रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

सोमवार, 6 जुलाई 2020

पाँच दशकों के महानायकत्त्व पर एक नज़र...- सत्यदेव त्रिपाठी

हिन्दी फिल्मों के महानायक अमिताभ बच्चन ने अपनी शानदार अभिनय-यात्रा के पाँच दशक पूरे कर लिये हैं...। इस दौरान अपने नाम में निहित ‘अमित (बहुत अधिक) आभा वाले’ की संकल्पना को उन्होंने ऐसी सार्थकता अता की है कि आज वे आम जन में ‘सदी के महानायक’, ‘शहंशाह’, ‘बिग बी’ और ‘सुपरस्टार’ जैसी महनीय संज्ञाओं से नवाजे जाते हैं...। 
आज के मि. बिग बी ने वर्ष 1969 में आयी ‘नयी लहर की बेहद सशक्त फिल्म ‘भुवन सोम’ में नैरेटर के रूप में अपनी आवाज़ से फिल्मी कैरियर का आगाज़ किया और क्लासिक बन गयी तथा ढेरों पुरस्कार जीतने वाली सत्यजित रे की फिल्म ‘शतरंज के खिलाडी’ से होते हुए ऑस्कर पुरस्कार पाने वाले फ्रांसीसी वृत्त चित्र ‘मार्च ऑफ पेंग्विन’ तक पहुँची आवाज की यह गरिमा, जिसका अब तक का आख़िरी पडाव 2013 में बनी फिल्म ‘विशिंग ट्री’ है। 
और 1969 में ही बनी ‘सात हिन्दुस्तानी’ में शायर अनवर अली की भूमिका से अभिनय की दुनिया में पदार्पण करने से लेकर अद्यतन आयी ‘गुलाबो-सिताबो’ तक की तबील यात्रा के दौरान चार बार उत्कृष्ट अभिनय के लिए फिल्म फेयर का नेशनल सम्मान, 15 बार फिल्म फेयर, 2015 में ‘पद्मविभूषण’ और 2007 में फ्रांस के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘’लेज़न द ऑनर’ से सादर सम्मानित हो चुके हैं। 
लेकिन उनका अभिनय इन पुरस्कारों-सम्मानों का मोहताज़ नहीं। वह आंका व जाना जा सकता है - अभिनय की बहु-बहु आयामिता से, किरदारों के अनंत वैविध्य से और उन्हें निभाने में छूती असीम ऊँचाइयों एवं अतल गहराइयों से। और उसे जाना-समझा भी जा सकता है सिर्फ़ उससे गुज़रकर, उसके साथ एकाकार होकर ही... फिर भी उस अभिनय-सम्भार को कोई पूरा का पूरा पकड व पा सकेगा, इसमें अपार सन्देह ही रहेगा।      

सदी के इस महानायक की कला-गरिमा निर्विवाद व सरनाम है, लेकिन यहाँ हम शुरुआत करेंगे इसके समानांतर चलती इस अभिनय की उस अंतर्धारा से, जो जीवन व सामाजिकता से होकर बहती है और जो आधारित है एक कलाकार के सामाजिक सोच व सांस्कृतिक चेतना पर, कला की सफलता नहीं, उसकी उपयोगिता और उसकी जीवन-सापेक्ष्य उपादेयता पर...। अस्तु,   

