आर्ट व कल्चर के नाम पर आजकल सरकार एवं कारपोरेट हाउस दोनों काफी फंडिंग करती है। लेकिन नाटक को, रंगमंच को उसका हजारवां हिस्सा भी प्राप्त नहीं होता। फिर भी वो क्या चीज है कि नाटक खत्म नहीं हो रहा? हर पाँच-दस वर्ष पर कला, संस्कृति के स्थापित सूरमा बड़े निर्णायक स्वर में ये घोषणा करते हैं कि इलेक्ट्रानिक मीडिया, फिल्म, टेलीविजन एवं उनके सैंकड़ो चैनल रंगमंच को अप्रासंगिक बना देंगे। पता नहीं कितनी दफे, कितने मंचों से रंगमंच का मर्सिया पढ़ा गया होगा। फिर भी नाटक का होना समाप्त नहीं हुआ है।
यह अवष्य है कि नाटकों का स्वरूप अब पहले की तरह नहीं हैं। नाटकों के लिए स्पेस भी निस्संदेह घटा है फिर भी जिन परिस्थतियों में नाटक दुधर्ष संघर्ष में जुटा है वह वर्तमान दौर में जिजीविषा की एक प्रेरणादायक मिसाल है।
अपना समाज जिस संक्रमण के दौर से गुजर रहा है उसमें लगभग हर चीज, संकट पैदा कर रही है। लेकिन नाटक के साथ ऐसा नहीं है। मुख्यधारा की राजनीति, मीडिया, नौकरशाही, न्यायपालका तक लगभग हर प्रमुख संस्था व्यापक समाज के लिए संकट बन चुकी है। यहां तक कि अकादमिक जगत में भी पहले जैसी पेषागत ईमानदारी नहीं है। अपने समाज का जो बौद्धिक-वैचारिक प्रोफाइल हुआ करता था उसमें भी बड़े पैमाने पर तब्दीली आ चुकी है। यह भी व्यापक समाज के लिए संकट बन कर खड़ा है पर नाटक समाज के कोई संकट नहीं पैदा कर रहा।
बिहार के रंगमंच की सबसे खास बात है इसका प्रयोगधर्मी होना। नाटकों को लेकर इतने किस्म के प्रयोग बिहार के रंगमंच पर हुए हैं कि उसकी गिनती संभव नहीं। प्यारे मोहन सहाय एवं सतीष आनंद, परवेज अख्तर, से लेकर आज के नये युवा निर्देषकों तक सबके साथ विषेष बात है कि सबके अंदर कुछ नया करने की आकांक्षा रहती है। बिहार के रंगमंच के प्रयोगधर्मी होने की एक मुख्य वजह इस राज्य का एक खास चरित्र रहा है। बिहार काफी लम्बे समय से सामाजिक-राजनीतिक हलचलों का केन्द्र रहा है। कई विद्वानों का मानना है कि पिछले ढाई हजार वर्षों से बिहार एक बेचैन प्रदेष रहा है। बुद्ध के वक्त से लेकर आज तक जितनी तरह के आंदोलन बिहार में हुए उसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती। बिहार के रंगमंच पर भी इसका प्रभाव पड़ा है। समाज को बेहतर बनाने की कई तरह की कोषिषों की प्रयोगभूमि बना है बिहार। यदि आधुनिक समय में देखें तो आजादी के आंदोलन से किसान आंदोलन, समाजवादी आंदोलन, वामपंथी आंदोलन, नक्सली आंदोलन सबको अच्छा-खासा समर्थन इस राज्य में मिला। इन तमाम आंदोलन की सबसे खास बात थी इनमें आमलोगों की व्यापक पैमाने पर भागीदारी। बिहार के सामाजिक जीवन की यह विषेषता यहां के कला संस्कृति में भी अभिव्यक्त हुई है। कला के लगभग तमाम अनुषासनों की विषिष्टता रही उसका जनोन्मुख होना। जैसे पेंटिंग में देखें तो ‘पटना कलम’ इस देष में चित्रकला के क्षेत्र में पहली ऐसी षैली थी जिसने पहली बार आम आदमी को चित्रकला के केंद्र में लाया। ठीक इसी तरह