रंगमंच को जीवित रखने के लिए अक्सर पैसे की कमी का रोना रोया जाता है, लेकिन मेरा मानना है कि आर्थिक साधन पर्याप्त हैं। भारत सरकार का संस्कृति मंत्रालय रंगकर्म के नाम पर अलग-अलग मद में खूब पैसा बांट रहा है। निर्माण, भवन, उपकरण के लिए अनुदान की व्यवस्था है। प्रोडक्शन ग्रांट व्यक्ति या संस्था के नाम पर लिया जा सकता है।
इसके अलावा सैलरी ग्रांट, फैलोशिप, स्कॉलरशिप आदि भी दिए जाते हैं। इतना सब होने के बाद भी रंगकर्म में पर्याप्त प्रगति नहीं हो रही है, क्योंकि पैसे का गलत उपयोग हो रहा है। अनेक मक्कार लोग सरकारी मदद लेकर भी काम नहीं कर रहे हैं। रंगमंच को दोबारा जनप्रिय बनाने निष्ठावान रंगकर्मियों को पहल करनी होगी।
असल में ज्यादातर लोग शौकिया रंगमंच करते रहे हैं। हिंदी ही नहीं, बंगाली या मराठी रंगमंच में भी यही स्थिति है। वहां भी अधिकतर नौकरीपेशा लोग रंगकर्म से जुड़े हैं, लेकिन वहां नाटक देखने की सुदृढ़ परंपरा है, इसीलिए रंगमंच वहां अब भी चल रहे हैं। पहले की तुलना में आज अगर आम आदमी रंगमंच से दूर हो रहा है, तो उसके कुछ कारण भी हैं। दरअसल, आज का रंगमंच डिजाइनर, निर्देशक का माध्यम बनकर रह गया है, अभिनेता के लिए जगह नहीं बची है।
अभिनेता के पास कैरेक्टर (चरित्र) के रूप में आने का, व्यक्त करने का मौका पहले की तरह, अब नहीं रहा है। टेक्नोलॉजी के बीच कैरेक्टर का असर कम हो गया है, संप्रेषण में अंतर आ गया है। तकनीक की चकाचौंध में कैरेक्टर दिखाई ही नहीं देता है, वह अनेक आवरण में ढंकता जा रहा है। रंगमंच तो जीवंत माध्यम है और यदि हमें इसे जिंदा रखना है, तो उसमें दूसरी चीजों को लादने से बचना होगा।
वर्तमान में भ्रष्टाचार, महंगाई, सांप्रदायिकता, राजनीतिक छल-फरेब का जोर है, तो इन मसलों पर आधारित नाटक भी इन दिनों ज्यादा खेले जा रहे हैं। आज हिंदुस्तान में भ्रष्टाचार सबसे ज्वलंत मुद्दा है।
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