अमिताभ बच्चन अपने ब्लॉग के मुख पृष्ठ (होम पेज) पर यह कविता रखा करते हैं – 
मैं आमंत्रित करता हूँ उनको / जो मुझको
ेटा कहते / पोता या 
उद्धृतपोता कहते / चाचा और 
चियों को भी / ताऊ और त
यों को भी / जो कुछ म
ने किया उसे वे जांचे-परखे / शब्दों म
 रख दिया सामने / क्या मैं
 अपने बुज़ुर्गवारों के वारिस नुत्फे को / शर्मिंदा
ा बर्बाद किया है? / जिन्हें 
त्यु ने दृष्टि पारदर्शी दे रक्खी / वे ही जा
-परख कर सकते / अधिकारी 
ं नहीं / कि अपने 
 निर्णय दूँ / लेकिन मै
संतुष्ट नहीं हूँ.... 
विलियम बटलर ईट्स की लिखी उक्त कविता का हिन्दी अनुवाद अमितजी के पिता स्व. हरिवंश राय बच्चन ने किया है और सम्भवत: यह कविता उन्होंने अपनी आत्मकथा के दूसरे भाग ‘नीड का निर्माण फिर..’ में अपने सृजन व आत्मकथा के सन्दर्भ में उद्धृत की है, जिस पर इस कविता की बात पूरी तरह से लागू होती है। ऐसे में अमिताभजी का इसे उद्धृत करना, चाहे जिस भाव व सन्दर्भ का सिला हो, लेकिन उनकी कला पर यह बात क़तई लागू नहीं होती..., क्योंकि फिल्म-कला में अभिनेता-अभिनेत्री की कला तो उनकी अभिव्यक्ति भी नहीं, तो आत्माभिव्यक्ति कैसे हो सकती है? फिर आत्मकथा का तो सवाल ही कहाँ?? वह तो किस के लिखे-बताये को कर भर देता है। ऐसे में इसी से उसके सरोकार का पता चलता है कि वह किस फिल्म का चुनाव करता है। नसीरुद्दीन शाह, अमोल पालेकर, स्मिता पाटिल, शबाना आज़मी, फारुख़ शेख, मनोज वाजपेयी...आदि के चुनाव में इसे देखा जा सकता है। इसके बरक्स अमिताभजी की उन फिल्मों को देखें, जो उन्होंने ‘ज़ंजीर’ से हिट होने के बाद चुनीं और जिनने उन्हें सुपरस्टार बनाया...। उनमें याराना, शहंशाह, सुहाग, दो दूनी चार, अमर अकबर ऐंथोनी, तूफान, मि. नटवरलाल, अकेला, हम, लाल बादशाह, शराबी, अदालत, लावारिस, महान, गंगा जमुना सरस्वती, आज का अर्जुन, मर्द, कालिया (सूची प्रलम्ब है)...आदि तमाम (कचरा) फिल्मों के ढेर लगे हैं। इसमें कहाँ है कोई आत्माभिव्यक्ति या अभिव्यक्ति और उसका सुख? यह पूरी तरह आम जनता (मास) के लिए हैं – उन्हें बेवक़ूफ बनाकर कमाने -और सिर्फ कमाने- के लिए हैं। न इनमें कोई कला है, न सरोकार। और रुचियों का परिष्कार, जो कला की मूल वृत्ति है, बन गया है संस्कृति की विकृति का सबब...। तो मूल्यांकन भी वही जनता करेगी, जो पैसे खर्च करके इसे देखती है। न कि उक्त कविता में उद्धृत वे स्वर्गीय ‘बुज़ुर्गवार, जिन्हें मृत्यु ने दृष्टि पारदर्शी दे रखी है’। 
लेकिन इस मूल्यांकन का एक कारण उन बुज़ुर्गवारों –ख़ासकर पिता कवि बच्चनजी- के साथ जुडा अवश्य है। क्योंकि ऐसी फिल्में अधिकांश कलाकरों ने की हकां, लेकिन सलमान, शाहरुख़, गोविन्दा, धर्मेन्द्र राजेश खन्ना, ..आदि तमामों से हम यह सवाल नहीं कर सकते। क्योंकि वे किसी अंतरराष्ट्रीय ख्याति (मधुशाला विश्व की तमाम भाषाओं में अनूदित हुई है) के कवि के संस्कार व समझ (सेंसिबिलिटी) से नहीं बने हैं। उन बाबूजी का गुणगान करते थकते नहीं सुपर स्टार। लन्दन में डॉक़्टरेट की उपाधि देने के बाद ‘डॉ बच्चन’ कहके संबोधित करने पर इनका प्रतिकार था – ‘डॉ बच्चन एक ही हुए हैं, वो मैं नहीं हो सकता’।
ऐसा कोई शख़्स सिर्फ पैसे के लिए कैसी भी ऊलजलूल फिल्म कैसे कर सकता है, इसका थोडा जायज़ा लें... ‘ज़ंजीर’ से पहले के संघर्ष को देखें, उस दौरान अपने रूप (लकडबग्घा) व आवाज (फटे बाँस-सी) को लेकर हुई नाचीज़ फब्तियों और उससे उपजी कुण्ठाओं को देखें, तो ‘जंजीर’ की सफलता के बाद प्रतिक्रिया स्वरूप लोगों को ‘दिखा देने’ की मानवीय वृत्ति को समझा जा सकता है। फिर सबसे बडी बात कि उम्र के उस पडाव पर जीवन की ज़रूरतों को दर्ज़ कर लें, तो ज़ंजीर, दीवार, शोले...तक के दो-चार सालों ऐसी फिल्में चुनने को समझा व बाद  या माफ़ भी किया जा सकता है – गोकि यह सही न होकर सहानुभूतिमय ही होगा, फिर भी...। ऐसी दो-चार फिल्में करने के बाद तो दमित ईहाएं तृप्त  इच्छाएंरतें पूरी हो चुकती हैं। फिर पैसों के लिए ऐसी फिल्में क्यों की गयीं? क्या वे सारे संस्कार व समझदारी खत्म हो गयी थीं? आख़िर एक आदमी को अच्छी तरह जीने के लिए कितने पैसे  चाहिए – ‘हाउमच लैण्ड डज़ अ मैन रिक्वायर’? 

