसके साथ रहने दे और वो बच्चे के साथ कमरे में चली गई. जब दरवाज़ा तोडा गया तो उसकी
लाश पंखे से लटक रही थी, बच्चा फर्श पर था और बगल में सुसाइड नोट पड़ा था.” उस नोट में
क्या लिखा था पता नहीं. पुलिस के मुताविक उसने किसी व्यक्तिगत कारणों से आत्महत्या की थी. कुछ ही सप्ताह
बाद उनके केस की फाइल बंद कर दी गई. कई लोगों का ये भी मानना है की उसकी हत्या हुई
थी.
लोगों को उसकी सूरत से प्यार था
सीरत से नहीं.
विजयालक्ष्मी व्यवहार से दोस्ताना, जज्बाती और एक विंदास
या यूँ कहें तो ठीक रहेगा कि अपने समय से आगे चलने और सोचने वाली लड़की थी. जिसका नाम
न जाने कितने ही मर्दों के साथ जोड़ा गया, जो की हमारे समाज व्यवस्था की एक रीत भी है.
बदचलन हमेशा औरत ही होती है. मर्दों के लिए तो ज्यादा से ज्यादा संबंद्ध बनाना एक गौरव
की बात है. एक जानकार का कथन ये है कि “जो लोग रात के अँधेरे में उसे प्यार करने की
कसमें खाते थे दिन के उजाले में उससे किनारा कर लेते... उसने अपने जीवनसाथी के रूप
में एक ऐसे व्यक्ति का चयन किया था जो उससे शादी नहीं कर सकता था.” क्या यही त्रासदी
मीना कुमारी की भी नहीं थी. हाँ, इन दोनों में बहुत ज्यादा जो फर्क था वो थी छवि की.
और फिर हेलेन ने हिंदी फिल्मों में कितने “भक्तिरस” के गानों को परदे पर अपनी अदाएं
दी हैं वो क्या बताने की बात है. और फिर खास इनकी बात क्यूँ करें आजकल तो हर बड़ा स्टार
क्या यही नहीं कर रहा. यहाँ बात सिर्फ स्त्री अदाकारों की नहीं बल्कि पुरुषों की भी
हो रही है.
सिंड्रेला - सिंड्रेला
दक्षिण भारतीये सिनेमा में एक युग ऐसा भी रहा
है जब सिल्क स्मिता सफलता और पैसा वसूलने का ट्रंप कार्ड मानी जाती थी. जिस फिल्म में
वो या उसका कोई गाना न होता, सिनेमा वितरक उसे खरीदने से कतराते थे. अब ऐसी सफलता के
एवज में ये बात हवा में फैलनी ही थी कि फिल्म इंडस्ट्री के कुछ बड़े निर्देशकों व
निर्माताओं के साथ इनका कुछ “खास” लगाव रहा है. आखिर मिडिया को मसाला चाहिए और उसके
विरोधियों को उसे बदनाम करने का मौका. पर बकौल सिल्क स्मिता – “मेरा किसी के साथ कोई
सम्बन्ध नहीं है. मैं फिल्मों में हॉट भूमिकाएं करतीं हूँ व्यक्तिगत जिंदगी में नहीं.”
वो अक्सर कहा करती थी “मैं फिल्मों में वो सब नहीं करना चाहती जो मुझे करना पड़ रहा
है. मैं तो हीरोइन की भूमिका करना चाहती हूँ. पर दुःख की बात तो ये है की मुझे वो सब
करना पड़ रहा है जो मैं करना नहीं चाहती.”
कृपया आखरी पंक्ति को एक बार और पढ़िए और बस एक पल के लिए मान
लीजिए की विजया (सिल्क स्मिता) सच बोल रही है झूठ नहीं. अब बताइए कौन से छवि बनती है
उसकी आपकी नज़र में ?
