देवेन्द्र राज अंकुर
"साहित्य
ने ही नाटक और रंगमंच को जन्म दिया था। बहुत दिनों तक नाटककार को ही कवि की संज्ञा
से जाना जाता था। यह तो कोई बहुत दूर की बात नहीं है कि साहित्यकार बहुत सी विधाओं
में एक साथ रचना-कर्म करते रहते थे। मसलन केवल हिन्दी साहित्य को ही लें तो
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, जयशंकर
प्रसाद, उपेन्द्रनाथ
अश्क, धर्मवीर
भारती, मोहन
राकेश, लक्ष्मीनारायण
लाल, भीष्म
साहनी, सर्वेश्वरदयाल
सक्सेना, अमृतराय, विष्णु प्रभाकर, रमेश बक्षी और गिरिराज
किशोर, लेकिन
धीरे-धीरे ऐसा क्यों होने लगा कि हिन्दी के लेखक और साहित्यकार नाटक और रंगमंच की
दुनिया से कटते चले गए और बहुत से जाने-पहचाने लेखकों ने नाटक लिखना लगभग छोड़ ही
दिया। इस उदासी-अलगाव और दूरी के क्या कोई कारण ढूंढ़े जा सकते हैं ?
सबसे ज्यादा चौंकाने वाला तथ्य तो यही है कि पिछले पचास वर्षों में
साहित्य अकादमी, भारतीय
ज्ञानपीठ अथवा और कोई भी बड़ा पुरस्कार किसी हिन्दी नाटक और नाटककार को नहीं दिया
गया है। हां, अपवाद के
रूप में सुरेन्द्र वर्मा और गिरिराज किशोर का नाम ज़रूर लिया जा सकता है, लेकिन उन्हें भी नाटक के
लिए नहीं, अपने
उपन्यासों सुरेन्द्र वर्मा को 'मुझे
चांद चाहिए' के लिए
तथा गिरिराज किशोर को 'ढाई घर' के लिए साहित्य अकादमी
पुरस्कार प्रदान किया गया। हिन्दी के नाटक और नाटककार यदि पुरस्कृत हुए भी तो
संगीत नाटक अकादमी द्वारा, न कि
साहित्य अकादमी द्वारा। चाहे वह मोहन राकेश हों, धर्मवीर भारती हों, लक्ष्मीनारायण लाल हों, उपेन्द्रनाथ अश्क हों या
फिर दयाप्रकाश सिन्हा हों, क्या
इसका अर्थ यह लिया जाए कि हिन्दी में सचमुच कोई ऐसा श्रेष्ठ और सशक्त नाट्य-लेखक
अभी भी सामने नहीं आया है, जिसे
किसी साहित्यिक पुरस्कार के योग्य माना जा सके ? क्या इसका यह अर्थ लगाया जाए कि नाटक-लेखन को
साहित्य का हिस्सा ही नहीं माना जाता और उसे रंगमंच तक ही सीमित कर दिया गया है ? क्या इसे इस रूप में भी
देखा जा सकता है कि हिन्दी में अच्छे नाटकों के न होने अथवा लिखे जाने की जो बात
बार-बार की जाती है, वह अच्छे
रचनाकारों के नाट्य-लेखन से जुड़े न होने की सच्चाई में निहित है ? ज़ाहिर है कि ये सारे सवाल
जितने अलग-अलग दीखते हैं उतने ही शायद एक-दूसरे से जुड़े हुए भी हैं। यदि हम
कम-से-कम पिछले 150 सालों के
इतिहास की छान-बीन करें तो निश्चय ही हमारे हाथ में कुछ ऐसे सूत्र आएंगे जिनके
माध्यम से हमें अपने सवालों के जवाब हासिल करने होंगे।
इस दिशा में सबसे पहली शुरूआत भारतेन्दु से ही की जाए। इसमें कोई
संदेह नहीं कि भारतेन्दु ने नाटकों के अलावा कविता, संस्मरण, यात्रा-विवरण और निबंध भी खूब जमकर लिखे। एक संपादक के रूप में बहुत
