परवेज़ अख्तर |
परवेज़ अख्तर भारतीय रंगमंच के एक महत्वपूर्ण
हस्ताक्षर हैं. पिछले कई दशकों से उनकी रंगमंचीय यात्रा सतत चली आ रही है. पटना के युवा रंगकर्मी अभिषेक नन्दन से हुई
उनकी यह बातचीत मंडली के पाठकों के लिए पेश करते हुए हर्ष का अनुभव हो रहा है. यह
बातचीत परवेज़ दा के रंगमंच और व्यक्तिगत विचार को समझाने में मदद कर सकती है. परवेज़
दा रंगमंच में रंगमंचीयता और शब्दों - विचार के महत्व को माननेवाले रंगकर्मियों
में से एक रहे हैं. नीचे कहीं उनकी कई बातों से कुछ युवा और पेशेवर रंगकर्मियों को
आपत्ति हो सकती है. आपत्ति होना एक लोकतान्त्रिक प्रक्रिया है. उम्मीद है कि परवेज़
दा के इस साक्षात्कार के बहाने हम एक स्वस्थ विमर्श की दिशा में आगे बढ़ेगें. यह आलेख अभिषेक का ब्लॉग नेपथ्य से साभार.–
माडरेटर मंडली.
परवेज़ दा, शुरुआत बिलकुल शुरु से करते हैं। आपका
थियेटर का सफर कहाँ से शुरु हुआ? रंगमंच के
प्रति पहला झुकाव-लगाव कब हुआ?
हमारे पिता, जिनका नाम शमीम मुजफ्फरपुरी था, प्रगतिशील विचारों
वाले थे। वे रेल सेवा में कार्यरत थे, जिसके कारण उनका स्थानान्तरण कई जगहों पर
होते रहने के कारण हम लोग अलग-अलग जगहों पर रहे। गोरखपुर में कुछ ज़्यादा रहे।
पिताजी बचपन में हम सभी भाई-बहनों को रामलीला दिखाने ले जाते थे। दूसरे दिन हम
अपने साथियों के साथ वही, रात में देखी हुई चीज़ों को दुहराते थे। इस तरह
आठ से दस वर्ष की आयु से ही मेरा लगाव इस विधा से होने लगा था। जब पिताजी का
स्थानान्तरण बिहार के बरौनी जिले में हुआ तो वहाँ की रेलवे कॉलोनी में विशेष
अवसरों पर नाटक का आयोजन होता था। उसी समय बरौनी के रेलवे इंस्टीट्यूट में लगातार
कई दिनों तक नाटक चला, जिसका व्यापक असर मुझ पर पड़ा और तब तक एक खास
तरह का आकर्षण भी नाटक के प्रति मेरे भीतर पैदा हो गया था। हमेशा उत्सुकता बनी
रहती थी कि नाटक में क्या-क्या होता है! बस, यहीं से हम तीनों भाइयों का जुड़ाव नाटक
से हो गया।
पटना में इप्टा और कलासंगम से
कैसे जुड़ाव हुआ?
मैं पढ़ाई करने पटना आ गया और यहाँ के
बी.एन.कॉलेज में अपना नामांकन करवाया। यहाँ आने के बाद मैं काफी प्रयत्नशील था कि
किसी नाट्य संस्था से जुडूँ। उन्हीं दिनों मेरे हाथ एक स्मारिका लगी। मैंने तुरंत
उसके पते पर एक ख़त लिख दिया, पर आज तक उसका जवाब नहीं आया। उस संस्था का नाम ‘माध्यम’ था, जिससे जितेन्द्र
सहाय और वर्तमान कला मंत्री सुखदा पांडेय भी जुड़ी थीं। जब पत्र का जवाब नहीं आया
तो मैं काफी मायूस हो गया। ठीक उसी समय ‘कलासंगम’ पटना से गिरीश कर्नाड लिखित नाटक ‘तुगलक’ की तैयारी चल रही
थी। ‘कलासंगम’ उस समय की सबसे
सक्रिय संस्था थी। मेरे एक मित्र से मुझे नाटक के बारे में पता चला और मैं
भागा-भागा वहाँ जा पहुँचा। पहले ऑडिशन के बाद ही मुझे एक बड़ा-सा रोल मिल गया। मैं ‘कलासंगम’ का नियमित सदस्य हो
गया। 1980 तक बतौर अभिनेता मेरी पहचान पटना थियेटर में बन चुकी थी। मैं एकलव्य
की तरह थियेटर के विभिन्न आयामों को देखता और सीखता था। मेरी उत्सुकता नाटक के हर
आयाम को सीखने में थी। मैं नाटक के सभी पक्षों के साथ जुड़ा भी रहता था। फलस्वरूप ‘कलासंगम’ में प्रोडक्शन के
स्तर पर सतीश आनंद के बाद मैं ही सब कुछ करने लगा। उस समय पारिवारिक स्तर पर हम
लोगों के काफी संघर्ष के दिन थे और सतीश आनंद हमारी काफी मदद करते थे। मगर ‘कलासंगम’ की सबसे बड़ी
कमज़ोरी यह थी कि नाटक में लीड रोल और नाट्य-निर्देशक टैलेन्ट के आधार पर तय नहीं
होता था। वहाँ एक ही व्यक्ति सारे नाटकों का निर्देशन भी करता था और हर नाटक में
प्रमुख भूमिका भी। इस बात पर मेरा हमेशा मतभेद रहा। उन्हीं दिनों बी.एन.कॉलेज की
नाट्य परिषद इकाई से भी मैं नाटक कर रहा था,जिसमें ‘नीली झील’, ‘कुकुडु कूँ’, ‘भारत दुर्दशा’, ‘अंधेर नगरी’ आदि प्रमुख थे। मैं इनमें बढ़-चढ़कर भाग
लेता था। तब तक मेरी व्यक्तिगत पहचान बन चुकी थी। लोगों का काफी दबाव पड़ने लगा था
कि आपको स्वतंत्र नाटक करना चाहिए। यह वही समय था, जब सतीश आनंद के समकालीन रंगकर्मी अराधन
तिवारी ने एक संस्था बनाई, जिसका नाम ‘अनागत’ रखा गया। इसने मोहित चट्टोपाध्याय लिखित
नाटक ‘गिनीपिग’ की शुरुआत की। इसमें बी.एन.कॉलेज में अध्ययनरत
मेरा छोटा भाई जावेद भी जुड़ा था, नरेन्द्रनाथ पाण्डेय जी भी, जो बी.एन.कॉलेज में
फिजिक्स के प्राध्यापक थे और नाट्य परिषद के सचिव भी थे। किसी कारण बस, यह नाटक रूक गया। तब
अराधन जी और जावेद आग्रह करने लगे कि इस नाटक का निर्देशन आप करें। मैंने कहा कि ‘कलासंगम’ में इस तरह की