इस धारा की सारी फिल्मों को आजादी मिलने के बाद के मोहभंग और भ्रष्ट सत्ताओं के खिलाफ एक विद्रोही युवक द्वारा बदले की लडाई के रूप में देखा गया। व्यवस्था तथा नियम-कानून पर चलकर कुछ न हो पाने की लाचारी और खोये विश्वास में पिसते युवा वर्ग का मनोवैज्ञानिक दोहन हुआ। अकेले दम इस व्यवस्था से लडने और अत्याचारी को खत्म करने के विकल्प का मिथ गढ उठा...। भले निर्माताओं की ऐसी नीयत न रही हो, आम दर्शक को यह दिखा भी न हो, पर आलोचकों ने समय के साथ यह सब देखा। लेकिन इतना तो आम दर्शक ने भी समझा कि जुल्म करने वालों को अकेले पकडना, उनका दोष सिद्ध करना और उनकी सज़ा मुकर्रर करने वाला अकेला शहंशाह, जिसका कुछ नहीं बिगाड सकती पुलिस या हथियार लिये सामने खडे लोग...ऐसा लाल बादशाह....याने ‘वन मैन आर्मी’। इसके लिए मिस्टर अमिताभ का लम्बा-चौडा जिस्म पर्याप्त मुफ़ीद सिद्ध हुआ। इसी से फिल्म की भाषा व भाव के मुताबिक इन्हें ‘ऐंग्री यंग मैन’ की ख़िताब मिली और बारहा मि. विजय कहा गया। लेकिन सचाई किस क़दर त्रासद है कि ‘कुली’ की शूटिंग के दौरान एक घाव लग जाने से जीवन-मरण के संकट से गुज़रना पडा, किंतु जिन्दगी के समक्ष फिल्मी स्टण्ट्स के मिथ्या होने की हक़ीकत तब भी समझ में न आयी...!! न उन्हें, न उनके मुरीदों को। बच्चों के सपनों के सुपरमैन की तरह वे सारे भ्रष्टाचारों-अत्याचारों से अकेले दम निपटते-जीतते ही रहे। इस चलन (ट्रेण्ड) का चरम (क्लाइमेक्स) आप ‘इनकलाब’ में देखइंकलाबहैं, जहाँ अपने सुपरस्टार असेम्बली में जाकर सारे निर्वाचित सदस्यों को मशीनगन से उडा देते हैं। यह हल कितना हवाई, असम्भव और किसी भी सार्थक कला की प्रक्रिया व परिणाम दोनो में भयंकर अतिवादी है। पर अमिताभ से क्या कुछ करा लें, कितना कमा लें, के जज़्बे से बनी ऐसी अनर्गलता भी तालियों की गडगडाहट पाती रही, लोग फूले न समाते रहे...!!          
काश, ‘ज़ंजीर’ में विजय की भूमिका करने से राजकुमार ने इनकार न किया होता और वह फिल्म न मिलती अमिताभ को, तो ‘सात हिन्दुस्तानी’ के कवि अनवर से शुरू हुई अमित-यात्रा ‘सौदागर’ के मतलबी पुरुष से होती हुई ‘आनन्द’ के बाबूमोशाय और ‘नमक हराम’ के शोषक मिल मालिक के बेटे से अधिक इंसानियत का दोस्त, ‘चुपके-चुपके’ के शालीन प्रेमी व अंग्रेजी प्रोफेसर, ‘अभिमान’ के संजीदा प्रेमी-गायक-पति और ‘मिली’ के बिगडैल तथा ‘आलाप’ के कलाकार मन वाले अमीरज़ादे में छिपे ज़हीन इंसान की यात्रा ही मि. अमिताभ की कर्म-यात्रा का राजमार्ग होता... और तब कथा कुछ और होती, मज़ा कुछ और होता..., वरना यह सब उस यात्रा की भूली-भाली पगडण्डी होकर रह गया। शायद इनमें से अधिकांश फिल्में ‘ज़ंजीर’ की कमाई के बल मिली-बनी और 1975 में ही रिलीज़ हुई ‘दीवार’ व ‘शोले’ के पहले की करार थीं, वरना उस गड्डलिका-प्रवाह में ये सब भी बह-बिला गयी होतीं, जिसमें प्राय: इन सभी फिल्मों के प्रतिभावान निर्देशक आदरणीय हृषिकेश मुखर्जी भी डूब गये और ‘मिली’, ‘नमक हराम’ व ‘आलाप’ जैसी फिल्मों में जिन पूँजीपतियों-अमीरों के अम्पायरों में वे एक इंसान व कलाकर उपजा गये थे, उंसका लाखों-करोडों के दामों अपहरण कर ले गये प्रकाश मेहरा, मनमोहन देसाई व चन्द्रा बारोट...आदि जैसे लोग और उसे बना दिया डॉन, बेशर्म, बेनाम, अजूबा, जादूगर, नास्तिक, गिरफ्तार, कुली, शहंशाह, लाल बादशाह, नमक हलाल,...आदि जाने क्या-क्या!! 