सी साहित्यिक पत्रिकाओं की शुरूआत की और बहुत सी मंडलियां बनाई, जिनमें साहित्यिक गोष्ठियां
हुआ करती थीं। इतना ही नहीं, भारतेन्दु
स्वयं भी यायावर प्रकृति के थे और लगातार देश के अलग-अलग हिस्सों में भ्रमण करते
रहते थे। इन सारी चीजों के पीछे लगातार एक ही भावना काम कर रही थी कि कैसे हिन्दी
का प्रचार-प्रसार किया जाए। साहित्य को समाज के अलग-अलग वर्गों से जोड़ा जाए और
सबसे ज्यादा नाटक विधा के माध्यम से ये सारे काम कैसे किए जाएं। उन्होंने बहुत
जल्दी पहचान लिया था कि नाटक जैसी विधा के माध्यम से ये सारे काम बहुत आ सानी से
संपन्न किए जा सकते हैं, क्योंकि
नाटक अपने मंचित रूप में सीधे-सीधे समाज से जुड़ता है। अतः यह स्वाभाविक ही था कि
उन्होंने मात्र रचनाकार के रूप में ही नहीं, वरन् अभिनेता, व्यवस्थापक
और निर्देशक के रूप में भी नाटक और रंगमंच के साथ अपना रिश्ता जोड़ा। इसीलिए यह
संभव हुआ, क्योंकि
बेशक भारतेन्दु ने बहुत सी विधाओं में रचना-कर्म किया, लेकिन उनकी सही पहचान एक
नाटककार के रूप में ही हुई।
यह बात काफ़ी हद तक जयशंकर प्रसाद के बारे में भी कही जा सकती है। वह
भी कहानीकार हैं, उपन्यासकार
हैं, बहुत बड़े
कवि हैं, लेकिन
इसका यह अर्थ नहीं है कि उनकी नाटककार के रूप में अलग से कोई पहचान नहीं है। देखा
जाए तो कवि और नाटककार, उनके ये
दोनों पक्ष एक-दूसरे के समानान्तर हैं। एक ओर यदि छायावादी युग के सबसे बड़े कवि के
रूप में जयशंकर प्रसाद को जाना जाता है तो दूसरी ओर भारतीय रंगमंच के उतने ही बड़े
नाटककार के रूप में भी। यदि कविता में 'लहर', 'आंसू' और 'कामायनी' जैसी बड़ी काव्य-कृतियां
साहित्य में हमेशा अपना निश्चित स्थान बनाए रखेंगी तो उसी तरह से रंगमंच में 'चन्द्रगुप्त', 'स्कन्दगुप्त' और 'ध्रुवस्वामिनी' भी हमेशा चर्चा के केन्द्र
में रहेंगे। इतना ही नहीं, बेशक़
प्रसाद के नाटक उनके अपने समय में बहुत ज्यादा मंचित न हुए हों, बेशक़ वह स्वयं एक
व्यावहारिक रंगकर्मी के रूप में रंगमंच से न जुड़े रहे हों, लेकिन फिर भी इस बात से
इंकार नहीं किया जा सकता कि जितनी चर्चा, जितना विवाद और जितना प्रचार-प्रसार पिछले 70-75 वर्षों
में जयशंकर प्रसाद के नाटकों का हुआ है, उतना शायद ही किसी और नाटककार के नाटकों का हुआ हो। इसके एक-दो कारण
और दिए जा सकते हैं- एक तो यही कि उन नाटकों की अनभिनेयता को लेकर विद्वानों, अध्येताओं और रंगकर्मियों
के बीच कितनी ही दुविधा क्यों न हो, पाठ्य-पुस्तकों के रूप में प्रसाद का लगभग हर नाटक देश के सभी बी.ए.,एम.ए. के
हिन्दी-पाठ्यक्रमों में शुरू से लगा हुआ है। इसीलिए इन नाटकों के लगातार प्रकाशित
होने वाले संस्करणों से इस बात की पुष्टि हो जाती है। दूसरी ओर भारतीय स्वतंत्रता