इजाज़त नहीं है कि कोई सदस्य दूसरी संस्था से नाटक करे। पर बार-बार उनके द्वारा
अनुरोध किये जाने पर मैं इस शर्त पर तैयार हो गया कि निर्देशन में मेरा नाम नहीं
जाएगा। वे लोग मान गए तब मैं नाटक के छù निर्देशक की भूमिका निभाने को तैयार हो
गया। पूरे चार माह में नाटक तैयार हो गया। आई.एम.ए. हॉल भी बुक हो गया। इसी क्रम
में जब मैं एक दिन रिहर्सल में पहुँचा, तो देखा कि नाटक का कार्ड छप चुका है,साथ ही निर्देशक में
मेरा नाम डाल दिया गया है और कार्ड भी बाँटा जा रहा है। खैर, नाटक का मंचन
आई.एम.ए. हॉल में हुआ। नाटक सुपर-डुपर हिट हुआ, हाउसफुल गया। उस समय के तमाम अखबारों में
समीक्षाएँ छपीं और काफी सराहना भी हुई। नाटक समाप्त कर जब मैं ‘कलासंगम’ लौटा और जैसे ही
बरामदे में पहुँचा कि तत्काल ठहर गया। अंदर कुछ लोग मेरी घोर निंदा और बुराई कर
रहे थे। मैं चुपचाप बिना किसी को बताए वहाँ से लौट गया और फिर कभी वापस नहीं गया। ‘कलासंगम’ से हमेशा मेरा
वैचारिक स्तर पर मतभेद रहता था। उसी समय 31 जुलाई 1979 को प्रेमचंद जयंती
के समय बिहार में इप्टा का पुनर्गठन हो रहा था। शुरु से ही कम्युनिस्ट विचारों से
लगाव के कारण इप्टा से भावनात्मक रूप से तो जुड़ाव था ही, मैं अपरोक्ष और
परोक्ष रूप से इप्टा से जुड़ गया। उस समय मैं इप्टा और ‘अनागत’ दोनों ही संगठनों का
सदस्य था। बाद में ‘अनागत’ ज़्यादा दिन तक नहीं चल सका।
थियेटर में आपका माध्यम बतौर निर्देशक
और डिज़ाइनर का रहा है। आपकी नज़र में निर्देशक की क्या भूमिका है?
मूलतः तो मैं अभिनेता ही था, परिस्थिति ने मुझे
निर्देशक बना दिया। कोई नाट्य संस्था प्रजातांत्रिक तभी हो सकती है, जब वहाँ एक से
ज़्यादा निर्देशक हों, मुख्य किरदार निभानेवाला व्यक्ति भी एक से
ज़्यादा हो और निर्देशक को तो पूर्णतः बचना चाहिए अपने नाटकों में मुख्य किरदार
निभाने से। इसीलिए मैं स्वयं द्वारा निर्देशित नाटकों में कोई भी भूमिका नहीं करता
हूँ अपवाद ‘गिनीपिग’ को छोड़कर। उन दिनों, नाटक का जो पूरा जादू होता है, उससे पूरी तरह
जुड़ने का मौका मिला इप्टा में। हम लोग वरीयता के हिसाब से नहीं, टैलेन्ट के हिसाब से
तय करते थे कि नाटक में मुख्य भूमिका कौन करेगा और निर्देशन कौन करेगा। इप्टा में
हमेशा हमारी यह कोशिश होती थी कि एक से ज़्यादा निर्देशक हों। सबसे पहले नाटक के
विकास-क्रम में नाटक में निर्देशक की कोई भूमिका नहीं थी। निर्देशक बहुत बाद में
रंगमंच की प्रक्रिया से जुड़ा। निर्देशक की अवधारणा पश्चिम से भारत में आई है।
निर्देशक दर्शक का प्रतिनिधि होता है, जो पूरे नाटक में दर्शक की अपेक्षा का
ध्यान रखते हुए पूरी संरचना को तैयार करता है। प्रारंभ में सिर्फ अभिनेता था और
कुछ नहीं। यहाँ तक कि लिखित रूप से कोई आलेख भी नहीं होता था। जैसे-जैसे सूक्ष्म
संवेदनाओं का विकास हुआ, जटिलता आई और निर्देशक की भूमिका तय होती गई।
भारतेन्दु युग तक निर्देशक की कोई भूमिका भारत में नहीं थी। जैसे-जैसे
नाट्य-प्रस्तुतियों में जटिलताएँ आईं, उसमें कविता, दृश्य, प्रकाश, ललित कला आदि आदि का संयोजन होता गया।
इसके संयोजन के लिए एक व्यक्ति की ज़रूरत पड़ने लगी और तब निर्देशक नाटक में
प्रमुख रचनाकार के रूप में शामिल हो गया। थियेटर माध्यम तो अभिनेता का है पर इस विकास
के पड़ाव पर एक व्याख्याकार और सर्जक के रूप में निर्देशक केन्द्रीय भूमिका में
है। इसके बावजूद यह याद रखा जाना चाहिए कि रंगमंच मूलतः अभिनेता का माध्यम है। आज
बिना निर्देशक के किसी नाटक की कल्पना नहीं की जा सकती।
रंगमंच को किसी वाद से जोड़ना कहाँ तक ठीक
है?
देखिए, नाटक कला किसी वाद को प्रचारित करने का
माध्यम नहीं है और न ही रंगमंच तात्कालिक या त्वरित प्रतिक्रिया देने का माध्यम
है। ऐसी हालत में ही नुक्कड़ नाटक का विकास हुआ। इसीलिए आपको नुक्कड़ नाटकों में
समस्या ओरिएंटेड नाटक मिलेंगे। पर सामान्य रंगमंच की अपनी गति और अपना विषय है, जो कहीं से भी
नियंत्रित नहीं है और जब भी इसे नियंत्रित करने की कोशिश की गई है,प्रयास हुआ है, वह असफल रहा है।
नाट्य-रचना के स्तर पर नाटककार ने किसी का या समय का भी दबाव नहीं सहा है और
विषयवस्तु के स्तर पर किसी पर दबाव बनाया भी नहीं जा सकता। थियेटर में अगर स्कोप
विकसित होता है तो अधिक से अधिक लड़के व लड़कियाँ इस विधा में आएंगे और टिकेंगे
लेकिन कोई स्कोप नहीं होने के कारण आज रंगमंच से युवाओं का पलायन हो रहा है।
कुछ लोगों
का मानना है कि नुक्कड़ नाटक का फॉर्म या स्वरूप ही कुछ ऐसा है कि वह उसको
जनपक्षीय, क्रांतिकारी कला-विधा बनाता है?
