रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

गुरुवार, 6 अक्तूबर 2011

कमबख्त, कभी बेसुरी नहीं होती

लता मंगेशकर पर यतीन्द्र मिश्र का विशेष आलेख

असीम श्रद्धा और भावुकता के साथ ही लता मंगेशकर के बारे में कोई बात शुरू की जा सकती है. पिछली कई सदियों से संगीत की जो महान परंपरा हम मीराबाई, बैजू बावरा, स्वामी हरिदास और तानसेन के माध्यम से सुनते-गुनते आ रहे हैं, उसमें लता मंगेशकर का नाम बिना किसी हीला-हवाली के जोड़ा जा सकता है. इसी वर्ष 28 सितंबर को जब वे 83वें वर्ष में प्रवेश करेंगी तब उनके बारे में कुछ भी नये सिरे से बताने का प्रयास इस देश के 125 करोड़ लोगों को कमतर समझने की हिमाकत भी माना जा सकता है. कहा जा सकता है कि इस देश में चारों ओर रहने वाले सवा अरब लोग जिस समानता की डोर से कहीं न कहीं जुड़े दिखाई देते हैं वह लता मंगेशकर की आवाज के रेशमी धागे के कारण भी संभव हुआ है.
‘महल’ फिल्म के इतिहास बन चुके गीत ‘आएगा आने वाला’ से लता जी का हिंदी फिल्म संगीत में कुछ-कुछ वैसा ही प्रादुर्भाव हुआ जैसा इस फिल्म का सनसनीखेज कथानक था. इस गीत के मुखड़े की शुरुआती पंक्तियां हैं - ‘खामोश है जमाना चुपचाप हैं सितारे/आराम से है दुनिया बेकल हैं दिल के मारे/ऐसे में कोई आहट इस तरह आ रही है/जैसे कि चल रहा हो मन में कोई हमारे/या दिल धड़क रहा है इस आस के सहारे...’ आज जब उन्हें एक किंवदंती बने लगभग सत्तर साल बीत चुके हैं तो लगता है कि जैसे ये पंक्तियां फिल्म संगीत के आंगन में उनके लिए बिछाया गया लाल गलीचा हों. जैसे सबको उनके आने की आहट सुनाई दे रही थी और उनके आने से पहले सारा जमाना खामोश था.
बतौर पार्श्व गायिका सबसे पहला गीत लता जी ने मराठी फिल्म किती हसाल के लिये महज साढ़े बारह साल की अवस्था में रिकॉर्ड करवाया था. गीत के बोल थे नाचू या आडे खेलू सारी, मनी कौस भारी. संगीतकार थे सदाशिवराव नेवरेकर. किन्तु यह गीत फिल्म में शामिल नहीं किया गया.लता जी मात्र छह साल की रही होंगी जब उनके पिता पंडित दीनानाथ मंगेशकर ने उनकी संगीत शिक्षा का विधिवत आरंभ उन्हें पूरिया धनाश्री राग सिखाते हुए किया था. उन्होंने उस समय नन्ही लता से कहा था - ‘जिस तरह कविता में शब्दों का अर्थ होता है, वैसे ही गीत में सुरों का भी अर्थ होता है. गाते समय दोनों अर्थ उभरने चाहिए.’ इसे आज तक अपने सुर संसार में जस का तस निभाते हुए लता मंगेशकर पिता को अपनी सच्ची श्रद्धांजलि दिए जा रही हैं. आज के दौर के युवाओं से लेकर तीन पीढ़ी ऊपर तक के बुजुर्गों में लता मंगेशकर की आवाज का साम्राज्य कुछ इस कदर पसरा हुआ है कि उसके प्रभाव का आकलन पूरी तरह कर पाना शायद किसी के लिए संभव नहीं है. कई बार ऐसा लगता है कि वे एक ऐसी जीवंत उपस्थिति हैं जिनके लिये कहा जा सकता है कि वे पुराणों व मिथकीय अवधारणाओं के किसी गंधर्व लोक से निकलकर आई हैं. एक ऐसी स्वप्निल और जादुई दुनिया से जिसमें सिर्फ देवदूतों और गंधर्वों को आने-जाने की आजादी है. लता मंगेशकर जैसी अदम्य उपस्थिति के लिए प्रख्यात गीतकार जावेद अख्तर का यह कथन बहुत दुरुस्त लगता है - ‘हमारे पास एक चांद है, एक सूरज है, तो एक लता मंगेशकर भी हैं.’
लता मंगेशकर ने अपनी आवाज की चिरदैवीय उपस्थिति से पिछले करीब छह दशकों को इतने खुशनुमा ढंग से रोशन किया है कि हम आज अंदाजा तक नहीं लगा सकते कि यदि उनकी 1947 में आमद न होती तो भारतीय फिल्म संगीत कैसा होता. संगीत जगत में लता मंगेशकर के आगमन का समय भारतीय राजनीतिक इतिहास के भी नवजागरण का काल था. स्वाधीनता के बाद जैसे-जैसे भारतीय जनमानस अपनी नयी सोच और उत्साह के साथ आगे बढ़ता जा रहा था, लता जी की मौजूदगी में हिंदी फिल्म संगीत भी आनंद और स्फूर्ति के साथ उसी रास्ते जा रहा था. यह अकारण नहीं है कि 1948 में गुलाम हैदर के संगीत से सजी मजबूर फिल्म का लता-मुकेश का गाया हुआ गीत ‘अब डरने की बात नहीं अंग्रेजी छोरा चला गया’ उस वक्त जैसे हर भारतीय की सबसे मनचाही अभिव्यक्ति बन गया था. उन्हीं मास्टर गुलाम हैदर ने भारत में अपने संगीत कॅरियर का अंतिम गाना (‘बेदर्द तेरे दर्द को सीने से लगा के’) 1948 में लता से पद्मिनी में गवाया. वे उसी दिन भारत छोड़कर पाकिस्तान चले गए. लता जी के संगीत जीवन के साथ इस तरह की न जाने कितनी ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में बदल चुकी तिथियां भी जुड़ी हुई हैं, जो आज भारतीय समाज में अपना कुछ दूसरा ही मुकाम रखती हैं.
