भारत रंग महोत्सव के पांचवें दिन का लेखाजोखा प्रस्तुत कर रहें हैं युवा रंगकर्मी व पत्रकार दिलीप गुप्ता
१४ वें भारत रंग महोत्सव(भारंगम) के पांचवें दिन, दिल्ली के एलटीजी सभागार के मंच पर अपनी महाकाव्यात्मक रचनात्मकता की वजह से हिंदी में किंवदती बन चुके गजानन माधव मुक्तिबोध की रचना ‘समझौता’ पर आधारित नाटक“समझौता” के साथ एक निर्देशक, एक अभिनेता और सात गायकों की एक टोली का समूह एक ऐसा समां बांधता है कि दर्शक सवा घंटे तक अपलक उसमे डूबने को विवश हो जाते हैं. जी हाँ, यहाँ बात हो रही है भारंगम के पांचवे दिन मंचित प्रस्तुतियों में शामिल प्रस्तुति “समझौता” की. प्रतिभावान युवा निर्देशक प्रवीण कुमार गुंजन के निर्देशन में मंचित इस एक पात्रीय नाटक को अपने सम्पूर्ण अभिनय से संवारा समर्थ युवा अभिनेता मानवेन्द्र त्रिपाठी ने.
दिलीप गुप्ता संपर्क : 9873075824 एवं dilipgupta12@gmail.c om. आलेख जन सन्देश टाइम में प्रकाशित .
भौतिक उपलब्धियों और सफलताओं को पाने की निरंतर खोज में जीवन मूल्यों और आदर्शों के साथ, हर पल समझौता करते जाना यानी कि विमुख होते जाना की थीम लाइन पर चलता हुआ यह नाटक हमारे सामने उन कड़वी सच्चाइयों का पर्दाफाश करता है, जहाँ चारो तरफ अँधेरा ही अँधेरा है. “जेब में बी.ए. की डिग्री है”, नाटक का नायक इस डिग्री को लेकर इस ऑफिस से उस ऑफिस तक बेतहाशा दौड़ता रहता है लेकिन उसे हर जगह हताशा और निराशा के अलावा और कुछ हासिल नहीं होता है. हर तरफ से असहाय नायक आखिरकार सर्कस का जोकर बनने का निर्णय लेता है लेकिन वहाँ भी साजिशें उसका पीछा नहीं छोडती हैं और वह सर्कस में एक जानवर बनने को अभिशप्त हो जाता है. सर्कस के उस मैनेजर की तरह हम सभी एक अदृश्य मैनेजर के इशारों पर हर पल एक समझौता करने को अभिशप्त हैं.
भारंगम की इस प्रस्तुति को बेशक इस बार के भारंगम की अब तक की सबसे बेहतरीन प्रस्तुतियों में शामिल किया जा सकता है और इसका असर आगे आने वाले दिनों तक रहेगा यह भी पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है. फिल्म और रंगमंच के सम्बन्ध में यह बात हमेशा से कही जाती रही है कि फिल्म एक निर्देशक का माध्यम है और रंगमंच एक अभिनेता का. फिल्म की बात को यहीं छोड़ते हुए रंगमंच की बात करें तो यह स्थिति गुजरे कुछ सालों से बदल गयी है. रंगमंच के केंद्र में निर्देशक आ गया है और अभिनेता की भूमिका गौण हो गयी है. लेकिन “समझौता” की यह प्रस्तुति इस बात को सिरे से नकारती है. इस नाटक में मानवेंद्र अभिनय की एक ऐसी ऊँचाई अर्जित करते है जो न सिर्फ मंत्रमुग्ध करती है बल्कि दर्शकों के दिलों तक सीधे उतरती है और नाटक के बाद भी अपना असर काफी लंबे समय तक बरकरार रखती है. मानवेन्द्र इस प्रस्तुति में एक सम्पूर्ण अभिनेता होने का सबूत पेश करते हैं. भरपूर उर्जा से लबरेज मानवेन्द्र की देह जहाँ पूरी लय में दिखती है वहीँ सुर भी उतना ही सधा हुआ नज़र आता है, साथ ही भावों की अभिव्यक्ति भी बड़ी तन्मयता के साथ मुखरित होती है. मानवेन्द्र अपने अभिनय में आधुनिक जीवन शैली के हाव भाव, अभिनय की लोक शैली के तत्वों व शास्त्रीय पद्धति के तत्वों को मिलाकर अभिनय का ऐसा यौगिक रसायन रचते हैं जहाँ प्रस्तुति एक काव्यात्मक स्वरुप ग्रहण कर लेती है. उनकी अभिनय शैली की विविधता उनकी अन्वेषी प्रवृति की परिचायक है. आज जहाँ रंगमंच में आने वाले अभिनेता अभिनय के एक आयाम पर कार्य करते हुए अपने रंगकर्म की इतिश्री मान लेते हैं वहीँ मानवेन्द्र का यह बहुआयामी अभिनय नए अभिनेताओं के लिए एक राह भी दिखाता है. “समझौता” को मानवेन्द्र के बेहतरीन और यादगार अभिनय के लिए निःसंदेह एक लंबे समय तक याद रखा जायेगा.