उनकी व्यावसायिक ख्याति का अन्दाज़ा लगाया जा सकता है। एक आकलन के अनुसार ‘शोले’ की कमाई साठ मिलियन डॉलर याने 2,36,45,000 (आप ही आँकडा पढ लें) है, जिसके लिए इन सभी नामों को तो मुँहमाँगे दामों लूटा-लुटाया ही, ‘लावारिस’ तक बनाकर बेच डाला। इतने प्रतिभावान का यह हस्र कला की दृष्टि से कलाहंता के रूप में तो चिंतनीय है ही, निर्देशक-निर्माताओं व स्वयं अमिताभ के करोडों में फायदे के बरक्स समाज का अरबों में नुक्सान तथा पूरी सिने-संस्कृति को अवांच्छित दिशा की तरफ ले जाने के लिए अधिक जिम्मेदार व कुख्यात सिद्ध हुआ है।    
इस ऐंग्री यंग मैन का भ्रष्ट व्यवस्था और शासन से अकेलेदम निपटना जिस तरह उस दौर के मोहभंग से जुड गया, उसी तरह अमिताभ की शुरुआत का कालखण्ड और भूमण्डलीकरण, बाज़ारवाद एवं उदारवाद के उभार लगभग आगे-पीछे ही हैं। अत: दोनो को समानांतर रूप से देखा जाये, तो महानायक के व्यावसायिक सरोकारों की नीयत और नियति समझ में आयेगी। यह इत्तफाक़ नहीं है कि सुपस्टार के किये का आकलन कलात्मक से कहीं ज्यादा व्यावसायिकता की जानिब से भी हुआ। फ्रांक्वा त्रूफा ने फिल्म के इस शहंशाह को ‘वन मैन इण्डस्ट्री’ कहा, जिससे उसे ‘फिल्म ऑफ द मिलेनियम’ से नवाज़ा गया। और देखने वाली बात है कि उसमें संजीव कुमार व धर्मेन्द्र जैसे स्थापित स्टार्स के होने के बावजूद आज किस तरह ‘शोले’ अमिताभ बच्चन के नाम से जानी जाती है। शायद काल देवता को भी पता था कि जो काम वह आज तक दिलीप कुमार से राजेश खन्ना तक किसी सुपर कलाकारों से न करा सका, महानायक से करा लेगा। तभी तो जिसके प्रिय बाबूजी ने लिखा – 
              हूँ न सोना. हूँ न चाँदी, हूँ न मूँगा, हूँ न माणिक, हूँ न मोती, हूँ न हीरा 
              किंतु मैं आह्वान करने जा रहा हूँ देवता का एक मिट्टी के डले से... 
उसी का यह कला का आगार छोरा गंगा किनारे वाला उसी सोना-चाँदी-माणिक-मोती-हीरों के लिए एक दिन टीवी पर तेल-मसाला बेचता हुआ ‘बुड्ढा फेरी वाला’ बन जायेगा, किसी को अन्दाज़ा न था। किसी महानायक का यूँ हॉकर बन जाना उदारीकरण का चश्मा तो है ही, सुपरस्टार का करिश्मा भी कम नहीं है। कहना मुश्क़िल है, पर दिलचस्प है यह खेल, कि उदारीकरण के प्राप्त में महानायक को ब्रैण्ड बनाकर फायदा पूँजीपति उठा रहा है या ब्रैण्ड बनकर वही उस आम आदमी को लूट रहा है, जिसने उसे महानायक माना...क्योंकि ‘आज की दुनिया में यही रिश्ता-नाता है, कौन किसको कितना खाता है’।         
इस स्टण्ट फिल्मी काल के दौरान कला-कमाई के साथ ‘मुहब्बतें’ व ‘सूर्यवंशम’ जैसी कथ्यपरक फिल्में कुछ और भी आयीं। यश चोपडा जैसों ने ‘मिली’ व ‘आलाप’ के गायक व प्रेमी को मिलाकर ‘कभी-कभी’ व ‘सिलसिला’ जैसी रोमैण्टिक फिल्मों में कला व कमाई का मणि-कांचन संयोग पेश करने की सफल कोशिशें की। ज़्ंजीर–दीवार से लेकर मर्द व लाल बादशाह वाली सारी फिल्मों के रोमैण्टिक इलाके में भी ‘ऐंग्री यंग मैन’ जैसा पौरुषेय प्रेम अमिताभ के अभिनेता का ख़ास योगदान तो है, लेकिन ‘मुझे जीने दो’ के सुनील दत्त जैसे कुछ और भी अभिनेताओं को भूला नहीं जा सकता। इसी तरह ऐंथोनी की भूमिका से लेकर ‘दो दूनी चार’ ‘लावारिस’ आदि फिल्मों में हास्य के मनोरंजक प्रसंग भी बने, जिसे लेकर भी मुरीद आलोचकों ने स्थापनायें दीं कि सुपरस्टार के साथ कॉमेडी का रिश्ता अमिताभ ने शुरू किया, लेकिन दिलीप कुमार की ‘लीडर’, ‘राम श्याम’... आदि को याद करते हुए इसे भी अतिवादी कथन ही कहा जायेगा।

