१. बुर्रकथा
लोक रीतियों में बुर्रकथा बहुत ही प्राचीन एवं प्रचलित है। बुर्रकथा तीन व्यक्तियों द्वारा प्रस्तुत की जाती है। इसमें एक प्रधान गायक होता है और दो सहयोगी होते हैं। प्रधान गायक तथा सहगायकों द्वारा सहगान किया जाता है। तीनों आंध्र में प्रचलित लम्बी ढोल का प्रयोग करते हैं। कथा की प्रस्तुति गद्य एवं पद्य में होती है। कथा में नाटकीय प्रभाव लाने के लिए बीच-बीच में वाद्यकार का रूकना, आगे की ओर कदम बढ़ाना या ढोल की ताल के अनुरूप चक्कर काटना या नृत्य भंगिमाओं का अभिनय करना शामिल होता है ताकि कहानी/घटना या नृत्य भंगिमाओं का अभिनय करना शामिल होता है ताकि कहानी/घटना के भाव प्रभावी रूप से प्रस्तुत हों। बुर्रकथा में अधिकांश सामाजिक, स्वतंत्रता आंदोलन की घटनाएं, नीति कहानियाँ, आदि प्रस्तुत की जाती हैं।
२. हरिकथा
महाकाव्यों और पुराणों की कहानियों का उपयोग हरिकथा में परम्परागत रूप से किया जाता है। भारत वर्ष की प्राचीन संस्कृति, जो ऋषि-मुनियों द्वारा दी गई है, उसे हरिदास (हरि के सेवक) द्वारा गायन, गद्य, पद्य एवं नृत्य के अभिनय द्वारा हरिकथा की प्रस्तुति की जाती है। हरिदास एक गायक, कहानी-वाचक, समसामयिक जीन के विश्लेषक, भाषाविज्ञानी, कवि, नाटककार, निर्माता, निर्देशक और मुख्यत: भगवान और समाज के बीच में एक कड़ी की भूमिका निभाता है।
रामायण, महाभारत, भागवत, आदि की घटनाओं, सत्य हरिश्चंद्र, नल चरित्र, भक्त प्रह्लाद, भक्त ध्रुव, भक्त मार्कंडेय, आदि कथाओं को कमनीय ढंग से हरिदासों द्वारा प्रस्तुत किया जाता है।
३. विधि नाटकम्
आंध्रप्रदेश के ग्रामों में भ्रमणशील नाटक मण्डलियों द्वारा की गई प्रस्तुतियों को 'विधि नाटकम.' यानि 'खुला मंच पर नाटक' कहते हैं। पश्चिमी नाटकों के आगमन से पूर्व, विधि नाटकम् की अहम भूमिका रही आज़ादी के आंदोलन में। संस्कृति की रक्षा, भक्ति, ज्ञान, नीति के प्रस्तुतिकर्ता आदि के रूप में विधि नाटकम् कार्य निर्वाह करता है। पश्चिमी नाटक संस्कृति के साथ-साथ बड़े-बड़े मंच के सेट, फ्लड लाइट्स, आदि के विधि नाटकम् ग्रामों और छोटे-छोटे शहरों में आयोजित किए जाते हैं। सिनेमा के आगमन के बाद भी विधि नाटकम् ने अपना महत्व खोया नहीं। विधि नाटकम् को सफल बनाने का श्रेय आंध्र की मण्डलियों को जाता है। उन्होंने परिश्रम करके, समय के अनुरूप नाटकों का एक भण्डार सृजित किया है जो अभी भी विशाल श्रोतागणों के सामने प्रस्तुत किये जा रहे हैं। 'हिटलर प्रभावम्' सफलता पूर्वक विधि नाटक की मण्डलियों द्वारा प्रस्तुत किया जा रहा है।
४. कोलाटम्
'कोलाटम्' आंध्र प्रदेश का लोकप्रिय लोकनृत्य है, जो गुजरात राज्य के 'गर्भा' और 'रास' नृत्यों से मिलता जुलता है। 'कोलाटम्' नृत्य में उत्साह और शक्ति का प्रदर्शन दिखाई पड़ता है। कोलाटम् पुरूष प्रधान नृत्य है। स्त्री प्रधान नृत्य है - 'लम्बाडी' और 'बतकम्मा', जो उत्सव, त्यौहार आदि के समय नृत्य नाटकों में उपयोग किया जाता है।
५. नाटक
वर्तमान समाज में हो रही घटनाओं, राजनीति, भ्रष्टाचार, परिवार कल्याण आदि विषयों पर आधारित नाटकों को 'नाटक' कहा जाता है। इन नाटकों को शहरों और नगरों के कम्यूनिटी हाल/ऑडिटोरियम आदि में पेश किया जाता है, जिनमें बड़े-बड़े फ्लड लाइट्स आदि की व्यवस्था होती है।
६. गायक दल
