आइये एक बार फिर छूटी हुई कड़ियों को
जोड़ने की कोशिश करते हैं. जो चंचल मन अति रैंडम के हाथों से फिसलती रहती है और
जिसे रैंडमली सेलेक्ट करके ही पेश करना पड़ता है. काश ! जीवन के बीते हुए क्षणों को
फिर से याद करके दूसरों को सुनाने में वहीं सिलसिला निभ जाता जिस सिलसिले में वो
बीत जाता है. मेंटल ब्लाकेज को तोड़ने में भी समय लग जाता है और फिर थोड़ा भ्रम भी
बना रहता है, क्या आउर कैसे! अब ऊपर की दो चार लाईन जो भी है
इस टाइम पास के लिये है कि कहां से सूत्र को पकड़ा जाए. किस्सागोई की प्रथा
में यह दिक्कत नहीं थी जैसे ही कथावाचक के हाथ से सूत्र छूटता श्रोता पकड़ा देते
लेकिन यहां…खैर!
हमारे समूह की तरफ़ से नाटक जब पहली
बार खेला गया तो उसके चयन में मेरी कोई भूमिका नहीं थी. उसके चयन में हमारे दल के
लोगों की भी भूमिका नहीं थी. चूंकि दो दल नहीं खेल पाए थे इसलिये हमने उसे खेला.
नाटक अपने नाम के अनुरूप ही ‘कश्मीर हमारा है उर्फ़ आतंकवाद को
मिटा डालो’ मिथुन चक्रवर्ती की फ़िल्मों का नाट्य संस्करण
लगता था. मिथुन की फिल्मों वाली संवाद शैली और कथा में गदर फिल्म की आत्मा भरी गई
थी. देशभक्ति से सराबोर और उत्तेजक संवादों से लस्त पस्त. ठीक उसी तरह जैसे हमारे
कस्बाई सिनेमा हाल दर्शकों को आकर्षित करने के लिये सिनेमा के पोस्टर पर लिखवाये
रहते थे ‘मार-धाड़ और एक्शन से भरपूर’. ऐसी
कथाओं का क्रेज था. ऐसे नाटक नाच पार्टियों के लिये उपयुक्त थे लेकिन ग्रामीण रंगमंच
के लिये नहीं. नाच पार्टी में ऐसे नाटक खेले जाते रहे हैं और नाटक का दो नाम रखकर
बीच में उर्फ़ रखने की परंपरा भी रही है. अक्सर सिनेमाई रूपांतरण को भी मंचन नाच दल
वाले करते जिसमें मुख्य सामग्री होती थी नक्शा. नाटक का नायक नक्शे को विलेन के
हाथों में जाने से बचाने की कोशिश करता कामयाब होता. मेरे
लिये इस नाटक का चयन सीधे सीधे स्तरहीनता का मामला था. इस नाटक से अपने आप को
संबंद्ध करने में मेरे पिताजी को दिक्कत हुई और उन्होंने इस हिदायत के साथ अपने को
इस नाटक से जोड़ा कि अगले साल से ऐसी किताबें नहीं लाई जाएं. जैसे कि मैंने कहा कि
नाटक में गदर की आत्मा थी. अंतर था कि यहां हिंदू युवक और मुसलमान युवती की कहानी
में आतंकवादी और फौजी भी थे. हिंदू युवक का मुसलमान युवती से प्रेम था जिसका विरोध
उसका भाई कर रहा था, एक आतंकवादी था जिसको पकड़ने के लिये
भारत की फौज की टुकड़ी तैयारी कर रह थी। ये दो अलग अलग कथायें एक बिंदू पर मिल जाती
थी जब नायक सरोज घायल हो कर फौजी के पास पहूंच जाता है. इस कथानक का तीसरा
एंगल भी था. दो अजीबोगरीब नाम वाले पात्र खिलाड़ी चार सौ बीस और हरामी चार सौ बीस
भी थे जिनके दृश्य हास्य फीलर की तरह नाटक में थे, अंत में
दोनों पात्र नाटकीय ढ़ंग से जासूस निकलते हैं, और मुख्य
आतंकवादी को पकड़ने में मदद करते हैं. नाटक सुखांत था जिसमें प्रेमी आपस में मिल
जाते हैं और फौजी कुछ फौजिओं को गंवाकर आतंकवादी सरगना को पकड़ने में सफल होते हैं.
