पिछले दिनों ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए श्रीलाल शुक्ल के नाम की घोषणा के बाद से राग दरबारी एक बार फ़िर से चरचा के केंद्र में है. हालांकि पिछले चार दशक में शायद ही ऐसा कोई दौर आया हो जब राग दरबारी पढ़ने-लिखने वाले लोगों की जरूरी किताबों की फ़ेहरिस्त में शामिल न रही हो. आजादी के बाद की मोहभंग की स्थिति को बेहद बेलौस तरीके से अभिव्यक्त करने वाला यह उपन्यास वर्तमान समय में भी अपनी... प्रासंगिकता बनाये हुए है.
पिछले दिनों ज्ञानपीठ पुरस्कार की घोषणा के साथ श्रीलाल शुक्ल और उनका उपन्यास ‘राग दरबारी’ एक बार फ़िर चरचा के केंद्र में हैं. पुरस्कार घोषणा की शाम ( 20 सितंबर ) जब मैंने श्रीलाल शुक्ल जी से कहा कि भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के इस दौर में ‘राग दरबारी’ नये सिरे से प्रासंगिक हो गया है, तो उनकी प्रतिक्रिया थी ‘ भ्रष्टाचार अब कई गुना आगे बढ़ गया है और ‘राग दरबारी’ पीछे छूट गया है.’
निश्चित रूप से उनका संकेत जल, जंगल, जमीन व आकाश की लूट से जुड़े उस भ्रष्टाचार की ओर था, जिसकी तुलना में ‘राग दरबारी’ का भ्रष्टाचार किंचित सीमित और बौना दिखता है. यह पूछे जाने पर कि क्या आज एक नए ‘राग दरबारी’ के लिखे जाने की जरूरत दरपेश है, उन्होंने कहा कि ‘अब यथार्थ इतना विकराल हो गया है कि हर रचनात्मक परिकल्पना पीछे छूट जाने को अभिशप्त है.’
इसके बावजूद यदि ‘राग दरबारी’ की पंक्तियां पाठकों द्वारा आज भी मौखिक रूप से उद्धृत की जाती हैं, उसके अंश-दर-अंश आज भी उनकी स्मृति में ताजा हैं, तो इसके मूल में श्रीलाल शुक्ल की उत्तर भारतीय स्वभाव एवं समाज की वह अचूक समझ और पकड़ है, जो पाठकों से तुरंत रिश्ता बना लेती है.
आजादी के दो दशक बाद 1968 में ‘राग दरबारी’ का प्रकाशन एक रचनात्मक विस्फ़ोट सरीखा था. कारण यह कि नेहरू युगीन जनतंत्र की शल्यक्रिया करता यह उपन्यास उत्तर भारतीय समाज की पृष्ठभूमि में मूल्यों के विघटन और राजनीति के अधो:पतन का पारदर्शी आईना था. ‘राग दरबारी’ का शिवपालगंज आर के नारायण के गांव मालगुडी की तर्ज पर कल्पित न होकर लखनऊ के दक्षिणी छोर पर स्थित मोहनलाल गंज नामक वह कस्बा है, जहां के गांव अतरौली में श्रीलाल शुक्ल जन्मे और पले ब़ढ़े हैं.
लेकिन बकौल उपन्यासकार ‘महाभारत की तरह जो कहीं नहीं है, वह यहां है. और जो यहां नहीं है, वह कहीं नहीं है.’ सच्चे अथरें में शिवपालगंज भारतीय जनतंत्र की वह प्रयोगशाला है जिसमें चुनाव, पंचायत राज, सहकारी संस्थाएं, शिक्षा क्षेत्र व सरकारी योजनाएं सब कुछ अपने देशज अवतार में उपलब्ध हैं. यहां जनतंत्र ही कठघरे में है. नेहरू के तुरंत बाद के इस दौर में कांग्रेस का एकाधिकार समाप्त हो रहा था, केंद्रीयता टूट रही थी. नैतिकता, सदाचार, सच्चाई, कत्तर्व्यनिष्ठा, ईमानदारी और परोपकार सरीखे मानवीय व सामाजिक मूल्यों के प्रति अवज्ञा एवं अनास्था का भाव प्रबल हो रहा था. ‘राग दरबारी’ ऐसे ही सर्वनकारवादी और अनास्था के दौर का रोचक वृत्तांत है.