यहाँ यह उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि नुक्कड़
नाटक, जो रंगमंच का एक ‘फॉर्म’ मात्र है, उसको जन-कला का पर्याय समझ लिया गया है और
उसे ही क्रांतिकारी कला-विधा मान बैठे हैं कुछ लोग। जबकि कोई भी कला अपने ‘फॉर्म’ की वजह से नहीं, बल्कि कथ्य से
जनपक्षीय या जनविरोधी होती है। कविता, संगीत, चित्रकला या कार्टून जैसी कलाविधाओं में
समसामयिक घटना या परिस्थिति पर किसी व्यक्तिविशेष की तत्काल प्रतिक्रिया संभव है।
लेकिन रंगमंच के परम्परागत ‘फॉर्म’ में इसकी अभिव्यक्ति तत्काल संभव नहीं हो
पाती। ‘स्ट्रीट प्ले’ या ‘नुक्कड़ नाटक’ रंगमंच की तात्कालिक प्रतिक्रिया का सशक्त
माध्यम है। अगर इस जनसुलभ लोकप्रिय कला-विधा में पेशेवर दक्षता अथवा कलात्मक
सौंदर्य की मांग की जाती है, तो गाली-गलौज की भाषा में उसका प्रतिकार समझ में
नहीं आता। व्यापक जन समुदाय तक पहुँचने के कारगर और प्रभावकारी जनसंचार माध्यम
होने के कारण, प्रचार के लिए नुक्कड़ नाटक का खूब इस्तेमाल हुआ है। फिर वह चाहे
राजनीतिक अथवा अन्य किसी प्रयोजन से किया गया हो। यह ग़लत भी नहीं है। इसीलिए
पश्चिम बंगाल में इसे ‘पोस्टर प्ले’ भी कहा गया। वैसे यह बात दीगर है कि हर
अच्छी कला, अच्छा प्रचार भी है। यहाँ मैं भारतीय उपमहाद्वीप के महान नाटककार, रंगकर्मी और
नाट्यशिल्पी उत्पल दत्त का उल्लेख करना चाहूँगा। रंगमंच के क्षेत्र में उनके अवदान
और उनकी नाट्यकला से सभी परिचित हैं। वे हर चुनाव के समय सीपीएम के प्रचार के लिए ‘पोस्टर प्ले’ किया करते थे। किंतु
वे जिस रंगमंच के लिए जाने जाते थे, वह भिन्न था। उनका वह रंगमंच भव्य, सुंदर और पूरी तरह ‘पेशेवर’ था। बल्कि यदि यह
कहा जाए कि उन्होंने ‘पीपुल्स थियेटर’ का नया सौंदर्यशास्त्र गढ़ा,तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
थियेटर में किस से ज़्यादा प्रभावित
हैं?
थियेटर में मैं बी.वी.कारंथ से बहुत प्रभावित
हूँ।
राष्ट्रीय रंगमंच में एन.एस.डी. की
क्या भूमिका है?
राष्ट्रीय रंगमंच से हमारा मतलब सिर्फ हिंदी
रंगमंच से नहीं होना चाहिए। इस विषय पर बी.वी.कारंथ का कहना था कि कई
राष्ट्रीयताओं को मिलाकर हमारा देश बना है तो क्या मलयालम, कन्नड़, बंगला आदि का रंगमंच
राष्ट्रीय रंगमंच नहीं है? रंगमंच एक स्थानीय परिघटना है। रंगमंच का स्वरूप
क्षेत्रीय होता है ओर यह एक स्थानीय घटना है पर हिंदी के साथ ऐसा नहीं है क्योंकि
यह कहीं की क्षेत्रीय भाषा नहीं है। कई बार लोगों को भ्रम होता है कि हिंदी
राष्ट्रभाषा है तो हिंदी का रंगमंच राष्ट्रीय रंगमंच भी है। अगर आप देखें तो
पाएंगे कि मराठी रंगमंच में मंचित होने वाले 95% मंचित नाटक मराठी में ही लिखे हुए होते
हैं, जो 90% से 95% तक मराठी क्षेत्रीयता
से जुड़ा होता है। जो लोग कहते हैं कि हिंदी हमारी मातृभाषा है तो दरअसल वे लोग
झूठ बोल रहे होते हैं। अलग-अलग क्षेत्रीय भाषाओं के लोग मिलते हैं, तो वे हिंदी में बात
करते हैं। हिंदी के इसी चरित्र के कारण हिंदी रंगमंच का चरित्र भी उसी प्रकार का
हो गया है। हम जिस टकसाली हिंदी भाषा में नाटक कर रहे होते हैं, दुर्भाग्य से वह
किसी छोटी जगह की भाषा हो सकती है इसलिए अलग-अलग बोलियों को बोलने वाले लोग हिंदी
रंगमंच के अभिनेता हैं। इसलिए हिंदी भाषा की जो अलग-अलग रंगत है, वह हिंदी रंगमंच पर
दिखाई देती है। हिंदी रंगमंच में महज़ 40% ही नाटक होता है, जो हिंदी में लिखा
हुआ है, बाकी का 60% से 70% नाटक अनुवाद का है। आप बताएँ कि हिंदी
के कितने नाटक अनूदित होकर बांग्ला में खेले जा रहे हैं? पर बांग्ला से हिंदी में कई नाटकों का
अनुवाद हुआ है, जिनके मंचन भी लगातार हो रहे हैं। अन्य भाषाओं की अपेक्षा हिंदी
क्षेत्रीय अस्मिता को व्यक्त नहीं करती।
बांग्ला और मराठी थियेटर की तरह हिंदी
रंगमंच आज भी आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है, क्यों? इसके पीछे कौन से तत्व हैं?
