रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

शुक्रवार, 20 जनवरी 2012

भारंगम जारी है...


भारत रंग महोत्सव के छठा, सातवां, आठवां तथा नोवें दिन का लेखाजोखा प्रस्तुत कर रहें हैं युवा रंगकर्मी व पत्रकार दिलीप गुप्ता 

१४वाँ भारत रंग महोत्सव (भारंगम) अपने दूसरे हफ्ते में प्रवेश कर चुका है. गए कुछ सालों से भारंगम का एक अनिवार्य हिस्सा बन चुका  फ़ूड हबअपने पूरे रंग में आ गया है. एनएसडी परिसर में बना ये फ़ूड हब”   अपने नाम के मुताबिक सिर्फ जलपान की ही व्यवस्था नहीं कर रहा है, बल्कि कलाकारों, संस्कृतिकर्मियों व दर्शकों के लिए उस चौपाल की भी व्यवस्था कर रहा है, जहाँ पर ‘कब के बिछड़े हुए हम आज यहाँ आ के मिले’ की तर्ज पर  कई पुराने मित्र बैठकर अपनी यादें ताज़ा कर रहे हैं. ‘फ़ूड हब’ वैसे लोगों को भी बहुत सुकून दे रहा है, जो ‘आये थे हरी भजन को ओटन लगे कपास’ की तर्ज़ पर  ‘हाउसफुल’ के बोर्ड की वजह से नाटक देखने से बराबर वंचित हो रहे हैं. इसके  साथ ही यह उनके लिए भी एक मुफीद जगह है, जो नाटकों के स्तरहीन होने की वजह से सभागार से बाहर भाग आते हैं.लेकिन जो भी हो फ़ूड हब में रोज हो रहीं मंचेतर गतिविधियों को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है इन गतिविधियों के तहत बाउल, ग़ज़ल, सूफी, और अन्य सांस्कृतिक प्रस्तुतियाँ हो रही हैं.
फिलहाल मंचीय गतिविधियों के तहत भारंगम में गुज़रे चार दिनों में कुल २८  प्रस्तुतियाँ हो चुकी हैं. लेकिन उनमे से कुछ ही प्रस्तुतियाँ सराहनीय कही जा सकती हैं. भारंगम के छठे दिन रविन्द्र नाथ टैगोर लिखित चांडालिका नाटक को निर्देशित किया था प्रख्यात रंग निर्देशिका उषा गांगुली ने. उषा गांगुली अपने नाटकों में  निर्देशन के साथ साथ अभिनय भी करती रही हैं. इस नाटक में भी उन्होंने यही किया. बौद्ध धर्म में प्रचलित  एक कहानी पर आधारित टैगोर का यह नाटक प्रकृति नाम की एक अछूत लड़की की कहानी है जो चांडालिका के रूप में समाज के हाशिए पर जीने को अभिशप्त है. एक दिन एक बौद्ध भिक्षु आनंद उसके घर से गुजरते हुए उसके हाथ से पानी पीता है. ‘सभी मनुष्य एक हैं’ यह  सन्देश देते हुए भिक्षु इस अछूत लड़की को एक मानव होने का एहसास कराता है. यह महसूस करके कि किसी ने पहली बार उसे बराबर का दर्ज़ा दिया है, प्रकृति आनंद से प्रेम करने लगती है. और अपनी जादूगरनी माँ से कहती है कि आनंद पर जादू करके उसे वापस बुलाए. नाटक इसी कथानक पर आगे बढ़ते हुए संघर्ष व  प्रेम के बहुस्तरीय स्वरूपों को खोलता है. नाटक का डिजाईन सीधा सरल होते हुए भी प्रभावी है. बेहतर संगीत भी इस नाटक का  एक मज़बूत पक्ष है. लेकिन बेहतर दृश्य संरचना एवं संगीत के बावजूद भी यह नाटक अपना असर छोड़ने में कामयाब नहीं हो पाता, क्यूंकि रंगमच का सबसे सशक्त पक्ष अभिनय ही इस नाटक में सतही स्तर का था जो चरित्रों के अंतर्द्वंद को उभारने में नाकाफी रहा.