संग्राम के परिप्रेक्ष्य में प्रसाद जिस तरह से अपने नाटकों के कथानक सुदूर, लेकिन गौरवमय अतीत में से
ढूंढ़कर लाए, उसने
जनमानस पर बहुत गहरा असर डाला और साहित्य, समाज तथा रंगमंच को एक-दूसरे के बहुत नज़दीक ला दिया। शायद ही कोई ऐसा
विद्यालय, महाविद्यालय
अथवा विश्वविद्यालय हो, जहां
प्रसाद का 'ध्रुवस्वामिनी' न खेला गया हो।
प्रसाद के अपने नाटक और रंगमंच संबंधी विचारों ने भी साहित्य और
रंगमंच दोनों क्षेत्रों में अच्छा-खासा विवाद पैदा कर दिया था। जब उन्होंने अपनी
इस स्थापना को सामने रखा कि "नाटक के लिए रंगमंच होना चाहिए, न कि
रंगमंच के लिए नाटक"। इसी के साथ उनका एक और विचार भी बहुत महत्वपूर्ण है, जिसकी तरफ प्रायः कम ध्यान
दिया गया है, उन्होंने
साफ़-साफ़ शब्दों में लिखा है कि- "यदि हिन्दी भाषा का व्यापक स्तर पर
प्रचार-प्रसार करना है तो वह नाटक जैसे माध्यम से ही संभव हो सकता है। क्योंकि जब
तक कोई भाषा ज्यादा-से-ज्यादा व्यवहार में नहीं आती अर्थात बोली नहीं जाती तब तक
उसका प्रचार-प्रसार संभव नहीं है और नाटक जैसी विधा यह सुविधा स्वयं ही प्रदान
करती है।" उन्होंने इस संदर्भ में पारसी नाटकों की लोकप्रियता का भी यही कारण
दिया। इतिहास भी साक्षी है कि जब तक एक हजार ई. के आसपास तक संस्कृत भाषा बोलचाल
का माध्यम रही तब तक वह समाज की मुख्य भाषा रही, लेकिन उसके बाद व्यवहार से कटते जाने के कारण वह
मात्र पढ़ने-पढ़ाने तक सीमित होकर रह गई और उसका समाज से गहरा रिश्ता नहीं रह गया।
लेकिन प्रसाद ही वो पहले नाटककार भी हैं, जिन्होंने नाटक को लेकर
पाठ्य-नाटक और मंचित नाटक जैसे विभाजन को पैदा होने और बढ़ाने में एक अलग भूमिका
निभाई। इससे पहले आदिकाल से लेकर प्रसाद तक भारतीय अथवा विश्व रंगमंच में कहीं भी
इस तरह के विभाजन की कोई अवधारणा नहीं थी। साहित्य और रंगमंच दोनों भूमियों पर
बराबरी के साथ प्रतिष्ठित था, लेकिन प्रसाद
के बाद से लेकर आज तक जब भी नाटक और रंगमंच, साहित्य और रंगमंच के आपसी संबंधों की चर्चा होती है तो यह सवाल सबसे
ज्यादा चर्चा का केन्द्र बना रहता है कि नाटक को साहित्य का हिस्सा माना जाए अथवा
रंगमंच का। यह अलग बात है कि इस परस्पर विरोधी धारणा को पुष्ट करने में जितना
योगदान प्रसाद के नाटकों का शास्त्रीय अध्ययन और दूसरे बड़े-बड़े लेकिन निरर्थक
शोध-ग्रंथों ने दिया उससे कहीं अधिक वे रंगकर्मी भी जिम्मेदार हैं, जिन्होंने नाटकों को पढ़े या
मंचित किए बिना ही उन्हें अनभिनेय घोषित कर दिया।
प्रसाद के आगे के कम-से-कम बीस साल एक और वैज्ञानिक विकास की दृष्टि
से रेखांकित किए जा सकते हैं जिसकी वज़ह से यदि एक तरफ़ साहित्य और रंगमंच के बीच की
