भारत रंग महोत्सव के चौथे दिन का लेखाजोखा प्रस्तुत कर रहें हैं युवा रंगकर्मी व पत्रकार दिलीप गुप्ता
दिलीप गुप्ता संपर्क : 9873075824 एवं dilipgupta12@gmail.c om. आलेख जन सन्देश टाइम में प्रकाशित .
प्रसिद्द नाटककार, कहानीकार व उपन्यासकार मोहन राकेश ने कहा था कि जब कोई नाटककार अपना नाट्यालेख तैयार करता है तो वह सिर्फ एक आधारभूत ढांचा होता है. वह ढांचा मंच तक पहुँचने की अपनी पूरी निर्माण प्रक्रिया के बाद ही सम्पूर्ण अर्थ व स्वरुप ग्रहण करता है. इसी कारण एक ही नाटक अलग अलग नाट्य निर्देशकों के निर्देशन में नया स्वरुप गढता है. नाट्यालेख के अपने इसी ढांचागत स्वरुप के लचीलेपन के साथ कुछ नाटक समय की सीमाओं को लांघते हुए कालजयी का होने दर्जा पाते हैं, और अपनी प्रासंगिकता बार बार सिद्ध करते जाते हैं. धर्मवीर भारती का “अंधा युग” और मोहन राकेश का “आधे अधूरे” हिंदी के ऐसे ही विलक्षण नाटक हैं जिससे गुजरने की लालसा हर निर्देशक, अभिनेता को होती है.
अपने लेखन के ४२ साल बाद भी मोहन राकेश के नाटक “आधे अधूरे” का १४वें भारत रंग महोत्सव(भारंगम) के चौथे दिन मंचन और उसे देखने के लिए उमड़ी भीड़ इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है. फिल्म और रंगमंच में एक साथ सक्रिय अभिनेत्री और निर्देशिका लिलेट दुबे के निर्देशन में इस नाटक का मंचन कमानी सभागार में हुआ. हमारे समाज, परिवार, व्यक्ति और उनके पारस्परिक संबंधों में आये और लगातार आ रहे बदलावों के समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक पहलुओं को समझने की कोशिश करता यह नाटक आज भी लोकप्रियता के उसी शिखर पर है जहाँ यह आज से पहले था. भारंगम में मंचित इस नाटक को देखने आये दर्शकों को पुनः वही परेशानी झेलनी पड़ी जो “रेड हॉट” के समय झेलनी पड़ी थी. सभागार के अंदर प्रवेश बहुत देर से शुरू हुआ जिससे दर्शक नाटक के शुरुआती दृश्य देखने से वंचित रह गए.
भारंगम के चौथे दिन की एक अन्य उल्लेखनीय प्रस्तुति थी पोंडिचेरी विश्वविद्यालय के नाटक विभाग की प्रस्तुति “एक्टर्स आर नॉट अलाउड” जिसके लेखक और निर्देशक थे डॉ. वी.अरुमुघम. तमिल भाषा में खेला गया यह नाटक प्रतीकात्मक रूप से उन सामाजिक व राजनैतिक मुद्दों से जुडी हुई चिंताओं को उजागर करता है जो उन क्षेत्रो के आम अनुभव हैं, जहाँ अलोकतांत्रिक गतिविधियां रोजमर्रा की बात होती है, अराजक कानून व्यस्था अपने चरम पर है, सेना और सुरक्षा बालों का प्रमुख लक्ष्य आम आदमी पर अत्याचार है. इस तरह से आम आदमी का जीवन अपना मूल्य खोता जा रहा है.आज के दमन और विद्रोह के वातावरण में यह नाटक और प्रासंगिक हो जाता है जहाँ पर सफ़दर हाशमी जैसे रंगकर्मी की दिनदहाड़े सरेआम गोलियों से भूनकर ह्त्या कर दी जाती है, गुजरात जैसे नरसंहार होते हैं, मणिपुर में आम लोगो पर निर्मम अत्याचार होते हैं, किसान सामूहिक आत्महत्या करने पर विवश होते हैं, नंदीग्राम में लोगों की आवाज़ को दबाया जाता है. इस घोर संकट के समय में दमनकारी नीतियों पर चल रही सत्ताओं का कुचक्र जारी है. सत्ता के विविध संरचनाओं में पिसते आम आदमी के जीवन की इन्हीं विवशताओं को सामने लाने की कोशिश करता है यह नाटक. एक घेरे के अंदर खेले गए नाटक में दर्शक सीधे तौर पर एक सक्रिय अवयव भूमिका में होता है.
चौथे दिन की अन्य प्रस्तुतियों में “इन्कोसजाना” भी एक प्रयोगात्मक प्रस्तुति रही. केपटाउन विश्वविद्यालय और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के फेलोशिप छात्रों के परस्पर सहयोग से तैयार की गई यह प्रस्तुति एक लोक कथा पर आधारित है जिसका सम्बन्ध प्राचीन काल के क्झोसा प्रदेश से है जो अपनी जिद्दी रजा के कारण अभिशप्त है. जब इस राजा का शासन खत्म होता है, देश के लोग नए उत्तराधिकारी को नकार कर उस अभिशाप को खत्म करने का निर्णय लेते हैं और एक उपयुक्त रजा के चुनाव का प्रयास करते हैं जो उनपर शासन कर सके जैसा उनके पूर्वज चाहते थे.
यह प्रस्तुति अपने उर्जा से भरपूर होने का परिचय देती लेकिन बाकी अन्य स्तरों पर यह थोडा निराश भी करती है.
इस चौथे दिन की अन्य प्रस्तुतियाँ थीं देवाशीष सेनगुप्ता लिखित और निर्देशित बांग्ला नाटक “कोथाय पाबो तारे”, चंद्रशेखर कम्बार के ‘जो कुमारस्वामी’ पर आधारित प्रसिद्ध नाटक “तोता बोला” जिसका निर्देशन एनएसडी से इसी साल पासआउट सजल मंडल ने किया था. यह प्रस्तुति एनएसडी डिप्लोमा प्रस्तुति के तहत पहले भी मंचित हो चुकी है. बांग्लादेश की प्रस्तुति “चांडालिका” भी इस महोत्सव के चौथे दिन मंचित हुई, रविन्द्र नाथ टैगोर की इस रचना का निर्देशन किया बिभास विष्णु चौधरी ने.
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