पिछले दिनों रंगवार्ता
का फेसबुक वाल दलित-आदिवासी विषयक नाट्य समारोह को लेकर काफी गर्म रहा | अश्विनी कुमार पंकज के संपादन में रांची, झारखण्ड से
प्रकाशित रंगमंच एवं विविध कला रूपों की त्रैमासिक पत्रिका रंगवार्ता की तरफ से
तीन दिवसीय नाट्य समारोह होना पस्तावित है | हम कोशिश कर
रहें हैं आपके सामने वो पूरी बहस जस की तस रखने की | हमने
सिर्फ रोमन से हिंदी करने के सिवा अपनी तरफ से कुछ जोड़ा-घटाया नहीं है | फिर भी अगर किसी की कोई बात छूट गई हो तो निवेदन यही रहेगा की कृपया सूचित
करें | अगर आप कुछ और जोड़ना चाहें तो उसका भी स्वागत है |
बहस आपके सामने रखने से पहले कुछ बात रखना ज़रुरी जान पड़ता है |
दलित आदिवासी नाट्य समारोह का एक पोस्टर |
मंडली की तरफ से कुछ बात और कुछ चिंताएं
पहली बात - ये कि "राजनीति ( politics ) को कला से दूर रखो" ये भी एक तरह की राजनीति ही है | आज के समय में कोई भी चीज़ राजनीति
से इतर हो नहीं सकती | अराजनीतिक जैसी कोई भी चीज़ इस
दुनियां में एग्जिस्ट ही नहीं करती | ऐसा संभव है कि आप पूरी
तरह से असहमत हों पर राजनीति की एक परिभाषा है , लीजिए गौर
फरमाइए – In this world
human are a rational animal, who think. If any one think.. Releates with some
kind of politics. It may be good or bad. So don’t think you are apoliticle. You
are politicle by birth.
दूसरी बात – दलित
या आदिवासी कोई जाति नहीं वल्कि समुदाय है और जाति और समुदाय में बहुत अंतर है |
तीसरी बात - शरदचंद्र का एक उपन्यास है
पथ के दावेदार | उसमें एक कवि से उपन्यास का मुख्य चरित्र पूछता है –
“क्या कर रहे हो ?” कवि जबाब देता है –
“ जनता के लिए साहित्य रच रहा हूँ |” मुख्य
चरित्र कहता है – “ रहने दो, जनता को
जब ज़रूरत होगी वो अपना साहित्य खुद ही रच लेगी |”
चौथी बात - जहाँ पूरा भारतीय समाज ही
सदियों से वर्गों-वर्णों और समुदायों में बंटा है वहाँ केवल रंगमंच को पवित्र
स्थान का दर्ज़ा देना कामधेनु गाय की ही याद दिलाता है, जिसे
हम दूहें तो हमारा हक है और गर कोई दूसरा हाथ लगाए तो लानत है | जैसे रंगमंच किसी की जागीर हो |
पांचवी बात – कलाकर्म
में वार्ता या बहस अगर धेर्य, विवेक, सामनेवाले
की बात समझने व सुनाने और सहिष्णुता के बजाय शाब्दिक हिंसा का रास्ता ले तो कला
जगत में उसके नाम के साथ ही साथ “फ्रस्टेटेड” नामक उपमा अपने आप ही लग जाती है | माना की फेसबुक
जैसी जगह बिना संपादन के हमें अपनी बात खुलकर कहने की आज़ादी देता है पर आज़ादी का
अर्थ अराजकता नहीं होता | सार्थक रंगमंच किसी व्यक्ति विशेष
के अहम् से नहीं चलता |
छठी बात – दलित-आदिवासी रंगमंच की
पहचान कैसे की जाय ? क्या वो रंगमंच दलित रंगमंच होगा
जो दलित-आदिवासी समुदायों द्वारा किया जायेगा या किया जा रहा है अथवा वो रंगमंच जो
दलित सवालों को केंद्रित है अर्थात कथ्य/विषय के
अनुसार |
सातवीं बात - जनता चाहे किसी भी वर्ग या
वर्ण या समुदाय की हो उसका साहित्य – कला रचना इतना आसान नहीं
है और ये अलग से रचा भी नहीं जा सकता बल्कि ये जनता के बीच से ही प्रफुटित होता है
| हालाँकि इतिहास बदला भी जा सकता है पर भारतीय सन्दर्भ में
गर बात करें तो अब तक अधिकतर प्रोफेशनलस लोगों ने जनकला का इस्तेमाल अपने हित में
ही ज़्यादा किया है, जनहित में कम |
आठवीं बात - नाटक बिना धन ( चाहे दो
रूपया ही क्यों ना लगे ) के नहीं किया जा सकता माना पर प्रोफेशनलिज़म को टिकट
विंडो से जोड़ना सही नहीं है | इसमें कला का बाज़ारू स्वरुप ज़्यादा और सामाजिक
स्वरुप कम नज़र आता है | चाहे वो कोई भी कला माध्यम हो, ऐसे
उदाहरण भरे पड़ें हैं जो बेहतरीन कृति होते हुए भी टिकट विंडो पर फुस्स हुए |
मोज़ार्ट मुफलिसी में मरे तो क्या वो प्रोफेसोनल नहीं थे ? कई महान फ़िल्में भारत में बनी जो टिकट विंडो पर फ्लॉप रहीं | कोलकाता में रतन थियम के नाटक दर्शकों को तरसता है |
खैर, ये तो रही हमारी कुछ
चिंताएं, आइये आप पूरी वार्ता पढ़िए और तार्किक एवं
वैज्ञानिक तरीके से खुद ही तय करिये | इस बहस में शामिल तमाम
लोगों के प्रति आभार के साथ हम इसे मंडली पर प्रस्तुत कर रहें हैं | - माडरेटर मंडली |
तीन दिवसीय दलित आदिवासी विषयक नाट्य समारोह
के सन्दर्भ में आमंत्रण सहित कुछ पोस्ट पहले भी रंगवार्ता ने अपने वाल पर पोस्ट
किये थे परन्तु बहस की शुरुआत 23 February को रंगवार्ता की तरफ से प्रोफेशनल कौन है? नामक पोस्ट से होता है-
नाट्य समारोह में आपकी भागीदारी अपेक्षित है
‘झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा’ रांची (झारखंड) में तीन दिवसीय दलित-आदिवासी विषयक नाट्य समारोह करने की इच्छा रखता है. महज स्लीपर यात्रा व्यय के सहयोगी आधार पर यदि आप और आपके रंग समूह की दिलचस्पी हो तो कृपया हमें toakhra@gmail.com पर नाटक का विस्तृत विवरण मेल करें. नाट्य आयोजन मार्च 2012 के अंतिम सप्ताह में प्रस्तावित है.
‘झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा’ एक समुदाय आधारित संगठन है जो पिछले 8 वर्षों से आदिवासी एवं झारखंड की क्षेत्रीय भाषाओं, साहित्य और संस्कृति के संरक्षण व विकास के लिए कार्यरत है. यह कोई एनजीओ नहीं है और न ही कोई फंडेड उपक्रम. यह आदिवासी एवं झारखंडी लेखकों, कलाकारों का संगठन है और अपनी गतिविधियां पूर्णरूपेण जनसहयोग से संचालित करता है. आयोजन संबंधी जानकारी समारोह संयोजक एके पंकज (संपादक, रंगवार्ता) से बेहिचक सुबह 9 से रात 9 तक 09234301671 पर ले सकते हैं. ‘झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा’ के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए हमारी वेबसाइट पर यह पेज जरूर देखें: http://akhra.org.in/indigenous_organisation.php
प्रोफेशनल कौन है?
आज रजत कपूर से बात हुई. हमें पता चला उनका एक नाटक है महुआ. इसमें आदिवासी उत्पीड़न की कहानी है. खनन कंपनियों और राज्यसत्ता के द्वारा उजाड़े और मारे जा रहे ‘बिरसा’ की गाथा है. हमने उन्हें फोन कर 26-28 मार्च को रांची में होनेवाले दलित-आदिवासी नाट्य समारोह की जानकारी दी और कहा कि अगर आप यह नाटक समारोह में लेकर आएं तो उन्होंने तुरंत हां कर दी. हम डर रहे थे कि अब वे पैसा मांगेंगे. क्योंकि उनका ‘रेज थिएटर ग्रुप’ प्रोफेशनल नहीं, कॉमर्शियल है. पर आश्चर्य हुआ जब उन्होंने कोई पैसा नहीं मांगा और सिर्फ यात्रा व्यय पर आने के लिए सहमति जतायी. यह प्रसंग इसलिए शेयर कर रहे हैं कि जब हमने पटना के दो रानावि रंगकर्मियों से जब उनके नाटक के लिए आग्रह किया था तो दोनों ने जिस तरह से पैसे की मांग की थी, वह बहुत सम्मानजनक नहीं था. कहा- वे प्रोफेशनल हैं और बिना पैसा लिये नाटक नहीं करते. तो क्या रजत कपूर प्रोफेशनल नहीं हैं?
