- अश्विनी कुमार पंकज
दुनिया के रंगमंच पर कलाकार अपनी-अपनी भूमिका के अनुसार आते हैं और नेपथ्य में चले जाते हैं। 2 मई 2009 को विश्व के महानतम कलाकार और नाट्य निर्देशक ऑगस्टो बोल भी सदा-सदा के लिए नेपथ्य में चले गये। विश्व रंगमंच पर जब तक यह धरती रहेगी वे फिर कभी नहीं दिखेंगे, लेकिन उनके रंगमंचीय प्रयोग और ‘उत्पीड़ितों का रंगमंच’ का सिद्धांत हमेशा रंगमंच और इंसानी समाज को उनकी असाधारण भूमिका से उत्प्रेरित करता रहेगा। भारतेंदु हरिश्चंद्र, भिखारी ठाकुर, स्तांस्लॉवस्की, अंतोनी आर्तोड और ब्रर्तोल्त ब्रेख्त जैसे रंगकर्मियों ने रंगंमच की जिस जनपक्षीय भूमिका को सुदृढ़ और स्थापित किया, उसे पूरी दुनिया में एक संगठित सांस्कृतिक जनांदोलन बना देने का अद्भुत काम ऑगस्टो बोल ने ही किया। बोल के पहले रंगमंच को सिर्फ सामाजिक-राजनीतिक बदलाव के एक कारगर और कलात्मक औजार के रूप में देखा-समझा जा रहा था। लेकिन बोल ने ‘उत्पीड़ितों का रंगमंच’ (थियेटर ऑफ ऑप्रेस्ड) के सिद्धांत से रंगमंच की जनपक्षीय परंपरा को एक जबरदस्त छलांग दी। उन्होंने कहा, ‘यह दुनिया एक रंगमंच है और हम सब कलाकार। यहां दर्शक कोई नहीं है। सबको अपनी-अपनी भूमिका निभानी है क्योंकि हम जिस दुनिया में रहते हैं उसे रहने लायक बनाना और बदलना भी हमारा ही काम है।’
दुनिया एक रंगमंच है और जिंदगी नाटक। यह नई नहीं बल्कि एक आम धारणा है। लेकिन इस एक साधारण पंक्ति की गंभीरता, क्षमता और ताकत से हम अनजान हैं। हम अपरिचित हैं रंगमंच की उस असीमित संभावना और शक्ति से जो किसी भी इंसान को ‘सर्जक’ बनाता है। रंगमंच की तरह ही जीवन-समाज और राष्ट्र में कुछ नया रचने की खोजी भूमिका देता है। इसीलिए पश्चिमी सभ्यता में रंगमंच को ‘व्यस्कों का विद्यालय’ कहा गया है, तो भारतीय परंपरा में इसे ‘पांचवां वेद (नाट्यशास्त्र)’ की संज्ञा दी गयी है। बावजूद इसके हम रंगमंच की क्षमता या यूं कहें कि अपनी क्षमता को समझ पाने में अक्षम हैं। जबकि बीसवीं सदी की शुरुआत से लेकर अब तक इस इंसानी अक्षमता के खिलाफ रंगमंच लगातार जूझ रहा है। बीसवीं सदी में पूरी दुनिया को स्तांस्लॉवस्की, इरविन पिस्केटर, वसेवोलोद मीयरहोल्ड, अंतोनी आर्तोड और ब्रर्तोल्त ब्रेख्त ने अपने रंगमंचीय सिंद्धांतों और प्रयोगों से हमारी इस अक्षमता को दूर करने की कोशिश की। सातवें-आठवें दशक में यह बीड़ा जॉन लिटिलवुड, जॉर्ल वेल्स, दारिया फो, हेनरी मूलर, टोनी कुशनर और ग्रोटोवस्की जैसे अनेक रंगकर्मियों ने उठाया। भारत में मुख्य रूप से रंगमंच को जनपक्षीय बनाने का काम किया दीनबंधु मित्रा, भारतेंदु हरिश्चंद्र, भिखारी ठाकुर, विजय तेंडुलकर, उत्पल दत्त, गिरिश कर्नाड और बादल सरकार ने।