लता मंगेशकर को महल (1948) के जिस गीत ‘आएगा आने वाला’ ने शोहरत दिलाई, उसके लिए उन्हें 22 रीटेक देने पड़े थे. ‘महल’ के वास्तविक रिकॉर्ड पर गायन का श्रेय कामिनी को दिया गया है. यह फिल्म के उस किरदार का नाम था, जिस पर गीत फिल्माया गया था. उन दिनों पार्श्व गायकों-गायिकाओं के नाम की जगह किरदार का नाम दिये जाने का चलन था.यह देखने की बात है कि उनके संगीत के दृश्यपटल पर आने वाले साल में ही केएल सहगल का इंतकाल हो चुका था और मलका-ए-तरन्नुम नूरजहां विभाजन के बाद पाकिस्तान जा चुकी थीं. यह एक प्रकार से फिल्म इतिहास का ऐसा नाजुक दौर था जिसमें इन दो मूर्धन्यों की भरपाई का अकेला जिम्मा जिन लोगों के कंधे पर आया उनमें से सबसे प्रमुख लता मंगेशकर हैं. जाहिर है, संक्रमण के इस काल में लता के भीतर छिपी हुई किसी बड़ी प्रतिभा की पहचान खेमचंद प्रकाश, हुस्नलाल-भगतराम, नौशाद और शंकर-जयकिशन जैसे दिग्गज संगीत निर्देशकों ने की और 1948-49 के दौरान ही उनकी चार बेहद महत्वपूर्ण फिल्में हिंदी सिनेमा के संगीत परिदृश्य को एकाएक बदलने के लिए आ गईं. ये फिल्में थीं महल, बड़ी बहन, अंदाज और बरसात.
इसके बाद पुरानी मान्यताओं, स्थापित शीर्षस्थ गायिकाओं एवं संगीतप्रधान फिल्मों के स्टीरियोटाइप में बड़ा परिवर्तन दिखने लगता है. लता खुशनुमा आजादी की तरह ही एक नये ढंग की ऊर्जा, आवाज के नये-नये प्रयोग एवं शास्त्रीय संगीत की सूक्ष्म पकड़ के साथ हिंदी फिल्म संगीत के लिए सबसे प्रभावी व असरकारी उपस्थिति बनने लगती हैं. ‘हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा मलमल का’ (बरसात) जैसा गीत उसी बहाव, दिशा और नये क्षितिज की ओर फिल्म संगीत को उड़ा ले जाता है, जो अभी तक भारी-भरकम आवाजों के घूंघट में पल रहा था.
लता मंगेशकर आवाज की दुनिया की एक ऐसी घटना हैं जिसके घटने से इस धारणा को प्रतिष्ठा मिली कि गायन का क्षेत्र सिर्फ मठ-मंदिरों, हवेलियों और नाचघरों तक सीमित न रहकर एक चायवाले या बाल काटने वाले की दुकान में भी अपने सबसे उज्जवल अर्थों में अपने पंख फैला सकता है. उनके आने के बाद से ही लोगों की बेपनाह प्रतिक्रियाओं से तंग आकर रिकॉर्ड कंपनियों ने पहली बार फिल्मों के तवों पर पार्श्वगायकों एवं गायिकाओं के नाम देना शुरू किया. वे भारत में फिल्म संगीत का उसी तरह कायाकल्प करती दिखाई देती हैं, जिस तरह पारंपरिक नृत्य-कलाओं में क्रांतिकारी बदलाव ढूंढ़ने का काम रुक्मिणी देवी अरुंडेल, बालासरस्वती एवं इंद्राणी रहमान जैसी नर्तकियों ने अपने समय में किया. स्वाधीनता के बाद उनकी आवाज संघर्षशील तबके से आने वाली उस स्त्री की आवाज बन गई जिसे तब का समाज बिल्कुल नए संदर्भों में देख-परख रहा था.
लता जी से पहले स्थापित गायिकाओं कानन देवी, अमीरबाई कर्नाटकी, जोहराबाई अंबालेवाली, सुरैया, राजकुमारी, शमशाद बेगम के विपरीत लता मंगेशकर का स्वर एक ऐसे उन्मुक्त माहौल को रचने में सफल होता दिखाई पड़ा जिसकी हिंदी फिल्म जगत को भी बरसों से दरकार थी. उनके गायन की विविधता में स्त्री किरदारों के बहुत-से ऐसे प्रसंगों को पहली बार अभिव्यक्ति मिली जो शायद सुरैया या जोहराबाई जैसी आवाज में संभव नहीं थी. उस दौर की अनगिनत फिल्मों में एकाएक उभर आए औरत के प्रगतिशील चेहरे के पीछे लता जी की आवाज ही प्रमुखता से सुनाई पड़ती है. 1952 में आई जिया सरहदी की ‘हम लोग’ का ‘चली जा चली जा छोड़ के दुनिया, आहों की दुनिया’ से लेकर ‘मिट्टी से खेलते हो बार-बार किसलिए’ (पतिता), ‘औरत ने जनम दिया मरदों को’ (साधना), ‘सुनो छोटी-सी गुडि़या की लंबी कहानी’ (सीमा), ‘वंदे मातरम्’ (आनंद मठ), ‘फैली हुई है सपनों की बांहें’ (हाउस नं- 44), ‘जागो मोहन प्यारे’ (जागते रहो), ‘सैंया झूठों का बड़ा सरताज निकला’ (दो आंखें बारह हाथ), ‘तेरे सब गम मिलें मुझको’ (हमदर्द), ‘हमारे बाद महफिल में अफसाने बयां होंगे’ (बागी) ऐसे ही कुछ गीत हैं.