Satya Anand रजत कपूर और NSD के अलावा भी बहुत
है जिन्हें आपको ढूंढने में कोई INTEREST नहीं
होगा .......GREAT ..REALY GREAT RAJAT JI.......आप लोग
कब GREAT बनेंगें ? लेबल तो आप भी तलाश रहे हो ...और बात करते ही
ज़मीनी भावनाओं की ?
RangVarta SatyaAnand जी अगर आपने हमारी पुरानी पोस्ट पढ़ी होती तो शायए यह नहीं कहते. 11 दिसंबर 2011 को हमने इसी एफबी पर लोगों को खुला आमंत्रण दिया था समारोह में आने के लिए. अफसोस! आपको वह पोस्ट नहीं दिखी पर ये दिख गई. हम दलित-आदिवासी विषय पर नाटक ढूंढ रहे हैं लेबल नहीं.
Satya Anand कौन हैं nsd वाले जो पैसा मांग रहें हैं ? बता सकतें हैं प्लीज़ ...........RANCHI IS MY 2ND HOME
RangVarta बताएंगे. कुछ समय दीजिए. अभी नहीं. मेरा मकसद यहां किसी पर व्यक्तिगत आरोप लगाना नहीं है. हम उस ट्रेंड पर बात करना चाहते हैं जो दो तरह के लोगों से बात करने के बाद हमें अनुभव हुआ.
VinayBharat ऐसे लोग मुट्ठी भर बचे हैं, जो रजत की तरह चमक रहे हैं, बाकी लोग अपने आप को " प्रोफेशनल" की लेबलिंग कराने में ही व्यस्त हैं, वाकई वो हैं नहीं ...
Manish Singh @ rang varta वैसे दलितों के लिए और क्या क्या सोचा है आप लोगों ने including
rajat kapur...... facebook पे intellectuality साबित करने के सिवा ???
Ankit Sharma @manish singh: आपने
भी ये सवाल facebook पर ही पुछा, जाइये सबके घर जा जाके पूछिए आपने क्या किया है दलितों के लिए....theatre के through जितना किया जा सकता है उतना
यहाँ किया जा रहा है, सो प्लीज़ आप बोलिए मत कुछ कीजिये,
आपके तेरिके से. धन्यवाद .
Manish Singh @rang varta- मैं theater और theater करनेवालों का सम्मान करता
हूँ....रात में बस सोने से पहले दो मिनट ये ज़रूर सोचियेगा के मैं ये नाटक अपने
लिए कर रहा हूँ या दलितों के लिए ...और जब आपका शो खत्म हो जाये तो backstage में गले लगकर बधाई लेने से पहले भी ये सोचियेगा...और हो सके तो दलितो awareness लाने की कोशिश कीजियेगा....दलित अपने-आप में बड़ा
शब्द है जो आप अच्छी तरह जानतें हैं.....best of luck.
RangVarta मनीष जी, बस एक ही बात आपसे कहनी है. कमेंट करने से पहले उसके बारे में जान लेना चाहिए जिस पर कमेंट करना है. कोर्ट भी सजा सुनाने से पहले बचाव का मौका देता है. एकतरफा आदेश ‘फतवा’ या तालीबानी फैसला ही होता है.
AbhinavBansal रजत कपूर को मैं बहुत मानता था अब तक, अब मैं उनकी बहुत इज्ज़त करने लगा हूँ यह वाकया जानने के बाद...रंग वार्ता का शुक्रिया...
Pravin Kumar Gunjan रजत कपूर आपके ब्रांड बन गए हैं. क्या वो जेनरल
टिकट से आ रहें हैं शो करने. आप पटना के 2 nsd वालों
का नाम भी बता दीजिए ...वैसे आपकी जानकारी में दे दूँ
की पटना में दो हो एनएसडीयान काम कर रहें हैं संजय उपाध्याय और रंधीर कुमार |
मैंने माना की उन्होने शो करने के लिए के पैसे मांगें तो इसमें गलत
क्या है ? रंगमंच सिम्पैथी से नहीं होगा. रजत कपूर कभी –
कभी नाटक करतें हैं .. संजय जी और रंधीर केवल theatre ही करतें हैं... रजत
कपूर आपको अलग से donation भी दे देंगे ..डिमांड करें ...वाह-वाही लूटें ....आपका विचार theatre के लिए नुकसानदेह है ...आपके festival में और ग्रुप भी free में नाटक कर रहें होंगें फिर रजत कपूर जैसे बड़े हस्तिओं को ही क्यों
प्रमुखता दे रहें हैं ...Festival का क्रेज़
बढ़ाना चाहतें हैं और देखिएगा हो सकता है last time में रजत जी का कार्यक्रम cancel ना हो
जाये.
Ajay Kumar जिसे सच्चाई जानना हो की जो पैसा मांग रहें हैं वो क्यूँ मांग रहें हैं और
रजत कपूर क्यूँ हैं मांग रहें हैं वो मुझे फोन करें facebook जैसे शब्दों की उल्टियां करने वाले माध्यम की औकात नहीं कि इस बात को लिख
के समझा जा सके ...अगर आप सच में हिम्मत रखतें हैं सच्चाई जनने की तो बात करिये ,
बकवास नहीं .....
RangVarta गुंजन जी, हम पहले कह चुके हैं. इस पर व्यक्तिगत नहीं प्रवृतिगत बात होनी चाहिए. हमारे विचार थिएटर के लिए नुकसानदेह हैं या नहीं इसे अवाम तय करेगी. जिनके लिए हम थिएटर करते हैं. और ब्रांडिंग करना होता तो फेस्टीवल की परिकल्पना ही रजत जैसे लोगों को सामने रखकरकरते. प्रोफेशनल हम भी है. पर अपने घर के किसी समारोह में शामिल होने के लिए परिवारवालों से पैसे नहीं मांगते. वे स्लीपर में आएंगे या नहीं यह महत्वपूर्ण नहीं है. पर हमने साफ कहा है कि यदि आप एयर फेयर मांगोगे तो हम नहीं दे सकते. यात्रा सेकेंडरी है. प्राथमिक बात यह है कि आपका थिएटर और जनसरोकारों से कितना जुड़ाव है.
एक ऐसे राज्य में जहां थिएटर की कोई गतिविधि नहीं है, जनता उत्पीड़ित है, दमन चरम पर है यदिहम उनके सपोर्ट में नाट्य समारोह कर रहे हैं तो जो वाकई थिएटर करना चाहते हैं, क्या उनकी कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए?
हम न कोई महेन्द्रा कंपनी हैं और न एनजीओ. हमारे पास पैसा भी नहीं है पर हम थिएटर को प्यार करते हैं. उस थिएटर को जो हमें प्यार करता है. प्रोफेशनलिज्म का मतलब सरकारी, गैरसरकारी औरऔद्योगिक घरानों के पैसों पर होनेवाले नाट्य समाराहों से है तो माफ कीजिएगा. यह प्रोफेशनलिज्म नहीं है.
हमारे अनुसार प्रोफेशनलिज्म का मतलब है टिकट विंडो से नाट्य समूह का जिंदा रहना. भारत के हिंदी रंगमंच में यदि कोई नाट्यदल या नाट्यकर्मी ऐसा हो जो सिर्फ और सिर्फ टिकट विंडो के बल पर थिएटर कर रहा हो तो हमें जरूर बताइएगा. हम रांची जैसे पिछड़े अविकसित आदिवासी इलाके में रहते हैं, शायद उन्हें नहीं जानते हों.
Vidhu Khare can
dalit theatre change the dalit scinario of ur region???...can it bring the kind
of revolution it needs.....or its just to provide some sort of entertainment 2
them.....or just स्वयंत सुखाय.....U R FOCUSSING ON
THE SUBJECT OR ON THE CAUSE....IF ITS A CAUSE THEN WHY THE GLAMOUR OF
RAJAT....
RangVarta विधु जी, आप उस ट्रेंड पर बात करें जिसके लिए यह पोस्ट लिखी गई है. हम नाटक सेक्या बदल देंगे और क्या नहीं. ये तो बाद का सवाल है. एफबी पर लोग अपना फोटो डालते थकते नहीं. हर पोस्ट में “अपने मुंह मियां मिटठु” बने रहते हैं. कमाल है! यह सब नहीं दिखा पर एक समूह जो थिएटर समारोह करने के लिए हिम्मत जुटा रहा है और उसकी समझ से कहीं कोई बात ठीक लगी, एक बार रजत कपूर का नाम ले लिया तो चढ़ गए सीने पर. लगे नीयत में खोट ढूंढने. धन्य हैं आप! आपसब!!
Vidhu Khare नाटक में पैसा लगता है ...team members को भी
पैसा तो चाहिए ...फिर पैसा मांगना गलत नहीं हुआ ..आप नहीं दे सकते वो एक अलग बात
है ..रजत एक show free में कर सकतें हैं ..वो financially
strong हैं ...पर professionals को कोसिए मत...