हेस्नम तोम्बा, एक ऐसे युवा निर्देशक हैं जिन्होंने गए वर्षों में अपने रंगकर्म से एक नयी उम्मीद जगाई है. मणिपुर के प्रसिद्ध रंग निर्देशक एच. कन्हाईलाल और अभिनेत्री सावित्री हेस्नम के पुत्र हेस्नम तोम्बा कन्हाईलाल की रंगमंचीय परंपरा को आगे बढ़ाते हुए भी अपनी मौलिकता को लगातार मुखरित करते आये हैं. भारंगम के सातवें दिन हेस्नम तोम्बा निर्देशित व रविन्द्र नाथ टैगोर की कहानी ‘क्षुधितो पाषाण’ पर आधारित नाटक हंग्री स्टोनसे यह बात और पुष्ट होती है. यह नाटक प्रस्तुतीकरण के दौरान कई मर्मस्पर्शी प्रश्न उठाता है. एक पर्शियन गुलाम लड़की को खरीद कर, उसकी मर्ज़ी के खिलाफ एक आदमी बादशाह को भेंट कर देता है. उसे रुलाई का दौरा इस तरह से पड़ता है जैसे वह कोई पागल औरत हो. उसका रुदन उसकी निजी असफलता का प्रतीक होते हुए भी वह सम्पूर्ण महिला जगत की पीड़ा की आवाज बन जाता है. कई स्तरों को उकेरता यह नाटक हेस्नम द्वारा प्रयुक्त सांकेतिक नाट्य रुढियों से एक अलग तरह का कलात्मक प्रभाव छोड़ता है. हेस्नाम, अभिनेताओं की आवाज़ और शरीर का बेहतर तालमेल व उसकी तारतम्यता का प्रयोग  बड़ी खूबसूरती के साथ इस नाटक में करते दिखे. निस्संदेह, हेस्नाम की यह प्रस्तुति भारंगम की सराहनीय प्रस्तुति कही जा सकती है.
भारंगम के आठवें दिन महा कवि भास के नाटक माध्यम व्यायोग को  एक अलग सन्दर्भ में  व्याख्यायित करती प्रस्तुति रही मशहूर रंग निर्देशक वामन केंद्रे निर्देशित  “प्रिया बावरी”.  
प्रिया बावरी” की कहानी बस इतनी भर ही है कि उपवास कर रही हिडिम्बा अपने पुत्र घटोत्कच को जंगल से एक मनुष्य लाने की आज्ञा देती है ताकि उसे खाकर अपना उपवास तोड़ सके. इसके लिए घटोत्कच यात्रा कर रहे एक ब्राह्मण परिवार को रोक लेता है, जिसका दूसरा बेटा मध्यम, अपने परिवार के लिए बलि चढ़ने को राज़ी हो जाता है. आगे कहानी में भीम भी वहाँ  पहुच जाता है और ब्राह्मण लड़के के स्थान पर स्वयं घटोत्कच के साथ जाने की बात करता है, मगर इस शर्त पर कि घटोत्कच उसे परास्त कर दे. घटोत्कच इस चुनौती को स्वीकार करता है और विजयी होता है. और भीम को लेकर अपनी माँ हिडिम्बा के पास जाता है, जहाँ हिडिम्बा अपने पति भीम को पहचान लेती है और कुछ कोशिशों के बाद घटोत्कच भी भीम को पिता मान लेता है. बाद में अपने पिता के आग्रह पर युद्ध में जाता है और मारा जाता है.
इस कथा सूत्र को  ही पकड़ कर वामन केंद्रे अपने नाटक में आर्य अनार्य और स्त्री पुरुष के बीच के भेद, तथा ‘संबंधों की राजनीति’ और ‘सत्ता की राजनीति’  जैसे सिद्धांतों के साथ प्रयोग करके नाटक को बिलकुल एक नए सन्दर्भ में मंचित करते हैं. वामन केंद्रे इस प्रस्तुति में संस्कृत नाट्य परम्पराओं की शैली का प्रयोग करते हुए कथ्य को एक आधुनिक सन्दर्भ देते हैं, इससे पहले ‘मध्यम व्यायोग’ को शायद ही  किसी ने इस दृष्टिकोण के साथ देखा हो.