आज जब समूचे देश में भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए एक नये विधेयक को लेकर चरचा सरगर्म है, तो ‘राग दरबारी’ के पात्र लंगड़ का स्मरण हो आना स्वाभाविक है. लंगड़ को तहसील से एक दस्तावेज की नकल लेनी थी. उसने कसम खायी कि ‘मैं रिश्वत न दूंगा और कायदे से ही नकल लूंगा.’ उधर नकल बाबू ने कसम खायी कि ‘मैं रिश्वत न लूंगा और कायदे से ही नकल दूंगा.’ इसी की लड़ाई चल रही थी और अतंत: लंगड़ की यह नकल प्राप्त करने की प्रतीक्षा असमाप्त ही रही.
लंगड़ के इस ‘धर्मयुग’ के माध्यम से श्रीलाल शुक्ल उस देशज ‘हुनर’ का खुलासा करते हैं, जिसके आगे कानून और अदालतें बेबस और निष्प्रभावी हैं. अदालतों द्वारा न्याय की अनवरत प्रतीक्षा के इस दर्शन पर श्रीलाल शुक्ल की वक्रोक्ति कुछ यूं है, ‘ पुनर्जन्म के सिद्धांत की ईजाद दीवानी अदालतों में हुई है, ताकि वादी और प्रतिवादी इस अफ़सोस को लेकर न मरें कि उनका मुकदमा अधूरा ही पड़ा रहा. इसके सहारे वे यह सोचते हुए चैन से मर सकते हैं कि मुकदमे का फ़ैसला सुनने के लिए अभी अगला जन्म तो पड़ा ही है.’
विलायती तालीम में पायी जनतंत्र की विकृतियों का खुलासा करते हुए श्रीलाल शुक्ल इसकी कुलीन परिणतियों पर विशेष प्रहार करते हैं. जहां न्याय-व्यवस्था के बारे में उनकी टिप्पणी है कि ‘अपने देश का कानून बहुत पक्का है, जैसा आदमी वैसी अदालत.’ वहीं शिक्षा-व्यवस्था के बारे में वह उस प्रभुत्ववादी सोच को उजागर करते हैं, जो यह मानती है कि ‘ऊंची तालीम उन्हीं को लेनी चाहिए जो इसके लायक हों, इसके लिए स्क्रीनिंग होनी चाहिए.’
सचमुच यह श्रीलाल शुक्ल की अंतर्दृष्टि ही है कि वह शिक्षा प्रणाली की दुर्गति के पीछे छिपे हुये उन मंसूबों को भी उद्घाटित कर सके कि ‘ यह निश्चय था कि वहां पढ़ने वाले लड़के अपनी ‘रियाया’ वाली हैसियत छोड़कर कभी ऊपर जाने की कोशिश न करेंगे और ऊंची नौकरियां व व्यवसाय जिनके हाथ में हैं, उनके एकाधिकार को इन कॉलेजों की ओर से कोई खतरा नहीं पैदा होगा.’ शिक्षा पद्धति की इस दुर्गति की तुलना वे ‘रास्ते में पड़ी उस कुतिया से करते हैं जिसे कोई भी लात मार सकता है.’
‘राग दरबारी’ के वैद्य जी उस कुलीन तंत्र के मुखिया हैं, जिसकी मुठ्ठी में शिवपालगंज की पंचायत, कॉलेज का प्रबंधतंत्र, कोऑपरेटिव सोसायटी, सब कुछ है. भ्रष्टाचार में गले तक डूबी इन संस्थाओं का सूत्र संचालन जिस वीतरागी मुद्रा में वैद्य जी करते हैं, वह सत्तातंत्र की स्वार्थकेंद्रित निष्ठुरता का ही परिचायक है. कोऑपरेटिव सोसायटी में गबन के बाद वैद्य जी की यह गवरेक्ति कि ‘हमारी यूनियन में गबन नहीं हुआ था, इस कारण लोग हमें संदेह की दृष्टि से देखते थे.
अब तो हम कह सकते हैं कि हम सच्चे आदमी हैं. गबन हुआ है और हमने छिपाया नहीं है, जैसा है वैसा हमने बता दिया है.’ घोटालों के इस दौर में वैद्य जी के इस कथन में वर्तमान सत्ताकेंद्र के उन प्रवक्ताओं की अनुगूंज सुनी जा सकती है, जो यह कहते नहीं थकते कि ‘कानून अपना काम करेगा.’