Himanshu Dwivedi अरे कमाल करतें हैं आप लोग भी .....पैसा हीं सब
कुछ नहीं होता Theatre दिल से तो करो पैसा भी मील
जायेगी.
Pravin Kumar Gunjan पिछले 17 सालों से हम theatre आम दर्शकों के लिए करते आयें हैं ...आप festival कर रहें हैं सराहनीय है ...केवल पैसा मांगने पर लोगों के theatre को आकें मत ...मेरा play houseful होता है आम आदमी ही देखने आतें हैं ... बात इसकी नहीं है ..बात आपके सोचने
के तरीके में है .
RangVarta हम भी यही कह रहे हैं गुंजन जी. बात सोचने यानी विचारों की है. आप 17 साल से थिएटर कर रहे हैं. मैंने 25 साल किया है. प्रोफेशनल हूं मैं. पर थिएटर से पैसे नहीं मांगता. लेकिन 30 साल से हम जिंदा हैं तो सिर्फ थिएटर की मेहरबानी से. आज भी फेस्टीवल के लिए तैयार हैं, पत्रिका निकालते हैं, वह भी बिना किसी सरकारी गैरसरकारी वित्तीय सहयोग के.... इसलिए कि हम प्रोफेशनल हैं. प्रोफेशनल का मतलब होता है आत्मनिर्भर होना. परजीविता प्रोफेशनलिज्म नहीं है.
Manish Singh @ rohit ji एवं himanshu
ji अपनी-अपनी पालिसी से तो राज ठाकरे भी सही है | रंगवार्ता को problem 2 NSD वालों से था
.. तो ये बताना ज़रुरी था कि वो “पटना” के हैं ( वैसे भी nsd वालों से जलन सबको होती है ) हम दूसरों को
बुरा कह कर अपने आप को कितनी आसानी से अच्छा मान लेतें हैं या मनवाने की कोशिश
करतें हैं .
RangVarta मनीष जी, रंगवार्ता को न एनएसडी से प्राब्लम है न पटनावालों से. प्राब्लम है उस दोहरेपन से जिसपर इस पोस्ट में सवाल उठाया गया. पर आपलोगों की आदत है व्यक्तिगत छिछालेदर की और यही आपके सोच की सीमा है. हर शिक्षण संस्थान महान होता है पर उसके सारे विद्यार्थी महान नहीं होते. अधिकांश विद्यार्थी इतिहास के कुड़े के ढेर में होते हैं. कुछ ही अपना नाम इस दुनिया में बना पाते हैं. इसलिए मुगालते में रहिए. हम नहीं हैं.
AwanishMishra नाटक को लेकर रजत कपूर की एक बहुत स्पष्ट दृष्टि है. नाटक पौपुलर और आम दर्शक को इन्वाल्व करने वाला हो. पिछले २ साल से रजत कपूर थिएटर में अपनी दूसरी पारी में ये प्रयास कर रहे हैं. उनके नाटको के बाद दर्शकों कि प्रतिक्रया देखने लायक होती है. सबसे बड़ी बात है कि उनके नाटक एक सन्देश के साथ एक आम व्यक्ति की शाम को सार्थक और मनोरंजन पूर्ण बनाते हैं. आप अगर तकनीकी रूप से दक्ष, बेहद कलात्मक और गंभीर नाटक के शौक़ीन हैं तो गीत संगीत और बाजे गाजे आपको थोड़ा परेशान कर सकते हैं..लेकिन सवाल ये है कि में मनोरंजन का एलिमेंट हमें ज्यादा परेशान करना चाहिए या का दर्शकविहीन होना या छोटे से नाटक प्रेमी वर्ग तक ही सिमटा होना ?
RangVarta shared AkPankaj's photo.वे कौन हैं जो समाज और राजनीति की तरह साहित्य और रंगमंच में भी ‘भारतीयता’ की परिभाषा को संकुचित किये हुए हैं?
मैं जब भी कला, साहित्य और रंगमंच में ‘भारतीयता’ देखना चाहता हूं अनुभव करता हूं कि हिंदी ‘राष्ट्रभाषा’ की तरह व्यवहार नहीं कर रही है. उत्तरपूर्व, दक्षिण एवं दूसरे अहिंदीभाषी राज्यों के साथसाथ दलितआदिवासी व अन्य सभी वंचित समुदाय के बारे में हिंदी साहित्य और रंगमंच खामोशी ओढ़ कर ‘समाधिस्थ’ हो जाता है. भारत के विभिन्न समुदायों के भाषा, साहित्य, कला और रंगमंच को हिंदी में प्रवेश करने के लिए ‘क्षेत्रीयतावादी’, ‘अलगाववादी’,
‘विभाजनकारी’,‘राष्ट्रविरोधी’ आदि संबोधनों से प्रताड़ित होते हुए एक युद्ध से गुजरना होता है. आखिर वे कौन हैं जो समाज और राजनीति की तरह साहित्य और रंगमंच में भी ‘भारतीयता’ की परिभाषा को संकुचित किये हुए हैं?
RangVarta साथियो, हमें बताइए भारत के हिंदी रंगमंच में क्या कोई नाट्यदल या नाट्यकर्मी ऐसे हैं जो सिर्फ और सिर्फ टिकट विंडो के बल पर थिएटर कर रहे हैं? उन्होंने आज तक एनएसडी, संगीत नाटक अकादमी, संस्कृति मंत्रालय या किसी देशीविदेशी एजेंसियों से, औद्योगिककॉरपोरेट कंपनियों से, सरकारों व एनजीओज से कोई प्रोजेक्टफंड लेकर नाटक नहीं किया हो? या इनके द्वारा आयोजित समारोहों में मंचन नहीं किया हो? और अपना अधिकांश रंगकर्म सिर्फ टिकट विंडो से आनेवाले जनता के पैसों पर किया हो?अगर हमारी ये जानकारी आधीअधूरी है तो कृपया हमें सहयोग करें. हमें उन रंगकर्मियों और नाट्यदलों के बारे में जानकारी दें जो जनता के टिकट विंडो के सहारे ही नाटक कर रहे हैं.
Vidhu Khare सरकारी तथा गैरसरकारी सेक्टर से पैसा लेकर जनता को free में दिखने में नुकसान ही क्या है अगर आप इनके दवाव में काम नाहीं कर रहें
हैं तो ..गरीब जनता ticket कहाँ से लेगी ?
Sanjay Vidrohi जनसहयोग से नाटक करतें हैं तो ...आपके विचार ... नाटक के विचारों की value कम हो जाती है ...मेरे कहने का मतलब ये कतई नहीं है कि जनसहयोग नहीं लेना
चाहिए .. आज हिंदुस्तान में 90% group ticket नहीं
लागतें हैं ......why ? जनता को भी ticket लेने कि आदत होनी चाहिए... जब सरकार, ट्रेन, सिनेमा, म्यूज़ियम, मेला,
हवाई-जहाज, मैच, इलेक्शन,
कार-बस पार्किंग में टिकट लगता है तो नाटक में क्यों नहीं लागतें
हैं | जो लोग नाटक में टिकट नहीं लागतें हैं वो नाटक के सबसे
बड़े दुश्मन हैं .. क्लाफरोश हैं..
Pravin Kumar Gunjan इस देश में कोई theatre company नहीं है
जो केवल टिकट खिडकी के बल पर theatre कर रही हो.. अगर कोई है तो fact के साथ बताएँ ... आप कभी दलित,
कभी जनता आदि के नाम पर लोगों को क्यों बेवकूफ़ बना रहें हैं. आज तक
मेरी जानकारी में धर्म और जाति के नाम पर कोई भी theatre festival
india में नहीं हुआ .. आप पहले व्यक्ति हैं .. आपका जितने
पोस्ट मैंने आज तक देखा उसमें आप असहाय चीजों का गलत तरीके से सहारा लेकर अपने
आपको महिमामंडित करते रहें हैं ...आज फेसबुक के कारण हम
आपको जानतें हैं आपके रंगकर्म की वजह से नहीं . बड़ी
– बड़ी क्रांति की बात इस देश में बहुत लोग बोलतें हैं . आप
रंगकर्मियों में तनाव बढ़ाना चाह्तें हैं. आपकी भाषा राज ठाकरे और बाल ठाकरे जैसी
है . प्लीज़ आप बकवास करना बंद करें.
