रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

बुधवार, 1 मई 2013

सांस्कृतिक नीति : रंगकर्म: राजनीति: गुटबाज़ी -बापी बोस



बापी बोस 
यह अवधारणा सही है या गलत है, जिसके तहत राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय बना है, यह अलग बात है। उसके कई स्वरूप हैं, जिसमें रंगमंच के शैक्षिक कार्यक्रम, अलग-अलग तरह की नाट्य प्रस्तुति,नाटक के उत्सव करने, दूर दराज के इलाकों में कार्यशालाएं आयोजित करने, रंगमंडल, बाल रंगमंडल, थिएटर-इन-एजुकेशन, पत्रिका प्रकाशन, हिंदी और अंग्रेजी में पुस्तकों के प्रकाशन जैसी (सच पूछिये तो भारत के सांस्कृतिक जीवन में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का आगमन एक मील का पत्थर, एक सांस्कृतिक घटना है। आज यह इस महादेश का सबसे बड़ा नाट्य शिक्षण प्रतिष्ठान दुनिया में अपनी विविधता के लिये जाना जाता है) उसकी योजनाएं अच्छी हैं। 
अब इससे क्या हासिल हुआ या हो रहा है इस पर सवाल उठते हैं और उठते रहेंगे भी। पर इस बीच कुछ अच्छी चीज तो हुई है सारा का सारा बेकार गया ऐसा नहीं कह सकते। इसका यह मतलब भी नहीं कि आप यह कहते फिरें कि हिन्दुस्तान के नाटक का कर्णधार राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ही है। मैं स्वयं राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल के निर्देशकों में रहा हूं पर मैं यह मानता हूं कि आज भी हिन्दुस्तान के रंगमंच की जो प्राण-धारा है वह दूरदराज के एमेच्योर नाट्य दलों द्वारा किया जाने वाला रंगमंच है जो देश भर में फैला है। यह बात अलग है कि वे इसे जीविका के तौर पर नहीं कर पाते, पर शायद यही उसकी सबसे बड़ी शक्ति भी है। इधर-उधर से आजीविका का जुगाड़ करके शाम के तीन-चार घंटे रंगमंच करने वाले ये जो रंगकर्मी हैं वे अपना काम बड़ी ईमानदारी के साथ करते हैं। वो बिकाऊ नहीं हैं, वे जेब से नहीं हृदय से नाटक करते हैं। अगर उनका अभिनय बहुत समर्थ नहीं है, तो इस दिशा में प्रयास किए जाने की जरूरत है। सिर्फ कला के व्याकरण के आधार पर आप उनके योगदान को कम करके नहीं आंक सकते। अगर सोद्देश्यता की बात करें, सामाजिक प्रभाव और सरोकार की बात करें तो हम उनके मुकाबले कहीं नहीं ठहरते। इस मामले में तो वे वास्तव में काबिले-तारीफ हैं। वही राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय अथवा अलग-अलग प्रदेशों में जो विश्वविद्यालयों के नाट्य विभाग हैं वे क्या कर रहे हैं? अब थिएटर में रोजी नहीं है ओर रंगकर्मी मुंबई चले जाते हैं तो आप उन्हें कठघरे में नहीं खड़ा कर सकते। आपने कौन-सी ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि वे थिएटर में रुक सकें? थिएटर करके गुजारा करना बहुत मुश्किल बात है पर वह एक अलग मसला है। 