इस फिल्मी कथानक का मंचन जिस तैयारी और समर्पण के साथ हुआ उसका प्रतिफल नाट्य मंचन
के दिन मिला. लोगों ने याद किया कि कई बरस बाद यह ऐसा नाटक था जिसमें दर्शक अंत तक
बैठे रहे थे. स्थिति यह थी कि नाटक की समाप्ति के बाद मंच से यह घोषणा करनी पड़ी की
नाटक समाप्त हुआ अब आप घर जा सकते हैं. लड़कों को सफ़लता का स्वाद लग गया था. अब यह
सिलसिला चलते रहने की उम्मीद थी. अगले रोज गांव में हर तरफ़ नाटक की ही चर्चा थी. लेकिन पाठ से प्रस्तुति की यात्रा के कुछ दिलचस्प
हिस्सों को याद करना चाहिये. यह हिस्से मंच के नाटक से कई गुना मनोरंजक और
शिक्षाप्रद था जिसके दर्शक भी हम थे और भूमिका भी हम ही निभा रहे थे.
टीम में घूसने के बाद मैंने सबसे पहले
उन लोगों को इंट्री करवाई जिनके साथ गांव में मेरी केमेस्ट्री ठीक थी और वो
संभावनाशील युवा थे. नाटक खेलने की कीड़ा उनके मन में थी और मौके का इंतजार था.
काका यानी कुणाल किशोर विद्यार्थी और रवि ऐसे ही दो लोग थे. दोनों ही लोग नाटकों
में छोटी छोटी भूमिकाएं निभा चुके थे. काका ने बाल कलाकार की भूमिका भी निभाई थी ‘जंगल
के दादा’ नाटक में रवि ‘प्रतिशोध’
में ऐसे दुल्हे की भूमिका में था जिसकी हत्या फेरे के समय ही हो
जाती है यानी सेहरे में छूपा चेहरा भी दर्शकों के सामने नहीं आ पाया था. नाटक
खेलने की ललक और बढ़ गई जब हाथ में रोल मिलने के बावजूद नाटक नहीं हो सका था. अब
वहीं नाटक हो रहा था हिरोईन की भूमिका के लिये लड़के की तलाश थी मैंने बिना देर
किये रवि तक यह प्रस्ताव पहूंचाया और वह बिना संकोच के भूमिका निभाने को तैयार हो
गया इस आशंका के साथ कि इस साल भी नाटक हो पायेगा या नहीं!
नायक की भूमिका जंझट यानी एसरारूल हक़
को मिली थी लेकिन रिहल्सल के दूसरे या तीसरे रोज ही जंझट ने इमानदारी से रोल वापस
कर दिया कि इतनी बड़ी भूमिका उसे याद करने में दिक्कत है और उसने एक सैनिक की छोटी
भूमिका ले ली. नायक की भूमिका मुझे दी जाने लगी मैंने अपना डर व्यक्त किया कि नायक
की भूमिका पिछले साल मैं कर रहा था लेकिन नाटक नहीं हो पाया इसलिये किसी दूसरे को
चुनते हैं और इस तरह कुणाल किशोर विद्यार्थी यानी काका की ईंट्री हुई, वह भी नायक की भूमिका के लिये तैयार थे. रिहल्सल होने लगा. नायक नायिका के
बीच के प्रणय दृश्यों का पूर्वाभ्यास रिहल्सल का सबसे रोमांचक हिस्सा था. रिश्ते
में चाचा और भतीजा लेकिन भूमिका प्रेमी प्रेमिका की. असहज स्थिति थी, जिसका मजा सभी सदस्य लेते थे. नायिका की भूमिका में रवि में संकोच लेस
मात्र भी नहीं था वही नायक की भूमिका में काका की शरीर भाषा में ही संकोच था.