Amitesh
Kumar Ak Pankaj ( सम्पादक, रंगवार्ता ) की इस मान्यता का क्या कोई आधार है? या यह जानकारी के
अभाव की उपज है और अपनी मान्यता को मनवाने की जल्दीबाजी है. अपनी राय दें! वे कहतें हैं "मैं जब
भी कला, साहित्य और रंगमंच में ‘भारतीयता’ देखना चाहता हूं अनुभव करता हूं कि
हिंदी ‘राष्ट्रभाषा’ की तरह व्यवहार
नहीं कर रही है. उत्तर-पूर्व, दक्षिण एवं दूसरे
अहिंदीभाषी राज्यों के साथ-साथ दलित-आदिवासी व अन्य सभी वंचित समुदाय के बारे में
हिंदी साहित्य और रंगमंच खामोशी ओढ़ कर ‘समाधिस्थ’ हो जाता है. भारत के विभिन्न
समुदायों के भाषा, साहित्य, कला
और रंगमंच को हिंदी में प्रवेश करने के लिए ‘क्षेत्रीयतावादी’,
‘अलगाववादी’, ‘विभाजनकारी’, ‘राष्ट्रविरोधी’ आदि संबोधनों से प्रताड़ित होते
हुए एक युद्ध से गुजरना होता है. आखिर वे कौन हैं जो समाज और राजनीति की तरह
साहित्य और रंगमंच में भी ‘भारतीयता’ की परिभाषा को संकुचित किये हुए हैं?"
श्रीमान पंकज जी, कृपया
आप अपनी पहचान और रंगवार्ता को अलग रखें तो भ्रम पैदा नहीं होगा. नहीं तो दोनो जगह
अपना ही नाम लिख दें!
पहला खंडन मैं ही कर देता हूं इस तथ्य से कि हिंदीभाषा के रंगमंच में सबसे
अधिक गैरहिंदी भाषी रंगकर्मी सक्रिय हैं. दुसरा, हिंदी भाषा के
रंगमंच में अन्य भारतीय भाषाओं के नाटकों का स्थान विपुल है. तीसरा हिंदी भाषा
क्षेत्र के अन्य भाषाओं मैथिली, छत्तीसगढ़ी, बुंदेली, मालवी, भोजपुरी
इत्यादि में व्यापक रंगकर्म और विपुल लेखन हुआ है.
VibhaRani नाटक के लिए टिकट लेना अभी हमारी मानसिकता में नहीं आया है. जनता अमीर हो या गरीब, वह सिनेमा पर पैसे खर्च करती है, टीवी, कप्डे, जूते सभी पर खर्च करती है, अपनी हैसियत से तो वह नाटक पर भी खर्च कर सकती है. रह गई बात सरकारी/प्राइवेट संस्थानों से पैसे लेकर नाटक करने की, तो इसमें कोई हर्ज़ नही6. हां, तब अपने साथियों को उचित मानधन अवश्य दें, ताकि थिएटर एक आजीविका पर उनका विश्वास बने. जन सहयोग से नाटक कर सकते हैं, लेकिन कलाकारों के पेट नहीं चल सकते. थिएतर का कोई फाइनांसर नहीं है, फिल्म की तरह तो जो फाइनांस करते हों, उनसे मदद अवश्य ली जानी चाहिये. मुझे इसमें भी कोई बुराई नजर नही6 आती यदि कोई कंपनी अपने उत्पाद का विज्ञापन थिएतर के माध्यम से करना चाहे तो.... थिएटर की हर संभावना को तलाशें तो इसकी आर्थिक मुश्किलात से निजात पाया जा सकता है
Vivek Kumar सरकारी फंड से रंगमंच करने में बुराई नहीं है, यदि
उसे ईमानदारी से खर्च करें, रही बात टिकट विंडो की तो अभी वो CULTURE
DEVELOP करने में समय लगेगा . THEATRE को CLASSIFIED नहीं करना चाहिए , WE
SHOULD ONLY WORK FOR
GOOD & HEALTHY THEATRE.
Pankaj Kumar Saxena the
worst art in the world is theatre which remained banned for 400years in euorpe
so dnt talk about healthy or good thatre, ok. if u have somepower then only
tkts can be sold otherwise keep cribbin our theatre group if does theatre
it does independentyt not with any help.
RangVartaएक ऐसे राज्य में जहां हिंदी थिएटर की कोई गतिविधि नहीं है, जनता उत्पीड़ित है, दमन चरम पर है यदि हम उनके सपोर्ट में दलित-आदिवासी नाट्य समारोह करने की सोच रहे हैं, तो क्या हमसे ‘नीयत प्रमाण-पत्र’ मांगा जाना चाहिए? जिस राज्य के कोटे से अब तक एनएसडी के कम से कम पांचछः पास आउट हैं (राज्यवार भागीदारी के लिहाज से जो नगण्य है), उस राज्य में हिंदी थिएटर का कोई नामलेवा नहीं है. (इप्टा जैसी जन संस्थाओं और संभवतः जमशेदपुर की कुछ रंग गतिविधियों को छोड़कर) क्या इसके लिए भी हम ही जिम्मेवार हैं?
आप प्रवीन कुमार
गुंजन की यह टिप्पणी जरूर पढ़ें और बताएं कि क्या हम सचमुच थिएटर में तनाव बढ़ा रहे हैं. दलित
आदिवासी नाट्य समारोह अर्थात् ‘दलित आदिवासी समाज’ बकवास है और इसे जीने का कोई हक नहीं है!
" " इस देश में
कोई theatre company नहीं है जो केवल टिकट खिडकी
के बल पर theatre कर रही हो.. अगर कोई है तो fact के साथ बताएँ ... आप कभी दलित, कभी जनता आदि के नाम
पर लोगों को क्यों बेवकूफ़ बना रहें हैं. आज तक मेरी जानकारी में धर्म और जाति के
नाम पर कोई भी theatre festival india में नहीं
हुआ .. आप पहले व्यक्ति हैं .. आपका जितने पोस्ट मैंने आज तक देखा उसमें आप असहाय
चीजों का गलत तरीके से सहारा लेकर अपने आपको महिमामंडित करते रहें हैं ...आज फेसबुक के कारण हम आपको जानतें हैं आपके रंगकर्म कि वजह से नहीं . बड़ी – बड़ी क्रांति कि बात इस देश में बहुत लोग
बोलतें हैं . आप रंगकर्मियों में तनाव बढ़ाना चाह्तें हैं. आपकी भाषा राज ठाकरे और
बाल ठाकरे जैसी है . प्लीज़ आप बकवास करना बंद करें”...
"साथियो, हमें बताइए भारत के हिंदी रंगमंच में क्या कोई नाट्यदल या नाट्यकर्मी ऐसे हैं जो सिर्फ और सिर्फ टिकट विंडो के बल पर थिएटर कर रहे हैं? उन्होंने आज तक एनएसडी, संगीत नाटक अकादमी, संस्कृति मंत्रालय या किसी देशी-विदेशी एजेंसियों से, औद्योगिक-कॉरपोरेट कंपनियों से, सरकारों व एनजीओज से कोई प्रोजेक्ट-फंड लेकर नाटक नहीं किया हो? या इनके द्वारा आयोजित समारोहों में मंचन नहीं किया हो? और अपना अधिकांश रंगकर्म सिर्फ टिकट विंडो से आनेवाले जनता के पैसों पर किया हो?
अगर हमारी ये जानकारी आधीअधूरी है तो कृपया हमें सहयोग करें. हमें उन रंगकर्मियों और नाट्यदलों के बारे में जानकारी दें जो जनता के टिकट विंडो के सहारे ही नाटक कर रहे हैं.
Pravin Kumar Gunjan दलित-आदिवासी समाज नहीं...आपके theatre festival के सन्दर्भ में और अपने घिनौने post के
सन्दर्भ ली. रंगकर्म व्यापक है इसे अपनी ओछी मानसिकता से विकृत मत करें.
RangVarta इस फेस्टिवल के आयोजक दलितआदिवासी ही हैं बंधु. इसलिए जब समारोह बकवास है तो वे भी बकवास हुए. उनकी पोस्ट घिनौनी है तो वे भी घिनौने हुए. हम जानते हैं आपकी डिक्शनरी में हमारे लिए यही शब्द हैं. आज से नहीं. सदियों से.
AmiteshKumar गुंजन जी की बातों का आप गलत मतलब निकाल रहें हैं. और उसे 'हमारे' और 'आपके' खांचे में ढाल रहें हैं. हो सकता है कि उस हमारे में गुंजन ही भीतर हों और आप बाहर!...गुंजन जी का इशारा बस इतना है कि आप बेवज़ह का विभाजन कर रहें उस कला में जो सबसे 'दलित' है और जूझ रही है। रंगमंच में हमेशा से दलित और आदिवासि जातियां बहुतायत में रह रही है और रंगमंच हमेशा से उनके पक्ष में और उत्पीड़को का विरोधी रहा है. दर असल आपका मंतव्य अगर ऐसे रंगमंच से है जो दलित और आदिवासियों द्वारा और उनके लिये किया गया हो तो माफ़ करे यह निशचय ही विभाजक है और निंदनीय है क्योंकि बिना जाति पूछे आप जाति जानेंगे कैसे? और ऐसा विभाजन करके आप जिसे मुख्यधारा का रंगमंच मान रहे हैं उसमें सदैव हाशिये की अस्मिताओं की कहानी और कला मौजुद है.