मैं यह कहना चाहता था कि जो पुनर्जागरण आजादी के बाद हमारे देश के सांस्कृतिक क्षेत्र में, कला विधाओं में आया था, उसका विकास नहीं हुआ। उसमें निरंतरता नहीं लाई जा सकी। कला और संस्कृति के संवर्द्धन के लिए एक राष्ट्रीय अकादमी की जरूरत को ध्यान में रखते हुए संगीत नाटक अकादमी बनी। यह अच्छी बात है। जब साठ के दशक में पहली बार राष्ट्रीय सेमिनार हुआ था जिसे राउंड टेबल कान्फ्रैंस के नाम से जाना जाता है- जहां बड़े-बड़े लोग इकट्ठा हुए और नारा दिया कि ‘गो बैक टू द रूट्स!‘‘ कुछ अच्छे काम उस दौरान हुए भी पर सरकारी अफसरशाही के कारण सब कुछ ठप्प हो गया। 
यह बात सच है कि परंपरागत अथवा लोकनाट्य के तरह-तरह के तत्वों की आधुनिक रंगमंच में प्रचंड संभावना है, और इस बात का प्रमाण हमारे विभ्न्नि नाट्य विभूतियों जैसे- हबीब तनवीर, शीला भटिया, ब.व. कारंत, बाद में डाॅ. विजया मेहता, डाॅ. जब्बार पटेल, बंसी कौल, रतन थियम आदि की प्रस्तुतियों का आकलन करने से साफ दिखाई पड़ता है। दर्शकों ने अगर इन प्रस्तुतियों को गले लगाया तो उनकी बाहरी चमक-दमक से या ‘सरफेस क्वालिटी- सुपरफीसियल एप्रोच‘ में मतवाला होकर नहीं बल्कि जिन प्रस्तुतियों में लोक और परंपरा के तत्व उनकी ‘इनहेरेंट क्वालिटी‘ बन कर आयीं उन्हीं प्रस्तुतियों का दर्शक वर्ग ने स्वागत किया। इनमें से कुछ ता अंतर्राष्ट्रीय पटल पर भी अपनी छाप छोड़ गये। यह बात अलग है कि इनमें से ज्यादातर प्रस्तुतियों को आज ‘म्यूजियम पीस‘ के हिसाब से ही देखना अच्छा लगता है। वे आज के जीवन और यथार्थ की जटिलताओं को स्पष्ट नहीं करतीं।
जब सुरेश अवस्थी आए तो एक नया स्लोगन आया- ‘इन सर्च आॅफ इंडियननेस इन इंडियन थिएटर!‘ यानी भारतीय रंगमंच में भारतीयता की तलाश। अच्छे.अच्छे प्रयोग भी हुए, किंतु उसका आगे चल कर जो हश्र हुआ वह सब लोग जानते हैं। जैसे बाढ़ की तरह उस समय समूचे देश में फैल गयी थीं इस किस्म की अद्भुत नाट्य प्रस्तुतियां। जैसे तैसे कैसे भी परंपरागत अथवा लोक नाट्य तत्व किसी प्रस्तुति में जबरदस्ती घुसेड़ कर एक ‘एगमार्क‘ सटीक भारतीय नाट्य प्रस्तुति की जाये। खैर इसका मकसद कितना सही या गलत था इस बात का इतिहास गवाह है। किंतु साथ में यह भी एक प्रामाणिक सत्य है कि इस आंदोलन को दिशा देने के लिये वह केवल सरकारी नाट्य कर्म में सीमित नहीं रहा (विशेष रूप से राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पूर्व निदेशक के पद पर रहते हुए श्री ब.व. कारंत के समय में विद्यालय के नाट्य पाठ्य-क्रम में) बल्कि बाढ़ की तरह सरकार के विभिन्न प्रतिष्ठानों से लगातार ढेर सारा अर्थ बहाया गया था। लगातार। साथ में तरह-तरह की सुविधाओं के प्रलोभन, सरकारी आर्थिक अनुदान, विदेशी ग्रांट, तरह-तरह के सम्मान, पुरस्कार, आई सीसीआर की कृपादृष्टि, विदेश यात्राएं आदि आदि। शर्त केवल एक कि आपकी नाट्य प्रस्तुति एक सटीक ‘एगमार्क‘ भारतीय नाट्य प्रस्तुति हो। यह जो रंगमंच का खेल शुरू हुआ, बाद में इस कदर हास्यास्पद बन गया कि जिसकी कोई परंपरा नहीं थी, किसी भी लोक नाट्य शैली के साथ जिसका दूर दूर तक कहीं कोई आत्मिक लगाव, जुड़ाव या संबंध नहीं था, जिसका मिट्टी के साथ कभी कोई परिचय नहीं रहा था, वह भी बैठ गया इस ‘शइनिंग इंडिया‘ की सिल्क साड़ी बुनने। 
