रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

शनिवार, 26 नवंबर 2011

कट्टरपंथियों को ही होती है संस्कृति की चिंता


शाहिद अनवर हिंदी के उभरते हुए नाटककार हैं। 'तुकरा का सपना', 'गैर जरूरी लोग', 'बी थ्री' और 'हमारे समय में' के बाद उनका नया नाटक 'सारा' इन दिनों चर्चा में है। पाकिस्तान की विवादित शायरा सारा शगुफ्ता के जीवन पर आधारित इस नाटक का मुंबई में शिवसेना ने काफी विरोध किया और इस पर प्रतिबंध लगाने की मांग की। शाहिद अनवर से हिंदी रंगमंच के विभिन्न पहलुओं पर सुभाष चंद्र मौर्य की बातचीत 

'सारा' को लेकर उठे विवाद का पूरा मामला क्या है?

मुंबई में 28 मार्च को 'सारा' के प्रदर्शन के बाद शिवसेना ने 'फतवा' जारी किया कि इस नाटक को मुंबई में नहीं होने दिया जाएगा। पहले कहा गया कि किसी पाकिस्तानी लेखक के नाटक को मुंबई में मंचित नहीं होने देंगे। जब पता चला कि लेखक तो हिंदुस्तानी है तो कहा गया कि नाटक अश्लील है और भारतीय मूल्यों के खिलाफ है। 

क्या इस तरह की बंदिशें लेखकीय स्वतंत्रता पर हमला हैं? 

बिल्कुल। मेरा सीधा सवाल यह है कि संस्कृति या कहें अश्लीलता की सबसे ज्यादा चिंता कट्टरपंथी संगठनों को ही क्यों होती है? ये ऐसे लोग हैं जो बिना नाटक देखे या किताब पढ़े फतवे जारी करते हैं। इनका जवाब जनता को ही देना होगा। 'सारा' और 'माइ नेम इज खान' के मामले में मुंबई के युवाओं ने आगे बढ़कर शिवसेना जैसे संगठनों को करारा जवाब दिया। 

हिंदी रंगमंच को आगे ले जाने में क्या आप एनएसडी जैसे सरकारी संस्थाओं के योगदान से संतुष्ट हैं? 

हिंदी रंगमंच के विकास के लिए एनएसडी जैसी संस्थाएं जो कर रही हैं वो सार्थक नहीं है। एनएसडी के 12-14 लाख रुपये के बजट वाले प्रॉडक्शन से हिंदी रंगमंच का कोई फायदा नहीं हो रहा है। हिंदी रंगमंच को छोटे शहरों के युवाओं से ऑक्सीजन मिलती है। असली रंगमंच छोटे शहरों में ही हो रहा है। अफसोस यह है कि एनएसडी जैसी सरकारी संस्थाएं छोटे शहरों के रंगकमिर्यों के लिए कुछ नहीं कर रही हैं। अर्थाभाव में अच्छा थियेटर मर रहा है। कम से कम एनएसडी जैसी संस्थाएं छोटे शहरों के रंगकमिर्यों को सस्ते में ऑडिटोरियम तो दिला ही सकती हैं।

इस समस्या से निपटने का रास्ता क्या है? 

रंगमंच हमेशा अपने रास्ते तलाश लेता है। पटना में जावेद अख्तर और दिल्ली में वसीम अहमद ने टैरेस थियेटर का प्रयोग करके यह साबित किया है। वसीम ने शंकर मार्केट में एक मकान की छत पर 60 लोगों के बैठने की व्यवस्था की है। वसीम का बेला आर्ट ग्रुप टैरेस थियेटर का पूरा एक फेस्टिवल आयोजित करने जा रहा है। लेकिन दिक्कत यह है कि ये सभी व्यक्तिगत प्रयास हैं। इस तरह की कोशिशों को सामूहिक तौर पर बढ़ावा देने की जरूरत है। 

क्या आपको लगता है कि हिंदी रंगमंच में नाटककार को खास अहमियत नहीं मिल पा रही है ? 

यह बात काफी हद तक सही है। यह भी सही है कि हिंदी रंगमंच निर्देशक का रंगमंच बनकर रह गया है। निर्देशक नए नाटककारों का नाटक मंचित करने का जोखिम नहीं लेना चाहते। वे शेक्सपियर, दारियो फो, मोहन राकेश, विजय तेंडुलकर जैसे मशहूर नाटककारों के नाटक मंचित करना चाहते हैं। किसी नाटककार के साथ बैठ कर चर्चा करने में निर्देशकों को दिक्कत महसूस होती है। और उसके बाद शोर मचाया जाता है कि हिंदी में नाटक नहीं लिखे जा रहे हैं। निर्देशकों के रुख के कारण ही रंगमंच सामूहिक के बजाय व्यक्तिगत ज्यादा बन गया है। 

क्या आज के रंगकर्मी रंगमंच को फिल्मों तक पहुंचने की एक सीढ़ी की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं? 

देखिए, रंगकर्मियों के फिल्मों में काम करने में मुझे कोई बुराई नहीं नजर आती। ऐसा तब तक होता रहेगा जब तक रंगमंच से उन्हें आथिर्क सुरक्षा नहीं मिल जाती। हां, रंगकमिर्यों को यह जरूर सोचना चाहिए कि एनएसडी जैसी संस्थाएं जनता के पैसे से ही उन्हें प्रशिक्षण देती हैं। ऐसे में जनता के प्रति उनकी कुछ जवाबदेही बनती है या नहीं? 

इंटरनेट, ब्लॉग और सोशल नेटवर्किंग के समय में थियेटर की क्या खास अहमियत है? 

मुझे नहीं लगता कि तथाकथित आईटी क्रांति ने लोगों में वैज्ञानिक सोच विकसित करने में मदद की है। गणेश जी का दूध पीना और कब्र से आवाज आना इसी आईटी क्रांति के दौर में हुआ। मुझे लगता है कि थियेटर का काम आदमी को आदमी के करीब लाना है। और ये काम थियेटर अब भी बखूबी कर रहा है। 

कुछ लोगों का आरोप है कि आप के कुछ नाटक ओरिजनल नहीं हैं... 

अगर ऐसा है तो मोहन राकेश का 'आषाढ़ का एक दिन' भी ओरिजनल नहीं है। 'किंगलियर' और 'हेमलेट' भी ओरिजनल नहीं है क्योंकि ये सभी किसी न किसी लोक कथा से प्रभावित हैं। दरअसल हमारे यहां सरलीकरण की प्रवृत्ति बहुत बुरी है। जो लोग मुझ पर ये आरोप लगा रहे हैं उन्हें खुद अपने दामन में झांक कर देखना चाहिए कि वे क्या कर रहे हैं?

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