AvinashArtist कला के साथ राजनीति अब हर जगह हो रही है . मैं आरा ( भोजपुर ) से हूँ,
वहाँ भी अलग-अलग group है जो अलग- अलग राजनीति पार्टी को सपोर्ट करतें हैं. कुछ दिन पहले आरा रंगमंच के नाम से जुलुस
निकला गया जिसमें चालीस के आस-पास ही लोग आए ; क्या इतने ही
हैं आर्टिस्ट आरा में; नहीं राजनीति, राजनीति,राजनीति.
Charanjeet Singh आपने गुंजन जी के comment से ये अंदाज़ा
कैसे लगाया की वो दलित-आदिवासी समाज को बकवास कह रहें हैं के उन्हें जीने का कोई
हक़ नहीं ....मुझे तो ऐसा कहीं से भी नहीं लगा.. हाँ, जनसहयोग से नाटक करने को लेकर उनके विचार आपसे
अलग ज़रूर हैं , लेकिन इसका ये मतलब नहीं की आप बात को गलत
दिशा में मोड दें. आपको उसी पोस्ट में उनकी बात का जबाब देना चाहिए था . इस तरह के
व्यवहार से आप ही की छवि खराब होगी.
Mrityunjay Sharma @ rang varta... सर जी, रंगकर्मियों की एक अलग जात है और उपेक्षित है
फिर ये अलग से दलित रंगकर्म जैसे शब्दों का प्रयोग क्यों कर रहें हैं ? आज दलित शब्दों का प्रयोग राजनीति के लिए राजनीतिज्ञों तक हीं रहने दें ना
. रंगकर्म को बस रंगकर्मियों का धर्म-कर्म रहने दें.. प्लीज़ let’s finish
the topic. 17 March को हम केसरिया, मोतिहारी में एक नाटक “भिखर का तमाशा” का मंचन करने जा रहें हैं, ये नाटक दलितों की ही
आवाज़ और समस्यायों को बुलंद करती है, और ऐसा हम रंगकर्मी
करतें आ रहें हैं और करते रहेंगें, इसके लिए अलग से किसी
शब्द जैसे “दलित रंगकर्म” आदि के हम
मोहताज़ नहीं हैं और ना ही हम कोई राजनीतिक महत्वकांक्षा रखतें हैं ..बिहार आर्ट थियेटर, कालिदास रंगालय, साऊथ इस्ट गाँधी मैदान, पटना में है. ये संस्था
पिछले चार दशकों से बिना किसी के सहयोग के वर्ष में करीब बीस-तीस नाटकों का मंचन
करती आ रही है. अनिल कुमार मुखर्जी द्वारा कालिदास रंगालय और Bihar
Institute of Dramatics की स्थापना की गई. एक ओर जहाँ कालिदास
रंगालय रंगकर्मियों की कर्मस्थली है यो दूसरी ओर Bihar Institute of
Dramatics से हर वर्ष तीस नए रंगकर्मी रंगमंच से introduce होतें हैं. जो बाद में रंगमंच के बिभिन्न ग्रुप के साथ रंगकर्म करतें हैं
और अपना, परदेश और कभी-कभी देश का नाम रौशन करते आ रहें हैं. साल के 365 दिन में 250 से ज़्यादा दिन नाटकों के लिए minimum ( उचित
मूल्य ) पर प्रेक्षागृह कालिदास रंगालय उपलब्ध
करवाती है. लेकिन अफ़सोस की राजनीति से पेरित इस रंगकर्मी समाज को आदिवासी रंगकर्म,
जनवादी रंगकर्म, लेटर पैड रंगकर्म, चापलूसी रंगकर्म, बुद्धिजीवी रंगकर्म आदि विशेषण लिए
रंगकर्म या रंगकर्मियों की हर जगह चर्चा करने से फुर्सत नहीं है. अनिल कुमार
मुखर्जी की कहीं कोई चर्चा तक नहीं होती है. अनिल दा ने हिंदी में हीं करीब तीस
मौलिक नाटक लिखें हैं, कोई इसकी चर्चा या इसका मंचन क्यों
नहीं करता ? .. I think कोई फायदा नहीं, कोई लौबी नहीं है या वहाँ से फंड नहीं आता है .... शर्मनाक... रंगमंच के
लिए ये दुर्भाग्य की बात है.
JainendraDost आदिवासी और दलित सदियों से उपेक्षित रहें हैं, अगर आज वो अपनी अस्मिता के साथ आगे आ रहें हैं तो क्यों बुरा लग रहा है। उनका कोई गॉड फादर नही जो उनको बड़े-बड़े रंग-महोत्सवों तक पहुँचा सके, कुछ पहुँचते भी हैं तो गैर-दलित,आदिवासी निर्देशकों से शोषित हो कर। ऐसे में वो अपने लिए मंच बना रहें हैं तो आपको क्यों खटक रहा है। ये उत्तरआधुनिक समय है, हाशिए के लोगों को केंद्र में आने से कोई नही रोक सकता। आपको उनका भी ख्याल रखना होगा जो आपको ठीक नही लगते।
Chintu Muni Festival का नाम इस तरह देकर ना ही theater का भला
हो सकता है और ना हीं उस समाज का. बल्कि राजनीति करनेवाले अपनी रोटी सेंक रहें
हैं.
Oli Minz 1947 के बाद
क्या कभी आपने किसी आदिवासी-दलित को किसी कवि सम्मलेन में कविता पाठ करते देखा है
यहाँ ? .. नहीं देखा है ना ? यानि इतने
सालों में आप इन्हें हिंदी नहीं सिखा सके या फिर आपने इन्हें उस लायक समझा ही
नहीं. अब ये नाटक के द्वारा अपनी पहचान बचा रहें हैं तो इसमें बुराई क्या है.
Hanumant Sharma रंगकर्म का विभाजन दुखद सच्चाई है .. किन्तु दलित आदिवासी महोत्सव जैसे
पोलटिक्स से भी ना तो रंगकर्म का भला होगा ना दलित आदिवासी का .. बेहतर होगा इसे
जनता का जनता के लिए रंगकर्म रहने दें..जो ये होना भी चाहिए.
Brajesh Anay भोपाल में कई रंगकर्मी ऐसे हैं जिन्होंने बिना किसी अनुदान के सिर्फ “
टिकट विंडो” से ही नाटक करतें हैं. जयंत
देशमुख ने एक बार कहा था “जो घर ( जेब ) फूंके आपना, करे हमारे साथ नाटक”.
