प्रदर्शनकारी कलाओं में सबसे प्राथमिक स्थान नाटक का है, (अब नहीं भी हो तो भी ऐसा कहने का रिवाज है) जिस पर विमर्श करते हुए अमूमन दृश्य-श्रव्य काव्य की बात तो होती है, साथ ही मनोविनोद कहीं न कहीं से आ ही जाता है लेकिन जो एक शब्द हम बड़ी ही चालाकी से गोल कर जाते हैं वो है ज्ञानवर्धक। नाट्यशास्त्र में नाटक की उत्पत्ति के कारणों में यह चारों शब्द आते हैं - "हमें मनोविनोद का एक ऐसा माध्यम चाहिए जो देखने-सुनने योग्य और ज्ञानवर्धक हो। जब हम देखने, सुनने में ज्ञान को जानबूझकर, अज्ञानतापूर्वक या बड़ी ही चालाकी से हटा देते हैं, या वो हट जाता है तब वो केवल और केवल समय, ऊर्जा और धन की बेकार खपत होकर रह जाता है और जब हम सिद्धार्थ की तरह ज्ञान की तलाश में भटकते हैं तब कहीं न कहीं जाकर बुद्धि-विवेक का आगमन होता है और तब कहीं जाकर बुद्धत्व की प्राप्ति की ओर अग्रसर होते हैं। रंगमंच समाज बदलता हो या न बदलता हो लेकिन कहीं न कहीं वो हमें कहीं बहुत गहरे से बदल रहा होता है, अगर हम उसे सही रूप में ग्रहण करने को तैयार होते हैं तो; वरना यह भी सत्य है कि चिकने घड़े पर कुछ नहीं टिकता, और जहां छल-कपट हो वहां तो कला भी नहीं टिकती। हाँ, वहां काई जम सकती है, जमती ही है और जम ही रही है। वैसे जिस चीज़ का प्रयोग हम अच्छाई के लिए कर रहे हैं ठीक उसी चीज़ का प्रयोग दूषित करने के लिए भी हो ही सकता है बल्कि हो ही रहा है।
अब आपको आश्चर्य हो रहा होगा कि सिनेमा पर बात करते हुए यह रंगमंच पर बात क्यों हो रही है, तो इसका सीधा सा जवाब यह है कि यह रिश्ता कुछ-कुछ जीव की उत्पत्ति के विज्ञान जैसा है। धीरे-धीरे एक लंबे समय अंतराल में जीव अपना रूप स्वरूप बदलते गए और इस प्रकार एक कोशिका से मानव तक की यात्रा सम्पन्न हुई। जो लोग आस्तिक हैं उनकी मान्यताओं में विज्ञान नहीं बल्कि चमत्कार है, उनके तर्क में आस्था भी मिल जाती है और फिर एक मस्त खिचड़ी तैयार होता है। ठीक उसी प्रकार प्रदर्शनकारी कला कबीलों से शुरू होकर आज सिनेमा तक पहुंची है और आज यह कहा जा सकता है कि सिनेमा आज के समय में सबसे लोकप्रिय कला माध्यम है, वो बात और है कि यह दृश्य, श्रव्य, मनोविनोद और ज्ञान का कितना ज़्यादा कलात्मक अभिरुचि जागृत करने में आज अपनेआप को सक्षम पाती है; क्योंकि इसका काम केवल मनोरंजन करके किसी भी प्रकार नाम, यश और धन कमाना नहीं बल्कि अपने रसिकों के कलात्मक स्तर को ऊंचा करना भी होता है, होना ही चाहिए; इस प्रकार कहें तो ह्यूमन कम्प्यूटर नाम से विश्वप्रसिद्ध शकुंतला देवी के जीवन प्रसंगों पर आधारित यह फिल्म बहुत सारे स्तर पर बिल्कुल खरी उतरती है। बाक़ी बातों को छोड़ भी दिया जाए तो भी आपको शकुंतला देवी नामक व्यक्तित्व के जीवन से जुड़े कुछ प्रसंगों से ही परिचय प्राप्त कराती है, जिनके बारे में आज भी बहुत कम लोगों को ही कुछ ज्ञात है।
वैसे किसी भी व्यक्ति पर एक कलाकृति, एक पुस्तक या कहीं कुछ पन्ने पढ़, देख, सुन भर लेने मात्र से यह भ्रम तो बिल्कुल ही नहीं पालना चाहिए कि हमको उनके बारे में ज्ञान प्राप्त हो गया है, क्योंकि जीवन बहुरूपिया होता है और हर इंसान बहुरूपा होता है और उनके बारे में जितना जानिए, उससे कहीं ज़्यादा जानने को हमेशा बचा रहता है। वैसे इस फिल्म को बॉयोपिक नाम से प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा है, जो एक अंश तक सत्य भी है लेकिन याद रहे यह सत्य का एक अंश मात्र है, फिर सवाल यह भी बनता है कि सम्पूर्ण सत्य जैसा भी कुछ होता है क्या? ख़ासकर व्यक्ति और व्यक्तित्व के संदर्भ में, तो उसका जवाब शायद निदा फ़ाज़ली का यह शेर हो सकता है -
हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिसको भी देखना कई बार देखना
यह देखना देखना होता है, परखना नहीं; देखने और परखने में फ़र्क है; अंग्रेज़ी में एक शब्द है - observation (निरीक्षण)। यह कला विधा से जुड़े किसी भी व्यक्ति और उसका अवलोकन करने वाले के लिए बहुत शानदार शब्द है, बिना इसे समझे, जाने और आत्मसात किए, कलाकारी और ख़ासकर अभिनय अमूमन असंभव ही है और जहां तक सवाल परखने का है तो उसे भी बशीर बद्र के एक शेर से समझने की कोशिश किया जा सकता है -
परखना मत, परखने में कोई अपना नहीं रहता
किसी भी आईने में देर तक चेहरा नहीं रहता
इसी ग़ज़ल में अगला शेर भी बड़े कमाल का है वो भी अर्ज़ कर देता हूं, क्योंकि आजकल वरिष्ठ-कनिष्ठ के बीच का द्वंद थोड़ा ज़्यादा ही देखने को मिल रहा है, शायद इसे समझ लिया जाए तो मामला थोड़ा आसान हो जाए; शेर कुछ यूं है -
बडे लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहां दरिया समन्दर में मिले, दरिया नहीं रहता
कई बार जीवन का बड़े से बड़ा अर्थ शायरों की चंद पंक्तियों में बड़ी ही आसानी से दर्ज़ होता है, इन्हें पढ़ना, सुनना, समझना, गुनना और आत्मसात किसी महर्षि की साधना के फल से फलीभूत होने के जैसा हो सकता है; शायद इसीलिए कहते भी हैं कि जहां न जाए रवि, वहां जाए कवि। यह बात और है कि आजकल बुद्धिमान व्यक्तियों को बेइज़्ज़त करने का दौर चल पड़ा है। वैसे भी जब मूढ़ता चरम पर हो, तब विद्वता को तो यह दिन देखना ही है। वैसे भी परीक्षा हरिश्चंद्र को ही देना होता है और ज़हर का प्याला सुकरात को ही पीना होता है। बहरहाल, बात सिनेमा पर वापस लाते हैं। उससे पहले ज़रा बात पढ़ाई-लिखाई की कर लेते हैं। गुरुदेव रबिन्द्रनाथ ठाकुर ने इसके संदर्भ में कहीं लिखा था - "शिशु को शिक्षा देने के लिए स्कूल नामक यंत्र का अविष्कार हुआ है। उसके द्वारा मानव-शिशुओं की शिक्षा बिल्कुल भी पूरी नहीं हो सकती। सच्ची शिक्षा के लिए वैसे आश्रम की आवश्यकता पड़ती है। जहां समग्रता में जीवन की पृष्ठभूमि मौजूद हो।" अब शकुन्तला देवी किसी स्कूल में नहीं जातीं, कोई फॉर्मल शिक्षा नहीं है उनके पास, लेकिन वो अपनी प्रतिभा और उसे लगातार परिष्कृत करने की बदौलत न केवल विश्वविख्यात होती हैं बल्कि Astrology for You, Book of Numbers, Figuring: The Joy of Numbers,In the Wonderland of Numbers, Mathability: Awaken the Math Genius in Your Child, More Puzzles to Puzzle You, Perfect Murder, Puzzles to Puzzle You, Super Memory: It Can Be Yours, The World of Homosexuals जैसी प्रसिद्ध पुस्तकों की रचयिता भी बनती हैं। अब ज़रा सोच कर देखिए कि शंकुतला देवी सन 1976 में होमोसेक्सुअल पर पुस्तक लिखतीं हैं, उसको जस्टिफाई करने की कोशिश करती हैं। जिस विषय पर हम आज भी सहजता से बात नहीं कर सकते उस पर एक स्त्री आज से कई दशक पहले ही बड़े खुलके ख़बर, साक्षत्कार और विश्लेषण प्रस्तुत करने की हिम्मत करती है। यह किसी साधारण मनुष्य के वश की बात ही नहीं है, वैसे भी उन्हें साधारण होने से लगभग नफरत सी ही थी। वो हाज़िर जवाब हैं, निडर है, अराजक हैं, लड़ाका हैं, ज़िद्दी हैं, जुनूनी हैं, ड्रामेबाज हैं आदि आदि आदि हैं, कुल मिलाकर बात इतनी कि वो वो नहीं हैं जिससे अमूमन भारतीय नारी का "चरित्रवान" चरित्र की छवि को प्रदर्शित किया जाता है बल्कि उन्हें इस नॉर्मल लाइफ़ से चिढ़ सी ही है, वो न "मैं तुलसी तेरे आंगन की" हैं और ना ही "बेबी डॉल मैं सोने दी" ही हैं। अब जरा विद्या बालन की बात भी लगे हाथ कर ही लेते हैं। विद्या भी फिल्म की दुनिया के स्टार