भारंगम के नौवें दिन सामानांतर फिल्मों की प्रख्यात लेखिका निर्देशिका सई परांजपे अपना मराठी नाटक जसवंदी लेकर उपस्थित थीं. पैंतीस साल पहले लिखा गया यह नाटक इंसानों को बिल्लियों की नज़र से पेश करता है. एक अमीर उद्योगपति की पत्नी सोनिया के पास सबकुछ है पर उसके पति को उसे देने के लिए समय नहीं है. अपने इस एकाकीपन से उबरने के लिए सोनिया दो बिल्लों को अपने घर लाती है और उन्हें खूब प्यार से रखती है. ये बिल्ले इंसानों के बारे में  कोई खास अच्छी धारणा नहीं रखते और नौकरानी रंगाबाई और ड्राईवर  तानपरे, जो दोनों को खासतौर पर खतरनाक लगता है, के रूप में दो तिकडमी लोगों को इस घर में पाते हैं. समय बितता है और सोनिया की जिंदगी में उदयन नाम का एक युवा कलाकार आता है. उन दोनों के बीच एक प्रगाढ़ सम्बन्ध पनपने लगता है. दोनों बिल्ले चिंतित और असहाय से इस सम्बन्ध को देखते रह जाते है, जो तेज़ी से एक अनपेक्षित अंत की तरफ बढ़ता चला जाता है.
अफ़सोस की बात तो यह है कि  सई परांजपे जैसी सूझबूझ वाली निर्देशिका का लेखन और निर्देशन होने के बावजूद नाटक अपनी धीमी गति के कारण दर्शकों के लिए बोझिल होता चला जाता है. आश्चर्य की बात तो यह भी थी कि नाटक के साथ इतना बड़ा नाम जुडा होने के बावजूद सभागार में आधी से अधिक कुर्सियां खाली थीं और नाटक शुरू  होने के साथ ही यह खालीपन लगातार बढता गया.
नौवें दिन ही  प्रसिद्द रंग निर्देशक परवेज अख्तर के निर्देशन में एकल प्रस्तुति बाघिन मेरी साथिन का मंचन भी हुआ. दारियो फ़ो के ‘टेल ऑफ अ टाईगर’ पर आधारित इस एकल प्रस्तुति के अभिनेता थे जावेद अख्तर खान. पूरे नाटक में एक फौजी, बच्चों को  अपने जीवन की कहानी सुनाता है, जिसमे उसके युद्ध में घायल हो जाने के बाद एक बाघिन और उसके बच्चे के साथ उसकी मुलाकात होने और उनके बीच पनपे संवेदनाओं का वृत्तांत है. बिना किसी पार्श्व और लाईव संगीत के जावेद अख्तर अकेले कुछ ज़रूरी सामान के प्रयोग से पूरी कहानी बताते हैं और उसको अंत में एक राजनैतिक सन्दर्भ के साथ जोड़ देते है. धीमी शुरुआत की वजह से दर्शक नाटक के साथ देर से जुड़ते हैं और अभिनेता की  चुहलों के साथ आनदित होते है. बिना किसी ताम झाम के जावेद अख्तर खान दर्शकों को रिझाने की कोशिश करते है और उसमे सफल भी होते हुए दिखते है. संवाद बोलने के सिलसिले में शब्दों का लगातार कई बार एक दूसरे पर चढ़ना संवाद की स्पष्टता में बाधक बनता है. कुल मिलकर यह प्रस्तुति ठीक ठाक रही, लेकिन इससे और बेहतर की उम्मीद थी.

दिलीप गुप्ता संपर्क : 9873075824 एवं dilipgupta12@gmail.com. आलेख जन सन्देश टाइम में प्रकाशित .

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