मेरी समझ से रंगमंच में अलग से दलित-आदिवासी कुछ नही होता है.... आज से रंगवार्ता के किसी भी पोस्ट और विचार से मेरा कोई वास्ता नही है... संपादक से वैचारिक मतभेद के कारन मै रंगवार्ता से अलग हो रहा हूं।
MunnaKumarPandey दरअसल मैं इसे यूँ समझता हूँ कि,शिगूफा फेंकना आसान काम है | पर शिगूफा अपने मौखिक दायरे में भी हो तब भी बुरा है और जब वह वर्चुअल स्पेस में आ जाये तो अधिक ही बुरा है | रंगमंच में भारतीयता की तलाश या भारतीय रंगमंच की तलाश अव्वल तो बेमानी बात है क्योंकि इसके कई उदाहरण हमारे इर्द-गिर्द फैले पड़े हैं जिनके प्रयासों से भारतीय रंगमंच की एक मुकम्मल तस्वीर बनती है |
(१)"हिंदी राष्ट्रभाषा की तरह व्यवहार नहीं कर रही ?- हिंदी राष्ट्रभाषा की तरह व्यवहार क्यों और कैसे करे इसे स्पष्ट किया जाये क्योंकि हिंदी आज तक संपर्क भाषा की ही तरह व्यवहार करती है,और राष्ट्रभाषा के चरित्र पर अभी भी लम्बे डिबेट्स हैं | यद्यपि यह राष्ट्रभाषा घोषित है |
(२)"वंचित समुदायों के बारे में हिंदी साहित्य और रंगमंच ख़ामोशी ओढ़कर समाधिस्थ हो जाता है "- यह ऐसी बात है मानो वंचित समुदायों पर बात ही नहीं हो रही,१९८० के कल्चरल टर्न के बाद फिर हिंदी में दलित-आदिवासी राईटिंग के जबरदस्त और सकारात्मक उभार ,सबाल्टर्न स्टडीज को किस नजरिये से देखा जाये,क्या यह आवाज़ नहीं है और हिंदी में ही है | जहां तक रंगमंच की बात है तो संस्कृत के बाद भारतेंदु युग में आकर रंगमंच उभार के बीच के काल को जो शून्य काल या निर्वात के रूप में देखते हैं उन्हें पता होना चाहिए कि लोक समाजों में इन्हीं वंचित और ऊपेक्षित जातियों ने मनुष्य के मनोरंजन की आदिम प्रवृति को जिलाए रखा था,जिससे आधुनिक काल में बौद्धिक कहे जाने वाले वर्ग ने एक नयी रंगभाषा सीखी ,नया रंगशास्त्र रचा | भारतेंदु ही एकमात्र देवदूत नहीं थे,यही सामान्य कहे जाने वाले वर्ग ने ही लोकरंग जिलाए रखा था |
(३)"भारत के विभिन्न समुदायों के भाषा साहित्य और रंगमंच को हिंदी में प्रवेश करने के लिए क्षेत्रीयतावादी, अलगाववादी,विभाजनकारी,राष्ट्रविरोधी संबोधनों से गुजरना पड़ता है "-यह भी एकांगी और संकुचित दृष्टिकोण है | दरअसल क्षेत्रीय कला रूप अपनी जगह है और हिंदी अपनी जगह | जिस तरह के संबोधनों की चर्चा की जा रहहि है उसका प्रयोग करने वाले कम से कम रंगमंच के नहीं हो सकते | जनसंस्कृति के पक्षधरों की लडाई इन्हीं ताकतों से ही तो है | लोग रवि बाबु की डेढ़ सौंवी जयंती के आधार पर जगह जगह बांगला नाटक और उनकी कहानियों के अनुवाद नाटक कर रहे या करवा रहे हैं इसमें तो कहीं कोई अलगाववादी या अन्य आरोप नहीं दिखा | हबीब तनवीर फ्रिंज फर्स्ट अवार्ड जीतते हैं वह भी खालिस छत्तीसगढ़ी में यहाँ कोई क्षेत्रीयता का आरोप नहीं लगता,उनके कलाकार अपने लगते हैं,देश के कुछ बेमिसाल एक्टर्स में ये आदिवासी कलाकार(इस शब्द के लिए माफ़ी नामे के साथ) शामिल है | थियम अपने लगते हैं हिंदी पट्टी में नाटक करते हैं लोग जुटते हैं अभिनेता की शक्ति उन्हें जुटाती है (खांटी गंवई शहर बेगुसराय में प्रवीण गुंजन का आयोजन याद ही होगा )| एच.कन्हाईलाल को फिर अलग कर दें,भिखारी ठाकुर,तकलकर,पन्निकर अन्य भी कई हैं | दरअसल,उन्हें इन संबोधनों से नहीं गुजरना पड़ता बल्कि इस तरह की जुमलेबाजी के पीछे की मानसिकता बहुत खतरनाक है,कुछ ऐसा ही जैसा अलगाववादी ताकतों की हैं |
भारतीय रंगमंच की परिभाषा को उसके टोटेलिटी में देखना होगा और देखना चाहिए क्यों भारतीय रंगमंच का मुहावरा अपने कंपोजिट कल्चर के फ्रेम में गढ़ी-रची जाती है न की केवल हिंदी के दायरे में | इस तरह की जुमलेबाजी और जल्दबाजी मूलतः और अंततः विभाजक रेखा तैयार करती है या उसकी कोशिश है | प्रवीण गुंजन की बातों के निहितार्थ को समझे | उनकी बात यूँ ही नहीं उडाई जा सकती और जिस थियेटर को आप बता रहे हैं उसकी अस्तित्व और अस्मिता से इनकार नहीं मगर यह रंगमंच पर आरक्षणनुमा प्रयास बिलावजह है (अब इसका यह अर्थ मत निकाल लीजियेगा कि मैं आरक्षण विरोधी हूँ और अपने मतलब के लिए निकाल भी लेंगे तो मैं कर ही क्या सकूँगा सिवाय मुस्कुराने के जो प्रवीण गुंजन की भी नियति बना दी आपने बहरहाल )| उमा आनंद ने फोक थियेटर के चरित्र और फ़ार्म पर बात करते हुए इसे 'रोमांस विद थियेटर में आलरेडी कह दिया है | तब यह नौटंकी किसलिए (इसके निहितार्थ बड़े गंभीर दिख रहे हैं )?
Rang Varta ‘‘लोग जनवाद से घबराते थे, प्रतिबद्धता से घबराते थे, वामपंथ से घबराते थे. दलित साहित्य को जब मैंने छापना शुरू किया तो मेरा बहुत विरोध हुआ. लेकिन मैंने कहा कि नहीं, ये साहित्य जेनुइन है और आदमी के दारुण दुःखों की गाथा है. सदियों का दुःख है इसमें, परंतु इसमें आदमी की जिजीविषा भी है, जीवन के प्रति आस्था भी है, तो कोई अधिक चतुर बनने की कोशिश में नहीं बल्कि समग्रता को पकड़ने की कोशिश में इस शब्द को मैंने अपनाया.’’ - कमलेश्वर (हिंदी परिवर्तन, 27 अक्तूबर से 2 नवंबर 1986 के अंक में)
Ganesh Tiwari कला, साहित्य, रंगमंच आदिम है जो लोकजीवन में बसता है. जितनी भी कालजयी रचनाएँ हैं वह आदिम प्रवृत्तियों, लोक पर ही आधारित हैं. कला माध्यम को कथित अभिजात्य वर्ग ने हाइजैक करने की हमेशा कोशिश की है, कभी राज्याश्रय के जरिये तो कभी कला कला के लिए नारा लगाकर. कथित इलीट के पास है ही क्यासमृद्ध लोक कला का जूठन.... बेहद जरूरी है कला माध्यम की छद्म लोगों से मुक्ति, यह अमेरिका जैसे देशों में भी हुआ है. ‘दलितआदिवासी समाज’ बकवास कहने वाले महा बकवास हैं.
Ajay Kumar Sharma दलित शब्द से नाट्य-उत्सव को बंधना सही नहीं है, नाटक
पूरा समाज की बात करता है, जाति विशेष की नहीं.
ParvezAkhtar साहित्य में जब दलित साहित्य और इतिहास लेखन में 'सबाल्टर्न' की बात की जासकती है, तो 'दलित आदिवासी थियेटर फेस्टिवल' का आयोजन क्यों नहीं किया जासकता है ? जो अभिजात्य है, वही स्वीकार क्यों किया जाए ? प्रवीण गुंजन ने अपनी टिप्पणी में सामान्य
शिष्टाचार और मर्यादा का पालन नहीं किया है | यह खेदजनक है !
Pravin Kumar Gunjan आदरणीय परवेज़ साहेब, मर्यादा लांघने की बात से आप
से पूरी तरह से असहमति है. बात अभिजात्य और दलित की नहीं है. एक थियेटर ही जो आजतक
इन चीजों से बचा रहा है. अगर इसमें भी बिभाजक राजनीति की बात शुरू होगी तो निश्चय
ही रंगमंच संकीर्ण होगा और मुझे लगता है की इस तरह की भाषा का रंगमंच में आना भी
भाषाई ग्रामर को दुरुस्त नहीं करता. बातों को सीधी बोलने में कठिनाई ही क्या है. हमें भाषा का गोल मोल इस्तेमाल नहीं आता. रंगमंच अपनी बात सार्थक तरीके से
रखता है. तेवर बड़े ही कड़े हो. और मुझे अपनी बात पे थोड़ी सी भी खेद नहीं है.
Parvez Akhtar @ Pravin Kumar Gunjan :
....... लेकिन मुझे दुःख है कि आपको खेद नहीं है ! अपनी स्थापनाओं पर कायम रहना आपका अधिकार है, किन्तु आप यह तो कह ही सकते थें कि यदि आपकी बातों से किसी व्यक्ति या समूह को दुःख पहुंचा है, तो आपको इसका खेद है ! ख़ैर ......... अब इसे यहीं समाप्त करें |
Munna Kumar Pandey @praveen – अफ़सोस
है की आपकी बात ठीक से प्रेषित नहीं हो पाई या लोग inner meaning को समझ नहीं पा रहे, बहरहाल, आपकी
बातों को समझ रहा हूँ
(दलित-आदिवासी नाट्य समारोह को बकवास बताते हुए हमारी पोस्ट को घिनौना कहा है इन्होंने)
आपका मंतव्य अगर ऐसे रंगमंच से है जो दलित और आदिवासियों द्वारा और उनके लिये किया गया हो तो माफ़ करे यह निशचय ही विभाजक है और निंदनीय है - Amitesh Kumar
दोनों के मूल कमेंट्स यहां हैं -
Amitesh Kumar इन दो पोस्टों के बीच में आप अपनी भी पोस्ट लगते तो बात साफ़ होती. आप
तथ्य को विकृत मत करिये अपने पक्ष में. मैंने जो बात लिखी उसमें से दो लाइन निकल
देने से पूरा या तो आप ये लाइन लगते क्योंकि पूरा वाक्य ये है ...दर असल आपका मंतव्य अगर ऐसे रंगमंच से है जो दलित और आदिवासियों द्वारा और उनके लिये किया गया हो तो माफ़ करे यह निशचय ही विभाजक है और निंदनीय है क्योंकि बिना जाति पूछे आप जाति जानेंगे कैसे? ये पूरी बात जो की ये है ......गुंजन जी की बातों का आप गलत मतलब निकाल रहें हैं. और उसे 'हमारे' और 'आपके' खांचे में दाल रहें हैं. हो सकता है कि उस हमारे में गुंजन ही भीतर हों और आप बाहर!...गुंजन जी का इशारा बस इतना है कि आप बेवज़ह का विभाजन कर रहें उस कला में जो सबसे 'दलित' है और जूझ रही है। रंगमंच में हमेशा से दलित और आदिवासि जातियां बहुतायत में रह रही है और रंगमंच हमेशा से उनके पक्ष में और उत्पीड़को का विरोधी रहा है. दर असल आपका मंतव्य अगर ऐसे रंगमंच से है जो दलित और आदिवासियों द्वारा और उनके लिये किया गया हो तो माफ़ करे यह निशचय ही विभाजक है और निंदनीय है क्योंकि बिना जाति पूछे आप जाति जानेंगे कैसे? और ऐसा विभाजन करके आप जिसे मुख्यधारा का रंगमंच मान रहे हैं उसमें सदैव हाशिये की अस्मिताओं की कहानी और कला मौजुद है. बातों को तोडने मरोड़ने से बेहतर आप खुल कर अपनी बात रखिये..बहस से आप हमेशा कतरा जाते हैं!