साहित्य में देखें तो फणीष्वर नाथ रेणु, नागार्जुन से लेकर आज के साहित्यकारों तक सबकी केंद्रीय चिंता आम आदमी है। खुद साहित्य में भी कई किस्म के प्रयोगों और षैलियों का जन्मदाता बिहार रहा है। संगीत में पटना हिंदी इलाके की एकमात्र ऐसी जगह रही है जहां षास्त्रीय संगीत के कार्यक्रमों में भी श्रोताओं और आम दर्षकों की विषाल संख्या उसमें भाग लेती रही है। दषहरे के मौकों पर आम जनता की व्यापक भागीदारी वाले संगीत सभाओं का आयोजन इस राज्य की विषिष्टता रही है। यहां के रंगमंच में भी प्रारंभ से ही आम जनता के सरोकारों से जुड़ना यहां के रंगकर्मियों की प्राथमिक चिंता रही है। पटना पूरे हिंदी इलाके का एकमात्र ऐसा स्थल माना जाता है जहां नुक्कड़ नाटक अभी भी बड़े पैमान पर लोकप्रिय है। दूसरे हिंदी प्रदेषों में नुक्कड़ नाटकों का जितने बड़े पैमाने एन.जी.ओकरण हुआ है बिहार उससे अपेक्षाकृत कम हुआ है। ऐसा इस कारण हुआ कि यहाॅं के रंगमंच में षुरूआत से ही आम जीवन के लिए रंगमंच करनेवाली प्रतिबद्ध धारा बेहद सषक्त और प्रभावषाली रही है। दूसरे प्रदेषों में नुक्कड़ नाटक जहाॅं ठहराव का षिकार है वहीं बिहार में यह विधा लगातार लोकप्रिय होती जा रही है। बिहार, विषेषकर, पटना में नुक्कड़ नाटक कुछ वर्षों पहले तक केवल वाम रूझानोवाले नाट्य संगठन किया करते थे लेकिन आज इसे पटना का हर नाट्य दल करता है। नये नुक्कड़ नाटकों की रचनाएं हुई हसन इमाम और संतोष झा लिखित नुक्कड़ नाटकों के मंचन बिहार के अलावा दूसरे हिंदी प्रदेषों में भी किए गए। देष भर में चर्चित ‘पटना पुस्तक मेला’ में हर दिन होने वाले नुक्कड़ नाटकों के प्रदर्षन इसकी निरंतर बढ़ती लोकप्रियता का सूचक है। प्रेरणा, इप्टा, अभियान, हिरावल, अक्षरा आर्ट्स, मंच आर्ट ग्रुप, निर्माण कला मंच,एच.एम.टी आदि संगठनों की इस विधा में खास सक्रियता बनी हुई है।
यदि मंच नाटकों के दृष्टिकोण से देखा जाए तो हर साल पटना में विभिन्न संस्थाओं, द्वारा अलग-अलग नाटकों के मंचन होते रहते हैं। कम से कम चार-पांच महोत्सवों का आयोजन होता है। प्रमुख महोत्सवों में ‘बिहार आर्ट थियेटर’ द्वारा जनवरी माह में आयोजित होने वाला ‘पटना थियेटर फेस्टीवल’, ‘प्रांगण’ द्वारा फरवरी में ‘पाटलिपुत्र नाट्य महोत्सव’, ‘निर्माण कला मंच’ द्वारा अगस्त में स्थापना दिवस समारोह एवं दिसंबर माह में ‘इप्टा’ द्वारा ‘भिखारी ठाकुर नाट्य महोत्सव’ है। बीच-बीच में मंच आर्ट ग्रुप भी जुलाई माह में ‘पावस नाट्य महोत्सव’ का आयोजन कर लेती है। थियेटर के लिए संसाधनों की जितनी किल्लत है वैसे में चार-पाच महोत्सवों का आयोजन कर लेना आसान काम नहीं। महोत्सवों के अलावा भी वर्ष भर रंग गतिविधियां बनी रहती पटना में होने वाले मंच नाटकों में विषयवस्तु और शैली में एक विविधता बनी रहती है। प्रयोगध्र्मिता, जैसा की उपर कहा गया है, यहा की सबसे खास पहचान रही है। विदेषी नाटकों के अनुवाद से लेकर से स्थानीय फोक पर आधारित नाटकों सब तरह