हिंदीभाषी क्षेत्र एक व्यापक क्षेत्र है। बांग्ला
या मराठी की तरह यह क्षेत्रीय भाषा नहीं है। क्षेत्रीय भाषा के प्रति जो आग्रह
मराठी या बांग्लाभाषी क्षेत्रों के लोगों में है, वह हिंदीभाषी क्षेत्रों के लोगों में नहीं
है। पहला तो यह कारण है। और दूसरा जो बड़ा कारण है, वह यह है कि कला व संस्कृति हमारे दैनिक
जीवन के अंग नहीं हैं। महाराष्ट्र और बंगाल में संगीत, नृत्य और नाटक उनके सांस्कृतिक जीवन का
अंग है, दैनिक जीवन का अंग है। चूँकि क्षेत्र विशेष की वह संस्कृति है जो अपने
क्षेत्र के प्रति ज़्यादा जागरूक है, ज़्यादा आग्रही है। इसी सांस्कृतिक अस्मिता के
प्रति जागरूकता के कारण अपनी कला,नृत्य, संगीत, नाटक के प्रति मराठी और बांग्ला थियेटर के
लोग ज़्यादा जागरूक है। हिंदी वाला क्षेत्र एक बड़ा-सा अपरिभाषित क्षेत्र है।
इसलिए उसमें अपनी सांस्कृतिक अस्मिता को लेकर वह आग्रह नहीं है, जो आग्रह बांग्ला और
मराठी थियेटर में है। कोई बंगाली परिवार हो, उसमें कोई लड़का हो या लड़की, नाटक करना चाहे तो
कोई विरोध नहीं करेगा, बल्कि इन्करेज करेगा। मगर हमारे यहाँ ‘‘क्या फायदा होगा?क्या करोगे नाटक
करके?’’ इस तरह के सवाल होंगे। हमारे सामुदायिक जीवन का जो इन्वॉल्वमेंट है, वह धार्मिक कर्मकांड
में ज़्यादा है। यह सांस्कृतिक गतिविधियों से कटा हुआ है। हमारे यहाँ सांस्कृतिक
अभिव्यक्ति के जो माध्यम हैं, वे धार्मिक पर्व-त्यौहार ही हैं। हम लोगों ने अभी
कला को अपने जीवन का अंग नहीं बनाया है। हमने कला को कुछ विशिष्ट बनाए रखा है, जिसे कुछ विशिष्ट
लोग ही करते हैं। कुछ ही लोग हैं, जो कलाकार हैं। कुछ लोग हैं, जो कविता लिखते हैं।
हमारे यहाँ कोई पेशेवर लेखक भी नहीं होता। हमारे यहाँ कलाकर्म को पेशे के रूप में
मान्यता ही नहीं है। यह कोई विशेष चीज़ है, जो ईश्वर के द्वारा प्रदत्त है और उसे उसी
रूप में रखना है। उसे हम एक खास तरह का सम्मान देंगे पर उसे अपने दैनिक जीवन का
हिस्सा नहीं बनाएंगे। बंगाल में तीन सौ पचास साल का आधुनिक रंगमंच का इतिहास है।
हमारे यहाँ वैसी निरंतरता नहीं है। हमारे यहाँ एक आंदोलन हो, वह सम्पुष्ट हो, इससे पहले ही कोई
दूसरी प्रवृत्ति जन्म ले लेती है। आधुनिक बांग्ला रंगमंच ने ‘जात्रा’ से भी संबंध बनाए
रखा और वह धीरे-धीरे यथार्थवादी रंगमंच में विकसित हुआ। बांग्ला और मराठी रंगमंच
अपना विकास शैलीबद्ध रूप में कर रहा है। हमारे यहाँ ऐसा नहीं है। हमारे यहाँ हर
पाँच-दस साल बाद ट्रैक चेंज होता रहता है। हिंदी में मुख्य धारा के रंगमंच का अभाव
है। इप्टा का जो आंदोलन था - मुख्य धारा के निर्माण का आंदोलन था, जबकि बांग्ला और
मराठी रंगमंच में मुख्य धारा का रंगमंच पहले से मौजूद है। हमारे यहाँ रंगमंच का जो
स्वरूप है, वह प्रायोगिक है। इसलिए यह स्वाभाविक बात है कि प्रायोगिक कला को
दर्शक कम ही मिलेंगे। मुख्य धारा की जो कला होती है, उसको जनता का संरक्षण मिलता है पर जो
प्रायोगिक कला है, उसको समाज के विशिष्ट लोगों द्वारा ही संरक्षण प्राप्त होता है। हिंदी
का जो भी बचाखुचा रंगमंच है, वह ऐसे ही कुछ लोगों द्वारा संरक्षित है। यहाँ यह
भी उल्लेखनीय है कि हिंदी के ‘पान-इंडियन’ आरोपित चरित्र के कारण इसका कोई क्षेत्रीय
चरित्र भी नहीं बन सका है। फलस्वरूप हिंदी रंगमंच, अब तक अपनी विशिष्ट पहचान स्थापित नहीं कर
सका। क्या यह ज़रूरी है कि बिहार का हिंदी रंगमंच, मध्यप्रदेश के हिंदी रंगमंच से अलग हो? कई बार लगता है कि
क्या स्व. भाई अलखनंदन के ‘बोली का रंगमंच’ की प्रासंगिकता बढ़ नहीं गई है और इस
अवधारणा पर गंभीरता से काम किया नहीं जाना चाहिए?
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की आलोचना
कहाँ तक ठीक है?
