भारत रंग महोत्सव के तीसरे दिन का लेखाजोखा प्रस्तुत कर रहें हैं युवा रंगकर्मी व पत्रकार दिलीप गुप्ता
प्रयोग, प्रतीक, शास्त्रीयता, आधुनिकता और लोक-कला के किसी कोलाज की तरह रहा १४वें भारत रंग महोत्सव(भारंगम) का तीसरा दिन. जहाँ भरपूर संभावनाओं से लवरेज युवा रंग निर्देशक मनीषा मित्र अपनी प्रस्तुति “जर्नी टू डाकघर” के साथ मंच पर एक नयी रंग भाषा का सृजन करते दिखे, वहीँ चर्चित फिल्म और टेलिविज़न अभिनेता, निर्देशक व पटकथाकार सौरभ शुक्ला अमरीकी नाटककार नील साइमन के “लास्ट ऑफ द रेड हॉट लवर्स” के रूपांतरण “रेड हॉट” के लिए पहले से ही चर्चा के केंद्र में थे.
इन प्रस्तुतियों के अलावा, प्रसिद्द रंग निर्देशक के. एन. पणिक्कर निर्देशित “खुद और खुदा” और कश्मीर की लोक नाट्य परंपरा भांड-पाथेर की शैली में शेक्सपियर के प्रसिद्द नाटक किंग लियर पर आधारित, वरिष्ठ निर्देशक एम. के. रैना निर्देशित नाटक “बादशाह पाथेर” की भी नाट्यप्रेमियों के बीच चर्चा रही. इन सबके अलावा अपने आप में एक अनूठी और निराली प्रस्तुति रही “बस्तर बैंड” जिसे भारंगम के तीसरे दिन का विशेष आकर्षण कहा जा सकता है.
श्रीलंका के असंगत नाटक “पयानिहाल” और कालिदास कृत ऋतुसंहार के डॉ. सरोज भारद्वाज द्वारा किये गए अनुवाद पर आधारित नाटक “मिराज” जो कि एन.एस.डी. डिप्लोमा प्रस्तुति के तहत मंचित हो चुका है और जिसका निर्देशन एन.एस.डी. से इसी साल पासआउट छात्र लोईटोम्बम पारिन्गान्बा ने किया था, तीसरे दिन की अन्य प्रस्तुतियों में शामिल रहीं.
रविन्द्र नाथ टैगोर के नाटक “डाकघर” व अन्य ऐतिहासिक स्रोतों पर आधारित नाटक “जर्नी टू डाकघर” टैगोर के रचना कर्म और उनके नाटक डाकघर की काव्यात्मक निर्माण प्रक्रिया को एक साथ रूपायित करता है. इसमें मनीष मित्र ने जिस तरह बांग्ला लोक तत्वों का प्रयोग आधुनिक नाट्य रुढियों के साथ किया यह प्रभावोत्पादक है. मनीष मित्र अपनी माटी को बखूबी जानते, पहचानते और समझते हैं, इस बात का प्रमाण उनकी यह प्रस्तुति “जर्नी टू डाकघर” है.
दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान पोलैंड के चिकित्सक और शिक्षक जानुष कोर्जेक अपनी देखरेख में पल रहे अनाथ बच्चों के लिए “द पोस्ट ऑफिस” नाटक का चुनाव करते हैं. मृत्यु के समय और तरीके का फैसला और उसपर अधिकार होने की पड़ताल ही कोर्जेक के लिए वह वजह बनती है, जिसके कारण ये इस नाटक के मंचन का फैसला करते हैं. इसी कथासूत्र को पकड़कर “जर्नी टू डाकघर” टैगोर के नाटक “डाकघर” और इस नाटक की निर्माण प्रक्रिया दोनों को अपना विषय बनाता है. इसके साथ ही “जर्नी टू डाकघर” नाटक डाकघर के मंचन के इतिहास और इसके माध्यम से उस तत्कालीन समय में पड़ने वाले प्रभावों को भी साझा करता है. मनीष मित्र मंच पर डाकघर की इस व्यापक यात्रा को बड़ी संजीदगी और तन्मयता के साथ पूरा करते हैं. आलेख पर मज़बूत पकड़, अभिनेताओं का सधा हुआ अभिनय, सेट डिजाईन, प्रकाश योजना और दिल तक उतर जाने वाला संगीत इन सबका जीवंत उदाहरण है“जर्नी टू डाकघर”.