रिहल्सल के दौरान कभी भी नहीं लगा कि वह अपनी भूमिका के साथ न्याय कर पायेगा. रवि
भी चिंतित था कि उन दोनों का दृश्य अच्छी तरह से नहीं हो पायेगा. मर्दानगी की
ललकार के साथ तमाम उपक्रम फेल हो गये थे. एक दिन रिहलसल में पुन्नु काका ने यह भी
कह दिया कि ‘अईसन कर दुनु के रोल बदल दा, हई ससुरा त बड़ी मऊगा, बा उ सटता आ इपीछे हट ताड़े’..
बात हंसी में उड़ गई लेकिन यह समझना उस समय मेरे लिये आसान नहीं था
कि भूमिका में भी एक दूसरे जेंडर का अनुभव करते ही हमारी गतिविधियां कैसे बदल जाती
हैं. वैसे मंचन के दिन काका पर पता नहीं कौन सा जादू हुआ उसने अपनी उर्जा का दौ सौ
प्रतिशत इस्तेमाल किया और सभी को चौंकाया…रवि की तैयारी तो
पहले दिन से जबरदस्त थी. उसने लड़की की आंतरिक निर्वाह के साथ अपनी बाहय सज्जा को
भी ब्युटी पार्लरिय उपकरणों से तैयार किया था.
एक दिलचस्प
व्यक्ति थे जोबैर भाई जो मेजर साहब की भूमिका कर रहे थे. रिहल्सल के दौरान सैनिको
को ललकारते ललकारते अपनी तशरीफ़ खुजलना लगते थे, खुजली करने
वाले उनके हाथ पर न जाने कितने डंडे पड़े लेकिन वह हाथ अपनी आदत से मजबूर रहा.
अंत में उसे पिस्तौल दे दी गई और वह उसे लहरा लहरा कर संवाद बोलते थे. नाटक
के सभी कलाकारों को अपनी कास्ट्युम का इंतजाम स्वंय
करना था लेकिन जोबैर भाई ने ये नहीं किया और सबसे वरिष्ठ अभिनेता होने का मनुहार
कर और मेजर के रोल की गरिमा का उल्लेख कर सबसे अच्छी और प्रेस की गई वर्दी अपने
नाम की. बेचारा वर्दी लाने वाला अभिनेता देखता रह गया.
नाटक के दृश्य
में आतंकवादी पिता को छोड़कर एक पूरे परिवार की हत्या कर देते हैं, इसके बाद पिता का विलाप होता है. पिता की भूमिका कर रहे सस्सिता
काका जब विलाप करते थे तो सारे पात्र हंसने लगते, और यह रोज
होता. रिहल्सल के एक महीने में कलाकारों ने यह नियम बना लिया कि इस दृश्य के पहले
वो मड़ई से निकल जाते और बाहर आ कर हंसते ताकि उनका रोने का टेम्परामेंट ना बिगड़े.
इस करूण दृश्य को हास्य में बदलने का श्रेय अभिनय के निर्देशक त्रिविक्रम जी
का था वह इस विलाप को इतना नाटकीय अभ्यास बना दे रहे थे जो दयनीयता से हास्य
में बदल जाता था. इस तरीके को छोड़ने के लिये भी वह तैयार नहीं थे, सस्सिता काका भी परेशान थे.
गांव के नाटकों के सामने एक बड़ी
समस्या उच्चारण की रहती है. पजियरवा के बुजुर्ग रंगकर्मी अपने गांव की नाटक की
श्रेष्ठता का हवाला अन्य गांव के नाटक के उच्चारण दोष से ही देते थे. उनका निर्देश होता ‘हमनी के गांव केनाटक में इतिहांस ना होला, इतिहास होला, ऐसे उच्चारण में गड़बड़ी ना’ लेकिन
भोजपुरी का सतत अभ्यास हिंदी अभिनय के दौरान बाधा बन जाती थी. और हर साल कुछ
शब्दों और लहजों की गड़बड़ी रह जाती थी. अधिकांस कलाकारों का पहला नाटक था, तैयारी थी और डर भी था इसलिये इस बार का उच्चारण बस दो ही शब्दों में भटक
जाता. यह थे पाकिस्तान जिसे सभी पकिस्तान कहते और
आतंकवादी जिसे सभी आन्तकवादी कहते. आन्तकवादी के उच्चारण ने इतना वर्चस्व बना लिया
कि एक दफ़ा प्रेम भी आनतकवादी कहते पकड़े गये. रिहल्सल के दौरान नियंत्रण की
जिम्मेदारी प्रदीप काका की थी , वह अपने सटकी के साथ गड़बड़ी
को सुधारते रहते. जिससे चूक होती बिना देर किये उसे एक सटकी लग जाती , गलती का एह्सास हो जाता था.