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय हमारे ‘सिस्टम’ का ही एक अंग है। वह
शुष्क पूँजीवादी रूझान और कई विरोधाभासों का शिकार है। नतीजतन यह कला प्रशिक्षण
संस्थान, एक कलावादी और रूपवादी ‘नाट्य मॉडल’ के केन्द्र के रूप में परिवर्तित होता जा
रहा है या हो गया है। किंतु भारतीय उपमहाद्वीप के रंगमंच के क्षेत्र में एनएसडी के
सकारात्मक योगदान को कम करके नहीं आँका जा सकता। आवश्यकता इस बात की है कि आज उसकी
भूमिका की वस्तुनिष्ठ समीक्षा की जाए। मुझे स्व. नेमिचंद जैन के साथ जन नाट्य की
समस्या पर नब्बे के दशक में हुई मुसलसल बीस याद आ रही है। नेमि जी इप्टा के
प्रारम्भिक दौर के संगठनकर्ता थे। बाद में वे उससे अलग हो गए थे और उसकी आलोचना
किया करते थे। उन्होंने तब कहा था ‘‘इप्टा या पीपुल्स थियेटर से जुड़े नाट्यकर्मियों
को ‘क्या
करना है’ यह तो पता होता है, किन्तु ‘कैसे करना है’, यह नहीं पता होता।’’ दरअसल नेमि जी यहाँ
थियेटर के ‘फॉर्म’, ‘क्राफ्ट’ और ‘डिज़ाइन’ के महत्व को रेखांकित करना चाहते थे। उनकी
बात एक हद तक प्रासंगिक भी थी, परंतु थियेटर सिर्फ ‘फॉर्म’, ‘क्राफ्ट’ और ‘डिज़ाइन’ ही नहीं है। अगर पारम्परिक शब्दावली का
प्रयोग करें तो यह ‘डिज़ाइन’ रंगमंच के केन्द्रीय तत्व ‘अभिनय’ का एक अंग ‘आहार्य’ मात्र है। फॉर्म या
रूप के प्रति आक्रामक आग्रह का सबसे बड़ा जो नुकसान हुआ है, वह है - अभिनेता का
महत्वहीन होते जाना। ऐसे दौर में, रंगमंच रूपवाद से कैसे बच सकता है? हर नाट्य रचना कथ्य
के अनुसार ही अपना रूप या फॉर्म चुनती है और यही दर्शकों की रंगमंच की ज़रूरत के
अनुसार, उनकी नाट्य भाषा में, उनकी आशा-आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करने में सक्षम
होती है।
‘‘हर नाट्य रचना कथ्य के अनुसार ही अपना रूप या
फॉर्म चुनती है और यही दर्शकों की रंगमंच की ज़रूरत के अनुसार, उनकी नाट्य भाषा में, उनकी आशा-आकांक्षाओं
को अभिव्यक्त करने में सक्षम होती है।’’ - क्या यह स्पष्ट नहीं है कि ये पंक्तियाँ
एनएसडी, जिसे मैंने ‘शुष्क पूँजीवादी रूझान और कई विरोधाभासों का
शिकार, कलावादी-रूपवादी नाट्य केन्द्र’ के रूप में रेखांकित किया है, के लिए है और यह भी
कि एनएसडी, दर्शकों की नाट्य भाषा में, उनकी आशा-आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति करने
में सक्षम नहीं है। अब इसे एनएसडी के प्रति मेरे ‘नर्म रूख’ के रूप में देखा जाए, तो मैं क्या कह सकता
हूँ! एनएसडी ही नहीं, लगभग हर सत्ता-सम्पोषित संस्थान, अपने मूल उद्देश्य
के प्रति लापरवाह है या विरोधाभास का शिकार है। यह कितना बड़ा विरोधाभास है कि जिस
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय को नाट्य कला के प्रशिक्षण के उद्देश्य से स्थापित किया
गया, वह
रंगमंच के लिए नहीं, बल्कि टी.वी. और सिनेमा के लिए मानव संसाधन
जुटाने के केन्द्र के रूप में काम कर रहा है। क्या यह भी सच नहीं है कि एनएसडी में
प्रवेश के इच्छुक अधिकांश रंगकर्मी, अंततः सिनेमा में जाने की सीढ़ी के रूप में ही
एनएसडी का उपयोग करना चाहते हैं? ठीक वैसे ही, जैसे आईआईटी या मेडिकल स्नातक - भारतीय
प्रशासनिक सेवा (आईएएस) में प्रवेश के लिए इंजीनियरिंग या मेडिकल कॉलेज को सीढ़ी
की तरह इस्तेमाल करते हैं। किंतु दोष केवल युवकों का नहीं है, बल्कि यह पूरे ‘सिस्टम’ के विरोधाभास का
परिचायक है। जहाँ तक एनएसडी के वर्चस्व की बात है, तो इसे क्षेत्रीय स्तर पर नाट्य विद्यालय
की स्थापना से निरस्त किया जा सकता है। इस बात पर ज़ोर दिया जाना चाहिए कि विभिन्न
राष्ट्रीयताओं वाले देश में कोई एक नाट्य विद्यालय नहीं होना चाहिए, बल्कि हरेक क्षेत्र
का अपना एक नाट्य विद्यालय होना चाहिए।
नाटक के क्षेत्र में ‘शिल्प’ और ‘क्राफ्ट’ के प्रशिक्षण में एनएसडी की भूमिका
महत्वपूर्ण है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय रंगमंच को लाने में एनएसडी की अहम
भूमिका है। एनएसडी का नाट्य सौंदर्य या शिल्प में जो योगदान रहा है, वह रेखांकित करने
योग्य है। एनएसडी का नकारात्मक पक्ष यह है कि नाटक में केन्द्रीकरण हो गया है, उसका विकेन्द्रीकरण
होना चाहिए, हरेक क्षेत्र में नाट्य प्रशिक्षण विद्यालय एवं रंगमंडल स्थापित होने
चाहिए। प्रगतिशील रंगमंच में कन्टेन्ट ओर विचार की कोई कमी नहीं है पर ‘कैसे कहना है’, यह अभी तक नहीं बन
पाया है। यह तभी संभव हो सकता है, जब आपको शिल्प का ज्ञान हो और इस शिल्प के
प्रशिक्षण में एनएसडी की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। सुर, क्रिएटिविटी तथा कला
का विकास व्यक्ति स्वयं करता है पर शिल्प का ज्ञान प्रशिक्षण से ही आता है।
हाल के कुछ वर्षों में राष्ट्रीय फलक
पर एकल नाट्य या सोलो प्ले को लेकर काफी तीखी बहस हो रही है। कुछ बड़े रंगकर्मियों
का मानना है कि यह सामूहिक थियेटर का निषेध करता है।
हाँ, इधर कुछ वर्षों से एकल नाट्य या सोलो प्ले
