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बुधवार, 18 जनवरी 2012

सत्यदेव दुबे : देशकाल की सीमाओं के पार जाती एक रंगधुन


सत्यदेव दुबे 
राजेश चन्द्र का आलेख 

वर्ष 2011 जाते-जाते आधुनिक हिंदी रंगमंच में पांच दशकों से जगमगाता एक और कोहिनूर ले गया। रंगजगत अभी बादल सरकार, गुरुशरण सिंह और एच.वी. शर्मा के विछोह से उबर भी नहीं पाया था कि विगत 25 दिसंबर को प्रख्यात निर्देशक, अभिनेता और नाट्य-शिक्षक सत्यदेव दुबे के देहांत की दुखद खबर आ गई। लगातार विवादों में जीने वाले पचहत्तर वर्षीय दुबे विगत 20 सितंबर को मुंबई के पृथ्वी थिएटर कैफे में पक्षाधात के शिकार हो गए थे और तभी से अस्पताल में बेहोशी की हालत में भर्ती थे। रंगमंच और सिनेमा में समान रूप से समादृत दुबे हिंदी रंगमंच में एक केंद्रीय व्यक्तित्व का दर्जा रखते थे और अभी कुछ महीने पहले ही उन्हें पद्मभूषण सम्मान से अलंकृत किया गया था। 

बिलासपुर, छत्तीसगढ़ में 19 मार्च 1936 को जन्मे सत्यदेव दुबे की शिक्षा-दीक्षा यों तो बिलासपुर, जबलपुर, सागर और मुंबई में हुई थी पर आगे चल कर उन्होंने मुंबई को ही अपनी कर्मभूमि बनाया और रंगमंच से एक ऐसा आत्मीय रिश्ता कायम किया जो समय के साथ और प्रगाढ़ होता चला गया। स्थापित नाटकों के कथानक में मनचाहा बदलाव करने की वजह से हमेशा विवादों को न्योता देने वाले दुबे अंत तक अपनी धुन के पक्के रहे। उन्होने फ्रांस का विश्वप्रसिद्ध नाटक ‘एंटीगनी‘ करते समय उसके कई पात्रों की भूमिकाएं इसलिए छांट दीं क्योंकि वे उन्हें गैरजरूरी लग रही थीं। अपने लंबे रंगजीवन के दौरान उन्होंने स्वतंत्रता के बाद के लगभग सभी प्रमुख नाटककारों के नाटकों का निर्देशन किया जिनमें गिरीश कारनाड (ययाति, हयवदन), बादल सरकार (एवम इंद्रजित, पगला घोड़ा), चंद्रशेखर कंबार (और तोता बोला), मोहन राकेश (आधे अधूरे) और विजय तेंडुलकर (गिधाडे, खामोश अदालत जारी है) आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

सत्यदेव दुबे मुंबई आए थे क्रिकेटर बनने का सपना लेकर पर यहां आकर वे रंगमंच से जुड़ गए। संयोगवश उनका जुड़ाव उस नाट्य दल सह नाट्य विद्यालय से हुआ जिसे इब्राहिम अल्काजी चला रहे थे। हालांकि वे हिंदी क्षेत्र से आए थे पर उनकी मराठी और गुजराती रंगमंच में भी पर्याप्त रुचि थी। सातवें दशक में सत्यदेव दुबे ने श्याम बेनेगल की निशांत, अंकुर, जुनून, मंडी और भूमिका जैसी मशहूर फिल्मों के लिए पटकथा और संवाद लिखे तथा इसी दौर में एक विशिष्ट नाट्य निर्देशक और प्रशिक्षक के रूप में भी प्रसिद्ध हुए। आधुनिक भारतीय रंगमंच में एक नए युग का सूत्रपात करने वाले धर्मवीर भारती के नाटक ‘अंधायुग‘ के पहले मंचावतरण का श्रेय सत्यदेव दुबे को इसलिए दिया जाता है क्योंकि उन्होंने ही इब्राहिम अल्काजी को इस नाटक के मंचन के लिए प्रेरित किया था। दुबे ने ‘अपरिचय के विंध्याचल‘ (1965) और टंग इन चीक‘ (1968) नाम से दो लघु फिल्मों का निर्माण किया और ‘शांतता! कोर्ट चालू आहे‘ (विजय तेंडुलकर) पर 1971 में एक मराठी फिल्म भी बनाई। कड़ी मेहनत से रंगमंच को हमेशा अपना सबसे बेहतर उपलब्ध कराने की कोशिश करने वाले दुबे अपनी राजनीतिक विचारधारा की वजह से भी विवादों में रहे। अपनी पीढ़ी के अधिकांश रंगकर्मियों के विपरीत एक दौर में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भी संबद्ध रहे थे। भारतीय रंग-दृश्य को बुनियादी तौर पर बदल देने वाली साठ और सत्तर के दशक की उस गतिविधि में, जिसे रंगकर्म को एक उत्तेजक, अर्थपूर्ण और समकालीन जीवन से जुड़ी हुई सर्जनात्मक अभिव्यक्ति का दर्जा दिलाने के कारण नवजागरण के तौर पर याद किया जाता है, सत्यदेव दुबे का अतुलनीय और ऐतिहासिक योगदान रहा है। दुबे देश के उन गिने-चुने रंगकर्मियों में थे जिन्होंने रंगमंच को अपनी जातीय चेतना और कला-परंपरा से जोड़ने के काम का नेतृत्व किया।