की प्रस्तुतियां पटना रंगमंच पर होती रही है। इधर कुछ वर्षों से नये लिखे जाने वाले नाटकों पर अधिक जोर रहा है। बिहार के चर्चित रंग निर्देषक संजय उपाध्याय ने ज्यादातर बिहार के नाटककारों द्वारा लिखे नाटकों के मंचन में विषेष दिलचस्पी, हाल के दिनों में, दिखलायी है। उदाहरणस्वरूप रवीन्द्र भारती, उषा किरण खान, हृषीकेष सुलभ, श्रीकांत किषोर जैसे नाटककारों के लिखे नाटक इन दिनों खेले गए। विषेषकर हृषीकेष सुलभ ने अपने कुछ नाटकों से पूरे हिंदी प्रदेष में अपनी खास पहचान बनायी है उनके नाटकों, हाल के दिनों में ‘बटोही’, ‘धरती आबा’ और पूर्व में ‘अमली’ और ‘माटी की गाड़ी’ राष्टीय स्तर पर अपनी उपस्थिति दर्ज की है। अस्सी के दषक में सतीष आनंद ने ‘अमली’ और माटीगाड़ी जैसी प्रस्तुतियों के जरिए ‘बिदेषिया’षैली को स्थापित किया। इस दौर में सतीष आनंद और हृषीकेष सुलभ की जोड़ी बिहार के रंगमंच की एक ‘परिघटना’ के रूप में देखा जाता है। हालांकि दुभाग्र्यवष यह जोड़ी आगे बरकरार नहीं रह पायी। 1974 के व्यापक प्रभावों वाले जयप्रकाष नारायण के नेतृत्व वाले छात्र आंदोलन में ‘जुलूस’ जैसे नुक्कड़ नाटकों के जरिए सतीष आनंद ने भागीदारी निभाकर भविष्य के आंदोलनों और आम जनता से जुड़ाव रखने वाले रंगमंच की नींव डाली। इसी कड़ी में सबसे चर्चित नाम परवेज अख्तर का है जिन्हें ‘दूर देष की कथा’, मुक्ति पर्व जैसे बेहद सफल नाटकों के जरिए प्रसिद्धि मिली। ये दोनों नाटक क्रमषः जावेद अख्तर और अविनाष चंद्र मिश्र द्वारा लिखे गए थे। ये दोनों बिहार में रहने वाले रचनाकार हैं। इन तमाम बातों से एक ही निष्कर्ष निकलता है कि जब-जब बिहार से जुड़े रचनाकारों के साथ मिलकर रंग निर्देषकों ने काम किया उसे न सिर्फ राष्ट्ीय पहचान और स्वीकृति मिली बल्कि स्थानीय जनता का भी व्यापक समर्थन मिला।
बिहार के नाटककारों में भागलपूर के ‘दिषा’ से अपने नाट्य लेखन की षुरूआत करने वाले राजेष कुमार का विशेष योगदान रहा है। ‘जनतंत्र के मुर्गे’, ‘भ्रष्टाचार का अचार’ जैसे लोकप्रिय नुक्कड़ नाटकों के अलावा हाल के दिनों में कई महत्वपूर्ण मंच नाटकों की भी रचना की है। राजेष कुमार के नाटकों की सबसे खास बात ये रही है कि इसने अपने नाटकों के माध्यम से महत्वपूर्ण समकालीन सामाजिक हलचलों पर वैचारिक हस्तक्षेप करने की कोषिष की है। चर्चित कथाकार मधुकर सिंह ने भी एक-दो अच्छे नाटक लिखे। इसी प्रकार श्रीकांत किषोर ने कई महत्वपूर्ण नाटकों की रचना की है। श्रीकांत किषोर के नाटकों का परवेज अख्तर और संजय उपाध्याय जैसे निर्देषकों काफी सफल मंचन किया है। इनके नाटक भी अपने बौद्धिक आवेगों और नये किस्म की रंगयुक्तियों के लिए खास तौर पर जाने जाते हैं। नुक्कड़ नाटकों के क्षेत्र में देखें तो बिहार के हसन इमाम और संतोष झा ने नयी जमीन तोड़ी है इनके लिखे नाटक सिर्फ बिहार ही नहीं बल्कि दूसरे हिंदी इलाकों में भी काफी लोकप्रिय हो रहे हैं। बिहार की इस सर्जनात्मक उर्जा के पीछे बिहार के सामाजिक जीवन में चल रही बेचैनी और छटपटाहट है। बिहारी समाज अपने पुराने ढांचे से निकलना चाहता है। पुराने समाज से निकलने की यह अकुलाहट इस राज्य के तमाम रचनाकारों में दिखाई पड़ती है।