की काफी चर्चा रही है। देखिए, मैं बार-बार इस बात को रेखांकित करता हूँ कि
रंगमंच अभिनेता का माध्यम है, किंतु दुर्भाग्यवश रंगमंच में अभिनेता की अलग
पहचान नहीं बन पाई है। इस पहचान के बिना रंगमंच की पहचान भी संभव नहीं है। एकल
अभिनय पूरी तरह अभिनेता का रंगमंच है। यह एक अभिनेता को उसके द्वारा अर्जित अनुभव,कार्यदक्षता और
कल्पनाशीलता के प्रदर्शन का स्वतंत्र अवसर उपलब्ध करता है और उसे उसकी जादुई शक्ति
के साथ रंगमंच पर प्रतिष्ठापित भी करता है। एकल नाट्य या एकल अभिनय किसी भी स्तर
पर सामूहिकता का निषेध नहीं करता, बल्कि यह सामुदायिक जीवन का अंग होता है क्योंकि
यह व्यापक दर्शक समुदाय को सम्बोधित होता है। ऊपरी तौर पर एकल अभिनय भले ही सरल
लगता हो, किंतु वास्तव में यह ‘समूह अभिनय’ से ज़्यादा जटिल है और कल्पनाशीलता तथा
नाट्य कौशल में सिद्धहस्त अभिनेता की मांग करता है। समूह अभिनय में, जहाँ अनेक अभिनेताओं
की क्रिया-प्रतिक्रिया के संघर्ष से नाट्य-प्रभाव की सृष्टि होती है, वहीं एकल अभिनय में, अभिनेता के भीतर
समूचा नाट्य-व्यापार घटित होता है, जो उसकी शारीरिक क्रिया द्वारा मंच पर साकार होता
है। एकल अभिनय, मूल धारा के समूह अभिनय के विरुद्ध नहीं है, बल्कि यह उसे
सम्पुष्ट करता है, बल प्रदान करता है। यह रंगमंच की सबसे अधिक अनिवार्य इकाई अभिनेता को
विशेष पहचान देता है, उसके प्रति दर्शकों की आस्था को शक्ति प्रदान
करता है। इस प्रकार यह रंगमंच के नायक ‘अभिनेता’ को पुनर्स्थापित करने का महत्वपूर्ण कार्य
करता है।
बांग्ला रंगमंच में एकल अभिनय की परम्परा काफी
वर्षों से है। तृप्ति मित्र-साँवली मित्र के एकल प्रयोग का भारतीय रंगमंच में उच्च
मूल्यांकन किया जाता है। बाऊल एक तरह का एकल नाट्य ही है। महान बांग्ला अभिनेता
शांतिगोपाल द्वारा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित ‘लेनिन’, ‘कार्ल मार्क्स’, ‘सुभाषचन्द्र’, ‘राममोहन रॉय’ आदि पर मंचित जात्रा, एक हद तक उनका एकल
अभिनय ही था। इधर कुछ वर्षों में हिंदी, कन्नड़, मराठी और अन्य भारतीय भाषाओं में एकल
अभिनय के अनेक अभिनव प्रयोग किये गये हैं। पटना में ‘नटमंडप’ द्वारा इस सिलसिले को पिछले कुछ वर्षों से
गंभीरता से आगे बढ़ाया गया है। बिहार के अन्य कतिपय रंगकर्मियों द्वारा भी एकल
अभिनय के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किए हैं।
रंगमंच के लिए किसी नाट्य प्रयोग की प्रासंगिकता, उसके द्वारा
सम्पूर्ण नाट्य प्रभाव की सृष्टि और नाट्यकला का आस्वाद करा पाने की उसकी क्षमता
में अंतर्निहित है। इसलिए एकल अभिनय एक सामान्य नाट्य मंचन जैसा ही है, जिसमें एक अकेले
अभिनेता के अतिरिक्त, किसी दूसरे अभिनेता की उपस्थिति की आवश्यकता नहीं
होती और इसकी सफलता भी इसी में है कि दर्शक को किसी भी क्षण किसी अन्य अभिनेता के
न होने का अहसास न हो। एकल अभिनय को रंगमंच के एक‘फॉर्म’ अथवा शैली के रूप में दर्शकों की स्वीकृति
भी मिल रही है और यह रंगमंच के हित में है।
आप का एकल अभिनय की ओर मुड़ना, कोई सचेत सृजनात्मक चुनाव है या
परिस्थितियों से पैदा हुई मजबूरी?
दोनों ही बात है। व्यक्तिगत और सांगठनिक स्तर पर
जो आपकी सीमा होती है, उसको संभावना के रूप में परिवर्तित करना चाहिए।
जैसा कि मैंने ऊपर भी कहा कि कैरियरिस्ट लड़कों का सामंजस्य मेरे साथ नहीं बन
पाता। मैं किसी नाटक को लेकर चार से छः महीने तक पूर्वाभ्यास करता हूँ और इतना
धैर्य और पेशेन्स आज के युवाओं में बहुत ही कम देखने को मिलता है।
आपने जब रंगकर्म शुरु किया था, उस दौर के रंगकर्म और आज के रंगकर्म
में क्या फर्क है?
उस वक्त के रंगकर्म और आज के रंगकर्म में यह फर्क
है कि उस वक्त के रंगकर्मी व्यावहारिक होते थे। उन्हें इल्म होता था कि रंगमंच को
आजीविका का साधन नहीं बनाया जा सकता। अगर उनके अंदर किसी तरह की संवेदनशीलता है तो
वे वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण रंगमंच से जुड़े हुए हैं। एक खास तरह की ईमानदारी
वहाँ मौजूद थी। उस समय ज़्यादातर लोग इसलिए भी जुड़े हुए थे कि वे किसी खास
विचारधारा से जुड़े हुए थे और उनको लगता था कि रंगमंच के जरिए हम इसको एक
अभिव्यक्ति दे सकते हैं। कुछ लोग ऐसे थे, जो रंगमंच के प्रति प्रतिबद्ध थे और अच्छा
नाटक करना चाहते थे। यह बात दोनों तरह के लोगों को पता थी कि रंगमंच हमको आजीविका
नहीं दे सकता। ये सभी लोग अपनी आजीविका का इंतज़ाम कर के रंगमंच कर रहे थे। आज
नब्बे प्रतिशत ऐसे लोग हैं, जिनके पास आजीविका का अपना साधन नहीं है फिर भी
वे चौबीस घण्टे रंगमंच करने की बात कर रहे हैं। यह बात अपनआप में ही
गैरजिम्मेदाराना है कि जब आज भी रंगमंच को आजीविका बनाने की स्थिति नहीं है तो भी
आप चौबीस घण्टे रंगमंच कर रहे हैं। इस स्थिति में निश्चित तौर पर, एक समय के बाद आपका
जो पूरा फोकस है, ध्यान जो है, इस बात पर रहेगा कि क्या करें कि कुछ पैसा हम
इकट्ठा करें, अनुदान कैसे मिले, किसी परियोजना में कैसे हमें शामिल कर लिया जाए!