इस प्रकार इस पूरे दौर का महानायकत्त्व महज फायदे और फेम का है, न कुछ फ़नकारी के लिए है, न गमे दौरा के लिए। लेकिन यदि यही दौर अंतिम होता, तो नष्टप्राय होने को अभिशप्त इस दौर का आकलन क्यों किया जाता? 
लेकिन जो अमितजी के पाए के कलाकार को करना था, जिसके न होने या होने की तरह न होने को अब तक हम दर्ज़ कर रहे थे, वे सारी प्रत्याशाएं बिग बी ने पूरी कर दीं अपनी दूसरी पारी में, जिसे कालक्रम की सुविधा के लिए 21वीं सदी का उनका सिनेमा कह लें, पर उसे समझने के लिए 2007 में आयी महेश मांजरेकर की फिल्म ‘विरुद्ध’ को लेते हैं, जो बेटे की हत्या के विरुद्ध चलती है और ध्यान में रखें पहले दौर की कोई भी फिल्म – नमूने के लिए एक लीडिंग फिल्म ‘शहंशाह’, जो मूलत: पिता की हत्या के खिलाफ चलती है। बदला दोनो में है, पर एक में शहंशाह का और दूसरे में आम आदमी का। अब तालियां नहीं, कारगर कार्यवाही चाहिए, जो कोई सामान्य आदमी कर सके। और वह खाल ओढकर न शहंशाह बन सकता, न मशीनगन व बम-रिमोट जुटा सकता। न ही सूटेड-बूटेड होकर दनदनाते सबको ध्वस्त करते चल सकता। तो एक देसी पिस्तौल लेकर ढीला-ढाला पैण्ट व लाल रंग का स्वेटर पहने लफड-लफड करते चलता हुआ उस अय्याश पूँजीपति के आवारा छोकरे की ऑफिस जाकर एक निरीह बूढा मिलने का समय माँगता है। अन्दर पहुँचकर बेहद शांति से बात करता है और अपनी ताक़त तथा कोर्ट के फैसले से सरचढा वह लडका सब सच सुना जाता है कि कैसे क्यों उसकी हत्या करायी। बूढा बाप जेब में पडे कैसेट में सब रेकॉर्ड कर लेता है। अब रेकॉर्ड सुनाकर माफीनामा लिखने की छोटी सी माँग करता है। किंतु उसके इनकार और सुरक्षा बन्दूकधारियों से घिर जाने की हालत में गोली चला देता है। और गॉर्ड की तरफ घूमकर अपने पर गोली चलाने का आह्वान करता है। लेकिन पूरा केस सबको पता है और तब गॉर्ड का एक वाक्य अमिताभ बच्चन की बदले वाली उन सारी फिल्मों पर हर तरह से भारी है – ‘आप को मार दूंगा सर, तो अपने बेटे को क्या मुँह दिखाऊंगा’!  कहने की ज़रूरत नहीं कि कैसेट सुनकर जज इन्हें छोड देता है व इनके बेटे को निर्दोष घोषित करता है। मुआवज़े के लिए दरखास्त देंगे, पूछने पर बूढे का जवाब – ‘जज ने मेरे बेटे को निर्दोष कहा’। यह हिम्मत और यह विशाल हृदयता जिस तरह व्यक्त हुई है, दर्शक तक पहुँची है, जैसा असर छोडती है, के सामने ऐंग्री यंग मैन काल का पूरा सिनेमा पानी भरे...  
इस दौर में ‘विरुद्ध’ जैसी सरोकार-युक्त व असरकारक फिल्मों में सत्याग्रह, खाकी, रण, आरक्षण, एकलव्य, लक्ष्य...आदि के साथ सबसे ऊपर ‘पिंक’, जिसके दीपक सहगल को भूल पाना असम्भव है। लेकिन इस दौर की शीर्ष हैं अभिनय-कला के विरल मानक रचतीं ‘पा’, ‘ब्लैक’, ‘अक्स’...आदि फिल्में। ‘नि:शब्द’ में प्रेम की एक बोल्ड क्लिक है, यही थीम ‘चीनी कम’ में दिलचस्प विनोद के साथ बोल्ड्नेस का मानक रचती है। परिवार में बोल्ड बाग़वान, बाबुल, भूतनाथ व वक़्त हैं, जिनकी वैचारिकतायें व प्रगतिशीलतायें आज बेहद ज़रूरी हैं। 
इस तरह बिग बी ने इस परवर्ती दौर में ऐसी-ऐसी उम्दा फिल्में दी हैं, जिन्हें देखकर उस दौर पर कोफ्त और बढ जाती है। यह सचमुच शब्दश: ‘काया पलट’ है। न काया बुढाकर शहंशाही उछलकूद-मारधाड के नाक़ाबिल होती, न चयन व काम का यह पलट होता। हाँ, इस उम्र में वही सब करने की मज़ेदार फिल्म ‘बुद्ढा होगा तेरा बाप’ के रूप में आयी। अब इस दौर का यह चयन ‘अशक्ये परमं साधु:, कुरूपा नारि पतिव्रता’ ही है, जिसे आप चाहें तो ‘जब बूढा होता है कवि, उसकी कविता जवान होती है’, की उदात्तता भी दे सकते हैं। क्योंकि चाहे जिस कारण से सही, हमें सरोकारयुक्त और सिने कला को सार्थक करती अच्छी फिल्में मिलीं...। 