लता मंगेशकर ने अपने पिताजी मास्टर दीनानाथ मंगेशकर का दिया हुआ तम्बूरा (तानपूरा) और संगीत की नोटेशन पुस्तिका आज तक संभाल कर रखी है.यह स्थिति दिनोंदिन सुदृढ़ ही होती गई. साठ के दशक तक आते-आते तो इस बात की होड़-सी मच गई कि किस फिल्म का स्त्री किरदार दूसरी फिल्मों की तुलना में कितना मजबूत, केंद्रीय और भावप्रवण है. जिन फिल्मों में सीधे ही औरत की कोई ऐसी भूमिका नहीं थी, वहां ऐसी गुंजाइश गीतों के बहाने निकाली जाने लगी. ऐसे में लता मंगेशकर एक जरूरत या जरूरी तत्व की तरह भारतीय सिनेमा जगत पर छा गईं. शायद इसी वजह से साठ का दशक सिनेमा के अधिकांश अध्येताओं को लता जी का स्वर्णिम दौर लगता है. इस दौर की कुछ फिल्में इस संदर्भ में भी याद करने लायक हैं कि इनमें लता मंगेशकर की मौजूदगी अकेले ही इतिहास रचने में सक्षम नजर आती है. ऐसे में आसानी से हम गजरे, परख, अनुपमा, छाया, ममता, बंदिनी, दिल एक मंदिर, मधुमती, गाइड, माया, चित्रलेखा, डॉ. विद्या, अनुराधा, आरती, मान, अनारकली, यास्मीन, दुल्हन एक रात की, अदालत, गंगा-जमुना, सरस्वतीचंद्र, वो कौन थी, आजाद, संजोग, घूंघट, भीगी रात, बेनजीर, कठपुतली, पटरानी, काली टोपी लाल रुमाल एवं मदर इंडिया जैसी फिल्मों के नाम ले सकते हैं. इस दौर में बहुत सारे संगीतकारों के साथ बनने वाली उनकी कला की ज्यामिति ने जैसे कीर्तिमानों का एक अध्याय ही रच डाला. आज भी उनका नाम मदन मोहन के साथ अमर गजलों, नौशाद के साथ विशुद्ध लोक-संगीत, एसडी बर्मन के साथ राग आश्रित नृत्यपरक गीतों, सी रामचंद्र के साथ बेहतर आर्केस्ट्रेशन पर आधुनिक ढंग की मेलोडी, सलिल चौधरी के साथ बांग्ला एवं असमिया लोक संगीत और विदेशी सिंफनीज पर आधारित कुछ मौलिक प्रयोगों, रोशन के साथ शास्त्रीयता एवं रागदारी, खय्याम के साथ प्रयोगधर्मी धुनों तथा लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के साथ सदाबहार लोकप्रिय एकल गीतों के लिए असाधारण ढंग से याद किया जाता है.
यह देखना भी दिलचस्प है कि पिछले साठ-सत्तर सालों में बनने वाली ढेरों ऐतिहासिक एवं पौराणिक फिल्मों में लता मंगेशकर एक स्थायी तत्व की तरह शामिल रही हैं. उनकी यह उपस्थिति, सामाजिक सरोकारों वाली फिल्मों से अलग, एक दूसरे ही किस्म का मायालोक रचने में सफल साबित हुई है. यह लीक बैजू बावरा, अनारकली, नागिन, रानी रूपमती जैसी फिल्मों से शुरू होकर, मुगले आजम, शबाब, सोहनी महिवाल, कवि कालिदास, झनक-झनक पायल बाजे, संगीत सम्राट तानसेन, ताजमहल से होती हुई बहुत बाद में आम्रपाली, नूरजहां, हरिश्चंद्र तारामती, सती-सावित्री, पाकीजा और अस्सी के दशक तक आते-आते रजिया सुल्तान एवं उत्सव तक फैली हुई है. इन फिल्मों के गीतों का उल्लेख होने भर से तमाम अमर धुनों और लता जी की आवाज का जादू मन-मस्तिष्क में घुलने लगता है. इस तरह की पीरियड फिल्मों के संदर्भ में एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि इनके गीतों को सुनते हुए यह ध्यान ही नहीं आता कि इनकी पृष्ठभूमि में कोई पौराणिक, मिथकीय या ऐतिहासिक कथा आकार ले रही है. वहां सिर्फ गीत की अपनी स्नेहिल मौजूदगी में वही जादू घटता है जो किसी दूसरे और निहायत अलग विषय-वस्तु के सिनेमा में भी महसूस किया जाता रहा है. मसलन, ‘आजा भंवर सूनी डगर’ (रानी रूपमती), ‘शाम भई घनश्याम न आए’ (कवि कालिदास), ‘खुदा निगहबान हो तुम्हारा’ (मुगले आजम), ‘जुर्मे उल्फत पे हमें लोग सजा’ (ताजमहल), ‘तड़प ये दिन रात की’ (आम्रपाली), ‘ऐ दिले नादां’ (रजिया सुल्तान), ‘नीलम के नभ छाई’ (उत्सव) जैसे गाने सिर्फ किरदारों की जद में कैद नहीं रहते. इस तरह की कोई स्थिति या संभावना तक पहुंचने की प्रतिष्ठा शायद किसी कलाकार के लिए सबसे बड़ी उपलब्धि है. यहां प्रसिद्ध नाटककार विजय तेंदुलकर की यह उक्ति ध्यान देने योग्य है, ‘लड़की एक रोज गाती है. गाती रहती है अनवरत. यह जगत व्यावहारिकता पर चलता है, तेरे गीतों से किसी का पेट नहीं भरता. फिर भी लोग सुनते जा रहे हैं पागलों की तरह.’
