विमलेन्दु द्विवेदी ने अपना ये आलेख अपने फेसबुक वाल पर पोस्ट की थी. हम मंडली के पाठकों के लिए इसे यहाँ आभार के साथ प्रस्तुत कर रहें हैं. मंडली मूलतः रंगमंच केंद्रित ब्लॉग है शिक्षा भी तो रंगमंच के दायरे से अलग नहीं है ना. विमलेन्दु द्विवेदी से संपर्क करने के लिए यहाँ क्लिक करें. -
महात्मा गाँधी उस दिन वर्धा आश्रम में कुछ विद्वानों के साथ बैठकर बच्चों की बुनियादी शिक्षा के ढाँचे पर चर्चा कर रहे थे. अचानक उन्होंने कहा- “ मैं स्कूल की किसी कक्षा में जाकर पूछूँ कि मैने एक सेब चार आने में खरीदा और उसे एक रुपये में बेच दिया तो मुझे क्या मिलेगा ? मेरे इस प्रश्न के जवाब में अगर पूरी कक्षा यह कह दे कि आपको जेल की सज़ा मिलेगी तो मैं मानूँगा कि यह आज़ाद भारत के बच्चों के सोच के मुताबिक शिक्षा है.”…….यह प्रसंग मुझे इसलिए याद आया कि इस समय पूरे देश में बच्चे परीक्षा दे रहे हैं. और एक तरह से पूरा देश ही परीक्षा दे रहा है. ये बच्चे सिर्फ किसी एक देश का भविष्य नहीं हैं, बल्कि अंततः पूरी दुनिया का भविष्य हैं.
महात्मा गाँधी उस दिन वर्धा आश्रम में कुछ विद्वानों के साथ बैठकर बच्चों की बुनियादी शिक्षा के ढाँचे पर चर्चा कर रहे थे. अचानक उन्होंने कहा- “ मैं स्कूल की किसी कक्षा में जाकर पूछूँ कि मैने एक सेब चार आने में खरीदा और उसे एक रुपये में बेच दिया तो मुझे क्या मिलेगा ? मेरे इस प्रश्न के जवाब में अगर पूरी कक्षा यह कह दे कि आपको जेल की सज़ा मिलेगी तो मैं मानूँगा कि यह आज़ाद भारत के बच्चों के सोच के मुताबिक शिक्षा है.”…….यह प्रसंग मुझे इसलिए याद आया कि इस समय पूरे देश में बच्चे परीक्षा दे रहे हैं. और एक तरह से पूरा देश ही परीक्षा दे रहा है. ये बच्चे सिर्फ किसी एक देश का भविष्य नहीं हैं, बल्कि अंततः पूरी दुनिया का भविष्य हैं.
अभी-अभी
होली का त्यौहार गुज़रा. होली पर बच्चों को रंग खेलते हुए देखकर याद आया कि कई
वर्षों से इस त्यौहार में बच्चों की सहभागिता लगभग खत्म होती जा रही थी. एक तो
होली ऐसे समय में आती है जब अधिकांश बच्चों की परीक्षाएं चल रही होती हैं. कोई
बच्चा या उसके माँ-बाप ऐसे मौके पर समय गंवाने की हिमाकत नहीं कर सकते. हमारी
गलाकाट प्रतिष्पर्धा ने बच्चों से उनका बचपन छीन लिया. हमारी शिक्षा व्यवस्था
बच्चों के स्वाभाविक विकास के सारे रास्ते बन्द करती जा रही है. बच्चों के पास
आत्मनिर्णय के अवसर सपनों तक में नहीं बचे हैं. मनोवैज्ञानिकों का भी मानना है कि बचपन
की स्वाभाविक रुचियों के दमन से मनुष्य में आगे चलकर कुण्ठाएँ,नफरत और
क्रूरताएँ पैदा होती हैं, जो अंततः युद्धों और महाविनाशों की
ओर ले जाती हैं. बचपन की चिन्ता न करने से आगे के जीवन में चिन्ताएँ ही चिन्ताएँ
पैदा हो जाती हैं.