जिस तरह ब्रेख्त ने इरविन पिस्केटर और वसेवोलोद मीयरहोल्ड के रंगमंचीय प्रयोगों को विकसित करते हुए उसे एक नई दिशा दी। ऑगस्टो बोल ने उस दिशा को अपनी रंगधर्मिता से निर्णायक अंजाम तक पहुंचा दिया। 1970 के दशक में उन्होंने अपने नाट्यप्रयोगों से यह सिद्ध कर दिया कि रंगमंच दुनिया को बदल सकता है क्योंकि दुनिया रंगमंच है। अपनी नाट्यप्रस्तुतियों के दौरान बोल ने दर्शकों की भूमिका कलाकार में बदल डाली। यह एक निष्क्रिय दर्शक को सक्रिय बनाने का अद्भुत रंगप्रयोग था जो बीसवीं सदी के अंत तक पूरी दुनिया में एक व्यापक सांस्कृतिक जनांदोलन के रूप में फैल गया। बोल इसे ‘उत्पीड़ितों का रंगमंच’ कहते हैं और उनका विश्वास है कि ‘रंगमंच ही उत्पीड़ितों की पहली भाषा’ है। बोल के पहले दर्शकों की सक्रियता के इस महत्वपूर्ण पक्ष पर इतने ठोस ढंग से किसी ने विचार नहीं किया था। थियेटर ऑफ ऑप्रेस्ड ने ही दर्शकों को हॉल से उठकर मंच पर अपनी सोच को साकार करने का अवसर प्रदान किया। यह एक क्रांतिकारी रंगप्रयोग था जिसने कलाकारों के साथ-साथ दर्शकों की भी भूमिका निर्णायक तौर पर बदल डाली।
दुनिया के रंगमंच पर कलाकार अपनी-अपनी भूमिका के अनुसार आते हैं और नेपथ्य में चले जाते हैं। 2 मई 2009 को विश्व के महानतम कलाकार और नाट्य निर्देशक ऑगस्टो बोल भी सदा-सदा के लिए नेपथ्य में चले गये। विश्व रंगमंच पर जब तक यह धरती रहेगी वे फिर कभी नहीं दिखेंगे, लेकिन उनके रंगमंचीय प्रयोग और ‘उत्पीड़ितों का रंगमंच’ का सिद्धांत हमेशा रंगमंच और इंसानी समाज को उनकी असाधारण भूमिका से उत्प्रेरित करता रहेगा। भारतेंदु हरिश्चंद्र, भिखारी ठाकुर, स्तांस्लॉवस्की, अंतोनी आर्तोड और ब्रर्तोल्त ब्रेख्त जैसे रंगकर्मियों ने रंगंमच की जिस जनपक्षीय भूमिका को सुदृढ़ और स्थापित किया, उसे पूरी दुनिया में एक संगठित सांस्कृतिक जनांदोलन बना देने का अद्भुत काम ऑगस्टो बोल ने ही किया। बोल के पहले रंगमंच को सिर्फ सामाजिक-राजनीतिक बदलाव के एक कारगर और कलात्मक औजार के रूप में देखा-समझा जा रहा था। लेकिन बोल ने ‘उत्पीड़ितों का रंगमंच’ (थियेटर ऑफ ऑप्रेस्ड) के सिद्धांत से रंगमंच की जनपक्षीय परंपरा को एक जबरदस्त छलांग दी। उन्होंने कहा, ‘यह दुनिया एक रंगमंच है और हम सब कलाकार। यहां दर्शक कोई नहीं है। सबको अपनी-अपनी भूमिका निभानी है क्योंकि हम जिस दुनिया में रहते हैं उसे रहने लायक बनाना और बदलना भी हमारा ही काम है।’