उसमें कुछ अच्छी बातें भी हुईं पर उस काम की शुरुआत संगीत नाटक अकादमी के प्रोत्साहन से पहले ही हो चुकी थी। भारतीयता के नारे के साथ सरकारी संरक्षण में यह जो रंगमंच शुरू हुआ उसमें ज्यादातर जड़ों से कटे हुए लोग काम कर रहे थे और इसलिए उसका जो स्वरूप सामने आया वह हास्यास्पद था। उन्होंने भारतीयता को फार्मूले में ढाल लिया था- ‘‘दीप प्रज्ज्वलित कर एक चम्मच शंखनाद, दो चम्मच पताका हिलाने के साथ मंगलाचरण अथवा गणेश वंदना, तीन चम्मच चंडा अथवा नक्कारों का भीम गर्जन साथ में, श्लोक अथवा शंख चक्र गदा पद्म आदि के कुछ छींटे छिड़क दो, हिला.डुलाकर इसे गरम करो और चूल्हे से जब उतारो तो उसे सजा कर ढाई चम्मच शास्त्रीय नृत्य की मुद्राओं के साथ तश्तरी में पेश कर दो।‘‘ यह था उनका भारतीय रंगमंच। और आपको तभी फंडिंग मिलेगी, आपको तभी विदेश भेजेंगे जब आपके नाटक में इस किस्म की भारतीयता होगी। अब जाहिर है इस थिएटर को फ्लाॅप होना ही था। वे थिएटर को 16वीं शताब्दी में लेकर जाना चाहते थे। अतीत को स्मरण करना तो ठीक है, पर आप अपने दर्शक को पिछड़ा हुआ, देशकाल से कटा हुआ समझेंगे यह कैसे चलेगा? हमारे यहां भी पढ़े-लिखे लोग हैं, हमारे यहां भी ज्ञान-विज्ञान का विकास हुआ है, दुनिया के साथ-साथ हमारे भी मस्तिष्क का विकास हो रहा है, हमारे समाज में भी आधुनिक विकास हुआ है और उसकी वजह से नई समस्याएं पैदा हो रही हैं तो अगर हमारा रंगमंच आधुनिक प्रश्नों के हल नहीं ढूंढेगा तो वह कैसे हमारा रंगमंच कहलाएगा? कैसे हमारा जनमानस उसे स्वीकृति देगा? 
देश की अर्थव्यवस्था में दो दशक पहले जो भूचाल आया उसने संस्कृति को भी गहरे प्रभावित किया है। संस्कृति को जिस तरह से नियंत्रित करने की राजनीतिक प्रवृत्ति सामने आई है, वह कोई एक नयी परिघटना नहीं है। जिन लोगों ने इस देश की सत्ता पर सबसे ज्यादा समय तक कब्जा बनाये रखा है, उन्होंने ही सबसे ज्यादा संस्कृति को नियंत्रित करने का भी प्रयास किया है। उत्पल दत्त को दो-दो बार जेल में डाला गया, बहुत सारे रंगकर्मियों के साथ ऐसा हुआ। जब दूसरी पार्टी सत्ता में आई तो हबीब साहब के साथ क्या हुआ यह सबको मालूम है। रंगकर्मी या किसी भी माध्यम का कलाकार अपनी अभिव्यक्ति के लिए क्या सरकार या प्रशासन से अनुमति लेगा? आप असहमत होइये, वह आपका अधिकार है, पर अपनी असहमति थोपने का आपको कैसे अधिकार मिल सकता है? यह तो जबर्दस्ती है। आप लोगों को तय करने दीजिए न कि उन्हें क्या पढ़ना है क्या देखना है। आप कौन होते हैं कलाकार को टोकने वाले? सत्ता का हर जगह यही चरित्र दिखाई पड़ता है। यह प्रवृत्ति बहुत घातक है।
