सिनेमा का प्रचार-प्रसार दिन-दिन बढ. रहा है. केवल
इंग्लैंड में दो करोड. दर्शक प्रति-सप्ताह सिनेमा देखने जाते हैं. इसलिए प्रत्येक
राष्ट्र का फर्ज हो गया है कि वह सिनेमा की प्रगति पर कड़ी निगाह रखे और इसे केवल
धन-लुटेरों के ही हाथ में न छोड. दे. व्यवसाय का नियम है कि जनता में जो माल
ज्यादा खपे, उसकी तैयारी में लगे. अगर जनता को ताडी-शराब से रुचि है, तो वह ताड.ी-शराब की
दुकानें खोलेगा और खूब धन कमायेगा. उसे इससे प्रयोजन नहीं कि ताडी-शराब से जनता को
कितनी दैहिक, आत्मिक, चारित्रिक, आर्थिक और पारिवारिक हानि पहुंचती है. उसके जीवन का उद्देश्य तो धन है और
धन कमाने का कोई भी साधन वह नहीं छोड. सकता. यह काम उपदेशकों और संतों का है कि वे
जनता में संयम और निषेध का प्रचार करें. व्यवसाय तो व्यवसाय है. ‘बिजनेस इज बिजनेस’ यह वाक्य सभी की
जुबान पर रहता है.
इसमें तो सभी सहमत होंगे कि आदमी में दैविकता भी है
और पाशविकता भी. अगर आदमी एक वक्त में किसी की हत्या कर सकता है, तो दूसरे अवसर पर
किसी की रक्षा में अपने प्राणों को होम भी कर सकता है. आदि-काल से साहित्य काव्य
और कलाओं का यही ध्येय रहा है कि आदमी में जो पशुत्व है उसका दमन करके, उसमें जो देवत्व है
उसको जगाया जाये. उसमें जो निम्न भावनाएं हैं उनको दबा कर या मिटा कर कोमल और
सुंदर वृत्तियों को सचेत किया जाये. साहित्य और काव्य में भी ऐसे समय आये हैं, और आते रहते हैं, जब सुंदर का पक्ष
निर्बल हो जाता है और वह असुंदर, वीभत्स और दुर्वासना का राग अलापने लगता है. लेकिन
जब ऐसा समय आता है, तो हम उसे पतन का युग कहते हैं. इसी उद्देश्य से साहित्य और कला में केवल
मानव-जीवन की नकल करने को बहुत ऊंचा स्थान नहीं दिया जाता और आदशरें की रचना करनी
पड.ती है. किसी साहित्य की महत्ता की जांच यही है कि उसमें आदर्श चरित्रों की
सृष्टि हो. हम सब निर्मल जीव हैं, छोटे-छोटे प्रलोभनों में पड.कर हम विचलित हो जाते
हैं, छोटे-छोटे
संकटों के सामने हम सिर झुका देते हैं. और जब हमें अपने साहित्य में ऐसे चरित्र
मिल जाते हैं, तो हमें उनसे प्रेम हो जाता है, हममें साहस का जागरण होता है और हमें अपने जीवन का
मार्ग मिल जाता है.
अगर सिनेमा इसी आदर्श को सामने रख कर अपने चित्रों
की सृष्टि करता, तो वह आज संसार की सबसे बलवान संचालक शक्ति होता, मगर खेद है कि इसे
कोरा व्यवसाय बना कर हमने उसे कला के ऊंचे आसन से खींच कर ताड.ी या शराब की दुकान
की सतह तक पहुंचा दिया है. यही कारण है कि अब सर्वत्र यह आंदोलन होने लगा है कि
सिनेमा पर नियंत्रण रखा जाये और उसे मनुष्य की पशुताओं को उत्तेजन देने की
कुप्रवृत्ति से रोका जाये.