दुनिया एक रंगमंच है और जिंदगी नाटक। यह नई नहीं बल्कि एक आम धारणा है। लेकिन इस एक साधारण पंक्ति की गंभीरता, क्षमता और ताकत से हम अनजान हैं। हम अपरिचित हैं रंगमंच की उस असीमित संभावना और शक्ति से जो किसी भी इंसान को ‘सर्जक’ बनाता है। रंगमंच की तरह ही जीवन-समाज और राष्ट्र में कुछ नया रचने की खोजी भूमिका देता है। इसीलिए पश्चिमी सभ्यता में रंगमंच को ‘व्यस्कों का विद्यालय’ कहा गया है, तो भारतीय परंपरा में इसे ‘पांचवां वेद (नाट्यशास्त्र)’ की संज्ञा दी गयी है। बावजूद इसके हम रंगमंच की क्षमता या यूं कहें कि अपनी क्षमता को समझ पाने में अक्षम हैं। जबकि बीसवीं सदी की शुरुआत से लेकर अब तक इस इंसानी अक्षमता के खिलाफ रंगमंच लगातार जूझ रहा है। बीसवीं सदी में पूरी दुनिया को स्तांस्लॉवस्की, इरविन पिस्केटर, वसेवोलोद मीयरहोल्ड, अंतोनी आर्तोड और ब्रर्तोल्त ब्रेख्त ने अपने रंगमंचीय सिंद्धांतों और प्रयोगों से हमारी इस अक्षमता को दूर करने की कोशिश की। सातवें-आठवें दशक में यह बीड़ा जॉन लिटिलवुड, जॉर्ल वेल्स, दारिया फो, हेनरी मूलर, टोनी कुशनर और ग्रोटोवस्की जैसे अनेक रंगकर्मियों ने उठाया। भारत में मुख्य रूप से रंगमंच को जनपक्षीय बनाने का काम किया दीनबंधु मित्रा, भारतेंदु हरिश्चंद्र, भिखारी ठाकुर, विजय तेंडुलकर, उत्पल दत्त, गिरिश कर्नाड और बादल सरकार ने।
जिस तरह ब्रेख्त ने इरविन पिस्केटर और वसेवोलोद मीयरहोल्ड के रंगमंचीय प्रयोगों को विकसित करते हुए उसे एक नई दिशा दी। ऑगस्टो बोल ने उस दिशा को अपनी रंगधर्मिता से निर्णायक अंजाम तक पहुंचा दिया। 1970 के दशक में उन्होंने अपने नाट्यप्रयोगों से यह सिद्ध कर दिया कि रंगमंच दुनिया को बदल सकता है क्योंकि दुनिया रंगमंच है। अपनी नाट्यप्रस्तुतियों के दौरान बोल ने दर्शकों की भूमिका कलाकार में बदल डाली। यह एक निष्क्रिय दर्शक को सक्रिय बनाने का अद्भुत रंगप्रयोग था जो बीसवीं सदी के अंत तक पूरी दुनिया में एक व्यापक सांस्कृतिक जनांदोलन के रूप में फैल गया। बोल इसे ‘उत्पीड़ितों का रंगमंच’ कहते हैं और उनका विश्वास है कि ‘रंगमंच ही उत्पीड़ितों की पहली भाषा’ है। बोल के पहले दर्शकों की सक्रियता के इस महत्वपूर्ण पक्ष पर इतने ठोस ढंग से किसी ने विचार नहीं किया था। थियेटर ऑफ ऑप्रेस्ड ने ही दर्शकों को हॉल से उठकर मंच पर अपनी सोच को साकार करने का अवसर प्रदान किया। यह एक क्रांतिकारी रंगप्रयोग था जिसने कलाकारों के साथ-साथ दर्शकों की भी भूमिका निर्णायक तौर पर बदल डाली।
रंगवार्ता से साभार
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