लताजी संगीतकार मदन मोहन द्वारा रचित गीत बैरन नींद न आये (चाचा जिन्दाबाद, 1959) को अपने संगीत यात्रा की एकमात्र त्रुटिहीन गायिकी और सम्पूर्ण रचना के रूप में देखती हैं.शायद इसीलिए एक से बढ़कर एक कालजयी फिल्में, बड़े नामचीन कलाकार, सिल्वर व गोल्डन जुबलियां, गीतकार, संगीत निर्देशक, सभी लता मंगेशकर के खाते में आने वाली उनकी अचूक प्रसिद्धि की चमक को फीका नहीं कर पाते. उन सफल फिल्मों में शायद लता ही एक ऐसी स्थायी सच्चाई हैं, जिसका कोई दूसरा पर्याय नहीं उभर पाता. अब इतिहास बन चुका राजकपूर के साथ उनका रॉयल्टी का झगड़ा, और बाद में इस सोच के चलते कि लता का रिप्लेसमेंट नहीं हो सकता, उन्हें अपने कैंप में वापस लाना या दादा एसडी बर्मन का यह सोचना कि लता अगर गाएगी, तो हम सेफ हैं; बेहद अनुशासनप्रिय संगीतज्ञ मास्टर गुलाम हैदर का यह कथन ‘अगर उसका दिमाग संतुलित रहा तो वह आसमान को छू जाएगी’ या फिर वायलिन वादक यहूदी मेन्यूहिन की स्वीकारोक्ति ‘शायद मेरी वायलिन आपकी गायिकी की तरह बज सके’ और उस्ताद बड़े गुलाम अली खां की जगप्रसिद्ध सूक्ति ‘कमबख्त, कभी बेसुरी नहीं होती’ आवाज की सत्ता का एहतराम करने जैसे हैं.
लता मंगेशकर पर अक्सर नुक्ताचीनी करने वाले यह आरोप लगाते रहे हैं कि उनका गायन फिल्मों तक सीमित है, उसमें शास्त्रीयता के लिए कोई जगह नहीं है. उनके लिए, जिन्होंने कभी भी फिल्म संगीत को स्तरीय न मानने की जबरन एक गलतफहमी पाल रखी है, लता एक चुनौती से कम नहीं हैं. भेंडी बाजार घराने के मशहूर उस्ताद अमान अली ख़ां तथा उस्ताद अमानत ख़ां देवास वाले से बकायदा गंडा बंधवाकर लता जी ने संगीत की शिक्षा ली है. बाद में उस्ताद बड़े गुलाम अली खां के शागिर्द पं तुलसीदास शर्मा ने भी उन्हें शास्त्रीय संगीत की तालीम दी. लता मंगेशकर की ख्याति भले ही फिल्म संगीत की वजह से रही हो, पर इससे कौन इनकार कर सकता है कि उन्होंने फिल्मी गीतों में उसी तरह शास्त्रीयता का उदात्त रंग भरा है, जिस तरह देवालयों, नौबतखानों एवं राजदरबारों में बजने वाली शगुन की शहनाई में उस्ताद बिस्मिल्ला खां ने राग और आलापचारी भरे.
लता जी की संगीत यात्रा को देखने पर यह महसूस होता है कि उनके गायन की खूबियों के साथ चहलकदमी करने में सितार प्रमुखता से उनके साथ मौजूद रहा है. सितार की हरकतों, जमजमों और मींड़ों का काम देखने के लिए लता के गाए ढेरों सुंदर गीत याद किए जा सकते हैं. ‘ओ सजना बरखा बहार आई’ (परख), ‘हाय रे वो दिन क्यूं न आए’ (अनुराधा), ‘मेरी आंखों से कोई नींद लिए जाता है’ (पूजा के फूल), ‘हम तेरे प्यार में सारा आलम खो बैठे’ (दिल एक मंदिर), ‘मैं तो पी की नगरिया जाने लगी’ (एक कली मुस्काई), ‘आज सोचा तो आंसू भर आए’ (हंसते जख्म) जैसे तमाम गीतों में सितार की हरकतों के साथ उनकी आवाज को पकड़ना एक बेहद मनोहारी खेल बन जाता है. लता की गायन शैली का अध्ययन करने पर यह बात खुलती है कि किस तरह शास्त्रीय संगीत की रागदारी, तालों, मात्राओं और लयकारी के अलावा प्रमुख भारतीय वाद्यों सितार, सरोद, बांसुरी, शहनाई और वीणा ने भी उनके गले के साथ जबर्दस्त संगत की है. इस तरह के ढेरों गीत याद किए जा सकते हैं जिनमें पन्नालाल घोष की बांसुरी, उस्ताद बिस्मिल्ला खां की शहनाई, उस्ताद अली अकबर खां का सरोद, उस्ताद अल्लारक्खा का तबला, पं रामनारायण की सारंगी, उस्ताद अब्दुल हलीम जाफर खां एवं रईस खां का सितार लता मंगेशकर की आवाज़ के सहोदर बनकर फिल्म संगीत को शास्त्रीयता के बड़े फलक पर ले जाते हैं. बांसुरी के साथ आत्मीय जुगलबंदी के लिए मैं पिया तेरी तू माने या न माने (बसंत बहार), सरोद की लय पर आवाज की कशिश के लिए ‘सुनो छोटी-सी गुडि़या की लंबी कहानी’ (सीमा) एवं शहनाई के छंद को समझने के लिए ‘दिल का खिलौना हाय टूट गया’ (गूंज उठी शहनाई) सुने और महसूस किए जा सकते हैं. हम चकित होते हुए यह सोचते रह जाते हैं कि आवाज के विस्तार और उसकी लोचदार बढ़त में वाद्य किस तरह सहधर्मी बन सकता है.