नाटक में दो
भूमिकाओं के लिये अभिनेता तैयार नहीं हो रहे थे. यह भूमिका थी नायिका के पिता और
भाई की. नायिका की भाई की भूमिका जितेश जी को दी गई थी लेकिन वह मेरे केंद्रीय
भूमिका में आने से नाराज थे और दल हट गये, उनके अनुसार मैं
इस लायक नहीं था. पिता की भूमिका करने के लिये कोई तैयार नहीं था. नायिका के
भाई और पिता की भूमिका कौन करे? यह विचित्र बात थी, यही सब वो चीजें थी जिसे नाटक को सुधारना था हमारे भीतर से. आखिरकार
खलनायक की मुख्य भूमिका कर रहे प्रेम भाई और मैंने पिता और भाई की भूमिका को
निभाया. प्रेम अनुभवी कलाकार थे और दोनों चरित्रों को दो व्याखाया के स्तर पर जी
गये. मैं गांव के नाटक में पहली बार था. नायिका के भाई की नकारात्मक भूमिका ही लोकप्रिय हूई सैनिक की बड़ी भूमिका से. टोले की कुछ बहनों ने
मुझे कोसा भी क्योंकि मैं मंच पर अपनी बहन को पीट रहा था. भूमिकाओं की अनिश्चितता और अदला बदली नाटक मंचन से एक दिन पहले तक जारी
रही जब हास्य भूमिका में एक कलाकार ने अपनी असमर्थता जता दी और हमे अभिनेश बाबा के
पास जाना पड़ा. अभिनेश बाबा वरिष्ठ अनुभवी कलाकारों मे से थे. इनकी एक मुख्य
विशेषता थी कि पद में बड़े और उम्र में कम होने के कारण ये हर वर्ग के साथ फिट हो
जाते थे, युवाओं के साथ विशेष. मेरी मान्यता है कि पजिअरवा
के स्टेज पर इनकी अभिनय क्षमता का वैसा दोहन नहीं हुआ और इन्हें हास्य भूमिकओं में
सिमित कर दिया. ‘अरावली का शेर’ नाटक
में इनके द्वारा निभाई हिजड़े की भूमिका को जिसमें वो कहते थे कि“ना मैं हिंदू हूं ना मुसलमान हूं… मैं तो कुछ भी नहीं हूं”.
आज भी गांव के दर्शक कोट करते हैं. इनकी विशेषता भी थी की अपनी
अधिकांश भूमिकांए इन्हें नाटक के एक दिन पहले या दो दिन पहले मिलती थी जिसका वे
सफलता से निर्वाह करते. इस बार भी एक दिन पहले मिली भूमिका को इन्होंने किया और
मंचन के दौरान ही लौंडा से सांठ-गांठ करके तुरत फुरत क्लाइमेक्स सीन में एक गाने
और नाचने का दृश्य रख लिया, जिसके बाद खलनायक पकड़ा जाता है.
यह दृश्य भी खूब बन पड़ा था. नाटक की तैयारी के दौरान भी अभिनय प्रशिक्षक के रूप
में इनकी खास भूमिका थी.