अपनी शास्त्रीय पद्धति और व्याकरण के लिए सुविख्यात निर्देशक के.एन. पणिक्कर ने टैगोर की रचनाओं को आधार बनाकर “खुद और खुदा”एकल नाट्य प्रस्तुति को निर्देशित किया है जिसके अभिनेता हैं गिरीश सोपानम. व्यक्ति और सृष्टि, मानुषिक और दैवीय, मानव और ईश्वर, लघु और दीर्घ के बीच अनिवार्य सम्बन्ध पर विचार करती इस प्रस्तुति में के.एन.पणिक्कर ने उसी शास्त्रीय पद्धति का इस्तेमाल किया है, जिसके के लिए वे जाने जाते हैं. लेकिन हिंदी, अंग्रेजी, मलयालम और संस्कृत भाषाओँ में तैयार यह एकल प्रस्तुति दर्शकों को बांधने के लिए संघर्ष करती हुई नज़र आयी.
आम दर्शकों के बीच कल्लू मामा के नाम से मशहूर सौरभ शुक्ला अभिनीत और निर्देशित नाटक “रेड हॉट” गए दिनों हुए अपने मंचन से ही चर्चा में था. यही कारण है कि यह नाटक टिकट विक्री के पहले ही दिन “हॉउसफूल” से सुशोभित हो गया था. हालाँकि यह बात अलग है कि सभागार में कुछ सीटें खाली थीं.
नील साइमन के “लास्ट ऑफ द रेड हॉट लवर्स” का रूपांतरण “रेड हॉट” एकाकीपन और सामाजिक स्वीकृति की खोज करते हुए आधुनिक जीवन की छद्म वेशी परतों को मनोरंजक अंदाज़ में कुरेदता है. आज के समय में हम भीड़ में भागती लाशें हैं जहाँ कदम दर कदम एकाकीपन, ऊब और खंडन का अंदरूनी और बाहरी सतह पर एक साथ नज़र आ रहे हैं. एक साथ स्वीकृति और खंडन की विपरीत परिस्थितियों में जीने को अभिशप्त हो गए समाज की पड़ताल करता हुआ यह नाटक आगे बढ़ता है, और हमें खुद की विवशता पर हँसने का मौका देता है. सौरभ शुक्ला ने नाटक की हर एक चीज़ पर बड़ी शिद्दत के साथ कार्य किया है. नाटक में कुछ भी थोपा हुआ नहीं लगता है. सारी चीज़ें घटती हुई लगती हैं या कहें कि यह आलेख के साथ सटीक तालमेल के संग पैदा हुई हैं. सौरभ शुक्ला मंच पर बेहद ही जीवंत और उर्जा से भरपूर लगे वहीँ बाकी अभिनेत्रियों ने भी अपना भरपूर योगदान दिया.
ठेठ देसी और अपनी माटी की खुशबू व लोक परंपरा का बेजोड रूप है “बस्तर बैंड”. भारंगम के तीसरे दिन “बस्तर बैंड” की प्रस्तुति विशेष आकर्षण थी. कला प्रेमियों में इसको लेकर विशेष उत्सुकता थी. “बस्तर बैंड” बस्तर के आदिवासी लोक समूह का एक अद्भुत समूह है. पॉप और जैज जैसे बैंड की चकाचौंध में ये बैंड आउट ऑफ फैशन करार दिया जा सकता है लेकिन इसकी ताकत को नकारना कही से भी संभव नहीं हैं. लगभग लुप्त हो चुके वाद्य यंत्रो व मौखिक ध्वनियों के विशाल समूह की मनोहारी सिम्फनी अपने विशुद्ध गंवईपन के साथ एक ऐसा संसार रचती है जिसमे एक अरसिक भी अपने आप को उसमे डूबने से रोक नहीं सकता. लेकिन आशंका हो रही है कि कहीं बाज़ार की गिद्ध दृष्टि ऐसे कला रूपों पर न पड़ जाये जो अभी तक अपने आप को इस तरह की कुटिल कोशिशों से बचाए हुए है.
दिलीप गुप्ता संपर्क : 9873075824 एवं dilipgupta12@gmail.c om. आलेख जन सन्देश टाइम में प्रकाशित .
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