लता मंगेशकर को कारों से विशेष लगाव है. शेवरले, मर्सीडीज, ब्यूक क्रेस्लर से लेकर आज की लगभग सभी प्रमुख कारें उनके गैरेज की शोभा बन चुकी हैं. कभी उनके पास तीन-तीन शेवरले हुआ करती थीं.यदि लता जी के संगीत में शास्त्रीयता की नुमाइंदगी खोजनी हो, तब बहुतेरे ऐसे गीतों को याद किया जा सकता है, जिनमें रागदारी और आलापचारी, तानें और मुरकियां, मींड़ और गमक अपने सर्वोत्तम रूपों में मिलती हैं - ‘घायल हिरनिया मैं बन-बन डोलूं’ (मुनीम जी) में सरगम की तानें अपने शुद्ध रूप में मौजूद पाई जा सकती हैं. मींड़ के बारीक काम के लिए ‘रसिक बलमा’ (चोरी-चोरी) को बार-बार सुना जा सकता है. आलाप के एकतान सौंदर्य के लिए ‘डर लागे चमके बिजुरिया’ (रामराज्य) को कोई कैसे भूल सकता है. लयदार तानों और गमक का एहसास लिए हुए ‘सैंया बेईमान’ (गाइड) अनायास ही याद आते हैं. उनके असंख्य गीत ऐसे हैं जिनमें रागदारी अपने शुद्धतम एवं मधुर रूप में व्यक्त हुई है. मसलन ‘ज्योति कलश छलके’ - ‘भाभी की चूडि़यां’ (राग भूपाली), ‘अल्लाह तेरो नाम’ - हम दोनों (राग मिश्र खमाज), ‘पवन दीवानी न माने’ - डॉ विद्या (राग बहार), ‘गरजत बरसत भीजत अइलो’ - मल्हार (राग गौड़ मल्हार), ‘मनमोहना बड़े झूठे’ - सीमा (राग जयजयवंती), ‘मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गयो रे - मुगले आजम (राग मिश्र गारा), ‘चाहे तो मोरा जिया लइले सांवरिया’ - ममता (राग पीलू), ‘राधा न बोले न बोले रे’ - आजाद (राग बागेश्री), ‘नैनों में बदरा छाये’ - मेरा साया (राग मधुवन्ती), ‘ए री जाने न दूंगी’ - चित्रलेखा (राग कामोद), ‘कान्हा-कान्हा आन पड़ी मैं तेरे द्वार’ - शागिर्द (राग मांझ खमाज), ‘नदिया किनारे’-अभिमान (राग पीलू) तथा ‘मेघा छाए आधी रात’ - शर्मीली (राग पटदीप). यह अंतहीन सूची है, जिसमें अभी तकरीबन हजारों ऐसे ही उत्कृष्ट गीतों को बड़ी आसानी से शामिल किया जा सकता है.
यह देखना लता मंगेशकर के गायन में बहुत महत्त्व रखता है कि पिछले साठ साल में उनकी आवाज में शंकर-जयकिशन की अनगिनत भैरवियों, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की ढेरों पूरिया धनाश्रियों और शिवरंजनियों, एसडी बर्मन की अधिसंख्य बिहाग, तोड़ी और बहारों के साथ मदन मोहन की तमाम छायानटों एवं भीमपलासियों ने आकार लिया है. तमाम सारे दिग्गज एवं अगली पंक्ति के इन बड़े संगीतकारों के साथ-साथ लता की आवाज ने चित्रगुप्त, दत्ताराम, एसएन त्रिपाठी, रामलाल, रवि, स्नेहल भाटकर, हंसराज बहल, जीएस कोहली, सुधीर फड़के, पंडित अमरनाथ और एन दत्ता जैसे संगीतकारों के साथ भी शास्त्रीय ढंग के कुछ बेहद अविस्मरणीय गीत गाए हैं. शायद इसीलिए सालों पहले शास्त्रीय गायक पं कुमार गंधर्व ने लता जी पर पूरा एक लेख उनकी गायकी की खूबी बखानने के उद्देश्य से लिखा था. उनका मानना था, ‘जिस कण या मुरकी को कंठ से निकालने में अन्य गायक और गायिकाएं आकाश-पाताल एक कर देते हैं, उस कण, मुरकी, तान या लयकारी का सूक्ष्म भेद वह सहज ही करके फेंक देती है.’