मैंने एक नाटक किया था ‘दिल्ली चलो‘ नाम से सुभाष चंद्र बोस पर। यह नाटक नेताजी सुभाष की जन्मशताब्दी आजाद हिन्द फौज की 50वीं सालगिरह और आजादी की पचासवीं वर्षगांठ पर लालकिले में 1997 में प्रस्तुत किया गया था। रानावि रंगमंडल की इस प्रस्तुति को संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार की ओर से राष्ट्र को समर्पित किया गया था। तेरह प्रस्तुतियों के बाद मेरे इस नाटक ‘दिल्ली चलो‘ को बंद करवा दिया गया। जिस समय यह नाटक बंद हुआ, तेरह प्रदेशों की सरकारें उस नाटक को स्पांसर करने के लिए तैयार थीं। सिंगापुर से बुलावा आया था कि यह नाटक हमारे यहां भी होना चाहिए। इंग्लैंड में तत्कालीन भारतीय राजदूत लक्ष्मीमल सिंघवी थे। वे हमारे देश के कानून के बहुत बड़े जानकार थे और संयोगवश उस समय भारत आए हुए थे। उन्होंने नाटक देखा तो हैरान हो गए। उन्होंने जोर डाल कर कहा था कि दुनिया को पता चलना चाहिए कि हमे बकरी का दूध पीकर आजादी नहीं मिली है। हमने भी खून बहाए हैं, लाशें हमारी भी गिरी हैं। हमने भी रक्तरंजित क्रांति की है और यह नाटक इस तथ्य को सामने लाता है। नाटक को बंद कर दिया गया, नाटक की हत्या कर दी गई सिर्फ इस वजह से कि एक बंगाली इस नाटक का निर्देशक था। यह सब करने वाले कौन थे . मेरे गुरू थे। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि मैं उनका विरोध कर रहा हूं या असम्मान कर रहा हूं।
ठीक ऐसा ही इससे पहले मेरे द्वारा निर्देशित नटी विनोदिनी के साथ हुआ। ये दोनों नाटक कलात्मकता और बाॅक्स आॅफिस दोनों ही कसौटियों के हिसाब से उस दौर के सभी नाटकों से आगे थे। आप मेरी बात पर यकीन मत कीजिये। मैं रानावि रंगमंडल के टिकटों की बिक्री के रिकाॅडर््स और तत्कालीन अखबारों की समीक्षाओं के जरिये अपनी बात को साबित कर सकता हूं। इस प्रस्तुति की अलकाजी साहब ने हिंदुस्तान टाइम्स, फस्र्ट सिटी मैगजीन, तथा विश्व रंगमंच दिवस के अवसर पर आकाशवाणी को दिये गये अपने साक्षात्कार में काफी सराहना की थी। बस निगाह बदल गयी सबकी- और ये सारे मेरे गुरू थे। आज भी रानावि रंगमंडल के कर्मचारियों से पूछिये कि वे क्या कहते हैं इन दोनों नाटकों के बारे में। रानावि रंगमंडल में ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ मेरे साथ ही हुआ था बल्कि मेरे एक सीनियर के साथ भी यही बर्ताव किया गया था।
एक कलाकार अन्याय का प्रतिकार केसे करेगा? वह तो अपने गुस्से का इजहार अपने माध्यम में ही कर सकता है। गाली गलौज, झगड़ा करना उसका काम नहीं है। आप अच्छा नाटक करके ही इसका जवाब दे सकते हैं। अपने ही छात्र के साथ यह बर्ताव करके कौन सी मिसाल पेश की आपने? साहित्य कला परिषद रंगमंडल ने संन्यासी की तलवार और श्रीराम सेंटर रेपर्टरी ने तुरुप का पत्ता के साथ भी ऐसा ही बर्ताव किया था। चारों तरफ घटिया राजनीति, गुटबाजी, प्रतिभावान कलाकारों को दबाने की कोशिश! मेरा अपराध यह है कि मैं इन सबमें कभी शामिल नहीं रहा। आप यह साबित कर दीजिये मैं इन सबमें शामिल हूं, मैं रंगकर्म छोड़ दूंगा। मैं हमेशा अपनी अस्मिता के साथ जीना चाहता था। यह सब मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि आपको मालूम होना चाहिए कि एक जेनुइन कलाकार के चारों तरफ किस तरह से दीवार खड़ी की जाती है हमारे यहां। किस तरह की चालबाजियों का उसे शिकार बनाया जाता है। कौआ कभी एक दूसरे का मांस नहीं खाता। किंतु हम खाते हैं। अभिमन्यु की तरह- सबने घेर कर मारा है। दुख की बात यह है आज हमारा थिएटर भी क्षेत्रवाद का शिकार है। यह कश्मीरी, यह कन्नड़भाषी हिंदी क्षेत्र में क्या कर रहा है? वह बंगाली, ओडि़या, मलयाली यहां क्या कर रहा है? अगर मेरा नाम बापी खान या बापी शर्मा होता तो शायद ऐसी नौबत नहीं आती। 