 लेकिन इस अवसर पर बिग बी के क़द के परिप्रेक्ष्य में उनके व्यक्तित्त्व पर भी एक-दो बातें...   

प्रदर्शनपरक कला का शीर्ष चाहे भले हो सिनेमा, पर उसका जान-परान तो बसता है थियेटर में, जो कला की जीवंतता, चेतना की सामाजिकता तथा असहमति व विरोध के बिना चल नहीं सकता। और अमिताभ बच्चन अपने बचपन में नाटकों में काम करते थे और बच्चनजी की आत्मकथा के हवाले से जब एक बार अचानक बुखार आ जाने से मुख्य भूमिका वाला शो न कर पाये, तो किस क़दर तडपते रहे...। मराठी में श्रीराम लागू, नीलू फुले, सदाशिव आम्रपुरकर व नाना पाटेकर... आदि तथा हिन्दी-उर्दू-अंग्रेजी में नसीरुद्दीन शाह के नियमित रंगकर्म के समक्ष वे साल-दो साल में भी कोई नाटक कर देते और जिस ‘गंगा किनारे का छोरा’ होने को फिल्म ‘डॉन’ ने भुना लिया, उसी के किनारे अपने पूर्वजों के गृहनगर इलाहाबाद से लेकर बनारस...आदि शहरों में सालाना एकाध शोज़ कर देते, तो हिन्दी थियेटर, जो आज भी मराठी-बंगला-मलयालम आदि के मुक़ाबले जन सामान्य से बहुत दूर है, हिन्दी प्रदेशों में भी कहाँ से कहाँ पहुंच जाता!! 