लता मंगेशकर विधिवत शिक्षा तो नहीं ले सकीं, मगर न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी तथा यॉर्क यूनिवर्सिटी, कनाडा के अलावा देश भर के दस विश्वविद्यालयों ने उन्हें मानद डी.लिट. की उपाधि से विभूषित किया है. लता जी के जीवन में एक दौर ऐसा भी आया जब जिस फिल्म में उनका गाना न होता, समझा जाता कि वह पिट गई अगर एक गाना भी उन्होंने गाया, तो सबसे ज्यादा लोकप्रिय वही होता. लता के गानों की वजह से कई बार ऊलजलूल और अति साधारण फिल्मों तक का बाजार चल पड़ता था. बहुतेरी फिल्में दूसरे-तीसरे दरजे की भी हों, तो भी गाने ऐसे होते कि जी करता सुनते रहें और वे रेडियो पर बार-बार फरमाइशों के दौर तले ऐतिहासिक बनते जाते. जिस जमाने में नयी फिल्मों के गानों को रेडियो पर सुनने की होड़ लगी रहती थी, उनमें भी सबसे ज्यादा दीवाने लता की आवाज के ही होते थे. सबसे मजेदार बात तो यह है कि जिन प्रणय गीतों पर हमारे दादा-दादी के जमाने के लोग आनंदित और तरंगित हो जाते थे, आज बरसों बाद हम भी उन्हीं गीतों को सुनकर उतने ही रोमांचित हो उठते हैं. आज के युवाओं में से शायद ही कोई कहेगा कि आवारा, श्री 420, चोरी-चोरी, गाइड, अनाड़ी, आराधना, शागिर्द, आपकी कसम, कभी-कभी और अनामिका जैसी फिल्मों के प्रणय गीत उनमें कोई हरारत पैदा करने में अक्षम हैं. ‘आजा सनम मधुर चांदनी में हम’ (चोरी-चोरी), ‘गाता रहे मेरा दिल’ (गाइड), ‘आसमां के नीचे’ (ज्वैलथीफ, ‘कोरा कागज था ये मन मेरा’ (आराधना), ‘तेरे मेरे मिलन की ये रैना’ (अभिमान) या ‘देखा एक ख्वाब तो ये सिलसिले हुए’ (सिलसिला) जैसे शाश्वत अमर प्रेम गीतों को याद करने के लिए भी क्या किसी उम्र, दौर, शहर की जरूरत है?

लता जी ने चार फिल्मों बादल (मराठी, 1953), झांझर (हिन्दी, 1953, सहनिर्माता सी. रामचन्द्र), कंचन (हिन्दी, 1955) और लेकिन (हिन्दी, 1989) का निर्माण भी किया है.लता मंगेशकर के संगीत जीवन के ब्यौरों को खंगालने पर ढेरों ऐसी बातों से भी हम रूबरू होते हैं, जो उनके अडिग चरित्र की एक सादगी भरी बानगी व्यक्त करती हैं. कुछ सिद्धांतों व मान्यताओं पर पिछले साठ-सत्तर साल में कोई भी व्यक्ति उन्हें डिगा नहीं सका. उन्होंने यह तय कर रखा था कि फूहड़ व अश्लील शब्दों के प्रयोग वाले गीत वे नहीं गाएंगी. इसका परिणाम यह हुआ कि सिचुएशन के लिहाज से जरूरी ऐसे गीतों में भी गरिमापूर्ण शब्द इस्तेमाल किए जाने लगे. यह भी लता मंगेशकर के फिल्मी सफर का एक महत्वपूर्ण पहलू रहा कि जिस मर्यादा और गरिमा को चुनते हुए उन्होंने अपनी निराली राह बनाई, उसमें संगीत का सफरनामा उनकी तयशुदा शर्तों पर ही संभव होता रहा. किसी संगीत निर्देशक की यह हिम्मत ही नहीं होती थी कि वह कुछ सस्ते जुमले वाले गीतों को लेकर उनके पास जाए. राजकपूर निर्देशित ‘संगम’ फिल्म का गीत ‘मैं का करूं राम मुझे बुढ्ढा मिल गया’, जैसे इक्का-दुक्का गीतों के गाने को वे आज भी अपनी भारी भूल मानती हैं. उन्होंने अपने पूरे संगीत कॅरियर में केवल तीन कैबरे गीत गाए, जो उनके शालीन ढंग के गायन के चलते, ठीक से कैबरे भी नहीं माने जा सकते. ये तीन कैबरे गीत थे ‘मेरा नाम रीटा क्रिस्टीना’ (अप्रैल फूल, 1964), ‘मेरा नाम है जमीला’-(नाइट इन लंदन, 1967) एवं ‘आ जाने जां’-(इंतकाम, 1969). इस एक बात का जिक्र भी बेहद जरूरी है कि फिल्मों में प्रयुक्त होने वाले मुजरा गीतों को गाने में वे कभी सहजता महसूस नहीं करती थीं, बावजूद इसके सबसे ज्यादा लोकप्रिय एवं स्तरीय मुजरा गीत उन्हीं के खाते में दर्ज हैं. पुराने दौर में नौशाद से लेकर एसडी बर्मन, रोशन, मदन मोहन, शंकर-जयकिशन, गुलाम मोहम्मद एवं एन दत्ता जैसे प्रमुख संगीतकारों ने लता से बेहद मेलोडीयुक्त, संवेदनशील एवं साहित्यिक किस्म के मुजरा और महफिल गीत गवाए. इस तरह के गीतों में, जिनसे लता की एक अलग ही और गंभीर किस्म की छवि बनती है. कुछ गीत हैं ‘यहां तो हर चीज बिकती है कहो जी तुम क्या-क्या खरीदोगे’ (साधना), ‘उनको ये शिकायत है’ (अदालत), ‘रहते थे कभी जिनके दिल में’ (ममता), ‘कभी ऐ हकीकते मुंतजर’ (दुल्हन एक रात की), ‘ठाढे़ रहियो ओ बांके यार’ (पाकीजा), ‘राम करे कहीं नैना न उलझे’ (गुनाहों का देवता), ‘सनम तू बेवफा के नाम से’ (खिलौना), ‘सलामे इश्क’ (मुकद्दर का सिकंदर) आदि. इन गीतों को जिसने भी सुना होगा वे सहमत होंगे कि फिल्म संगीत से हटकर बैठकी महफिल में गाई जाने वाली ठुमरी और दादरों की तरह की अदायगी का लता मंगेशकर ने इन मुजरा गीतों में पुनर्वास किया है. इनमें से कई तो बरबस रसूलनबाई, बड़ी मोतीबाई, विद्याधरी एवं सिद्धेश्वरी देवी के बोलबनाव के दादरों एवं ठुमरियों की याद दिलाते हैं.