सतीष आनंद को बिहार में आधुनिक हिंदी रंगमंच को स्थापित करने का श्रेय जाता है। उनके पष्चात परवेज अख्तर, संजय उपाध्याय, तनवीर अख्तर अनिरूद्ध पाठक, राजीव रंजन श्राीवास्तव, विजय कुमार जैसे निर्देषकों ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। इनके मंचित नाटकों को राष्ट्ीय पहचान मिली। सतीष आनंद और संजय उपाध्याय ने भिखारी ठाकुर के प्रख्यात नाटक ‘बिदेसिया’ को पूरे उत्तर भारत में लोकप्रिय बना दिया। ठीक ऐसे ही राष्ट्ीय नाट्य विद्यालय से प्रषिक्षित विजय कुमार ने हरिषंकर परसाई की मषहूर व्यंग्य रचना ‘हम बिहार में चुनाव लड़ रहे हैं’’ का पूरे देष भर में मंचन किया। ठीक इसी प्रकार चर्चित रंगकर्मी राजीव रंजन श्रीवास्तव के ‘बाथे में बिदेषिया’ को भी व्यापक स्वीकृति मिली। इन सभी प्रस्तुतियों की सबसे खास बात ये थी कि इनमें बिहार की अपनी भाषा और अंदाज को पकड़ने को कोषिष अपने तईं की है। बिहार, खासकर पटना और मधुबनी में मैथिली रंगमंच का भी सषक्त मौजूदगी है। कुणाल मैथिली में काम करनेवाले आधुनिक रंगकर्मी माने जाते हैं। मैथिली रंगमंच में हालांकि परंपरा के प्रति गहरा अनुराग अभी मौजूद है लेकिन इधर कुछ वर्षों से आधुनिक प्रवृत्तियां भी निरंतर मजबूत होती जा रही है।
बिहार के रंगकर्मियों की एक अन्य विषेषता रंगमंच से इतर जाकर कला और संस्कृति के सवालों पर प्रतिक्रिया करना रहा है। अस्सी के दषक में ‘प्रेमचंद रंगषाला मुक्ति अभियान’ के लिए बनी ‘कलाकार संघर्ष समिति’, पटना आर्ट काॅलेज के लिए बनी ‘संस्कृतियों की समन्वय समिति’ से लेकर प्रवीण की हत्या के खिलाफ बनी ‘हिंसा के विरूद्ध संस्कृतिकर्मी’ के बैनर तले पटना के रंगर्किर्मयों ने एकजुट होकर समय-समय पर अभियान चलाया है।
बिहार के रगंमंच के आगे का रास्ता वही रंगकर्मी बढ़ा पायेंगे जो बिहार की सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों और बेचैनी को सृजनात्मक और रंगमंचीय षक्ल देने में सक्षम होंगे। बिहार में यह काम रंगमंच के क्षेत्र में उन्नत माने जाने वाले राज्यों की तुलना में पीछे है। बिहार का रंगमंच जितना ज्यादा मुठभेड़ समकालीन सवालों से करेगा उतना ही वह रंगमंच के लिए इस तेजी से बदलते समाज में अपने लिए स्पेस बना पाएगा। एक दूसरे अर्थ में कहा जाए तो एक पिछड़े और सामंती प्रभावों वाले समाज में बिहार का रंगमंच आधुनिकता की परियोजना को जितना आगे बढ़ा पाने में सक्षम होगा उतनी ही उसकी उपादेयता भी सिद्ध होगी।
बहुत ही अच्छा लेख है। ये सही है, अगर बिहार के रंगमंच पे थोड़ा फ़ोकस किया जाये तो आंकड़े और भी क्रांतिकारी दिखेंगे। क्योंकि इसके पास कहने-सुनने के लिये बहुत कुछ है। अतुल शाही।
जवाब देंहटाएंKafi acha lekh hai .
जवाब देंहटाएं