रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

हिंदी रंगमंच की दिशा व दशा


बात पुरानी है पर सन्दर्भ पुराना नहीं पड़ा है | - माडरेटर मंडली 


हिंदी में दर्शकों की इतनी कमी है कि लिखे गये अनेक नाटकों को खेलना संभव नहीं हो पाता। हिंदी क्षेत्र में रंगकर्म के लिए आवश्यक साधनों, सुविधाओं की बेहद कमी है। …रंग चिंतन का विकास अधिकतर रंगकर्म के विकास से ही जुड़ा हुआ होता है। हमारे यहां रंग-रचना बहुत व्यवस्थित रूप से नहीं हो पायी, इसलिए इसके बारे में सोच-विचार भी बहुत सूक्ष्म नहीं हुआ। …हिंदी क्षेत्र में आम आदमी नाटक को बहुत अच्छा काम नहीं समझता। एक मराठी भाषी को नाटक से जितना लगाव है, उसका बीसवां हिस्सा भी हिंदी भाषी को नहीं है। हिंदी में इस तरह के लिखने वाले जो रंगकर्म करते भी हैं, नहीं हैं। हिंदी में जो लोग नाटक या रंगमंच से संबंधित लेखन करते हैं, वे अधिकांशतः अध्यापक ही हैं। नाटक करने वाले लोग अपने सृजनात्मक काम में ही इतना डूबे हुए हैं कि लिखने में कोई दिलचस्पी नहीं लेते। …आज जो स्थिति है, उसको प्राप्त करने में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का बहुत बड़ा हाथ है। इसने एक मानदंड बनाया, रंगकला की भाषा को निखार दिया, उसमें सूक्ष्मता पैदा की, एक सजगता पैदा की, राष्ट्रीय स्तर पर। …यह कई तरह से देखा जा सकता है कि एक बहुत बड़ी भूमिका है एनएसडी की। ऐसा भी बहुत कुछ है जो वह कर सकता था, नहीं किया।
♦ नेमिचंद्र जैन

कई कारण ऐसे बनते गये कि अंग्रेजों की पद्धति से भी हमारा कोई सीधा साक्षात्कार नहीं हुआ। वह बंगाल के माध्यम से हम तक पहुंचा। या दक्षिण के माध्यम से पहुंचा, क्योंकि फ्रांसीसी लोग उधर आये। इसलिए उत्तर भारत की कला परंपराएं उतनी स्ट्रौंग नहीं हो पायीं। न लोक कलाओं में, न नाटकों में, न नृत्य में कोई मजबूत परंपरा बन पायी। थोड़ा बहुत आप चित्रकला में जरूर कह सकते हैं या संगीत में। लेकिन सामूहिक कलाओं में, लोक कला या शास्त्रीय कला में आपको कोई मजबूत परंपरा नहीं दिखाई देगी। हिंदी के कितने नाटक भारत की दूसरी भाषाओं में अनुवादित हो कर मंचित हुए हैं – बहुत कम उदाहरण मिलेंगे। अवरोध सिर्फ हिंदी रंगकर्मी की अपनी प्रतिबद्धता से उत्पन्न हुआ है। हिंदी रंगकर्म न तो पूरी तरह जीवन-यापन का साधन बन पाया और न ही वह हमारे जीवन का जरूरी हिस्सा बन पाया। इसकी वजह से जरूर अवरोध है जो दूसरी भाषाओं में नहीं है। आज आलोचक या चिंतक के स्तर पर बिलकुल चुप्पी छा गयी है। नहीं तो यह भारतीय रंगमंच में ही संभव है कि यहां चिंतन के नाम पर काम कोई दूसरा करे और व्यावहारिक रंगकर्मी काम करता मर जाये, उसको पहचान न मिले। पश्चिम में पीटर ब्रुक चिंतक भी हैं और व्यावहारिक रंगकर्मी भी। ब्रेष्ट चिंतक भी हैं, नाटककार भी हैं और निर्देशक भी हैं। …रंगकर्म को ही आप देखिए, जो लोग दिल्ली में हैं उनकी पहचान कौन-से काम से हो रही है? आप मुझे गिनाइए ऐसा कौन सा रंगकर्मी है जिसकी राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनी हो… दिल्ली रह कर कौन-से निर्देशक ने पहचान बनायी है? मेरी जानकारी में तो नहीं है। संस्था की पहचान हो सकती है कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने अपनी पहचान बनायी है।

♦ देवेंद्र राज अंकुर

हिंदी जैसी समृद्ध भाषा में इतनों दिनों तक रंगमंच का अभाव बना रहना वास्तव में विडंबनापूर्ण है। यह सोचने की बात है कि जब हम हिंदी रंगमंच पर केंद्रित होते हैं, तब हमारा ध्यान कहां रहता है। क्या हम हिंदी के लिए किसी ऐसे नाट्य गृह या रंगशाला की अपेक्षा रखते हैं, जहां केवल हिंदी के नाटक ही प्रदर्शित किये जाएं? अथवा हिंदी रंगमंच से हमारा तात्पर्य हिंदी के नाटकों, रंगकर्मियों तथा निर्देशकों से है, जिनके अभाव में विकास की प्रक्रिया अवरुद्ध हो गयी है। आज भी नाटकों के लेखन में कमी नहीं आयी है। नाटक है, तो निर्देशकों की कमी होगी… साधनों की कमी होगी… इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने बाधा उत्पन्न की होगी… दर्शकों की कमी होगी… आदि अनेक प्रश्न-प्रतिप्रश्न हिंदी रंगमंच को ले कर सामने आते हैं, जिसका कारण भी यही है कि हिंदी का कोई अपना रंगमंच नहीं है। रंगमंच जो अपने प्रयोगों से एक परंपरा बन जाए।
♦ रामचंद्र सरोज
हिंदी रंगमंच में प्रशिक्षित लोगों के साथ यह बड़ी समस्या है। आर्थिक सुरक्षा के अभाव में वे लगातार भटकते रहते हैं। अभिनेता तो दूरदर्शन या सिनेमा में चले जाते हैं, डिजाइन के लोग तरह-तरह के पापड़ बेलते हैं। हिंदी रंगमंच की जो स्थिति है, वो अपने आप प्रकाश परिकल्पना के बारे में खुलासा करती है। यहां जो काम हो रहा है, उसमें एक उल-जलूल किस्म का उत्साह है। गंभीरता है, पर इस गंभीरता में समझ नहीं है। हिंदी रंगमंच के सामने सबसे बड़ी समस्या आर्थिक है, साधनों की है।
♦ सुरेश भारद्वाज




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