रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

तितली और गांव

बचपन में तितली पकड़ना भी एक खेल हुआ करता था। दिन-दिन भर भूखे-प्यासे तितलियों के पीछे भागना और भिन्न-भिन्न प्रकार की तितली पकड़ना एक शानदार करतब था। उस वक़्त इतनी बुद्धि भी नहीं थी कि यह समझा जाए कि ऐसा करने से इन मासूमों को कष्ट होता है।

कभी इनकी पूंछ में घास खोंसकर उड़ाना, तो कभी इनके आधे पंख कुतर देना और फिर उड़ाना, बचपना और नासमझी ही तो था। इसे एक मासूम गुनाह भी कहा जा सकता है। आज लगता है कि इस तरह के खेल खेलने से हमें रोका जाना चाहिए था, लेकिन ख़ैर, जो बीत गई वो बात गई। 

अच्छी बात है कि ये गांव में आज भी प्रचूर मात्रा में हैं, कम से कम हमारे गांव में तो हैं हीं। जहां जाइए रंग-बिरंगे उड़ते मिल जाते हैं। अभी पढ़ने में व्यस्त था तो खिड़की के बाहर नज़र गई। बहुत सारे उन्मुक्त उड़ रहे थे। मैं इन दोनों को ही कैमरे में क़ैद कर पाया। 

इन तितलियों की तस्वीर निकालना बड़ा धैर्य का काम है। आपको लंबे समय तक एक स्थान पर कैमरा सेटअप करके इंतज़ार करना होता है और आते ही क्लिक करना होता है, ज़रा सी भी हलचल हुई नहीं कि ये फरार हो जाएगीं। फिर शाम का वक्त है तो लाइट्स भी बड़ी तेज़ी से बदलती है, उसके सेटअप का भी ध्यान रखना है। 

इनसे केवल गांव में ही मुलाक़ात संभव है, शहर तो इन्होंने कब का छोड़ दिया है। लाल वाली बड़ी सतर्क थी, उसने अपना क्लोज शॉर्ट लेने ही नहीं दिया, पीली वाली को लगता है फोटो खिंचवाने का शौक़ था, वो आराम से आकर बैठी रही कि खींच लो, जितना भी खींचना है। तस्वीरें बहुत्ते क्लिक कीं लेकिन आपके लिए फ़िलहाल यह दो ही, शायद इस संकट काल में इन तितलियों को ऐसे उन्मुक्त विचरण करते और केवल अपने ऊपर ही विश्वास और भरोसा करते हुए देखना, आपको भी पसंद आए। शायद थोड़ा अच्छा-अच्छा सा महसूस हो, ख़ासकर उनको जो बड़े-बड़े शहर में लगातार क़ैद रहने को अभिशप्त हैं। कई बच्चे ऐसे भी हैं जिन्होंने आजतक उड़ती हुई जीवंत तितली देखी ही नहीं है, देखी है तो केवल पुस्तकों में, तस्वीरों में। 

वैसे अच्छा है कि तितलियों का कोई दल नहीं है और ना ही कोई नेता, इसलिए देश भी नहीं है। नहीं तो क्या पता सब के सब एक ही रंग में रंग दी जातीं या एक ही तरह से सोचती और अपने से अलग सोचनेवालों को देशद्रोही कहतीं। इनका भी अलग-अलग देश हो जाता और भाषा, बोली, रंग, वाद आदि के नाम पर ये भी एक दूसरे को काट खाने को तैयार हो जातीं जबकि प्रकृति का मज़ा ही यही है कि उसमें भिन्नताएं हों, और सब सहअस्तित्व की भावना के साथ आज़ादी से विचरण करें।

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