छवि के ऊपर छवि उर्फ उ ला ला
उ ला ला
इन दिनों उसकी जिंदगी पर आधारित (से प्रभावित) फिल्म डर्टी पिक्चरस की
चर्चा ज़ोरों पर है. इसकी निर्माता खुद एक महिला हैं. बड़ी खुशी की बात है. पर कहीं
ये फिल्म इसलिए तो नहीं बन रही कि यहाँ वो सारे मसाले मौजूद है जिसपर हमारा सिनेमा
उद्योग एक से एक कमाऊ फ़िल्में बनाता है. अर्थात लव, सेक्स, धोखा, नेम-फेम आदि .
पाकीज़ा या उमराव जान बनाना सबके बस की बात है क्या ? फिल्म का नाम सुनकर ही अंदाज़ा
लगाया जा सकता है कि यह एक मसाला फिल्म से ज्यादा कुछ और नहीं होगी. गर हुई तो बहुत ही अच्छी बात होगी. फिल्म भले ही कमाई
न करे पर एक विमर्श निश्चित रूप से पैदा करेगी और करनी भी चाहिए. आखिर विषय ही कुछ
ऐसा है. हलाकि फिल्म का प्रोमो देखने के बाद इसकी संभाना कम ही दिखाती है. वैसे भी
एक बेहतरीन ऑटोबायोग्राफिकल फिल्म बनाने के लिए जितना माथापच्ची होना चाहिए वो
धैर्य हमारी मायानगरी में तो अब काम ही नज़र आती है.
आधी हकीकत, आधा फ़साना
विजयालक्ष्मी के भाई का कहना है कि “हमें पत्र
- पत्रिकाओं और टीवी के माध्यम से पता चला कि कोई फिल्म बन रही है. फिल्म के निर्माता ने हमसे
कोई संपर्क नहीं साधा है. उन्हें विजयालक्ष्मी के ऊपर फिल्म बनाने का अधिकार
किसने दिया? अगर सच्चाई के साथ वो विजयालक्ष्मी के ऊपर फिल्म बनाना चाहते तो
बिना परिवार से संपर्क किये ये कैसे संभव है? हमने उन्हें नोटिस भी भेजा पर कोई जबाब
नहीं मिला. हम फिल्म के प्रदर्शन के पहले उसे देखना चाहतें हैं. हमें उनसे और कुछ नहीं
चाहिए. हमारी चाहत बस इतनी है कि चीजें सही - सही हों. विजयालक्ष्मी ने फ़िल्में चाहे जैसी की हों पर असल
जिंदगी में वो गन्दी हरगिज़ नहीं थी.
हो सकता है कि ये एक भाई का अपनी बहन के
प्रति आगाध लगाव हो. पर यहाँ जो सवाल खड़े हुए हैं वो कहीं से भी बेमतलब और असत्य
नहीं हैं.
विजयालक्ष्मी विरुद्द सिल्क
स्मिता
इस फिल्म में सिल्क स्मिता का किरदार निभाने वाली विद्या
बालान का कहना है कि स्मिता बोल्ड थीं इसलिए उन्हें गलत समझा गया और उनका शोषण किया
गया। सिल्क समय से आगे चलती थीं। उन्होंने जो भी कुछ किया उसे पूरी शान से किया। वह
बिंदास, खुली
हुई और पूरी तरह जीवन जीने में विश्वास रखने वाली थीं। उनमें कुछ बचपना भी था पर वह
डरती नहीं थीं। कुछ लोगों को लगता है कि स्मिता बेशर्म थीं पर वह ऐसा नहीं सोचतीं।
उनके कपड़े उनके अभय होने के सूचक थे। आजकल लड़कियां अपने जीवन के बारे में खुली हैं।
आजकल वे जो कुछ करती हैं उस पर गर्व करती हैं। पर सिल्क स्मिता पहले से ही इतनी आजाद
और खुली थीं। यही कारण था कि उन्हें गलत समझा गया और लोगों ने उनका शोषण किया।
विद्या आगे कहती है यह फिल्म
पूरी तरह सिल्क स्मिता पर आधारित नहीं है बस उनके जीवन से प्रेरित है। यह फिल्म 1980 के
दशक में प्रचलित डांसिंग सितारों पर आधारित है। उस समय सिल्क ही सबसे बड़ा सितारा
थीं।
मैंने इस किरदार को निभाने
के लिए कोई खास तैयारी नहीं की। मिलन लूथरिया (निर्देशक) बोलते थे कि मुझे बस बिंदास रहना है। पहले मुझे नहीं
समझ आता था कि मिलन मुझसे क्या चाहते हैं. मैं नहीं जानती थी कि यह किरदार कैसे निभाउं। मैं
बस पटकथा पढ़ती रही और फिर मुझे पता चला कि यह सिर्फ आजाद और बिंदास रहने की बात
है।
यहाँ विद्या चरित्र चित्रण
की बात कर रहीं है जो सात्विक अभिनय पद्धति से ही संभव है. पर दुखद बात ये कि
हमारे यहाँ , खासकर फिल्मों में यह परंपरा बहुत ही कम दिखाई पड़ती है.