गायक भिक्षुक दल पूरे भारत वर्ष में पाये जाते हैं। आंध्र प्रदेश में इन दलों की संख्या काफी अधिक है। गायक दल विचित्र वेश में दिखाई देते हैं और एक ग्राम से दूसरे ग्राम घूमते रहते हैं। गायक दल अपनी प्रस्तुति गायन द्वारा प्रस्तुत करते हैं। वे भविष्यवाणी, औषधों को बेचना, बीमारियों के निदान, साधारण जनता को अच्छे एवं परोपकार गुण से रहने के लिए प्रेरित करते हैं। गायक दल समाज में पाये जाने वाले अवगुणों को अपने गायन कौशल द्वारा बता कर, इलाज करते हैं।
७. तोलुबोम्मलाट
गुडियाँ बनाकर उन्हें नचाते हुए अभिनय कराते हुए नेपथ्य में कथन एवं संगीत की प्रस्तुतिकरण को 'तोलुबोम्मलाट' कहा जाता है। यह भी एक प्रचलित रंगमंच की शैली है। वर्तमान में यह शैली छोटे गाँवों में ही देखने को मिलती है। उपरोक्त शैली आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाड़ के ग्रामीण क्षेत्रों में देखी जा सकती है। इतिहास, स्वतंत्रता आंदोलन की घटनाएं रामायण, महाभारत, पुराणों, आदि कहानियों की प्रस्तुति 'तोलुबोम्मलाट' में प्रस्तुत की जाती है। कमलहासन की हिंदी फिल्म 'इंडियन' में 'तोलुबोम्मलाट' के दृश्य दिखाये गये हैं।
८. कलापम
कलापम चरित्र चित्रण की गीति-नाट्य शैली है। नाटक की इस विधा में गायन और हाव भावों की मदद से पात्र का चरित्र चित्रण किया जाता है। यह किसी एक घटना की अभिव्यक्ति होती है। इसके विषय आमतौर पर सामाजिक और मनोविज्ञानिक होते हैं। इसमें मुख्य पात्र की सहायता दोनों का काम करता है। मुख्य पात्र अभिनय करता है और दूसरा पात्र निरूपण तथा व्याख्यायन का कार्य करता है। प्रमुख पात्र नांदी अथवा मंगलाचरण द्वारा स्वयं का परिचय देता है। 'कलापम' के गीत आमतौर पर नृत्याधारित होते हैं। नृत्य और गीत का संगुंफन किया जाता है। 'कलापम' की दो मुख्य शैलियाँ हैं; एक तो शास्त्रीय शैली है, जिसे कुचीपुड़ी नृत्यकारों ने अपना कर विकसित किया है। दूसरी शैली में 'कलापम' के मूल रूप को ही अभिनीत किया जाता है। 'कलापम' के प्रमुख स्वरूप हैं : 'भाम कलापम' और 'गौल्ल कलापम'। इसके अन्य प्रचलित स्वरूप हैं - कोरांजीवेशम, कूरमुलावेशम, पंथलुपंथनीवेशम। इनमें भी 'भाम कलापम' का दर्जा काफी ऊंचा माना जाता है, क्योंकि कुचीपुड़ी ने इसे शास्त्रीय अभिनय के आदर्श के रूप में स्वयं में समाहित किया है। कुचीपुड़ी की रेपरटरी द्वारा अपनाए जाने के बाद 'गोल्ल कलापम' का दर्जा भी शास्त्रीय स्तर तक पहुंच गया। 'भाम कलापम' और 'गोल्ल कलापम' में मुख्य अंतर यह है कि 'भाम कलापम' समाज के उच्च वर्ग में प्रदर्शित किया जाता है और 'गोल्ल कलापम' मुख्यत: ग्रामीण जनता के मनोरंजन के लिए इस्तेमाल किया जाता है। 'गोल्ल कलापम' में विश्व के उद्भव और मानव के जन्म की कथा कही जाती है। इसमें एक विद्वान ब्राह्मण और दूध बेचने वाली एक महिला अथवा 'गोल्ला' महिला के बीच वार्तालाप के जरिए यह कथा कही जाती है।
९. पगति वेशालु
तेलुगु में 'पगति' शब्द का अर्थ है दिन का समय। अत: 'पगति वेशालु' का अर्थ हुआ दिन के समय किसी और का वेष धारण कर, किया जानेवाला प्रदर्शन। यह नाटक कई दिनों तक एक के बाद एक प्रदर्शित किया जाता है। एक बार के प्रदर्शन में तीन से चार कलाकार तक भाग लेते हैं। इसका अभिनय हर घर के दरवाज़े के आगे किया जाता है। प्रदर्शन के अंतिम दिन कलाकार या तो अपनी सामान्य वेशभूषा अथवा 'अर्धनारीश्वर' के वेश में आते हैं और लोगों से उपहार स्वीकार करते हैं। कलाकारों द्वारा बनाए जानेवाले वेश कई प्रकार के होते हैं और सबका प्रयोजन अलग-अलग होता है। वेश किसी न किसी समाज तथा उसके तौर तरीकों को प्रदर्शित करता है। ये नाट्य प्रदर्शन समाज पर एक व्यंग्य के रूप में भी हो सकते हैं और इनका उद्देश्य समाज में प्रचलित कुरीतियों