दूरी बढ़ती चली गई तो दूसरी तरफ़ अनायास और शायद अनजाने में भी ये दोनों विधाएं
एक-दूसरे के बहुत नज़दीक आ गईं। यह वैज्ञानिक विकास था भारतीय समाज में रेडियो जैसे
ध्वनि-माध्यम का जन्म और फ़िल्म जैसे आरंभ में मूक और बाद में ध्वनि के जुड़ाव से एक
दृश्य के माध्यम के रूप में बोलती फ़िल्मों का प्रादुर्भाव। हुआ यह कि रेडियो के
लिए लघु नाटकों, एकांकियों, रूपकों, वार्ताओं और कथा-पाठ की
ज़रूरतों ने ज्यादातर साहित्यकारों को अपनी ओर खींच लिया। एक समय तो ऐसा था जब
हिन्दी का हर बड़ा लेखक और साहित्यकार किसी-न-किसी रूप में रेडियो से ही जुड़ा हुआ
था। ज़ाहिर है कि रेडियो के लिए लिखने की रचना-प्रक्रिया ने उन्हें रंगमंच जैसे
दृश्य माध्यम से दूर कर दिया। बाद में यदि वही लोग किसी दृश्य माध्यम से जुड़े भी
तो वह रंगमंच की बज़ाय फ़िल्म के रूप में उनके सामने मौजूद था। एक तो फ़िल्म से मिलने
वाला ज्यादा मेहनताना और दूसरे एक ही समय में बहुत बड़े जन-समुदाय द्वारा देखे जा
सकने की संभावनाओं में सभी बड़े-बड़े लेखकों को अपनी ओर आकर्षित एवं प्रलोभित किया।
पारसी नाटकों के अधिकांश अभिनेता और नाटककार, हिन्दी में उपेन्द्रनाथ अश्क, अमृतलाल नागर, भगवतीचरण
वर्मा और यहां तक कि प्रेमचंद भी फ़िल्मों के ज़ादुई आकर्षण से अछूते न रह सके।
लेकिन जब बाद में इन सब लोगों का रेडियो और विशेष रूप से फ़िल्मों से मोहभंग हो गया
तो ये कहानी, कविता, उपन्यास के साथ-साथ नाटक की
ओर भी लौटे। एक तरह से उन्होंने उपर्युक्त दोनों लिखे गए आलेखों को ही रंगमंचीय
आलेखों के रूप में परिवर्तित किया।
सन् 1942 में
भारत छोड़ो आंदोलन के साथ-साथ इप्टा के जन्म ने एक बार फिर से साहित्य, रंगमंच और दूसरी कलाओं के
बीच की दूरियों को कम करने की कोशिश की। ज़ाहिर है इसके पीछे देश की आज़ादी के लिए
किए जाने वाले संघर्ष की भावना भी सब में कूट-कूटकर भरी हुई थी। जिसने सभी विधाओं
के लोगों को एक ही मंच पर आने के लिए प्रेरित किया। अतः यह स्वाभाविक ही था कि
चालीस-पचास के दशक में साहित्य और रंगमंच एक-दूसरे के बहुत नज़दीक थे। लेकिन जैसे
ही आज़ादी मिलने के साथ वह उद्देश्य पूरा हो गया तो सब कला-माध्यमों के लोग
अपनी-अपनी दुनिया में लौट गए। फिर भी 50-70 तक कम-से-कम हिन्दी में दूसरी विधाओं के लेखकों का
रंगमंच से गहरा रिश्ता बना रहा। मोहन राकेश इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं, जिन्होंने शुरूआत एक
कहानीकार और उपन्यासकार के रूप में की और बाद में पूरी तरह से नाटक और रंगमंच को
समर्पित हो गए। उनके साथ सबसे बड़ी सुविधा यह भी रही कि उनके सभी नाटक हिन्दी
रंगमंच की लगभग सभी व्यावसायिक और अव्यावसायिक संस्थाओं द्वारा खेले गए। क़मोबेश