इसी तरह एक कलाकार के तौर पर यदि अमिताभ बच्चन के नागरिक-सोच का आकलन किया जाये, तो आज तक किसी भी राष्ट्रीय या सामाजिक मुद्दे पर कभी उनका कोई नज़रिया या कोई ‘से’ याने विचार की कोई थाप-छाप नहीं दिखायी-सुनायी पडी। सभी लकीर के फकीर आम आदमियों और नवधनाढ्यों की तरह वे शादी-व्याहों आदि में हाई-फाई खेल-तमाशे व करोडों के खर्च करते रहे, मंगला-मंगली के अन्धविश्वास को इस से उस मन्दिर पूजते रहे, परिक्रमाएं व सिद्धिविनायक की नंगे पैर अनथक पद-यात्रायें करते रहे और यह सब करते हुए भी भूल गये अपने आदरणीय बाबूजी को, जो इन दोनो पक्षों को एक ही पंक्ति में जनहित में कैसे नकारते रहे - ‘देवता मेरे वही हैं, जो कि जीवन में पडे संघर्ष करते, गीत गाते, मुस्कुराते और जो छाती बढाते एक होने के लिए हर दिलजले से...’।
बाबूजी ने राजनीति में जाते हुए भी कहा था – तुम जहाँ (फिल्म में) हो, वहाँ पहले स्थान पर हो। जिस नये क्षेत्र में जा रहे हो, वहाँ शायद सबसे आख़िरी स्थान पर रहो...इस बात को सोच लेना...। बावजूद इसके वे गये और बाद में अपने ही कहे मुताबिक बचपन के मित्र राजीव गान्धी के भावात्मक बुलावे से इनकार न कर सके, सो गये। और यह जाना बाबूजी की चेतावनी व मित्र के आवाहन की दोनो दृष्टियों से बहुत सही माना जायेगा, लेकिन फिर छोडके चले आना...!! इसके कारणों में यहाँ जाना उचित इसलिए न होगा कि कुछ भी कहना आधिकारिक न होगा। और यहाँ ज़रूरी इसलिए नहीं कि उनके स्वभाव व मान्यताओं के जिस सन्दर्भ में चर्चा हो रही है, उसमें कारण की दरकार नहीं – कार्य से काम चल जायेगा और कार्य तो असन्दिग्ध है – छोड आना। याने व्यावहारिक सच यही है कि समस्या जो भी रही हो, उससे टकराने-निपटने की वृत्ति इस शहंशाह में नहीं है। और सिद्धांतत: यह कार्य मध्यम कोर्टि में आता है – ‘प्रारभ्य च विघ्न-विहिता: विरमन्ति मध्या:’ (कार्य आरम्भ करके छोड देने वाला मध्यम है) – भर्त्तृहरि। उत्तम तो वही होता है, जो एक बार शुरू किया, तो फिर लाखों कठिनाइयों से लडता है, छोडता नहीं...और अमिताभजी ने भागकर अपनी नम्बर एक वाली जगह पर आके सिद्ध कर दिया है न उनमें सामाजिक संघर्ष का माद्दा है, न कोई ख़ुदी। फिर तब से लगभग राजनीति-निरपेक्ष होके रहना भी सामाजिक सरोकारों से विमुख होकर अपने सुख-साम्राज्य में महफूज़ रहने का प्रमाण है। लेकिन बडे तो क्या, अदने कलाकार व अदने सच्चे मनुष्य का भी कोई स्वाभिमान होता है... आदमी तभी आदमी होता है, जब वह अपने चारो तरफ चलते उन तमाम कुछ से विरोध दर्ज़ करे, जिनसे वह असहमत है। जो ऐसा नहीं करता, वह या तो कायर है या बुद्धिहीन। लेकिन महानायक कभी ऐसा करते नज़र न आये। बाल ठाकरे के कुपित होने पर ए.के.हंगल, जो औक़ात में अमिताभ के सह्स्रांश भी न रहे, विरोध में खडे हो गये। झुके नहीं और अपना बचाव भी कर गये, लेकिन ‘सरकार’ को लेकर जब अमिताभ से असहमति हुई, तो फिल्म अ-सरकार-क न हो जाये, के डर से उनके घर चले गये और समझौता कर आये...। और उसके बाद पारिवारिक सम्बन्धों के हवाले भी देते रहे...।  
हाँ, विरोध किया तो आयकर वालों से और कागज़ी, जिसमें अपने नाम-प्रताप से बच भी गये, धन बचा भी ले गये। लेकिन इतने केस अमितजी को ही लेकर आयकर में क्यों हुए, का जवाब फाइलें नहीं, फैसले नहीं, उस जन-मानस में होता है, जो दो ध्रुवों पर खडा है। एक है, जो उनकी आरती उसी तरह उतारता है, जैसे विजयकुमार श्रीवास्तव ‘शहंशाह’ की उतारते हैं। वह वर्ग तो अपने इस भगवान (महानायक नहीं) को गलत मान ही नहीं सकता। लेकिन एक छोटा-सा ही सही, दूसरा वर्ग है, जो समझना-जानना चाहता है कि हर मुद्दे पर इतना निरपेक्ष रहने वाला यह शहंशाह सिर्फ़ मनी मैटर में इतना सजग क्यों रहता है। ‘कौन बनेगा करोसडपति’ के एक एपिसोड में एक करोड जीतने वाली महिला को चेक देते हुए आयकर विभाग के प्रति उनकी कटुता न छिप ही पा रही थी, न कायदे से खुल ही रही थी...। 
किंतु अमिताभ के रूप में भारतीय संस्कृति का जो शालीन व परिष्कृत व्यक्तित्त्व इस कार्यक्रम में निखरा है, और जिसने आयोजन को भी जो निखार दिया है, सारी कमाऊ वृत्ति के बावजूद उसका आज की तारीख में कोई सानी नहीं और जिस हिन्दी को आज महरी की भाषा जैसा सिला देश का हर आदमी दे रहा है, उसे जिस सहजता के साथ जो गरिमा देते गये हैं अमिताभ बच्चन, उसकी दुर्निवारता डंके की चोट सिद्ध हो रही है।