तथा बुराइयों को दूर काना भी हो सकता है। कुछ प्रचलित वेश हैं - सोमायाजुलू तथा सोमीदेवम्मा (अर्थात् पुरातनपंथी ब्राह्मण और उसकी पत्नी); धास्थीकन पंथुलु, कोमती धूर्त 'बनिया' तथा हंसी मजाक से भरपूर राजस्व इंस्पेक्टर भट्टू। इन सामाजिक पात्रों के अतिरिक्त पौराणिक और ऐतिहासिक वेशों में भी कलाकार प्रदर्शन करते हैं जैसे अर्धनारीश्वर, शक्ति, बेताल इत्यादि। उपर्युक्त दो प्रकार के वेशधारियों के अतिरिक्त तीसरे प्रकार के वेशधारी भी होते हैं जो आमतौर पर विनोदी पात्र होते हैं। इस वर्ग में मोदीबंदावल्लु, सिंगी सिंगाड़ आदि आते हैं। 'पगति वेशम्' १९वीं सदी के एक स्वतंत्र कला रूप से ही निकला हुआ रूप है।
१०. वलाकम्
'वलाकम' का अर्थ है जीवन पद्धति अथवा शैली। यह नाट्य रूप गौरम्मा उत्सव के साथ जुड़े रीति-रिवाज़ों से उभरा है। उत्सव के दिन देवी गौरम्मा को घटम् के रूप में गांव के मध्य में लाया जाता है। देवी की प्रतिष्ठा के उपरांत 'वलाकम' प्रारंभ होता है। रीति के अनुसार एक बड़े ताड़ का पत्ता लगाकर गांव के किसी एक व्यक्ति की पूंछ बनाई जाती है। शरीर पर काले धब्बे चित्रित किए जाते हैं और पूंछ में आग लगाई जाती है। अभिनेता कार्यक्रम स्थल के बीचों बीच आकर लोगों का उपहास करता है। वह लोगों को डराता धमकाता है और किसी किसी को जलते पत्ते से छूकर दंडित भी करता है। फिर वह गांव के कुछ प्रख्यात लोगों की नकल उतारता है। श्रोता इससे बहुत प्रसन्न होते हैं और ऐसा दर्शाते हैं कि उनकी भी उन लोगों के बारे में यही राय है। लेकिन फिर भी इस सब के पीछे हास्य ही रहता है और किसी का उपहास करने की मन्शा नहीं होती।
११. चिरताल रामायणम्
चिरताल रामायणम्, चिरताल भजन से निकला एक रूप ही है। यह मुख्य रूप से नृत्य रूप है जोकि रामनवमी के उत्सव के दौरान चिरतालु बजाकर किया जाता है। दो लंबी लकड़ी के टुकड़ों से चिरताल बनाया जाता है। जिसके सिरे अंडाकर होते हैं। इसके सिरों पर टिन के दो गोल प्लेटें लगी होती हैं जिससे कि खनकती आवाज पैदा होती है। नर्तक एक चक्र में जिसे गुंडम् कहते हैं, नृत्य करते हैं और लगातार चिरतालु बजाते रहते हैं। कभी-कभी वे मंच पर भी चले जाते हैं, जो नृत्य स्थल से थोड़ा ऊंचा होता है। नर्तक परिचय गान अथवा 'प्रवेश दारूवु' द्वारा स्वयं का परिचय देते हैं। गाने के अंत में भगवान राम का गुणगार किया जाता है (रामचंद्र महाराज की जय)। परिचय गान के अंत में तेज गति का नृत्य किया जाता है। इस नाट्य रूप में प्रयोग किए जाने वाले संवाद गाने के रूप (संवाद दारूव) में होते हैं। नृत्य नायक जिसे 'बुद्देरी खान' कहा जाता है, नृत्य की गति में तेजी अथवा कमी लाने के लिए सीटी बजाता है। कभी-कभी अन्य पात्रों के साथ हंसी मजाक करता है और गंभीरता कम करने के लिए हास्य के वातावरण का निर्माण करता है। शुरू में इस नाट्य रूप के विषय रामायण से ही लिए जाते थे, आजकल भागवत, महाभारत, बालनागम्मा और खम्मामा भी इसमें शामिल किए गये हैं।
रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.
सोमवार, 10 अक्तूबर 2011
आंध्र प्रदेश की नाट्य शैलियाँ - एम.एस. मूर्ति
रंगमंच एक दृश्य काव्य है, इसमें दृश्यों के आधार पर कहानी/घटना दिखायी जाती है। प्राचीन काल से वर्तमान तक आंध्र प्रदेश में प्रचलित रंगमंच की मुख्य शैलियाँ है :- १.बुर्रकथा (तुक्कड़ प्रस्तुति और लोकगीत), २.हरि कथा, ३.विधि नाटकम्, ४.कोलाटम्, ५.साधारण नाटक, ६.गायक-दल, ७.तोलुबोम्मलाट
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