पहले का जो रंगमंच था, परियोजना के लिए किया जाने वाला रंगमंच नहीं था, पर आज रंगमंच का जो
बड़ा हिस्सा है, वह अनुदान और परियोजना के लिए किया जाने वाला रंगमंच है। और यह कहना
कि पुराना रंगमंच पुराने तरह का था और आज जो है, वह नए तरह का आधुनिक रंगमंच है। इससे हम
सहमत नहीं हैं। उस दौर के रंगमंच ने जो मापदंड स्थपित किए हैं, आज का रंगमंच उस
मापदंड को छू नहीं पाया है। उस समय के रंगमंच ने जो उपलब्धियाँ अर्जित की हैं, वैसी उपलब्धि आज का
रंगमंच अर्जित नहीं कर पा रहा है। हाँ,व्यक्तिगत स्तर पर कुछ लोगों ने उपलब्धियाँ
अर्जित कर ली हों, लेकिन इसे सांस्कृतिक विकास का परिणाम नहीं कहा जा सकता। उस समय
रंगमंच में ज़्यादातर पढ़े-लिखे लोग थे, जो यूनिवर्सिटी टॉपर भी थे। ज़्यादातर लोग
बौद्धिक स्तर पर बहुत समृद्ध थे और उनमें कई आईएएस, आईपीएस, प्रोफेसर आदि हुए या सरकारी सेवा में गए।
अभी मीडियॉकर्स की भीड़ ज़्यादा है। जो कुछ नहीं कर पाते, वे यहाँ चले आते हैं, कलाकार बन जाते हैं।
उनको लगता है कि चार तरह का एक्शन करना है, जो हम रोज करते हैं, तो इससे आसान तो दुनिया
में कुछ है ही नहीं। तो उनको सबसे आसान यही लगा। चूँकि पेंटिंग समझने के लिए उनको
रंग समझना होगा, ब्रश समझना होगा; संगीत में रियाज़ करना होगा; नृत्य में घंटो-घंटो
पद-संचालन सीखना होगा तो सबसे आसान यही लगा कि यहाँ आ जाओ। ऐसे ही लोग सबसे
ज़्यादा कलाकार होने की बात करते हैं। हम लोग आज तक कभी नहीं कह पाए कि हम कलाकार
हैं। अगर हैं तो हैं। कलाकार होना बहुत बड़ी बात है। एक खास जगह पहुँचने के बाद
कोई कलाकार होता है। आप कलाकार हैं या नहीं, ये जनता पर छोड़ दें। क्या आज थियेटर में
सक्रिय जितने लोग हैं,वे सब कलाकार हैं? चार नाटक कर लेना, चार संवाद बोल लेना, मंच पर चार कदम चल
लेना अभिनय नहीं है। ऐसे लोगों का रूझान इस बात पर है कि इस माध्यम से ज़्यादा से
ज़्यादा पैसा कैसे आए, नाम हो, ग्लैमर हो! निम्न प्रतिभा की जमात रंगमंच
पर आई है और अल्टीमेटली यह दोष व्यवस्था का ही है।
सरकारी फंडिंग के पैसे या अनुदान ने
रंगमंच को कितना फायदा या नुकसान पहुँचाया है?
ये जो प्रयोजन होता है और जो अनुदान मिलता है, उससे नाटक करने वाले
लोगों की एक बड़ी संख्या इसलिए भी जुड़ती है कि किसी प्रयोजन-विशेष या
अनुदान-विशेष के लिए नाटक मंचित कर या लिखकर वह एक बड़ी राशि पा लेते हैं।
ज़्यादातर ऐसे ही लोगों की संख्या है, जो योजना को भुनाना चाहते हैं। यह रंगमंच
के हित में नहीं है। आप इन आयोजनों को अपनी रचनाशीलता में शामिल करते हैं तो ठीक
है वरना यहाँ ज़्यादातर लोग अनुदानजीवी और परियोजनाजीवी हैं। पर ऐसे लोग भी हैं, जो बिना अनुदान के
भी बढ़िया काम कर रहे हैं। आजकल ज़्यादातर लोग अनुदान के हिसाब से नाटक करते हैं,नाटक के लिए अनुदान
नहीं लेते।
भूमंडलीकरण ने रंगमंच और रंगकर्म को
कितना प्रभावित किया है?
स्वाभाविक सा है कि भूमंडलीकरण ने जब जीवन के हर
हिस्से को प्रभावित किया है, तो रंगमंच इससे अछूता नहीं है। रंगमंच पर इसका
सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह का प्रभाव पड़ा है। सकारात्मक प्रभाव यह है कि
आप अगर मोलियर या दोरियो फो जैसे विदेशी मूल के लेखकों के नाटक उठाते हैं तो आपको
वहाँ के लोगों से भी मदद मिल जाएगी, वहाँ के लोगों से सम्पर्क किया जा सकता है, वर्चुअल स्पेस से आप
कई जानकारियाँ जुटा सकते हैं। अगर उस नाटक का प्रदर्शन ब्रिटेन में हुआ है और उसका
विडियों नेट पर डाला गया है, तो आप पलक झपकते उसे देख सकते हैं। नकारात्मक
प्रभाव जो पड़ा है, वह यह है कि इस विधा में आ रहे नए लोग जबरदस्त
रूप से कैरियरिज़्म के शिकार हो रहे हैं। रंगमंच हमारा कैरियर हो यह अच्छी बात है
पर उसके लिए आवश्यक मेहनत और गहराई होना चाहिए। चूँकि आजकल ऐसा नहीं है इसीलिए
युवाओं में एक समय के बाद वैचारिक स्तर पर गिरावट आ रही है।
समाज के प्रति थियेटर वालों का क्या
उत्तरदायित्व है या सामाजिक जिम्मेदारी है?
रंगमंच एक सामुदायिक कला है इसलिए बिना सामाजिक
जिम्मेदारी के रंगमंच की कल्पना नहीं की जा सकती। रंगमंच का काम जनता की
आकांक्षाओं पर खरा उतरकर मनोरंजन करना है।
आज के रंगमंच की बड़ी समस्या क्या है?