आपको
याद ही होगा अब्राहम लिंकन का वह कालजयी पत्र, जो उन्होने अपने बेटे के शिक्षक
को लिखा था----“ अध्यापक महोदय ! मेरे बेटे को यह
ज़रूर सिखाएँ कि श्रम से कमाया एक रुपया, बिना श्रम मिले पांच रुपये
से अधिक मूल्यवान है. उसे सिखाना ईर्ष्या से दूर रहना. यदि तुम उसे सिखा सको तो
सिखाना, अपनी मुसीबतों से हँसकर जूझना........अगर संभव हो तो
उसे किताबों के आश्चर्यलोक का ज्ञान अवश्य कराना. परन्तु उसे इतना समय भी देना,
कि वह नीले आकाश में विचरण करते पक्षी समूह के शाश्वत सत्य को जान
सके, सुनहरी धूप में गुनगुनाती मधुमक्खियों और हरे पर्वतों
की गोद में खिले फूलों को देख सके..........मेरे पुत्र को ऐसा मनोबल देना कि वह
भीड़ का अनुसरण न करे. उसे सिखाना कि जब सभी एक स्वर में गाते हों, तब वह उन्हें धैर्य से सुने, किन्तु वह जो कुछ सुने
उसे सत्य की छलनी में छान ले..........उसे दुख में हँसना सिखाएँ, और बताएँ कि आँसुओँ में कोई शर्म की बात नहीं होती........उसे अपनी बुद्धि
और बाहुबल से भरपूर कमाना सिखाएँ, परन्तु यह भी सिखाएँ कि
अपने हृदय और आत्मा की कीमत न लगाए.........अधीर होने का साहस भी उसमें उत्पन्न
करना, और बहादुर होने का धैर्य भी. उसे सिखाना कि वह सदैव,
अपने आप में उदात्त आस्था रखे, क्योंकि तभी वह
मनुष्य जाति में आस्था रख पायेगा.....”
लिंकन
का यह पत्र शाश्वत है. यह बच्चों के मनोविज्ञान, उनकी शिक्षा और उनके भविष्य की
बात कहता है, और इस तरह से दुनिया के चरित्र और भविष्य की ही
बात करता है. इस ज़गह पर आप अवश्य ही यह सोचना चाहेंगे कि हमारे आज के बच्चे कैसे
हैं, और हमारी शिक्षा-पद्धति क्या उन्हे सही भविष्य
दे पा रही है ? तो पहले यही देख लेते हैं कि
हमारे आज के नौनिहाल हैं कैसे, जिनके ऊपर इस दुनिया का
भविष्य टिका है ??
इस
समय देश के अधिकांश बच्चे परीक्षा दे रहे हैं. हमारे देश मे परीक्षा होती नही,बल्कि ली और
दी जाती है.मुझे यह दृश्य ऐसा दिखता है जैसे एक साथ अनेक रोबोट अपने निर्माता के
सामने अपनी क्षमता और उपयोगिता साबित कर रहे हों.उनके भीतर जितना फीड कर दिया गया
है बस उसी का प्रदर्शन...आप सब ये जानते हैं कि एक साजिश के तहत हमारी पूरी
शिक्षा-पद्धति बच्चों को रोबोट बना रही है.दरअसल उपभोक्तावादी संस्कृति मे ऐसे
लोगों की कतई ज़रूरत नहीं होती जिनके पास अपना निजी व्यक्तित्व हो.
बच्चों
में व्यक्तित्व नदारत होता जा रहा है.दुनिया के सारे बच्चे एक से दिखते हैं.एक
जैसा बोलते हैं,एक जैसा खाते-हंसते-रोते हैं.वैश्वीकरण का यह प्रभाव है कि सबके राग-द्वेष
एक ही जैसे हो गये हैं. इस दुनिया के आक्रामक संचालकों ने अपने मंसूबों के लिए
सबसे कोमल और निरीह लोगों को चुना है.बच्चे उनके लिए ऐसे संसाधन हैं जिन्हें अपने
हित के लिए बड़ी आसानी से प्रोग्राम किया जा सकता है.ये कोरा कागज़ हैं,इन पर जो चाहो वह लिखा जा सकता है.
ऐसी
व्यवस्था की जा रही है कि बच्चों के भीतर सृजनात्मकता पैदा ही न पाये.'सृजनात्मकता'
हमेशा 'व्यवस्था' के लिए खतरनाक होती है.सारे बच्चे 'सूचना-केन्द्रों'
के रूप मे ही सफल/असफल हो रहे हैं.दुनिया के सारे सूचना माध्यमों
द्वारा ऐसी शिक्षा बच्चों को दी जा रही है जो उन्हें उपयोगी माध्यम के रूप में
तैयार करें.बच्चे साधन हैं अब,साध्य नहीं.
बच्चों
के इर्द-गिर्द आभासी छवियों का ऐसा जाल बुन दिया गया है कि वास्तविक चीज़ों से
उनका परिचय खत्म होता जा रहा है.बच्चे अब खेलते नहीं,खेल देखते
हैं.इसीलए हार बर्दाश्त करना भी नहीं आता.उनमें कौशल की कमी होती जा रही है.थोड़ी
विषम परिस्थिति को भी सम्भाल पाने में ये असमर्थ दिखते हैं.रिश्तों और भावनाओं की
समझ इन बच्चों में न्यूनतम स्तर पर पहुँच गई है.आगे चलकर यही पारिवारिक विखंडन का
कारण बनता है.प्रकृति से बच्चों का रिश्ता अब पूरी तरह से बदल गया है. वे प्रकृति
को पर्यटक की तरह तो देखते हैं,उसके सहचर और प्रमी नहीं बन
पाते.