भारतीय समाज की सवर्ण सत्ता संरचना किस तरह जनतंत्र में भितरघात करती है, इसकी सूक्ष्म बानगी के तौर पर श्रीलाल शुक्ल ग्रामपंचायत के उस चुनाव का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, जिसमें ग्राम प्रधान के पद के लिए ब्राह्मण और दलित आमने-सामने हैं. वे इसे स्थूल जातिवाद के रूप में न प्रस्तुत कर, उस धर्म-आधारित वर्णाश्रमी श्रेष्ठता के विमर्श के रूप में प्रस्तुत करते हैं जहां, ‘ब्राह्मण को स्वाभाविक रूप से प्रधान बनना चाहिए, न कि शूद्र को.’ लेकिन यह ‘सांस्कृतिक विमर्श’ किस तरह लात और मुंह के विमर्श में तब्दील होकर व्यावहारिक स्वरूप ग्रहण कर लेता है, इसकी अत्यंत रोचक बानगी इस उपन्यास में मौजूद है.
यहां यह तथ्य उल्लेखनीय है कि राग दरबारी अकेला ऐसा उपन्यास है जिसके वाक्यांश कविता की तरह लोगों की जुबान पर चढ़े हुए हैं. घूस के संबंध में उपन्यास का यह कथन कुछ ऐसा ही है, ‘घूस लेना भी अब बड़ी जलालत का काम है. उसमें कुछ बचा नहीं है. लेने वाले और न लेने वाले, अब समझ लो बराबर ही हैं. सबकी हालत खराब है.’
नैतिकता को लेकर उपन्यास में एक बानगी कुछ यूं है, ‘ नैतिकता, समझ लो कि यही चौकी है. एक कोने में पड़ी है. सभा सोसायटी के वक्त इस पर चादर बिछा दी जाती है. तब बड़ी ब़िढ़या दिखती है. इस पर चढ़कर लेक्चर फ़टकार दिया जाता है. यह उसी के लिए है.’ गांधी को लेकर उपन्यास के सुभाषित हैं,‘गांधी, जैसा कि कुछ लोगों को आज भी याद होगा, भारतवर्ष में ही पैदा हुए थे और उनके अस्थिकलश के साथ ही उनके सिद्धांतों को गंगा में बहा देने के बाद यह तय किया गया था कि गांधी की याद में अब सिर्फ़ पक्की इमारतें बनायी जायेंगी और उसी हल्ले में शिवपालगंज का यह चबूतरा बन गया था.’
इंसानियत की कपाल-क्रिया श्रीलाल शुक्ल कुछ यूं करते हैं, ‘शिवपालगंज में इन दिनों इंसानियत का बोलबाला था. लौंडे दोपहर को घनी अमराइयों में जुआ खेलते थे. जीतने वाले जीतते थे, हारने वाले कहते थे ‘यही तुम्हारी इंसानियत है? जीतते ही तुम्हारा पेशाब उतर आता है. टरकने का बहाना ढूंढने लगते हो.’
दरअसल, ये सारी उलटबासियां अकेले शिवपालगंज का सच न होकर, समूचे उत्तर भारत का सच था, जहां,‘यह बताना मुश्किल था कि ‘सच क्या है, क्या झूठ.’और सच तो यह है कि आज भी ‘सारे मुल्क में यह शिवपालगंज ही फ़ैला हुआ है.’ ‘राग दरबारी’ इसी शिवपालगंज रूपी समूचे मुल्क का आज भी कालपात्र सरीखा है. समाजशास्त्री डॉ श्यामाचरण दुबे इसे उचित ही भारतीय ग्राम्य समाज का आईना कहते थे.
श्रीलाल शुक्ल का आज यह मानना उचित ही है कि ‘राग दरबारी का शिवपालगंज महज एक बीज था, यह बीज आज जिस विष-बेल के रूप में देश को विषाक्त कर रहा है, उसका निवारण किसी एक जनलोकपाल के सामथ्र्य के बाहर है. कारण यह कि शिवपालगंज रूपी यह देश उतना ‘सिविल’ नहीं है जितनी ‘ सिविल सोसायटी.’ काश ‘सिविल सोसायटी’ ‘राग दरबारी’ के पृष्ठों से गुजरकर हिंदुस्तान के इस अंधेरे को जान पाती.
प्रभात खबर से साभार
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