यही स्थिति सुरेन्द्र वर्मा, बलराज
पंडित, मणि
मधुकर, शंकर शेष, भीष्म साहनी, असग़र वजाहत और रमेश बक्षी
के नाटकों के साथ भी रही कि जैसे ही वे लिखे गए उसके तुरंत बाद उनका मंचन भी होता
रहा।
पिछली शताब्दी के अंतिम बीस वर्षों में दूरदर्शन, वीडियो, फ़िल्म, कम्प्यूटर और इंटरनेट जैसे
संचार माध्यमों के तेज़ी से भारतीय परिवेश में हस्तक्षेप के साथ साहित्य और रंगमंच
की परस्पर दूरी बढ़ती गई। यह दूरी सिर्फ़ साहित्य और रंगमंच की दुनिया में ही दिखाई
नहीं दी, वरन्
स्वयं रंगमंच को भी लगभग छोड़ने की स्थिति आ गई थी। जब एक साथ बहुत से अभिनेताओं ने
उपर्युक्त माध्यमों की तरफ़ प्रस्थान किया। 80-90 के बीच एक बार तो ऐसा लगा कि शायद ये अभिनेता अब
पुनः रंगमंच की तरफ़ लौटकर नहीं आएंगे, लेकिन बहुत जल्दी ही यह भ्रम टूट गया। उन अभिनेताओं ने दूरदर्शन पर
लगातार अभिनय करने से जो अनुभव पाया, उससे यही निष्कर्ष
निकाला जा सकता है कि आपका चेहरा उस माध्यम में कितने भी दिनों तक दर्शकों के
सामने आता रहे, लेकिन
अन्ततः उसका कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ता। जब कि रंगमंच में अभिनेता बेशक़ सिर्फ़ दो-तीन
घंटे के लिए ही मंच पर होता है,
लेकिन तब भी उसके जीवंत अभिनय की याद दर्शकों के मन-मस्तिष्क में
वर्षों तक अंकित रहती है। ठीक यही बात साहित्य की दुनिया से जुड़े रचनाकारों ने भी
महसूस की कि जितना स्थायित्व प्रकाशित शब्द का है उतना संचार माध्यमों में बोले जाने
वाले का नहीं। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि वे लोग अपने मूल माध्यम अर्थात साहित्य
की तरफ़ लौटकर आएं। पिछले दस-पन्द्रह वर्षों में पत्र-पत्रिकाओं के प्रचार-प्रसार
और नई-नई पुस्तकों के प्रकाशन से यह तथ्य स्वयंसिद्ध हो जाता है।
लेकिन इस घर-वापसी के बावजूद साहित्य और रंगमंच के बीच की दूरी को
अभी तक पूरी तरह से ख़त्म नहीं किया जा सका है। सच्चाई तो यह है कि इधर वह दूरी और
ज्यादा बढ़ती जा रही है। इसका एक कारण तो यह भी हो सकता है कि आज रंगमंच में
अव्यावसायिक स्तर पर वह सक्रियता ही पूरी तरह से ग़ायब हो गई है, जो 60-80 तक के
बीस वर्षों में कम दिखाई पड़ती थी। आख़िर साहित्यकार नाटक लिखे भी तो किसके लिए ? दूसरा कारण यह भी दिया गया
कि जब कहानियों और उपन्यासों का नाट्य-रूपान्तरों के बहाने से अथवा सीधे-सीधे अपने
मूलरूप में ही मंचन होना संभव हो गया है तो फिर साहित्यकार अलग से नाट्य-लेखन की
तरफ़ क्यों प्रवृत्त हों ? लेकिन यह
तर्क अपने आप में बेहद कमज़ोर है। होना तो यह चाहिए था कि अपनी कहानियों और
उपन्यासों को मंच पर प्रस्तुत होते देखने के बाद साहित्यकार नाट्य-रचना के लिए आगे
आते। जैसा कि पिछले 70-80 सालों
