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मानवेन्द्र त्रिपाठी प्रस्तुति के दौरान |
मृत्युंजय प्रभाकर की समीक्षा
१४वें भारत रंग महोत्सव में बड़े पैमाने पर युवा रंग
निर्देशकों को मौका दिया गया है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के ही पूर्व छात्र
प्रवीण कुमार गुंजन उनमें से एक हैं। पिछले तीन वर्षों से लगातार उनकी
प्रस्तुतियां भारत रंग महोत्सव में आती रही हैं। "अंधा युग" जैसी स्मरणीय
प्रस्तुति से भारत रंग महोत्सव में अपनी शुरुआत करने वाले प्रवीण कुमार गुंजन इस
बार अपनी प्रस्तुति "समझौता" के साथ हाजिर हुए। मुक्तिबोध की कहानी पर
आधारित सुमन कुमार द्वारा नाट्यांतरित उनकी यह प्रस्तुति नई नहीं है। वर्षों पहले
वह इसे कई अभिनेताओं के साथ प्रस्तुत कर चुके हैं। इसी नाटक को कुछ साल पहले युवा
संस्कृति महोत्सव में पहला स्थान भी मिल चुका है। लेकिन इस बार यह प्रस्तुति इस
रूप में भिन्न है कि उन्होंने इसे एकल प्रस्तुति में बदल दिया है और छात्र-अभिनेता
मानवेंद्र त्रिपाठी के साथ तैयार किया है।

निश्चित तौर पर प्रवीण कुमार गुंजन की यह प्रस्तुति एक यादगार प्रस्तुति है और इसे यादगार बनाने में सबसे बड़ी भूमिका इसके अभिनेता मानवेंद्र त्रिपाठी की है। अपने अभिनय से वह दर्शकों का मन पूरी तरह मोहने का काम करते हैं। जिस प्रकार की शारीरिक और शाब्दिक दक्षता वह अपनी इस प्रस्तुति में दर्शकों के सामने प्रस्तुत करते हैं वह काबिलेगौर है। वहीं नाटक को बनाने में कोरस की भी बड़ी भूमिका है जो अभिनेता को न सिर्फ अभिनेता की अनुगुंज को ओज प्रदान करता है बल्कि उसे वांछित विराम का मौका देता है। हालांकि प्रस्तुति में कुछ चीजें ऐसी जरूर हैं जिनसे बचा जा सकता था, जैसे नाटक के बीच में डाले गए फिल्मी गीत, कुछ चुनिंदा रंगयुक्तियों के संदर्भ में भी यह कहा जा सकता है, पानी, रंग और दूसरी रंगयुक्तियां न सिर्फ बासी बल्कि आयातीत प्रतीत होती हैं। नाटक के पहले हिस्से में भी सुधार की गुंजाइश है।
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