एक फ्रीलांस निर्देशक जब कोई प्राॅडक्शन करता है और सफल होता है, उसे देखते हुए उसको एक-दो और काम मिल जाते हैं जिससे उसकी रोजी-रोटी चलती है। फिर एक निर्देशक की जिंदगी में कुछेक माइलस्टोन प्राॅडक्शन होता है जिससे उसकी एक पहचान बनती है और यह पहचान भी उसे रोजी दिलाने में मदद करती है। इन प्रातिष्ठानिक अधिकारियों से कोई यह तो पूछे कि ऐसी हरकतें करने से पहले क्या कभी उनके मन में इस कटु सत्य का कोई खयाल आया था? मेरे चार मेगा प्राॅडक्शंस को एक के बाद एक गलत राजनीति के तहत बंद करवाया गया। अंततः 2002 में मुझे भी अपना समूह (सर्कल थिएटर कंपनी) बनाना पड़ा क्योंकि मुझे नाटक करना था। अब कोई मेरा नाटक बंद नहीं करवा सकता। यह तो इस प्रदेश की जनता का कमाल है कि उन्होंने शुरू से ही मुझे गले लगाया, सर आंखों पर बिठाया। आज मैं जो कुछ भी हूं, उन्हीं की बदौलत। उन्होंने मुझे इन प्रातिष्ठानिक अधिकारियों द्वारा दफनाये जाने से बचा लिया। मैं इस प्रदेश की जनता का, हिंदी थिएटर का शुक्रगुजार हूं। हां साथ में जरूर शुक्रगुजार हूं इन प्रातिष्ठानिक नाट्य विभूतियों का, जिन्होंने अगर मुझे इतना दुत्कारा या अपमानित नहीं किया होता तो शायद मैं भी आज यहां नहीं होता। 
सत्ता हर जगह कुछ लोगों को गोद लेने की कोशिश करती है पर ज्यादातर रंगकर्मी आज भी ऐसे हैं जो सरकार और उसके संस्थानों की जी हजूरी नहीं करते। संस्कृति के जो संस्थान सरकार ने बनाए हैं, वे अपने उद्देश्य में बुरी तरह असफल रहे हैं। मैंने नजदीक से उन्हें जाना है। लूट जैसे शब्द वहां बौने लगते हैं। ये तो तालाब की ही चोरी कर ले रहे हैं मछलियों की तो औकात ही क्या? तालाब रहेगा तो मछलियां आती रहेंगी। आप उनकी चोरी करते रहेंगे, पर ये तो इतने बेलगाम और बेशर्म हैं कि पूरा तालाब ही गटक जाते हैं। 
अनंत शोषण है चारों तरफ कलाकारों का। जरा बताइयेगा, यह जो हमारे जोनल कल्चरल सेंटर्स हैं इनका क्या काम है? देश की संस्कृति के विकास के लिये इनका क्या योगदान रहा है? ये जितने कल्चरल सेंटर हैं, अगर चाहते तो कलाओं का काफी विकास कर सकते थे। नाट्य प्रशिक्षण, स्थानीय समूहों के प्रोत्साहन, छोटे छोटे रंगमंडलों के निर्माण, नाटककारों की कार्यशालाएं आयोजित करने जैसे बुनियादी काम करके वे काफी फायदा पहुंचा सकते थे, पर उन्होंने सारा ध्यान तमाशे आयोजित करने की तरफ लगाया। ग्रामीण क्षेत्रों में, दूर-दराज के इलाकों में जो कलाएं मर रही हैं, दम तोड़ रही हैं, विलुप्त हो गई हैं, उन्हें बचाने केे लिए, उनसे जुड़े कलाकारों को जिन्दा रखने के लिए