Pravin Kumar Gunjan अब आप अपनी असली घटिया राजनीति पर आ चुकें हैं क्रन्तिकारी महोदय. और आप
जितना लपेटना चाहें लपेटें, ऐसे लोग मैंने जीवन और नाटकों
में अधिकांश समय देखा है. आप उत्साहित हो जाएँ, जनमत संग्रह
करवा लें, आपको इस चर्चा के करना अच्छा सपोर्ट और festival में धनउगाही में काफी मदद मिल सकती है. अपने जैसे घिनौने चेहरे लेकर आए और
इससे जातीय रंग देकर festival को limelight में ले लीजिए. आपका मकसद पूरा.
Oli Minz जमाने के साथ चलने की कोशिश तो किया मगर न सहारा मिला न विकास हुआ .. अब
जब चलें हैं खुद अपने रस्ते तो कुछ लोगों को मिर्ची लग रही है.
RangVartaपंचमवेद कहा जानेवाला नाट्यशास्त्र किसके हितों के लिए सृजित किया गया? असुरों को सुसंस्कृत बनाने के लिए. भरतमुनि द्वारा मानवों के सहयोग से प्रदर्शित पहला ही नाटक रंगभेदी था जिसका विरोध असुरों ने मंचन के दौरान जब किया तो देवताओं ने प्रेक्षागृह में ही असुरों का संहार कर दिया. आप इस प्रस्तुति से शायद सहमत न हों लेकिन तथ्य यही है. भारत के वरिष्ठतम शीर्षस्थ रंगकर्मियों में से एक गिरीश कर्नाड का यह संदेश यहां पढ़ें http://www.narthaki.com/info/articles/article55.html जो उन्होंने पेरिस में 27 मार्च 2002 को दुनिया को बतौर ‘रंगकर्मी राजदूत’ दिया था.और आपकी जानकारी के लिए हम सुषमा असुर का एक विडियो भी यहां शेयर कर रहे हैं.
अब तो हम असुरों को जीने दो!
मेरा नाम सुषमा असुर है। मैं नेतरहाट (झारखंड) के पहाड़ों पर रहती हूं। मैं जब स्कूल गयी, तो वहां एक ऐसी भाषा मुझे पढ़ायी गयी, जो मेरे लिए बहुत मुश्किल थी। खैर, अब मैं इंटर कर चुकी हूं। मैंने आपकी किताबों में पढ़ा है कि हमलोग राक्षस होते हैं। जबकि हमने आज तक किसी से कुछ नहीं छीना। उलटे लोगों ने हमारा सब कुछ छीन लिया। आपके देवताओं ने हमारा राज, इतिहास सब छीना। टाटा ने हमारा विज्ञान चुरा लिया। बिड़ला हमारी जमीन हथियाये हुए है, क्योंकि उसके नीचे बहुत बॉक्साइट है। वंदना दीदी बोलती है यूनेस्को नाम की कोई संस्था है, जिसे दुनिया की सभी सरकारों ने मिलकर बनाया है, उसके अनुसार हमारी भाषा तुरंत मरने वाली है।
आप सब अंडमान के आदिवासियों पर दुखी होते हो। आप सब विदेशों में मरने वाले भारतीयों के बारे में चिंतित होते हो। कहते हो रंगभेद हो रहा है। हम असुर आपके इतने करीब हैं, बिल्कुल पटना, रांची, रायपुर, राउरकेला, बांसवाड़ा, इंदौर के बगल में। पर हमारा मरना नहीं दिखाई देता।
मैं एक असुर बेटी जो आपके मिथकों, पुराण कथाओं और धर्मग्रंथों में हजारों बार मारी गयी हूं, अपमानित हुई हूं। आप सबसे पूछना चाहती हूं क्या हमें मारकर ही आप सबका विकास होगा? हजारों साल तक मारने के बाद भी आप सबकी हिंसा की भूख नहीं मिटी।
अब तो हमें अपनी भाषा, संस्कृति और जमीन व जल-जंगल के साथ जीने दो।
Chandrakanth Khanapurkar NAMASTE I DONT THINK ANY AMETURE THEATRE GROUP IS
TOTALLY DEPENDS ON WINDOW TICKET.THEY HAVE TO SELL THE TICKETS TO THEIR FRIENDS
AND RELATIVES. IN HYDERABAD I AM ASSOCIATED WITH HINDI AND MARATHI THEATRE
SINCE 1972. MY SELF AND OTHER GROUPS FACED MANY DIFFICULTY TO PRODUCE PLAYS.
AND PERFORM.LACK OF PROPER SUPPOORT FROM PEOPLE . EVEN IN 1970 TICKETS WERE
RS,2 AND RS, 5 IT WAS DIFFICULT TO MOBILES FUNDS. WE HAVE TO BEG THE PEOPLE TO
PURCHASE THE TICKET. AND NOW FEW NEW GROUPS STARTED PRODUCING PLAYS WITH THE
HELP OF SPONSORS. AND SO FAR NO GROUP CAN CLAIM IN HYDERABAD THAT WE ARE
TOTALLAY DEPEND UPON WINDOW TICKET . EVEN TODAY WE HAVE TO GO TO PEOPLE AND BEG
THEM TO PURCHSE TICKETS.INSPITE OF THAT HOUSE WONT BE FULL. BUT IF IT IS
CELEBRITY A FILM ACTOR COMES WITH PLAY PEOPLE WILL GET MORE SPONSORES AND
PEOPLE GO TO WATCH THE PLAY BECAUSE . HE IS A FILM ACTOR. AND IT IS TRUE SOME
GROUPS GET THE SPONSORSHIP FROM STATE GOVT.AND CENTRAL WITH THEIR RESPECTIVE
INFLUENCE. AND DO THE PLAYS.AND IN THE HISTORY OF INDIAN THEATRE THE THEATRE IS
SURVIVING ONLY BECAUSE OF AMETURE THEATRE ACTORS AND GROUPS.AND IT IS A NAKED
TRUTH.WITH REGARDS CHANDRAKANTH KHANAPURKAR KALASHROT THEATRE GROUP HYDERABAD.
RangVarta हमें गालियां दी जा रही हैं, दलित आदिवासी रंगमंच और समाज को बकवास, घिनौना और निंदनीय बताया जा रहा है. कुछ ऐसा ही झेलना पड़ा था साहित्यकार कमलेश्वर को जब उन्होंने ‘सारिका’ में हिंदी के दलित साहित्य को स्थान देना शुरू किया था. लखनऊ में पिछले वर्ष हुए दलित नाट्य समारोह पर भी इसी तरह के हमले हुए थे. पढ़िए कमलेश्वर का यह बयान ‘‘लोग जनवाद से घबराते थे, प्रतिबद्धता से घबराते थे, वामपंथ से घबराते थे. दलित साहित्य को जब मैंने छापना शुरू किया तो मेरा बहुत विरोध हुआ. लेकिन मैंने कहा कि नहीं, ये साहित्य जेनुइन है और आदमी के दारुण दुःखों की गाथा है. सदियों का दुःख है इसमें, परंतु इसमें आदमी की जिजीविषा भी है, जीवन के प्रति आस्था भी है, तो कोई अधिकु चतुर बनने की कोशिश में नहीं बल्कि समग्रता को पकड़ने की कोशिश में इस शब्द को मैंने अपनाया.’’ - कमलेश्वर (हिंदी परिवर्तन,27 अक्तूबर से 2 नवंबर 1986 के अंक में)
VibhaRani मेरे नाटक 'मैं कृष्णा कृष्ण की' से एक सम्वाद कृष्ण का द्रौपदी से 'वस्तुत: जो कोई भी कुछ नया करता कहता है ना, उसे बहुत कुछ सुनना व सहन करना होता है.....परम्परा स्थापित करनेवालों को रोना शोभा नही देता." यह सम्वाद अपने आप सबकुछ कह रहा है.