में लगातार होता रहा था। रेडियो से जुड़े रहकर भी जगदीशचन्द्र माथुर, उपेन्द्रनाथ अश्क, उदयशंकर भट्ट ने नाटक लिखना
बंद नहीं किया। कहानीकार और उपन्यासकार प्रेमचंद, पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र', अज्ञेय और भुवनेश्वर ने भी नाट्य-रचना की। आज हम भुवनेश्वर को एक कवि
और कहानीकार से ज्यादा एक नाटककार के रूप में याद करते हैं। फिर आज वैसी स्थिति
क्यों नहीं है ? क्या
नाटकों का मंचन नहीं हो पाता इसलिए ? मैं सोचता हूं कि ये सारे सवाल ऐसे हैं जिन पर साहित्य और रंगमंच से
जुड़े लोगों को आपस मे मिलकर विचार-विमर्श करना चाहिए, क्योंकि नाटक का जितना
संबंध रंगमंच से है उससे कहीं ज्यादा साहित्य से है। कहा तो यहां तक जाना चाहिए कि
पहले नाटक को एक साहित्यिक कृति के रूप में ही अपनी पहचान बनानी होती है। उसके
प्रस्तुति आलेख की यात्रा तो उसके बाद ही शुरू होती है। यदि कोई नाटक साहित्य के
धरातल पर ख़रा, गहरा और
जीवन्त उतरता है तो यह निश्चित है कि उसकी रंगमंचीयता भी उतनी ही सशक्त होगी।
कहानीकार, उपन्यासकार
यदि इस अनुभव को लेकर गहराई से सोच-विचार करें तो कोई कारण नहीं कि वह नाट्य-रचना
में प्रवृत्त न हों। इतिहास साक्षी है कि आज कालिदास, भवभूति, जयशंकर प्रसाद, धर्मवीर भारती, लक्ष्मीनारायण लाल, मोहन राकेश आदि
साहित्यकारों को भी उन्यासकार से ज्यादा एक नाटककार के रूप में जाना जाता
है।"
कार्यक्रम के अध्यक्ष वरिष्ठ रंगकर्मी श्री रामगोपाल बजाज ने अपने
वक्तव्य में कहा- "रंगमंच नाटक से अधिक व्यापक शब्द है। हम साहित्य, कला, संगीत, अभिनय इसीलिए देखते-सुनते
हैं क्योंकि हम मौजूदा समय में बंधकर नहीं रहना चाहते। इच्छा, स्मृति और कल्पना हमें भूत, भविष्य और वर्तमान में
आलोड़ित करती रहती है। जुड़ना हमारी प्रकृति का अनिवार्य तत्व है और रंगमंच की
बुनियाद भी यही है।''
श्री बजाज ने कहा- "जो साहित्यिक नहीं है वह नाटकीय और रंगमंचीय
हो ही नहीं सकता। नाटक और साहित्य का आधारभूत सिद्धांत एक ही है। कल्पना करने की
स्थिति में जो अभिभूत करता है वह नाटक ही है। संवेदना और अनुभूति साहित्य और
रंगमंच के मूल आधार हैं।''
कार्यक्रम के संयोजक हिन्दी भवन के मंत्री डॉ0 गोविन्द व्यास ने अपने
आरंभिक वक्तव्य में धर्मवीरजी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालते हुए तथा
साहित्य और रंगमंच को एक-दूसरे का पूरक बताते हुए विषय की सामयिकता को रेखांकित
किया। श्री अंकुर का व्याख्यान सुनने के लिए अनेक नाट्यकर्मी और हिन्दीप्रेमियों के
अलावा देश के लब्धप्रतिष्ठ अस्थिरोग सर्जन डॉ0 पी0 के0 दवे की उपस्थिति विशेष रूप
से उल्लेखनीय थी।
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