उन्होंने अब तक क्या किया है? ये संस्थान शुरुआती दिनों की अपनी घोषित नीति से, जमीनी सच्चाइयों के बरक्स अपने आप को कहां पाते हैं? विस्तार कार्यक्रम के तहत राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के काम काज पर मुझे शर्म आती है। इसने नाट्य प्रशिक्षण के नाम पर बहुत बड़ा गोरखधंधा चला रखा है अगर कुछेक अपवादों को छोड़ दिया जाये तो। मैं तो कहता हूं कि इनकी जांच होनी चाहिए। कौन लोग पढ़ाने आते हैं यहां पर? सिर्फ नाटक में स्नातक हो जाने से कोई पढ़ाने के काबिल नहीं हो जाता। पढ़ाना एक अलग किस्म का दायित्व है, उसके लिए अलग किस्म की योग्यता, कौशल का होना जरूरी है। हिन्दुस्तान के सबसे सफलतम फुटबाॅल कोच रहीम साहब थे और उनकी कोचिंग में हमने ओलंपिक में चैथा स्थान हासिल किया था। खुद रहीम साहब ने कोलकाता में कभी भी प्रथम श्रेणी का फुटबाॅल नहीं खेला। 
आप बहुत अच्छा रंगकर्म कर सकते हैं पर जरूरी नहीं है कि आप सिखाने लायक भी हों। सिखाना एक नितांत भिन्न किस्म का क्रियाकलाप है, अध्यवसाय है। जो लोग रंगकर्म ओर शिक्षण दोनों के उस्ताद हैंए जब वे पढ़ाते हैं तो कमाल हो जाता है। पढ़ाना एक तरह से जिन्दगी के अनुभव बांटना है। जिसके अनुभव ज्यादा सशक्त हैं, जिसने अच्छा रंगकर्म किया है वही नये रंगकर्मियों को सही राह दिखा सकता है। यह बात पूरी दुनिया में आज साबित हो चुकी है कि हमें प्राथमिक स्तर पर सबसे काबिल शिक्षकों की जरूरत होती है। क्योंकि वही गीली मिटटी को सही आकार दे सकते हैं। यह वैसा ही है जैसे किसी बच्चे को सस्ता वाला हारमोनियम देकर कहन- बेटा अभी इससे गाना सीखो। बाद में जब अच्छी तरह से सीख जाओगे तब अच्छा वाला हारमोनियम खरीद कर देंगे। मैं कहता हूं यही पर आपने बड़ी गलती कर दी। उसे अभी से अच्छा वाला हारमोनियम लाकर देना होगा। सस्ते हारमोनियम में- उसका ट्यून, साउंड टोन, नोट, स्केल सब कुछ गलत होता है। एक बार गलत ट्यूनिंग, गलत ट्रेनिंग हो गई तो आप तमाम उम्र उसे ठीक नहीं कर पाएंगे। 
मैं जब नाट्य विद्यालय के स्नातकों को भारंगम में साधनसेवियों की तरह दोयम दर्जे का काम करते देखता हूं तो मुझे शर्म आती है कि सिर्फ पैसों की खातिर वे क्यों ऐसा काम करने को मजबूर हैं? आप झूठ बोलते हैं जब यह कहते हैं कि वे टेक्नीकल डायरेक्टर हैं। वे सिर्फ साधनसेवी होते हैं। हाॅल की व्यवस्था देखना, अतिथियों को होटल ले जाना और लाना, उन्हें खाना खिलाना, उनके लिए गाड़ी का प्रबंध करना, टेंट लगवाना यह सारा काम उनसे करवाया जाता है। यह बहुत शर्म की बात है। हां यह सच है कि ये बच्चे गरीब हैं। उन्हें पैसा चाहिये! तो फिर क्या आप इसीलिये उनका इतना असम्मान करेंगे? आप उनको दिशा क्यों नहीं देते? 

यह आलेख अधूरा है। यहाँ आलेख के बीच बीच के कुछ हिस्से रखे गए हैं। .....पूरा लेख पढ़ें समकालीन रंगमंच के आगामी अप्रैल-जून अंक में। प्रस्तुति : राजेश चन्द्र. सम्पादक, समकालीन रंगमंच.

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