गांव के नाटकों
के संचालन के दौरान गांव को समझने लोगों को डील करने और अपने को परिपक्व बनाने का
मौका मिला. मेरे जीवन के बहुत से अनुभवों पर ये भारी हैं. इस साल पहला नाटक था,
नाटक में मंच कैसे बनेगा, सामान कौन कौन सा
आयेगा उसका खर्चा कितना होगा…इस सब के लिये त्रिविक्रम जी पर
निर्भरता बढ़ गई थी. त्रिविक्रम जी इस निर्भरता से अनजान नहीं थे, उन्होंने ये जानने के बावजूद की पैसे नही हैं और पूरा इंतजाम चंदे से चलना
है सामान बढ़ा चढ़ा के लिखवा दिया. रिहल्सल के दौरान भी एक आध बातों पर मेरी उनसे
बकझक हो गई थी खास कर उन दृश्यों पर जिसमें वह अनावश्यक अभिनय करवा के गंभीर
दृश्यों को हास्यास्पद बनाते थे. उसकी और एक महत्त्वपूर्ण खूबी थी कि बहुत ही
शातिराना अंदाज से वह टीम की एकता को दरका रहे थे. एक नवजात दल के लिये यह खतरनाक
था, वह उन चीजों को उभार कर केंद्र में ला देना चाहते थे जो
नहीं थी मसलन जाति भेद. मैं इस चीज को पहचान रहा था. सारी बातों की कसर एक दिन
निकल गई और तगड़ी बक झक के बाद मैंने नाटक की स्क्रिप्ट और सामान की लिस्त पटक
दिया; हम नाटक में नईखी, हई देख लेस हम आपन रोल क देम बस’ … मैं
बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था कि एक आदमी हमारे प्रयास को समर्थन करने की बजाए इस
मूहिम को बरगला देना चाहता है और महीन ढंग से मुझे अपमानित करना चाहता है. क्योंकि
उसका वर्चस्व नहीं है, उसके लोगों को नाटक में शामिल नहीं
किया गया. वैसे ऐसा अनुभव करने की मेरी उम्र नहीं थी.
बहरहाल अभिनेश बाबा ही मुझे मना कर वापस लाये. समझाया कि शांत रहो और काम करो. सब
ठीक होगा, इस आदमी से इसके ढंग से निपटने की जरूरत है.
त्रिविक्रम जी की विशेषता थी कि कि दूसरों के किये धरे को वो अपना बना कर पेश कर
देते थे, इस बार इसे रोकना था. इसलिये दल का एक नाम रखने का
सोचा गया. माथा पच्ची के बाद ‘अभिरंग कला परिषद’ नाम तय हुआ. मंच पर त्रिविक्रम जी का पर्दा लगा था जिस पर उसने ‘आजाद नवयुवक नाट्य कला परिषद’ लिखवाया था. मैंने
बलपूर्वक उनको हिदायत दी कि पर्दे का लिखा हुआ भाग सामने
नहीं रहना चाहिये. उन्हें बाध्य हो कर उसे पीछे लगाना पड़ा. मंचन के दौरान उनके
राजनीतिक भाषणबाजी को भी रोक दिया गया था. ये समझ में आना लगा था कि अपने दल के
स्थायित्व के लिये इस आदमी का प्रभाव हटवाना जरूरी है. यह आदमी भी कुछ खास लोगों
को पहचान चुका था जिन्हें प्रभावित कर सकता था. मेरे लिये जरूरी था इस आदमी की
नकारात्मकता को उभारना ताकि इसका सच सभी के सामने हो. व्यक्तिगत तौर पर आमने सामने
लड़ने में नुकसान था. अगले साल नाटक में इस लड़ाई का एक अध्याय और सामने आया. अंततः
तीसरे साल हम उसे अपने स्टेज से हटवाने में कामयाब हुए.
तमाम परेशानियों और अनुभव के कच्चेपन
के बावजूद ‘आतंकवाद को मिटा डालो उर्फ़ कश्मीर हमारा है’ नाटक का महत्त्व सबसे ऊपर है. क्योंकि उस समय अधिकांश अभिनेता नये थे,
पाली बार मंच पर उतरने का डर था इसलिये सबसे लंबी तैयारी चली थी.
सबने अपने को झोंक दिया था. हम मंच बनाना, पर्दा टांगना, मेक अप करना कुछ भी नहीं जानते थे.
नाटक करने की सोचना और करने की बीच कितनी तरह की बाधाएं आती हैं हम वो भी नहीं
जानते थे. इसके बावजूद वो नाटक जिसे सब कज रहे थे फ्लाप होगा हिट हुआ और अगले साल
हम फ़िर एक और नाटक के लिये तैयार था. लेकिन नाटक का चयन इस बार भी मजबूरी में किया
गया और तमाम बकवास नाटकों में से एक कम बकवास नाटक चुना गया ‘पोंछ दो सिंदूर थाम लो बंदूक’. इसकी कहानी अगली बार…
अमितेश कुमार से यहाँ संपर्क किया जा सकता है.
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