प्रोमो रिलीज करते वक्त विद्या मजाक - मजाक में
कहती है मेरा एक मर्द से क्या होता ? माना की ये मजाक था
पर क्या मजाक से उस मानसिकता का पता चलता
जिसके तहत ये डर्टी पिक्चर्स बनाई गई है .
फिर सिर्फ बिंदास और उत्तेजक भाव भंगिमा से विजया के चरित्र का कौन सा पहलू बेचने
की कोशिश की जा रही है ये तो समझ में आ ही जाना चाहिए .
फिल्म बनाने वालों का तर्क है की
“हम वो बनाते हैं जो जनता देखना चाहती है.” मतलब ये की जनता को ही तय करना है. तो क्यूँ ना हम कुछ बेहतर तय
करें. अपने लिए और भविष्य के लिए भी. तभी शायद कला के नाम पर केवल मुनाफा कमाने की
मानसिकता का दहन हो.
नीव का पत्थर या पत्थर की नीव
सिल्क स्मिता होने का अर्थ बहुआयामी है जो उपभोगतावादी और
सामंती मानसिकता वाले समाज के बने बनाये ढांचे से सोचने से तो डर्टी ही लगेगी. लेकिन
बहुआयामी सत्य को स्वीकार करते हुए अगर स्मिता के जीवन पर विमर्श किया जाये तो जो सत्य
सामने आएगा उसमे स्त्री विमर्श और हमारा सबसे बड़ा ग्लैमर उद्योग के बहुत सारे अमानवीय
पहलूओं का दीदार साफ - साफ किया जा सकता है. सुन्दर चेहरों और बड़े - बड़े नामों के
नकाबों के पीछे की कुरूपता सामने आएगी.
मिस इंडिया , मिस वर्ल्ड गर्व करने का विषय नहीं वल्कि
सामंती मानसिकता और बाजारवाद का ही एक रूप है. और फिर किसी भी अभिनेता - अभिनेत्री
के जीवन का मूल्याकन उसके द्वारा निभाए चरित्रों से नहीं बल्कि यथार्थ कि धरातल पर
जिये उसकी जिंदगी एवं जीवन संघर्षों के मार्फ़त सामने आनी चाहिए.स्त्री उपभोग की
चीज़ है इस मानसिकता से ऊपर उठकर सोचने की परंपरा विकसित होनी चाहिए. जिस प्रकार प्रेमचंद
और होरी महतो एक नहीं थे उसी प्रकार डर्टी पिक्चर वाली सिल्क स्मिता और विजयालक्ष्मी एक कदापि नहीं थी. किसी ने
क्या खूब कहा है –
हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिसको भी देखना कई बार देखना.
बहुत खूब सारी बात इस एक लाइन में समझ आ जाती है.. शताब्दी का महानायक और उदारता का प्रतीक एक अभिनेता बेशर्मी की तमाम हदें पार करते हुए बड़े गर्व के साथ आज जुआ खेलवा रहा है और कई मासूम के खून से सने मुख्यमंत्री का ब्रांड एम्बेसडर बन गुणगान कर रहा है... हो सकता है की साल दो साल बाद लोग महानायक के लिए 'भारत रत्न ' की मांग करें ....
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