RangVarta भारत विविध सांस्कृतिक रंगों वाला देश है. सभी रंग मिलकर ही भारतीयता की होली रचते हैं. अफसोस कुछ लोग सिर्फ अपनी पसंद के रंगों को ही सभी समुदायों व उनकी संस्कृतियों पर थोपना चाहते हैं. यह रंगों के जनतंत्र के खिलाफ है और रंगमंच की स्वायत्तता का हरण भी. हम असहमति का सम्मान करते हैं और चाहेंगे कि असहमतिसहमति के इस उत्तेजक विमर्श में भी भाषा की तमीज बनी रहे. क्योंकि हम सब भाषा के सबसे संवेदनशील दृश्यरचनाकार हैं. रंगमंच हमें साहसी और सत्य का अनुगामी बनाता है. दंभी और जातिवादी नहीं. रंगकर्मी खाप पंचों की तरह व्यवहार नहीं कर सकते. हम आभारी हैं उन सभी के जिन्होंने इस विमर्श में दमित अस्मिताओं का सम्मान करते हुए हिंदी प्रदेश के सबसे उत्पीड़ित राज्य झारखंड में 26 से 28 मार्च तक आयोजित होनेवाले दलितआदिवासी नाट्य समारोह एवं राष्ट्रीय संवाद को अपना समर्थन दिया. आइए हम सभी मिलजुल कर रंगमंच को उसके वास्तविक रंगों से दृश्यरूप दें और इसके जरिये विविध संस्कृतियों वाले भारतीय गणतंत्र को सुंदर और मानवीय बनाएं.
Parvez Akhtar थियेटर, आज अगर किसी रूप में अवाम के
सांस्कृतिक-मुहावरे में, उनकी आशाओं -आकांक्षाओं की
अभिव्यक्त कर पाने में सक्षम है, तो वह 'थियेटर मिशन' या 'पीपुल्स
थियेटर' के ज़रिये ही सम्भव हो पारहा है | रजत कपूर या उन जैसे-नाट्यकर्मियों के लिए, जो
पेशेवर हैं, दरअसल थियेटर एक 'मिशन' ही है और थियेटर इसतरह की प्रतिबद्धता से
ही अपनी प्रासंगिकता भी सिद्ध कर सकेगा | पिछले
वर्ष पटना में 'नटमंडप' द्वारा
आयोजित 'एकांत-के-रंग' (एकल नाट्य
समारोह) में नसीरुद्दीन शाह के ग्रुप, जो नितांत पेशेवर
दल है, द्वारा केवल यात्रा-व्यय पर ही अपने तीन नाटकों
का मंचन किया गया |
अराजनीतिक जैसी कोई भी चीज़ इस दुनियां में एग्जिस्ट ही नहीं करती | Bahut saari baatein hain jo khatakti hain.. Bahas ka mudda kuchh bhi ho lekin yah jaan kar aashcharya hota hai ki in sabke peechhe fayda kisi ko ho ya na ho nuksaan rangmanch ka jaroor hota dikhata hai...!
जवाब देंहटाएंदिमाग़ घूम गया भैया, ग़लती से इस लेख को पढ़ने लगा..... इंटरेस्टिंग लगा पूरा पढ़ डाला, सभी विद्वानों के विचार पढ़े काफ़ी कुछ सीखने को मिला भैया....नाटकों से मेरा भी कभी कुछ जुड़ाव रहा था ... अनुदान के चक्कर में चाकरघन्नी की तरह घूमता रहा टिकट के बल पर ही नाटकों का मंचन कर घर का आटा गीला कर गार्जियन की डाँट ख़ाता रहा ....राँची में बुबू दा, और अन्य रंगकर्मियों का सहयोग मिला जो मेरी निजी जिंदगी के इतिहास का सबसे सुखद यादगार पल रहा ......फेसबूक पर अश्वनी का दलित आदिवासी नाट्य मंचन की जानकारी मिली संपर्क किया ,अब इससे जुड़ने की कोशिश कर रहा हूँ ........मेरा सोचना है नाटक चाहे दलित हो आदिवासी हो हिन्दी हो बांग्ला हो या जो कोई भी हो आपका मक़सद यदि अच्छा हो तो सब ठीक है अन्यथा सर्वनाश......जय हिंद.....
जवाब देंहटाएंदलित नाटक पर समारोह हो रहा है, शुभ कामनाएं. जो इसके खिलाफ उठ रहे हैं, उन्हें कुछ भी कहने की ज़रूरत नहीं. ये वो लोग हैं, जिन्हें क्रांति किताबों मे चाहिए होती है. रह गई बात रजत कपूर की- रजत कपूर जी की बहुत प्रशंसा की जा रही है कि वे केवल आने-जाने के खर्चे पर ही आने को तैयार हो गए गए हैं. इस बात पर सभी उनकी विरुदावली गा रहे है. क्या यह हम सबको बताया जाएगा कि उनकी टीम के आने-जाने का स्वरूप क्या है? क्या वे और उनकी टीम द्वितीय श्रेनी के 25% के रियायती टिकट पर मुंबई से आ रही है? उनको रांची में रहने-ठहराने का प्रबन्ध क्या वही होगा जो हम जैसे सामान्य कर्मियों के लिए होता है?आने-जाने और ठहरने के नाम पर जितना बजट उन्हें दिया जाएगा, क्या वही बजट अन्य रंगकर्मियों को दिया जा सकेगा? यह खर्चे का हिसाब नहीं मांगा जा रहा, यह उस प्रवृत्ति पर बात की जा रही है, जिसमें बडे लोगों को बुला कर उनकी विरुदावली गाई जाती है. मुंबई में उनके जैसी बहुत सी तीम है और उनके पास बहुत पैसे हैं. उनकी महानता तब होती, जब वे अपने खर्चे से आते-जाते. पटना या कोई और टीम यदि पैसे मांग रही है तो कोई गलत नहीं कर रही. उन्हे6 बिन सोचे समझे धिक्कारे जाने की ज़रूरत नहीं. उन्हें भी रजत कपूरवाला बजट दे देते.
जवाब देंहटाएंइतने सारे हंगामें के बात जो कार्यक्रम तय होता है उसमें रजत कपूर साहेब गायब ... पूरा कार्यक्रम ये देखिये
जवाब देंहटाएंसमकालीन दलित-आदिवासी रंगभाषा अखड़ा
26 से 28 मार्च 2012, रांची झारखण्ड
प्रस्तावित कार्यक्रम
26 मार्च 2012: उद्घाटन समारोह समय: संध्या 5 से 6 बजे
1. अतिथियों का स्वागत
2. मुख्यमंत्री, झारखंड द्वारा उद्घाटन
3. उद्घाटन वक्तव्य
4. विशिष्ट अतिथि वक्तव्य
- प्रो. दत्ता भगत, औरंगाबाद (महाराष्ट्र)
- डॉ. वीर भारत तलवार, जेएनयू (दिल्ली)
5. मुख्यमंत्री द्वारा नाट्य निर्देशकों को सम्मान
7. नाट्य प्रदर्शन - संध्या 6 बजे से
1. मोलगापोडी
बामा लिखित एवं श्रीजीत सुंदरम द्वारा निर्देशित
कटियाक्करी, चेन्नई की प्रस्तुति, अवधि 85 मिनट, भाषा: तमिल
2. गांधी और अम्बेडकर
राजेश कुमार लिखित एवं अरविंद गौड़ निर्देशित
अस्मिता थिएटर समूह, दिल्ली की प्रस्तुति, अवधि: 90 मिनट, भाषा: हिंदी
27 मार्च 2012 : संध्या 6 बजे से
1. ब्लैक आर्चिड
सुधा चिग्था लिखित एवं तोइजाम शीला देवी निर्देशित
द प्रोस्पेक्टिव रेपर्टरी थिएटर, मणिपुर की प्रस्तुति, अवधि 85 मिनट, भाषाः मणिपुरी
2. कोर्टमार्शल
स्वदेश दीपक लिखित एवं अरविंद गौड़ निर्देशित
अस्मिता थिएटर समूह, दिल्ली की प्रस्तुति, अवधि 120 मिनट, भाषा: हिंदी
28 मार्च 2012: संध्या 6 बजे से
1. एक आदिवासी बयान
अश्विनी कुमार पंकज लिखित एवं राजेन्द्र कुमार सिंह निर्देशित
मुद्रा संस्थान, अजमेर की प्रस्तुति, अवधि: 40 मिनट, भाषा: हिंदी
2. क्रियेचर्स ऑफ द अर्थ: द लिजेण्ड ऑफ पैकाची जोर (म्यूजिकल प्ले)
कोरियोग्राफी, संगीत एवं निर्देशन: हर्टमैन डिसूजा
स्पेस थिएटर, गोवा की प्रस्तुति, अवधि 40 मिनट, भाषा: संवादरहित