इन दिनों सबसे ज़्यादा दुर्गति शिक्षण संस्थानों की हुई है। दुर्गति की वैसे यह प्रक्रिया कई दशक पहले ही शुरू हो चुकी थी लेकिन फल अब साफ-साफ दिखने लगा है। अच्छे से अच्छा (भारतीय अनुपात में) शिक्षण संस्थान को तबाह करने में कोई कोताही नहीं बरती गई है। नेता, मीडिया, जनता सबने जम के बर्बादी में न केवल साथ दिया है बल्कि सक्रिय भूमिका का निर्वाह भी किया है। सत्ता ने हर स्थान पर शिकंजा कसा है तो वहीं सत्ता की खुलके चापलूसी करनेवाले लोग भी बढ़े हैं। उन्हें लगता है कि वो चापलूसी करके कुछ शानदार कर डालेगें लेकिन होता यह है कि वो अपनी कुर्सी बचाने और थोड़ा धन कमाने और थोड़ा अपने शुभचिंतकों में बांटने के सिवा, थोड़ा प्रोजेक्ट हथियाने से ज़्यादा कुछ नहीं कर पाते हैं, कई लोगों की तो चापलूसी भी फेल हो जाती है, क्योंकि वहां भी हद दर्ज़े का कम्पटीशन है; एक से एक चापलूस जीभ में लार टपकाते साम, दाम, दंड और भेद को प्रयोग करते हुए कहीं भी प्रचूर मात्रा में बरामद किए जा सकते हैं।
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने जब से अपने आप को ग्रांट बांटो, महोत्सव कराओ और अपनों को रोज़गार दो नामक एजेंसी के रूप में परिवर्तित किया है, तब से यह अपने मूल उद्देश्य नाट्य-प्रशिक्षण से भटक गया है। अब वहां जो कुछ भी होता है या हो रहा है वो खुलेआम ज़ाहिर है, सबको पता है बाक़ी न जानने का ढोंग हम जितना चाहे कर लें। बहरहाल, जो कुछ भी हुआ वो अब इतिहास है, उससे सीख लिया जा सकता है, अगर कोई लेना चाहे तो। फ़िलहाल बात यह है कि रानावि के निदेशक के लिए आवेदन आमंत्रित किया गया है। अद्भुत बात है कि पिछले कई वर्ष से यह स्कूल अस्थाई अध्यक्ष और निदेशक के ज़िम्मे है। बाक़ी इन्होंने या इनसे पहले वालों/वाली ने जो कुछ किया वो भी जग ज़ाहिर है, एक पंक्ति में बात यह कि रानावि की प्रतिष्ठा में कोई ख़ास इज़ाफ़ा नहीं ही हुआ बल्कि ग्राफ़ नीचे ही गया है साल दर साल।
वैसे अमूमन देखा यह गया है कि नाम पहले से ही तय करके यहां विज्ञापन निकाला जाता है और एक जादुई प्रक्रिया के तहत साक्षात्कार लेकर बाक़ी सबको अयोग्य करार देकर तय किए नाम को योग्य बना दिया जाता है। वो कितने योग्य थे वो आप उनके काम की व्याख्या करके तय कर लीजिए, निष्पक्ष रूप से। यह भर्ती अभियान बहुत पुराना है। पिछले कई साल से रानावि के निदेशक के पद को लेकर घोर लॉबिंग हुई है, राजनीति हुई है, पहुंच और पैरवी का भरपूर इस्तेमाल हुआ है, माहौल तक बनाया गया है जैसे कि कोई चुनाव हो, बस लाठी-गोली चलना बाक़ी है। इस विज्ञापन के आते ही फिर से सबकुछ शुरू हो चुका है। कइयों की बांछें खिल गए और सामने मालपुआ दिखने भी लगा है, यह बात और है कि खाएगा कोई एक और बाक़ी सब उसके बाद "क्रांतिकारी" हो जाएगें। उसके बाद साजिशों का दौर चलेगा।
लोग तरह-तरह से सक्रिय हो चुके हैं और किसी भी तरह से बस उस कुर्सी पर विराजमान होना चाहते हैं। अपनी पहुंच, पैरवी भी खंगालने लगे हैं। ऐसा नहीं कि यह सब आज शुरू हुआ है बल्कि यह रोग तो पुराना है और सबसे ज़्यादा प्रचलित और लोकप्रिय भी। रानावि की अधिकतर बहलियां व्यक्तिगत पसंद-नापंसद हैं। अब यह लिखित रूप में होता नहीं है इसलिए इसका कोई सबूत होता नहीं है।
इन सबको दरकिनार किए जाने की ज़रूरत है और तलाश करके किसी ऐसे को (वो आवेदन करे ना न करे) उस पद पर बैठाने की ज़रूरत है जिसके भीतर रंगमंच को लेकर कोई शानदार और जनपक्षीय विजन हो। जो कला को एक उत्सव से ज़्यादा सामाजिक ज़िम्मेदारी समझता हो। जो यह समझता हो कि यह विद्यालय आम जनता के टेक्स के पैसे से संचालित होता है इसलिए इसके प्रशिक्षण का तरीक़ा भी जन सरोकार, जन कल्याण से जुड़ा होगा, हवा-हवाई नहीं कि कुछ नाटक करो, कुछ बड़े-बड़े नाम जानो और उड़ान थामो। जो यह कहने का माद्दा रखता हो कि हमारा काम प्रशिक्षण का है, बाक़ी चीज़ें हम नहीं करेगें, सरकार उसके लिए अपना कोई अलग विभाग बना ले। उसकी तलाश हो जिसका बॉयोडाटा से ज़्यादा नियत साफ़ हो, व्यक्तिगत और सामाजिक ईमानदारी कूट-कूटकर भरी हो, जिसकी रीढ़ की हड्डी तनी हो और तनी रहे। अगर ऐसा नहीं हुआ तो बस नाम बदलेगा, ना प्रकृति बदलेगी, न काम और न प्रवृत्ति।
वैसे कुछ नहीं बदलेगा इसकी गारेंटी आप मेरे से ले सकते हैं, हां कुछ उन्नीस से बीस होगा और कुछ बीस से उन्नीस। सत्ता बदलते ही कैम्पस में भांति-भांति के कुछ नए चर्मरोग दिखने लगते हैं, बाक़ी ज़्यादा कुछ होता है नहीं। आधे-अधूरे का प्रसिद्ध संवाद है ना - "फिर एक बार, फिर से वही शुरुआत" बाक़ी सबकुछ आधे-अधूरे वाला ही हाल है। राग वही गाया जाएगा, पद भी नहीं बदलेगा, बस गानेवाले चेहरे बदल जाएगें। वो एक फिल्मी गाना है ना - आईना वही रहता है, चेहरे बदल जाते हैं। दरअसल हुआ यह है कि इस विद्यालय के आसपास ऐसा चक्रव्यूह निर्मित हो गया है कि इसे बिना ध्वस्त किए जो कोई भी आएगा "राग-दरबारी" ही गाएगा।
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