रंगमंच-कला की जो सबसे बड़ी खासियत है, वह है रंगमंच होने
की शर्त, जो आज हमारी रचना से गायब होते जा रही है। कोई बात, जो कविता में ही कही
जा सकती है, कविता में ही ज़्यादा ज़ोरदार ढंग से अभिव्यक्त होगी इसी तरह
अच्छा रंगमंच वही है, जो यह सिद्ध करे कि ये जो रचना है, इसकी अभिव्यक्ति
रंगमंच से ही हो सकती थी। रंगमंच से रंगमंचत्व या थियेटरनेस गायब होता जा रहा है
धीरे-धीरे।
कुछ लोगों का यह भी आरोप है कि आपका
काम करने का तरीका पुराना है। आप रंगमंच की युवा पीढ़ी के साथ सामंजस्य स्थापित
नहीं कर पा रहे हैं, जिसके कारण बिहार के सबसे बड़े
रंग निर्देशक को संगठन जैसी समस्या से दो-चार होना पड़ रहा है?
अगर आप काम करेंगे तो संगठन जैसी समस्या नहीं
होती है। ये मामला संगठन का नहीं है। हो सकता है कि नई पीढ़ी के रंगकर्मी जल्दी
रिज़ल्ट चाहते हों। उनमें संयम नहीं है, धैर्य नहीं है। वे ज़्यादा रिज़ल्ट
ओरिएंटेड हैं। उनकी जो पूरी मानसिकता बनी है, वह आज के समाज की मानसिकता है। आजकल लोग
सोचते हैं कि मंज़िल पर पहुँचने का जो रास्ता है, उसे कैसे ज़्यादा से ज़्यादा छोटा किया
जाए। हम जब भी कोई काम करते हैं तो अच्छा समय लेते हैं - दो-तीन महीना। हमारे नए
मित्रों को लग सकता है कि यहाँ कुछ ज़्यादा ही समय व्यय होता है। हमारा जो रंगमंच
है, वह
शब्द-आधारित है। इसलिए मेरा सबसे ज़्यादा ज़ोर इस बात पर होता है कि जिस भाषा में
आप नाटक कर रहे होते हैं, उस भाषा के प्रति उनका खास तरह का प्रशिक्षण किया
जाए, उनको
नाटक के पाठ के साथ जोड़ा जाए। तो यह प्रक्रिया उन्हें कुछ लम्बी, उबाऊ और पकाऊ भी लग
सकती है। कुछ लोगों को यह सब पुराना भी लग सकता है। अभी जो नए निर्देशक हैं, जो नाटक कर रहे हैं, वे इस प्रक्रिया से
ठीक उलट, पहले अभिनय पर काम करते हैं। पाठ पर वह काम ही नहीं करते। अगर हमारी
प्रक्रिया को पुरानी कह रहे हैं तो है यह पुरानी और हम तो उसी तरह काम करते हैं।
इसके लिए कोई खेद नहीं है। कुछ युवा रंगकर्मी हैं, जो हमें प्यार करते हैं, उनके मन में कहीं
चाहत होती है कि वे मेरे साथ काम करें। मैं इस बात से अपने आप को सम्मानित महसूस
करता हूँ। लेकिन यह उनकी मेरे साथ काम करने की सदिच्छा मात्र है। वे कहते हैं, जो प्रोसेस है, काम तो बढ़िया होता
है पर आप लोग समय बहुत लेते हैं,ज़्यादा से ज़्यादा रगड़ते हैं। इप्टा छोड़ने के
बाद भी हमने प्रेरणा, प्राची और नटमंडप जैसे संगठनों के साथ काम किया।
तो समस्या संगठन की नहीं है।काम जब होगा, संगठन की समस्या तो नहीं होगी। अभी सरकारी
नौकरी और अपने परिवार के साथ जो मेरी व्यस्तता है, उसके हिसाब से ही योजना बनाते हैं और उतना
ही समय दे पाते हैं। अगर हम हफ्ते में तीन दिन ही समय दे सकते हैं तो जाहिर सी बात
है कि कम पात्रों वाला नाटक करना होगा। जो काम हम दो माह में कर सकते हैं, उसमें चार माह
लगेगा। इसलिए हम अपनी कमज़ोरी को संगठन पर नहीं लादना चाहते हैं। कोई संगठनात्मक
संकट नहीं है। हमने एक नाटक में अस्सी-अस्सी, सौ-सौ लोगों के साथ काम किया है। सच तो यह
है कि फिलहाल हम खुद समय नहीं दे पा रहे हैं।
रंगमंच में जो नई पौध आकार ले रही है, उनसे आप क्या कहना चाहेंगे?
वास्तविक स्थितियों का आकलन करने का प्रयास करें
और रंगमंच से दिल से जुड़ें, भावना से नहीं - इस बात को समझने की कोशिश करें।
तब आपको लगेगा कि हिंदीभाषी क्षेत्र का जो रंगमंच है, उसको अभी पेशे के रूप में मान्यता नहीं
मिली है। अगर आपको रंगमंच करना ही है तो पहले आपको अपनी आजीविका का प्रबंध कर लेना
चाहिए। दूसरा यह कि आप रंगमंच कला की जो विशिष्टता है, उसे पूरे प्रभाव के साथ अपनी रचनात्मकता
का अंग बनाएँ और रंगमंचीय कला की काव्यात्मक अभिव्यक्ति की दिशा में प्रयत्नशील
हों।
परवेज़ अख्तर - 1954 में गोरखपुर में जन्मे देश के प्रमुख
नाट्य-निर्देशक एवं डिज़ाइनर परवेज़ अख़्तर ने ‘कलासंगम’ पटना की प्रस्तुति ‘तुगलक’
से
गंभीर शुरुआत की। हिंदी में लोकप्रिय एवं मुख्य धारा के रंगमंच के निर्माण के लिए
समर्पित। अपनी रंगमंचीय संकल्पना, प्रस्तुति डिज़ाइन,कोरियोग्राफी, ध्वनि-संयोजन एवं वस्त्र-विन्यास के कारण
राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित व्यक्तित्व। प्रमुख निर्देशित नाटक- गिनीपिग, महाभोज, हानूश,सत्य हरिश्चन्द्र, माधवी, अंत नहीं, रशोमन,
बर्बरीक उबाच, दूर देश की कथा, मुक्तिपर्व, कलिगुला, अंधायुग, आदमखोर, आदमखोर, नाच्यो बहुत गोपाल, मंगनी बन गए करोड़पति, अरण्यकथा, न्यायप्रिय, बाघिन मेरी साथिन
आदि। सम्प्रति - विशेष कार्य पदाधिकारी, संस्कृति एवं युवा विभाग, बिहार सरकार।
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