लता की आवाज की चरम उपलब्धि के रूप में अधिकांश वे दर्द भरे गीत भी गिने जा सकते हैं जिन्हें पूरी शास्त्रीय गरिमा, मंदिर की सी निश्छल पवित्रता एवं मन की उन्मुक्त गहराई से उन्होंने गाया है. ऐसे गीत एक हद तक मनुष्य जीवन की तमाम त्रासदियों, विपदाओं, दुख, वेदना और पीड़ा को कलाओं के आंगन में जगह देते से प्रतीत होते हैं. उनकी इस तरह की गायिकी की एक बिल्कुल अलग और व्यापक रेंज रही है, जिसमें कई बार भक्ति संगीत भी स्वयं को शामिल पाता है. यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि हृदयनाथ मंगेशकर के बेहद प्रयोगधर्मी संगीत पर गाए हुए उनके मीरा भजन, वेदना और टीस की उतनी ही सफल अभिव्यक्ति करते हैं जितना कि सिनेमा में पीड़ा के अवसरों पर गाए गए उनके मार्मिक गीत. ‘जो तुम तोड़ो पिया’ (झनक-झनक पायल बाजे), ‘जोगिया से प्रीत किए दुख होए’ (गरम कोट), ‘पिया ते कहां गए नेहरा लगाय’ (तूफान और दीया), ‘हे री मैं तो प्रेम दीवानी’ (नौबहार), ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’ (राजरानी मीरा) जैसे अद्भुत मीरा-भजनों के बरक्स हम बड़ी सहजता से उन गीतों को याद कर सकते हैं, जहां नायिका का गम लता की आवाज में बहुत ऊपर उठकर अलौकिक धरातल को स्पर्श कर जाता है. ऐसे में ‘न मिलता गम तो बरबादी के अफसाने’ (अमर), ‘तुम न जाने किस जहां में खो गए’ (सजा), ‘हम प्यार में जलने वालों को’ (जेलर), ‘वो दिल कहां से लाऊं’ (भरोसा), ‘तुम क्या जानो तुम्हारी याद में’ (शिन शिनाकी बूबला बू), ‘ये शाम की तनहाइयां’ (आह), ‘हाय जिया रोए पिया नाहीं आए’ (मिलन), ‘मेरी वीणा तुम बिन रोए’ (देख कबीरा रोया), ‘फिर तेरी कहानी याद आई’ (दिल दिया दर्द लिया), ‘दुनिया करे सवाल तो हम क्या जवाब दें’ (बहू बेगम) जैसे गीतों को याद करना भक्ति और पीड़ा के समवेत भाव को एक ही मनोदशा में याद करना है. यह लता मंगेशकर के यहां ही संभव है कि एक ही आवाज का सुर संसार इतना विस्तृत हो सका कि उसमें जीवन के तमाम पक्षों की अप्रतिम अदायगी भजन, लोरी, गजल, कव्वाली, हीर, जन्म, सोहर, ब्याह, विदाई, प्रार्थना, प्रणय, मुजरा, लोक-संगीत, देश-प्रेम, होली, विरह, नात, नृत्य आदि के माध्यम से श्रेष्ठतम रूपों में अभिव्यक्त होती रही.
अपना नाम बदलकर आनन्दघन नाम से लता मंगेशकर ने चार मराठी फिल्मों में संगीत भी दिया है.यह लता मंगेशकर के जीवन का ही सुनहरा पन्ना है कि तमाम सारे कर्णप्रिय सफलतम गीतों के बीच कुछ ऐसी अभिव्यक्तियों में भी वे समय-समय पर मुब्तिला रहीं जिन्होंने उन्हें एक अलग ही प्रकार की गरिमा और सम्मान का अधिकारी बना दिया. इस बात को कौन भूला होगा कि भारत-चीन युद्ध के उपरांत शहीदों के प्रति आभार जताने के क्रम में पंडित प्रदीप का लिखा और सी रामचंद्र का संगीतबद्ध ऐतिहासिक गीत ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ को गाने का सौभाग्य न सिर्फ लता के खाते में आया बल्कि पंडित नेहरू का उसे सुनकर रो पड़ना, उनके कद को बहुत गरिमा के साथ कई गुना बढ़ा गया. यह लता ही थीं कि जब पहली बार क्रिकेट का विश्वकप जीतकर कपिल देव भारत आए, टीम की हौसला अफजाई करने एवं उसके सदस्यों को आर्थिक सहायता पहुंचाने के उद्देश्य से उन्होंने एक चैरिटी कार्यक्रम आयोजित करके उसमें स्वयं गाया. उन्होंने विदेश में पहली बार 1974 में लंदन के रॉयल अल्बर्ट हॉल में अपनी प्रस्तुति मात्र इस कारण दी कि विदेशों में नेहरू सेंटर की गतिविधियों की खातिर धन एकत्र किया जा सके. एक ओर वे बीमार महबूब खान को पूरे हफ्ते भर फोन पर ‘रसिक बलमा’ सुनाती रहीं, तो दूसरी ओर लंदन में नूरजहां के घर में उनके अनुरोध पर लिफ्ट में ही ‘ऐ दिले नादां’ गाकर उन्हें प्रसन्न किया.