दुखद
पहलू ये है कि इस पूरी साजिश में अभिभावक भी शामिल हैं या शायद मज़बूर....लीक
छोड़कर चलने का जोखिम कोई नहीं उठाना चाहता.ऐसा दिखता है कि एक अंधी दौड़ में सब
भागे चले जा रहे हैं अपने बच्चों को लेकर.उनके पास यह सोचने का समय ही नहीं है कि
वो अपने बच्चे को कहां लिए जा रहे हैं.
जिस
तरह की ये दुनिया बन रही है,उसे सब कोसते हैं,पर उसे
बदलने की कोशिश करने वाले नगण्य हैं.दुनिया की अगली शक्ल आज के यही बच्चे
बनायेंगे.क्या हम इन्हें साजिशों से बचा नहीं सकते ?हम इन
बच्चों को एक व्यक्तित्व नहीं दे सकते??इस दुनिया को अगर
रहने लायक रहने देना है तो हमें इन बच्चों को साजिशों से बचाना होगा.इनके हाथ में
घड़ा नहीं,मिट्टी दीजिए.इन्हें गिरने दीजिए और गिर के संभलने
की तमीज़ दीजिए.
अब
यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि हमारे देश में साक्षरता के आँकड़ों में कितना दूध है
और कितना पानी ! लेकिन दुनिया के कुछ देशों ने बच्चों की शिक्षा के महत्व को समझा
और अचंभित कर देने वाले बदलाव किए. जापान, इटली, अमेरिका, ब्रिटेन और यहाँ तक कि क्यूबा जैसे छोटे से देश ने बच्चों की शिक्षा को
अपनी मुख्य प्रतिज्ञा में रखा और पूरा दृश्य बदल गया. रोचक बात यह है कि इन देशों
में शिक्षा की अलख जगाने में बच्चों की अहम भूमिका रही.
अमेरिका
के ठीक मुहाने पर स्थित क्यूबा के बच्चों ने अमेरिका समेत सारी दुनिया को चौंका
दिया था. वर्षों पहले क्यूबा के राष्ट्रपति
फिदेल कास्त्रो ने अपने देश के बच्चों को लेकर एक अनूठा प्रयोग किया. उन्होने
बच्चों से पूछा----“ क्या आपको यह अच्छा लगेगा कि आपके देश को कोई
अनपढ़ कहे ? अगर नहीं, तो आप सबको
शिक्षक बनना पड़ेगा. “ कक्षा
आठवीं पास सभी बच्चों को कास्त्रो ने तीन चीज़ें पकड़ाईं—पुराने
किले, कन्दील और किताब-स्लेट. बच्चे दिन में अपनी पढ़ाई करते
और शाम होते ही हाथों में कन्दील लेकर पहाड़ी, गाँवों,
नगरों-मोहल्लों में निकल जाते. वहाँ सबको पढ़ाते और लौट आते. और तीन
साल में ही पूरा क्यूबा पढ़ा-लिखा बन गया. इस चमत्कार पर एक अमेरिकी शिक्षाविद जोनाथन काजोल ने जब एक किताब लिखी—‘ क्रांति की बाराखड़ी ‘---तो
कास्त्रो के इस कमाल से पूरी दुनिया चौंक गई.
शायद
आप उस जापानी लड़की तोतो चान को को भी जानते हों, जिसकी वज़ह से जापान ने स्कूल शिक्षा का ऐसा मॉडल
तैयार किया जो पूरी दुनिया में जॉयफुल स्कूल के रूप में बहुत लोकप्रिय हुआ. तोतो
जब दो-तीन बरस की थी तभी से उसे घर की खिड़की पर खड़े रहने की आदत बन गई. रास्ते
से गुज़रने वाले हर शख्स को आवाज़ देकर उससे बतियाती. और इस तरह उसके पास ज्ञान का
अद्भुत ख़जाना भर गया. सात साल की होने पर उसकी मां उसे स्कूल में दाखिला दिलाने
ले गई. वह अपने शिक्षकों से इतने सवाल करती कि वो सब तंग हो गये और उसकी माँ से
उसे स्कूल से निकाल लेने को कहा, कि ये हमारा स्कूल बिगाड़
देगी. इस तरह तोतो चान को करीब सात स्कूल छोड़ने पड़े. अंत में उसकी माँ उसे एक
अलग तरह के स्कूल में ले गई. यह स्कूल रेल की खराब पड़ी बोगियों में चलता था. इस
स्कूल को देखते ही तोतो खुशी से उछल पड़ी. स्कूल की संचालिका ने जब उससे पूछा कि
तुम पहाड़ खाओगी या समुद्र, तो वह चौंक गई. बाद में जब उसने
देखा कि जो बच्चे पहाड़ खाना चाहते थे उन्हे आलू दिया गया और जो समुद्र खाना चाहते
थे उन्हें मछली. इससे उसने सीखा कि आलू पहाड़ पर पैदा होते हैं और मछली समुद्र
में. बाद में जापान सरकार ने तोतो चान की कहानी से प्रेरित होकर ऐसे ही स्कूल
बनाये और बच्चों की शिक्षा का पूरा तौर-तरीका ही बदल गया.