भले ही रंगमंच एक अभिनेता का माध्यम है लेकिन एक निर्देशक की भूमिका को भी नकारा नहीं जा सकता है. संभावनाशील युवा रंग निर्देशक प्रवीण कुमार गुंजन आधुनिक रंग दृष्टि के साथ ज़मीनी ताकतों और रंगमच की वास्तविक शक्तियों पर दृढ़ता से विश्वास करते हैं. मुक्तिबोध की कहानी “समझौता” एक ऐसी कहानी है जिसमे कई अंतर्धारायें निहित हैं, ऐसे में एक पैनी और सूझबूझ वाली निर्देशकीय दृष्टि की आवश्यकता और भी बढ़ जाती है. गुंजन यहाँ अपने उसी निर्देशकीय कौशल का इस्तेमाल करते हुए दीखते हैं. सेट के लिए गुंजन मंच पर एक बॉक्सिंग रिंग की तरह का रस्सियों से एक चौकोर घेरा बनाते हैं, जहाँ उसके चारों कोनों पर लैम्प पोस्ट का आभास देते चार पिलरनुमा स्तंभ हैं जिनके शीर्ष पर लाईट्स लगी हुई हैं. नाटक की थीम को मुखरित करता हुआ उनका सेट हो, ध्वनि-प्रभावों का इस्तेमाल हो या फिर मंच पर से गायक टोली का स्वर सब कुछ कहानी के अनुरूप और उसके प्रभाव की सघनता को बढाता हुआ है. इन सबमें गुंजन जिस निर्देशकीय कौशल का इस्तेमाल करते हैं वह उन्हें उस पंक्ति में खड़ा करता है जहाँ मानव कौल, सुनील शानबाग, मोहित तकलकर, और मनीष मित्र जैसे सम्भावनाशील व उर्जावान युवा निर्देशक एक बेहतर रंग सृजन को अंजाम दे रहे हैं. इस प्रस्तुति का एक और मज़बूत पक्ष था मशहूर रंग निर्देशक संजय उपाध्याय का संगीत.
भारंगम के पांचवें दिन की दूसरी चर्चित प्रस्तुति रही “पेकिंग ओपेरा”, इसे प्रस्तुत किया चीन के सेन्ट्रल एकेडमी ऑफ ड्रामा ने. अपने शिल्प और शैली के लिए विश्व भर में चर्चित यह ओपेरा संगीत, नृत्य, अभिनय और मार्शल आर्ट का अद्भूत संगम रही. ज्यांग यूज्यान निर्देशित “पेकिंग ओपेरा” को ६ भागों में बांटा गया है- परी द्वारा फूलों का बिखेरना, हरिताश्म के कंगन की प्रेमकथा, उत्सवी लालटेनों की सूची, जल विक्रय और फूल कीर्तन, बांस के उपवन में, सान्जिआंग युएहु नगर.
एक और प्रस्तुति में वरिष्ठ रंग निर्देशिका त्रिपुरारी शर्मा निर्देशित नाटक “बीच शहर” भारत में हुई सांप्रदायिक हिंसाओं के बाद तनाव को रेखांकित करता है. इंटेंस कथ्य पर आधारित इस नाटक में कई स्तरों पर बिखराव नाटक के असर को कम करते दिखा. हालाँकि अभिनेताओं की मेहनत ज़रूर दिखी.
अन्य प्रस्तुतियों में इंग्लैण्ड का नाटक “द गोल्डन ड्रैगन”, रोलैंड शिम्मलफेनिंग लिखित इस नाटक का निर्देशन किया था रमिन ग्रे ने, रविन्द्र नाथ टैगोर लिखित नाटक और डॉ. शुभाशीष गंगोपाध्याय निर्देशित नाटक “रक्त करबी”, एनएसडी डिप्लोमा प्रस्तुति के अंतर्गत तैयार प्रस्तुति “फेरस” जिसका निर्देशन किया था विष्णुपद बर्वे ने, अनिरुद्ध डी. वंकर लिखित व निर्देशित “घायल पाखरा” और सत्यजीत रे की कहानी ‘पतोल बाबू फिल्म स्टार” पर आधारित नाटक “तारामंडल” जिसका निर्देशन किया था नील चौधरी ने रहीं.
दिलीप गुप्ता संपर्क : 9873075824 एवं dilipgupta12@gmail.c
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