यह सब कहना आज शायद ‘अँधेरे में चीख़’ ही सिद्ध होकर रह जाये, पर जिस तरह बिग बी की फिल्म है – ‘डरना ज़रूरी है’, उसी तरह हमारे लिए कभी न कभी यह कहना ज़रूरी ही था...       
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सत्यदेव त्रिपाठी देश के जानेमाने रंग-समीक्षक हैं। सम्पर्क – ‘मातरम’, 26 – गोकुल नगर, कंचन पुर, डी.एल.डब्ल्यू,वाराणसी- 221004       

 

5 टिप्‍पणियां:

  1. अमिताभ के महानायकत्व पर बड़ा शानदार लेख!
    उनकी फिल्मों के इतिहास, भूगोल अौर समाजशास्त्र -सबका समेकित मूल्यांकन।
    कलाकार के रूप में अमिताभ
    और व्यक्ति के रूप में अमिताभ दोनों का संतुलित आकलन है।
    साधुवाद।

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    1. एके हंगल वाला प्रसंग तो अद्भुत लगा।
      असहमति और प्रतिरोध का मूल्य इसी तरह समझाया जाना चाहिए!

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  2. मधुबाला पाण्डेय
    सारगर्भित लेख। बहुत ही बढ़िया।

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  3. सुशीला तिवारी

    सदी के महानायक पर बहुत बढ़िया लेख साथ ही यह चिंता भी नजर आई यदि महानायक साल दो साल में एकाध नाटक कर लेते तो हिंदी थियेटर कहाँ से कहाँ पहुँच जाता ।

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