यह लता के गायन की विविधता ही है कि साहिर लुधियानवी की जनवादी कलम से निकली शाहकार रचना ‘अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम’ में उन्होंने उतने ही लय, गमक और प्राण डाले जितने कि भक्त कवि तुलसीदास के पद ‘ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैजनियां’ में आस्था के सुर. एक तरफ वे हृदय को चीर देने वाला बेधक नात ‘मेरा बिछड़ा यार मिला दे सदका रसूल का’(सोहनी महीवाल) गाकर दुख के सात आसमान रच देती हैं, तो ठीक उसी क्षण कुछ शोख, कुछ नटखट ढंग से ‘सायोनारा’ (लव इन टोकियो) कहती हुई बहुतेरे युवाओं को घायल कर डालती हैं. जयदेव के संगीत पर एक बार फिर से शहीदों को नमन करते हुए बेहद श्रुतिमधुर ‘जो समर में हो गए अमर मैं उनकी याद में’ जैसा गीत गाकर एक बार फिर से देशप्रेम का जज्बा उकेरने में सफल रहती हैं, तो पंडित भीमसेन जोशी के सुर में सुर मिलाते हुए ‘राम का गुन गान करिए’ जैसा मनोहारी भजन रचने में व्यस्त हो जाती हैं.
लता जी ऋषिकेश मुखर्जी निर्देशित मुसाफिर (1957) फिल्म के लिये प्रख्यात कलाकार दिलीप कुमार के साथ एक युगल गीत गाया था, जिसके बोल हैं लागी नाहीं छूटे रामा.लता जहां बेगम अख्तर की गाई गजल ‘दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे’ के प्रति आसक्त हैं, तो वहीं बेगम अख्तर उनकी गाई हुई दस्तक फिल्म की गजल ‘हम हैं मताए कूचा ओ बाजार की तरह’ पर दिलोजान से कुर्बान हैं. रीमिक्स और कवर वर्जन के दौर में जब प्रतिभाशाली संगीतकार तक उनके गाए हुए गीतों की नकल करके एक नया बाज़ार तैयार कर रहे हैं, स्वयं लता बहुत पहले ऐसे ढेरों सलोने गीतों को अपने विशुद्ध मौलिक अंदाज में गाकर मकबूल बना चुकी हैं. यह तथ्य भी उनकी मेडलों की फेहरिस्त में इजाफा करता है कि अपने से आधी उम्र से कम के युवा गायकों एवं संगीतकारों के साथ कदम से कदम मिलाते हुए वे आज भी जीवंत रूप से सक्रिय और कर्मशील हैं. सबसे शानदार क्षण तो उनके सांगीतिक संसार में तब दिखता है, जब भारत की विविधवर्णी सांस्कृतिक छवि को दिखाने वाली एक छोटी-सी प्रस्तुति के अंत में ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ गाते हुए वे अपने बायें कंधे पर तिरंगा आंचल की तरह पसारती हैं. तब अचानक ऐसा लगता है कि शायद यही उनकी सबसे महत्वपूर्ण और मुकम्मल पहचान है.
यह अकारण नहीं है कि जीवन भर संगीत, रिकॉर्डिंग स्टूडियो एवं मंचों को मंदिर मानने वाली इस गायिका के यहां गुरु से सीखा हुआ वही भूपाली राग सर्वाधिक प्रिय रहा जिसमें घर-आंगन और मंदिर को पवित्र करने वाला प्रार्थना गीत रचा गया है. ‘ज्योति कलश छलके, हुए गुलाबी लाल रुपहले रंग-दल बादल के, ज्योति यशोदा धरती मैया नील गगन गोपाल कन्हैया, श्यामल छवि झलके’ की अद्भुत अलौकिक सृष्टि के धरातल में घर-आंगन को धोते हुए रंगोली सजाने, तुलसी के बिरवे पर जल चढ़ाने के साथ जिस दीपदान की कल्पना रची गई है, शायद वह भारतीय समाज की सबसे प्रासंगिक सांस्कृतिक छवि है.
अनगिनत मानद उपाधियां, फिल्म ट्रॉफियां, देश-विदेश के तमाम नागरिक सम्मान सहित ‘भारत रत्न’ जैसे अलंकरण चाहे कितने भी बड़े क्यों न हों उनकी एक सुरीली आहट पर फीके पड़ जाते हैं. लता जी बारे में एक बार उस्ताद बिस्मिल्ला खां ने कहा था कि अगर सरस्वती होंगी तब वह उतनी ही सुरीली होंगी जितनी कि लता मंगेशकर हैं. हम सभी गर्व कर सकते हैं कि हम उस हवा में सांस ले सकते हैं जिसमें साक्षात सरस्वती की आवाज भी सुर लगाते हुए सांस ले रही है.

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