दुनिया
की तमाम अच्छी शिक्षा-पद्धतियाँ बच्चों मे क्रियात्मक ज्ञान की हिमायती हैं. वह
चाहे ब्रिटेन के ‘समरहिल स्कूल ‘ की कहानी हो या
गुजरात के गिजुभाई बधेका की. चाहे महात्मा
गाँधी की बुनियादी शिक्षा हो या इटली के पहाड़ी गाँव बारबियाना के उस पादरी का वह
स्कूल, जहां उन आवारा बच्चों को शिक्षित किया गया जिन्हें
दूसरे स्कूलों ने असभ्य और जंगली कहकर निकाल दिया था. इन बच्चों के पत्र ‘ गुरूजी के नाम पत्र ‘ नामक एक किताब में छपकर,
दुनिया में मशहूर हो गये थे. इन पत्रों में बच्चों ने एक बड़ी
मार्मिक बात लिखी. बच्चे टीचर से कहते हैं कि “ टीचर, यह जो कलम है न आपके हाथ
में, इसे फेंक दीजिए. आप हमें छड़ी से भले पीट लें. छड़ी का
निशान तो मिट जायेगा, मगर यह कलम जो हमारे जीवन पर पास-फेल
का निशान बना देती है, वह निशान कभी नहीं मिटेगा. “
यह
एक बड़ी कड़वी और चिन्ताजनक सच्चाई है कि हमारे स्कूल बच्चों के लिए एक तरह के
मानसिक यंत्रणा-घर बनते जा रहे हैं. अभी हाल ही मे राष्ट्रीय बालअधिकार संरक्षण आयोग और स्वयं सेवी संस्था ‘प्रथम’ के सालाना सर्वेक्षण की रिपोर्ट में बड़े ही चौंकाने वाले तथ्य
सामने आये हैं. आमतौर पर यह ना जाता है कि निजी विद्यालयों में सरकारी विद्यालयों
की अपेक्षा बच्चों के विकास के लिए ज्यादा अच्छा वातावरण होता है. लेकिन आयोग की
रिपोर्ट से यह बात भ्रम साबित होती है. रिपोर्ट से पता चलता है कि देश के निजी
स्कूलों में 83.6
फीसदी लड़कों और 84.8 फीसदी लड़कियों को किसी
न किसी तरह के मानसिक उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है. वहीं केन्द्र सरकार के
अधीनस्थ स्कूलों में यह आँकड़ा क्रमशः 70.5 और 72.6 प्रतिशत है. जबकि राज्य सरकारों की स्कूलों में यह आँकड़ा थोड़ा बढ़कर 81.1
और 79.7 फीसदी पर पहुँच जाता है.
आमतौर
पर बच्चों से यह कहा जाता है कि उनमें पढ़ने लिखने की काबिलियत ही नहीं है.
अमेरिका में शिक्षाशास्त्री जार्ज डेनीसन ने एक विशाल शिक्षक समूह से पूछा कि आप किसे पढ़ाते हैं ? सभी ने कहा—‘
बच्चों को ! ‘ डेनीसन ने कहा, यह गलत है....आप बच्चों को पढाते ही नहीं. आप पाठ्यक्रम को पढ़ाते हैं. बच्चो को पढ़ाते होते तो
उनसे आपके ऐसे सम्बन्ध होते ही नहीं. हमारे यहाँ बच्चों के साथ पशुसूचक और
जातिसूचक शब्दों का व्यापक प्रयोग किया जाता है. निजी स्कूलों में
बच्चों के साथ शिक्षकों का सम्बन्ध , उनके माँ-बाप के आर्थिक
रुतबे से भी तय होता है. ऐसे में यह कल्पना करना कि बच्चों में आत्सम्मान, आत्मनिर्णय की क्षमता और रचनात्मकता विकसित होगी, दुनिया
के भविष्य को खतरे में डालना ही होगा. और जब बच्चों से पूछा जायेगा कि संगीत और शोर में क्या अंतर है ? तो बच्चे
कहेंगे----“ सर, जब स्कूल मे आने की घंटी
बजती है, तो वह शोर होता है.और जब छट्टी की घंटी बजती है,
तो संगीत जैसी लगती है.”
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