जिस जमाने में बंबई में कांग्रेस का जलसा था, सिनेमा-हाल अधिकांश
में से खाली रहते थे, और उन दिनों जो चित्र दिखाये गये, उनमें घाटा ही रहा. इसका कारण इसके सिवा और क्या हो
सकता है कि जनता के विषय में जो ख्याल है कि वह मारकाट और सनसनी पैदा करने वाली और
शोरगुल से भरी हुई तसवीरों को ही पसंद करती है, वह भ्रम है. जनता प्रेम और त्याग
अथवा मित्रता और करुणा से भरी हुई तसवीरों को और भी रुचि से देखना चाहती है; मगर हमारे
सिनेमावालों ने पुलिसवालों की मनोवृत्ति से काम लेकर यह समझ लिया है कि केवल भद्दे
मसखरेपन और भडैती और बलात्कार और सौ फीट की ऊंचाई से कूदने, झूठ-मूठ टीन की तलवार
चलाने में ही जनता को आनंद आता है और कुछ थोड़ा-सा आलिंगन और चुंबन तो मानो सिनेमा
के लिए उतना ही जरूरी है जितना देह के लिए आंखें. बेशक जनता वीरता देखना चाहती है.
प्रेम के दृश्यों में भी जनता को रुचि है, लेकिन यह ख्याल करना कि आलिंगन और चुंबन के बिना
प्रेम का प्रदर्शन हो ही नहीं सकता; और केवल नकली तलवार चलाना ही जवांमर्दी है, और बिना जरूरत गीतों
का लाना सुरुचि है, और मन और कर्म की हिंसा में ही जनता को आनंद आता है, मनोविज्ञान का
बिल्कुल गलत अनुमान है. कहा जाता है कि शेक्सपियर के शब्दों में, जनता अबोध बालक है.
और वह जिन बातों पर एकांत में बैठकर घृणा करती है, या जिन घटनाओं को अनहोनी समझती है, उन्हीं पर सिनेमा-हाल
में बैठकर उल्लास से तालियां बजाती है. इस कथन में सत्य है. सामूहिक मनोविज्ञान की
यह विशेषता अवश्य है. लेकिन अबोध बालक को क्या मां की गोद पसंद नहीं? जनता नग्नता और
फक्कड.ता और भडैती ही पसंद करती है, उसे चूमा-चाटी और बलात्कार में ही मजा आता है, तो क्या उसकी इन्हीं
आवश्यकताओं को मजबूत बनाना हमारा काम है? व्यवसाय को भी देश और समाज के कल्याण के सामने
झुकना पड.ता है. स्वदेशी आंदोलन के समय में किसकी हिम्मत थी कि जो ‘बिजनेस इज बिजनेस’ की दुहाई देता? बिजनेस से अगर समाज
का हित होता है, तो ठीक है; वर्ना ऐसे बिजनेस में आग लगा देनी चाहिए. सिनेमा अगर हमारे जीवन को स्वस्थ
आनंद नहीं दे पाता है, हममें निर्लज्जता, धूर्तता और कुरुचि को बढ़ाता है, और हमें पशुता की ओर
ले जाता है, तो जितनी जल्द उसका निशान मिट जाये, उतना ही अच्छा.
और अब यह बात धीरे-धीरे समझ में आने लगी है कि
अर्धनग्न तसवीरें दिखाकर और नंगे नाचों का प्रदर्शन करके जनता को लूटना इतना आसान
नहीं रहा. ऐसी तसवीरें अब आमतौर पर नापसंद की जाती हैं, और यद्यपि अभी कुछ
दिनों जनता की बिगड.ी हुई रुचि आदर्श चित्रों को सफल न होने देगी लेकिन
प्रतिक्रिया बहुत जल्द होने वाली है और जनमत अब सिनेमा में सो और सुसंस्कृत जीवन
का प्रतिबिंब देखना चाहता है, राजाओं के विलासमय जीवन और उनकी अय्याशियों और लड़ाइयों से किसी को प्रेम नहीं रहा.
हंस, मार्च, 1935 में प्रकाशित
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