अभिनेताओं के प्रशिक्षण का दम भरने वाले संस्थानों पर भरोसा न करने वाले सत्यदेव दुबे का मानना था कि रंगकर्म कभी सिखाया नहीं जा सकता, हालांकि इसे सीखा जा सकता है। उनके विचार से कोई भी प्रशिक्षण अभिनेता को केवल कुछ तरकीबें और सुझाव तो दे सकता है पर इस बात की गारंटी नहीं कर सकता कि प्रशिक्षण के उपरांत कोई छात्र एक अच्छा अभिनेता बन जाएगा। एक प्रशिक्षक के तौर पर अनगिनत कार्यशालाओं में भाग लेने वाले दुबे का सारा जोर इस बात पर रहता था कि रंगकर्मियों की सृजनात्मकता को जगाया, उकसाया और समर्थ बनाया जाए। हिंदी रंगमंच में भाषा और रंग-भाषण की उपेक्षा और दुर्गति देख कर व्यथित रहने वाले सत्यदेव दुबे ने रंगकर्मियों को इस बात के लिए हमेशा प्रेरित किया कि वे अपनी भाषा के साथ एक गहरा सृजनात्मक रिश्ता कायम करें, उसके अछूते और अपरिचित स्तरों को खोजें, उसके अर्थ, संगीत और लय की नई-नई संभावनाओं और शक्ति से परिचित हों तभी वे एक जीवंत रंगमंच बना पाएंगे।

सत्यदेव दुबे ने अपना संपूर्ण जीवन रंगमंच के नाम कर दिया था और बदले में एक अकेलापन अर्जित किया था। अकेले होने का उनका यह अहसास भी सामान्य से काफी अलग किस्म का था और इसे कम करने के लिए वे युवाओं के बीच जाना पसंद करते थे। उनसे बातचीत करना, उनके साथ अपने अनुभवों को साझा करना उन्हें अच्छा लगता था। वे हमेशा एक आनंद की खोज में रहते थे जो उन्हें केवल रंगमंच में मिलता था। उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से कुछ नहीं किया। फिल्मों की ओर इसलिए गए कि नाटक के लिए पैसों का प्रबंध कर सकें और एक दिन अचानक रंगकर्म में वापस लौट आए। उनका रंगमंच सामान्य अर्थों में प्रायोगिक नहीं बल्कि पारंपरिक था। एक पारंपरिक रंगकर्मी होने के नाते वे मंच पर प्रवेश और प्रस्थान का विशेष ध्यान रखते थे। उनकी सभी प्रस्तुतियों में एक सामान्य आरंभ, मध्य और अंत दिखाई पड़ता था। अपने सभी नाटकों में उन्होंने समसामयिक होने और कुछ अलग करने का भरपूर और सुचिंतित प्रयास किया। नाटक और रंगमंच को निरे मनोरंजन की सीमाओं से निकाल कर समाज और व्यक्ति की जिंदगी के लिए अधिक प्रासंगिक बनाने की कोशिश करने वालों के लिए वे एक प्रकाश-स्तंभ बने रहेंगे।

राजेश चन्द्र  - कवि, रंगकर्मी, अनुवादक एवं पत्रकार. विगत दो दशकों से रंगान्दोलनों, कविता, सम्पादन और पत्रकारिता में सक्रिय। हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, आलेख और समीक्षाएँ प्रकाशित। उनसे rajchandr@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. 

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