रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

शुक्रवार, 20 जनवरी 2012

दर्शकों को भा गया यह समझौता


मानवेन्द्र त्रिपाठी प्रस्तुति के दौरान 

मृत्युंजय प्रभाकर की समीक्षा 

१४वें भारत रंग महोत्सव में बड़े पैमाने पर युवा रंग निर्देशकों को मौका दिया गया है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के ही पूर्व छात्र प्रवीण कुमार गुंजन उनमें से एक हैं। पिछले तीन वर्षों से लगातार उनकी प्रस्तुतियां भारत रंग महोत्सव में आती रही हैं। "अंधा युग" जैसी स्मरणीय प्रस्तुति से भारत रंग महोत्सव में अपनी शुरुआत करने वाले प्रवीण कुमार गुंजन इस बार अपनी प्रस्तुति "समझौता" के साथ हाजिर हुए। मुक्तिबोध की कहानी पर आधारित सुमन कुमार द्वारा नाट्यांतरित उनकी यह प्रस्तुति नई नहीं है। वर्षों पहले वह इसे कई अभिनेताओं के साथ प्रस्तुत कर चुके हैं। इसी नाटक को कुछ साल पहले युवा संस्कृति महोत्सव में पहला स्थान भी मिल चुका है। लेकिन इस बार यह प्रस्तुति इस रूप में भिन्न है कि उन्होंने इसे एकल प्रस्तुति में बदल दिया है और छात्र-अभिनेता मानवेंद्र त्रिपाठी के साथ तैयार किया है।

इस एकल प्रस्तुति में सबसे खास बात जो दिखती है, वह है इसकी प्रस्तुति शैली। एक रिंगनुमा विशेष स्टेज के घेरे में एक अभिनेता खड़ा है और अपनी अदाकारी से वह दर्शकों का दिल जीतता है। उसके अभिनय शैली में कोई भी रटा-रटाया फॉर्मूला नहीं है। वह सभी स्थापित अभिनय की रुढ़ियों को तोड़ता हुआ अपने गायन, शारीरिक गतियों, स्वर व शरीर आलोड़न, संवाद, सूत्रधारीय व्यक्तव्यों सहित कई तरह से दर्शकों से अपना संवाद स्थापित करता है। नाटक के आरंभ में यह युक्तियों भले ही लादी हुईं लगती हैं लेकिन नाटक का अंत आते-आते यही युक्तियां दर्शकों को अपनी गिरफ्त में ले लेती हैं और दर्शक नाटक के अंत में खड़े होकर मिनटों तक ताली बजाने को विविश होते हैं। एक प्रस्तुति की सफलता की इससे बड़ी निशानी और क्या हो सकती है? 

निश्चित तौर पर प्रवीण कुमार गुंजन की यह प्रस्तुति एक यादगार प्रस्तुति है और इसे यादगार बनाने में सबसे बड़ी भूमिका इसके अभिनेता मानवेंद्र त्रिपाठी की है। अपने अभिनय से वह दर्शकों का मन पूरी तरह मोहने का काम करते हैं। जिस प्रकार की शारीरिक और शाब्दिक दक्षता वह अपनी इस प्रस्तुति में दर्शकों के सामने प्रस्तुत करते हैं वह काबिलेगौर है। वहीं नाटक को बनाने में कोरस की भी बड़ी भूमिका है जो अभिनेता को न सिर्फ अभिनेता की अनुगुंज को ओज प्रदान करता है बल्कि उसे वांछित विराम का मौका देता है। हालांकि प्रस्तुति में कुछ चीजें ऐसी जरूर हैं जिनसे बचा जा सकता था, जैसे नाटक के बीच में डाले गए फिल्मी गीत, कुछ चुनिंदा रंगयुक्तियों के संदर्भ में भी यह कहा जा सकता है, पानी, रंग और दूसरी रंगयुक्तियां न सिर्फ बासी बल्कि आयातीत प्रतीत होती हैं। नाटक के पहले हिस्से में भी सुधार की गुंजाइश है।


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