हीरोइन से बेहद अलहदा हैं और उसकी बनी बनाई हॉट, सेक्सी, मॉडल्स आदि आदि के छवि की भी कोई परवाह नहीं करतीं, सो न ज़ीरो फिगर हैं और ना हीरो के कंधे के पीछे से झांकती बेचारी हीरोइन। यह स्मिता पाटिल, मीना कुमारी, वहीदा रहमान, डिम्पल कपाड़िया, शबाना आज़मी सहित अनगिनत अभिनेत्रियों के संघर्ष और एक लंबी लड़ाई का ही परिणाम है कि आज कुछ अभिनेत्रियां हॉट, सेक्सी और गुड़िया वाली इमेज से अलग हटकर भी मार्केट में शान से टिकी हुई हैं और बेजोड़ काम कर रहीं हैं; बाक़ी व्यक्ति का अपना पसंद-नापसंद और संघर्षरत होने का जज़्बा तो मायने रखता है रहता है। वो एक प्रसिद्ध कथन है न कि हम जैसा सोचते हैं, हमारे भीतर वैसी ही क्षमताएं विकसित होती हैं और हम आख़िरकार वैसे बन जाते हैं और अगर हम वो नहीं बन पाते हैं तो कमी अधिकतर हमारे प्रयास और उसकी दिशा का ही होता है। शकुन्तला देवी ( (4 नवम्बर 1929 - 21 अप्रैल 2013) जो बनना चाहतीं थी, वही बनी और जो बनीं वही वो बनाना भी चाहती थीं, अब थोड़ा बहुत किंतु-परंतु तो चलता ही है।
हॉलिवुड में जीवनीपरक या ऐतिहासिक घटनाक्रम पर आधारित सिनेमा बनाने और देखने का अपना एक समृद्ध इतिहास है, अपने यहां भी चलन है लेकिन बहुत ज़्यादा कमज़ोर। इसके पीछे बहुत सी बातें हैं, एक तो प्रमुख कारण यह भी है कि हम या तो पूजने ही लगते हैं या फिर दुत्कारने ही लगते हैं। हम किसी भी प्रसिद्ध इंसान को अवतार और उसे अनुछुआ बना देने की अद्भुत कला से पीड़ित लोग हैं और एक बार हमने जिसे मान लिया तो फिर किसी की मज़ाल ही नहीं है कि उसके बारे में वाह वाह के अलावा भी कोई और शब्द कह दे, तो ऐसे में कोई जीवनीपरक बेहतर काम हो ही नहीं सकता। जब तक हम किसी भी इंसान को श्वेत और श्याम में देखते रहते तब तक केवल झूठ ही रच सकते हैं जबकि इंसान धूसड होता है, मतलब श्वेत और श्याम का मिला जुला रूप, अब पलड़ा किसी तरफ ज़्यादा झुका होगा, यह बात और है। फिर यथार्थ को भी मिर्च मसाला डालके उसे इतना जादुई बना देते हैं कि समझना मुश्किल हो जाता है कि इसमें सत्य क्या है और कल्पना क्या है। वैसे हम सत्य से ज़्यादा कल्पनालोक में ही विचरण करने में ज़्यादा सहज महसूस करते हैं या फिर यथार्थवाद के नाम पर ऐसा नीरस संसार रच डालते हैं कि वो मूलतः देखने, सुनने और समझने लायक ही नहीं बचता।
यह फिल्म थोड़ी अपवाद है, जो शकुन्तला देवी को उनकी बेटी की नज़र से देखता है और उस नज़र से वो एक जीनियस के साथ ही साथ एक ज़िद्दी, घमंडी, अक्खड़, अपने धून की पक्की, ड्रामेबाज़, निडर और डरी हुई और भी पता नहीं क्या-क्या सब एक साथ नज़र आती हैं; कहने का अर्थ कि इस फिल्म वो एक स्टियोटाइप छवि मात्र नहीं बल्कि एक पूरे का पूरा इंसान नज़र आती हैं, जिसमें अच्छाई-बुराई सब है। केंद्रीय भूमिका को विद्या बालन ने निभाया भी बड़े सौम्यता के साथ है। फिल्म के गठन में हास्य-व्यंग्य और जीवंतता को मिलाकर पटकथा लेखक, निर्देशक और संपादक ने इसे बोझिल होने से बड़े ही बेहतरीन ढंग से बचाया भी है। बाकी सारे कलाकारों ने अपनी भूमिका का समुचित निर्वाह भी किया है। हां, एक चीज़ है जिससे भारतीय सिनेमा को अब मुक्त हो जाने के बारे में सोचना चाहिए कि जिस फिल्म में संगीत (गानों) की कोई ख़ास भूमिका (ज़्यादातर में ठूंसा ही होता है) न हो, उसमें उसका पूर्णतः परित्याग कर देना चाहिए। इस फिल्म में भी गाने न होते तो शायद कुछ मिनट बर्बाद होने से बचाया जा सकता था और इसे एक पीरियड सिनेमा बनाने के लिए इसके कलात्मक पक्ष पर थोड़ी और मेहनत की जा सकती थी।
#पुंज_प्रकाश
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