रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

शनिवार, 4 जुलाई 2020

रामचरण निर्मलकर : अनूप रंजन पांडेय

रामचरण निर्मलकर (1926-2012)
जब हबीब तनवीर साहब ने शाकाहारी भोजन और सुरक्षित हवाई जहाज से लंदन यात्रा का भरोसा दिलाया तभी रामचरण दादा यानी रामचरण निर्मलकर घर से बाहर कदम रखने को तैयार हुए. मौका पहली बार घर से लंदन यात्रा का था. घर से निकलते समय अपना मनपसंद भोजन खीर-पूड़ी खाया और परिवार के लोगों से गले मिलकर जी भरकर रोए.
फिर गंगाजल के कुछ घूंट भरे और बढ़ा दिए कदम. बाद में कभी कोई सवाल-जवाब होता तो बिना रुके एक ही सांस में यात्रा का जिक्र करते और ढेर सारे देशों के नाम गिनाना शुरू कर देते और सुनने वाला मुंह खोले रह जाता. उसी तरह जैसे जब वे मिड समर नाइट्स ड्रीम का हबीब साहब द्वारा एडैप्टेशन कामदेव का अपना वसंत ऋतु का सपना में क्वींस की भूमिका निभाते हुए ड्यूक थीसियस के दरबारी पिरेमस और थिस्बी के दुखांत नाटक की भूमिका अदा करते हुए बिना कौमा, फुलस्टॉप के एक लंबा संवाद बोलते तो पूरा हॉल ठहाकों से भर जाता, दर्शक लोटपोट हो जाते.
कद, काया, काठी और अदायगी ऐसी कि किसी भी नाटक में मंच पर उनके प्रवेश से प्रेक्षक समुदाय में एक सुरसुरी-सी चल जाती. समकालीन हिंदुस्तानी रंगमंच के इस महान अभिनेता को शायद नाम से कम ही लोग जानें, लेकिन जैसे ही आप बताएं कि आगरा बाजार का तरबूज वाला, कामदेव का अपना वसंत ऋतु का सपना का क्वींस, चरणदास चोर का गंजेड़ी मुनीम और पुजारी, मिट्टी की गाड़ी का रथवान न्यायाधीश, बहादुर कलारिन का पिता और गांव के नाऊं ससुरास, मोर नाऊं दामाद में बाप तो दर्शक अभिनेता द्वारा अभिनीत बेहतरीन दृश्य के संसार में चला जाता है.
जब इन भूमिकाओं को निभाने वाले पात्र का नाम रामचरण बताते तो दर्शक कहता वाह! और बाद में जैसे ही उनके जाने की खबर मिली, सबके मुंह से निकला केवल यही, आह! बैंडिट क्वीन फिल्म में फूलन देवी के पिता के किरदार को उन्होंने जिया है और यही वजह है कि फिल्म के निर्देशक शेखर कपूर के साथ-साथ कई फिल्मी प्रेक्षक उनके अभिनय के कायल हो गए.
एक वाकया जिसका मैं गवाह और बहस-मुबाहिसे का हिस्सेदार रहा हूं. जब प्रदर्शनकारी कलाओं पर केंद्रित देश की राष्ट्रीय अकादमी के पुरस्कारों के लिए अकादमी के सदन में रंगमंच के क्षेत्र में अभिनय के लिए रामचरण निर्मलकर का नाम आया तो देश के नामचीन नाट्य विद्यालय के प्राध्यापक प्रतिनिधि महानुभाव ने तर्क रखा कि इनका नाम लोककलाओं वाली कैटेगरी में रखा जाना चाहिए.
हालांकि यह हैरत में पड़ने वाली बात नहीं. तथाकथित रंगमंचीय मुख्यधारा के पक्षधर संभव है कि समकालीन हिंदुस्तानी रंगमंच में हबीब तनवीर साहब के योगदान को मानने से इनकार कर दें. हालांकि सदन ने एकमत से अभिनय के इस पुरस्कार के लिए रामचरण का समर्थन किया.
बहरहाल हकीकत यह है कि समकालीन हिंदुस्तानी रंगमंच की परिकल्पना हबीब साहब के नाटकों के बिना अधूरी है. उसी तरह निर्मलकर जैसे अभिनेताओं के बिना समकालीन हिंदुस्तानी रंगमंच अधूरा है और ऐसे अनेक नाचा और लोकनाट्य परंपरा के कलाकारों ने अपने अभिनय और कला से हिंदुस्तानी रंगकर्म को समृद्ध किया है.
रामचरण दादा का जन्म पिता गोपाल, माता बोधिनीबाई निर्मलकर के घर 17 मार्च, 1927 को रायपुर जिले के घुलघुल गांव में हुआ. इसी गांव में हो रहे एक नाचा में एक अभिनेता की अनुपस्थिति से उपजे संकट में मात्र 13 वर्ष की उम्र में उस रात चलने वाले नाचा के संकटमोचन बनकर गांव वालों की सराहना अर्जित की. यहीं से 1940 से जो सिलसिला शुरू हुआ, वह निर्बाध 34 वर्षों तक चला.
पैतृक गांव घुलघुल से जब अपने ननिहाल बरौंडा जिला रायपुर आए तो इसी गांव में 1945 में बरौंडा नाच पार्र्टी का गठन कर पार्टी का संचालन शुरू किया और बरौंडा के होकर रह गए. नाचा के चर्चित घरानों में बरौंडा साज की चर्चा उन नाचा मंडलियों में होती है, जिन्होंने नाचा को प्रतिष्ठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.
रामचरण दादा नाचा के लोकप्रिय विदूषक रहे हैं. इनके साथी दिवंगत रामरतन धीवर इनके जोड़ीदार रहे हैं. इनके नाम से सैकड़ों गांवों के लोगों का मजमा उमड़ पड़ता. 1974 में हबीब साहब से मुलाकात के बाद जो नया थिएटर के हुए तो देखते-देखते जिंदगी की सांझ हो गई. 31 साल तक थिएटर में जिंदगी ऐसी चली कि हिंदुस्तानी रंगमंच को एक बेहतरीन अभिनेता से विस्तार मिला.
लगभग 65 वर्ष नाचा थिएटर के माध्यम से कला की सेवा करने वाले रामचारण दादा शरीर से अशक्त होने के बाद ही घर लौटे. थिएटर से बुलावा आता रहा, लेकिन रामचरण दादा कहते, ''बैठकर तनख्वाह लेना थिएटर के लिए अच्छा नहीं.'' लेकिन थिएटर उनकी रगों में बहता रहा. मुलाकात में कभी नाटकों के संवाद तो कभी गीत गुनगुनाते.
उन्हें अपार प्रतिसाद और स्नेह मिला. 26 अगस्त, 2005 को राष्ट्रपति के हाथों अभिनय के लिए संगीत नाटक अकादमी सम्मान मिला. 17 मई, 2012 को जब शाम साढ़े छह बजे उनके छोटे बेटे का फोन आया कि बाबूली चले गए तो याद आया बहादुर कलारिन नाटक का गीत कोनो रहिस न कोनो रहय भाई, आही सबके पारी एक दिन, आही सबके बारी.

(लेखक नया थिएटर के साथ काम कर चुके  हैं और बस्तर बैंड नामक बैंड के संयोजक हैं)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें