यह महत्वपूर्ण निबंध जगदीश चन्द्र माथुर ने सन 1950 ई. में पटना कालेज साहित्य परिषद्
के लिए लिखा था | आज़ादी या सत्ता परिवर्तन/हस्तांतरण के बाद का यह काल भारतीय इतिहास में
पुनर्निर्माण का काल के रूप में विख्यात है | अपने
इस निबंध में माथुर जी ने जिन आशंकाओं से आगाह करना चाह था आज वो हमारे सम्मुख
मुंह खोले बड़ी शान से खड़ी हैं | माथुर जी की
आशंकाओं पर अगर वक्त रहते ध्यान दिया गया होता तो आज हमारे मुल्क की कला, संस्कृति और रंगमंच की शायद ये दुर्दशा ना हुई होती | निबंध बड़ा है सो हमें ये कई भागों में प्रकाशित करना पड़ेगा | उम्मीद है पहला भाग आप मंडली पर पहले हीं पढ़ चुकें होंगें, यदि नहीं तो पहला भाग पढने के लिए कृपया यहाँ क्लिक करें | आज आपके सामने प्रस्तुत है निबंध का दूसरा भाग | निवेदन बस इतना है कि छोर पकड़ के रखियेगा | - माडरेटर मंडली .
यदि पाश्चात्य यथार्थवादी रंगमंच से
प्रभावित हो हमारे स्कूल, कालेजों और क्लबों द्वारा एमेचर रंगमंच की अभिवृद्धि होगी,
तो प्राचीन संस्कृत पद्धति का आधार ले और बैले इत्यादि के साधनों से
संपन्न हो एक नागरिक ( Urban ) और व्यावसायिक (
Professional ) रंगमंच भी हमारे नगरों में प्रस्तुत हो सकता है
| ऐसे रंगमंच के लिए संस्कृत रंगमंच की कमनीयता, इसका सुरम्य वातावरण वांछनीय है ; रंगशाला की सजावट,
उसके विभिन्न अंगों का वितरण, संगीत और नृत्य
का प्रचुर प्रयोग, इन सभी विषयों में संस्कृत रंगमंच की
विशिष्ट धरोहर है | सिनेमा और चिताकर्षण नृत्य-प्रदर्शन के
इस युग में कोई भी व्यावसायिक और नागरिक रंगमंच जीवन को यथातथ्य प्रतिविम्बित
करनेवाले दृश्यों के सहारे नहीं पनप सकता ; किन्तु
हृदयग्राही और नयनाभिराम होने के लिए हिंदी रंगमंच को पारसी थियेटर के कृत्रिम
साधनों का सहारा नहीं लेना है और न आधुनिक पाश्चात्य नाट्यकलाओं की प्रतीकवादी
पृष्ठभूमि का दामन पकडना है | हम संस्कृत रंगमंच की ललित
रंगपीठ, सरस स्वाभाविकता और शास्त्रोगत मुद्राओं और
भाव-भंगिमाओं से भरे-पुरे अभिनय को सहज ही अपना सकतें हैं | अभी
तक श्री पृथ्वी राज कपूर द्वारा प्रस्तुत किये गए नाटकों को देखने का मुझे अवसर
नहीं मिला है, लेकिन यदि मुंबई में ये संस्कृत नृत्यशालाओं,
वस्त्राभूषणों और अभिनय कला की कुल विशेषताओं को अपने थिएटर में,
प्रयोग रूप में ही सही, चालू करें, तो मेरा विश्वास है कि वे रुचिपरिमार्जन के साथ-साथ आभिजात्यवर्ग के
नागरिकों का यथेष्ट मनोरंजन भी कर सकेंगें | ऐसा रंगमंच
व्यावसायिक दृष्टि से असफल नहीं हो सकता ; क्योंकि उसमें ‘ओपेरा’ के गति-प्रधान वातावरण और रमणीयता और सिनेमा
की तीव्र गतिशीलता और नाटकीयता का अलम्य सम्मिश्रण होगा | मुख्यतः
यह रंगमंच नगरों और उत्सवों तक ही सीमित रह सकेगा |
राष्ट्रीय रंगमंच का तीसरा और शायद सब से महत्वपूर्ण
अंग होंगी देहाती नाट्य मंडलियां | पिछले दिनों लोगों का
ध्यान जनता के विचारों और व्यक्तित्व को प्रभावित करनवाले इस अचूक साधन की ओर गया
है और कम्युनिस्ट पार्टी ने तो अपने पीपुल्स थियेटर द्वारा आरम्भ के दिनों में
निस्संदेह कला का यथेष्ट कल्याण किया है ; किन्तु कम्युनिस्ट
कलाकारों को सिद्धांत की वेदी पर बेदर्दी के साथ सौंदर्य का बलिदान करना पडता है
और इसलिए निकट भविष्य में तो पीपुल्स थियेटर राष्ट्रीय रंगमंच को शायद ही समृद्द
कर सके | दूसरे, यद्दपि पूर्वी बंगाल,
तेलांगना और पश्चिमी मालावार के कुछ हिस्से मं कम्युनिस्ट मंडलियों
को देहाती अभिनेताओं और गायकों इत्यादि का सहयोग अंशतः मिल सका, तथापि हिंदी भाषी प्रदेशों में ये मंडलियां प्रायः पढ़े-लिखे मध्यर्गीय
उग्र विचारवान प्रतिभाशाली और उत्साही नवयुवाओं की बानगी बनकर ही रह गईं | ये मध्यवर्गीय नवयुवक, जिन्होंने शहरों में रहकर,
पाश्चात्य विद्वानों की पुस्तकों के आधार पर अपनी विचार शैली
निर्धारित की थी, अपने प्रगतिशील सिद्धांतों की खातिर ऐसा
जान पडता था, देहाती पोषक पहन लेते थे | उन्होने पढ़ा कि रूस में जनता का नाटक पार्टी की प्रेरणा से खूब पनपा |
इसलिए यहाँ भी, उन्होंने देहाती नाम, देहाती समस्याओं और देहाती पोशाक का सहारा ले, मिली
जुली देहाती भाषा में बड़े शहरों में और कहीं-कहीं गांव में भी अपने सिद्धांत का
प्रचार शुरू कर दिया | थोड़े दिन तो यह चीज़ खूब चमकी ;
किन्तु आकाश की जिस धारा ने धरती के नीचे प्रवाहित होनेवाले सोतों
से नाता जोड़ा, वह तो ऊपर-ऊपर ही होकर ढाल जाती है | कम्युनिस्ट रंगमंच ने वस्तुतः बिहार, उतरप्रदेश और
मध्यप्रदेश में, देहातों में प्रचलित और लोकप्रिय
अभिनय-प्रणालियों से सम्बन्ध स्थापित नहीं किया और न इन देहातों में जौहर
दिखलानेवाले अशिक्षित या अर्धशिक्षित अभिनेताओं और गायकों को अपनाया | उन्होंने उन प्रणालियों अथवा पद्दतियों का अंशतः अनुकरण तो किया, लेकिन चालू प्रणालियों से सीधा सम्बन्ध नहीं जोड़ा | शायद उसमें उन्हें ह्रासोन्मुख ( Decadent ) संस्कृति के चिन्ह दीखे |
वस्तुतः हमें रंगमंच के इस विशाल क्षेत्र को उर्वरक
बनाने के लिए उस लोक रूचि की मांग को समझाना होगा, जिसके सहारे अब भी इतनी
नौटंकी पार्टियां और मंडलियां जीती रही है | छः-सात वर्ष हुए
बिहार के साधारण से ग्राम में दौरा करते समय मुझे उस गांव की ही एक मंडली द्वारा
प्रस्तुत किया गया नाटक देखने का अवसर मिला | ठठ-के-ठठ
स्त्री पुरुष जमा थे | स्टेज के नाम पर एक चौकी | एक ढोलकवाला था | अभिनेता कुल चार या पांच | दर्शक तीन तरफ | न कोई पर्दा न कोई विशेष सजावट |
नाटक का नाम था ‘जालिम सिंह’ जो उत्तरी बिहार में खासा प्रसिद्ध है | अभिनय में
कोई विशेष कला नहीं थी | कहानी अच्छी होते हुए भी, उसमें कई अश्लील अंश थे | लेकिन मुझे ऐसा लगा,
जैसे उस नाटक के खेलनेवालों और चारों ओर उमड़नेवाली जनता में एक
संशयहीन आत्मीयता हो, जिसका मैं एक अंग नहीं बन सका |
उसके बाद बिहार और पूर्वी उतर प्रदेश के भोजपुरी इलाके के लोकप्रिय
कलाकार भिखारी ठाकुर के विषय में बहुत कुछ सुनकर और उनके ‘बिदेसिया’
के नाम पर जुट पड़नेवाली जनता की मनोवृति का अध्ययन कर मैं इस
निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि देहाती रंगमंच उन आदिम अभिनयात्मक इच्छाओं की अभिव्यंजना
है, जिसके बल पर ही सिनेमा के तीव्र प्रचार के बावजूद रंगमंच
अपना अस्तित्व कायम रख सकता है |
देहाती रंगमंच की बुनियाद में अभिनेता और दर्शक के
बीच वही तदात्मीयता ( Mutual understanding ) है, जिसका
ज़िक्र मैं ऊपर कर आया हूँ | यह तभी संभव हो सकता है,
जब नाटक-मंडली के अभिनेता और प्रबंधक देहाती जनता की रूचि, इच्छा और मांग का अध्ययन करें | उसकी तथाकथित
अश्लीलता या बेरोक रसानुभूति से नाक-भौं न सिकोडें और उच्च स्तर से आविभूर्त
होनेवाले उपदेशकों की भांति, नीति अथवा उद्धार की झड़ी न
लगाएं और न आर्थिक शोषण का जड़ोंउन्मूलन करने के लिए जनता को भावोद्वेलित करने की
आशा करें | यह तो प्रधानतः मनोरंजन का क्षेत्र है | इसे परिमार्जित करने का एक ही मार्ग है, यानि जो
मनोरंजन भौंडा है उसे सुन्दर, कलापूर्ण और स्वस्थ बनाया जाये
| उदाहरणतः इन नाटकों में रंगमंच की सजावट में ग्रामीण कला
को अवसर दिया जाये | चटाइयों पर गेरू से सुन्दर डिज़ाइन
बनाकर मंच के उपपीठ पर लटकाएं जाएँ | गांव की स्त्रियां
अल्पना अंकित करें | भद्दे शहरी पर्दों के स्थान पर
बैक-ग्राउंड में जंगली पत्तियों और फूलों की लड़ियाँ टांगी जय | गाने बजने की बहुलता रहे | हारमोनियम के स्थान पर
सारंगी, और तबले के स्थान पर ढोलक हो | चूँकि पर्दे की गुंजाईश तो वहाँ होती नहीं है, इसलिए
दृश्य परिवर्तन और नाटक में धारा-प्रवाह को जारी रखने के लिए एक सूत्रधार रहे |
वह अच्छा गायक और हाज़िर जबाब होना चहिये | संस्कृत
नाटकों में तो सूत्रधार प्रस्तावना के बाद गायक हो जाता था | लेकिन आधुनिक देहाती रंगमंच में उसकी बराबर ज़रूरत पड़ेगी और उसका काम
लगभग वही होगा, जो यूनानी नाटकों में कोरस द्वारा संपन्न
होता था, यानि नाटक और दर्शकों के बीच सूत्र कायम रखना |
स्थान-स्थान पर नाटक के कथानक के प्रति उत्सुकता जागृत रखने के लिए,
वह टिपण्णी देगा, अभिनेताओं को कपड़े बदलने का
समय देने के लिए, दर्शकों का मनोरंजन करेगा और नाटक के भावुक
स्थानों पर भावावेग के अनुकूल गीत सुनाकर उसी प्रकार नाटकीय संवेदना का संवर्धन
करेगा, जैसे आधुनिक सिनेमा और रेडियो-रूपक में पार्श्व संगीत
|
अभिनेता, जहाँ तक हो सके, देहात में से ही लिए जायं, यद्दपि सूत्रधार का
आधुनिक संस्कृति और ज्ञानराशि से परिचित होना आवश्यक है | मैंने
ग्रामीण जनता के सभी वर्गों में कुशल अभिनेता की दक्षता रखने वाले व्यक्तिओं को
पाया है | थोड़ी ट्रेनिंग से उनकी योग्यता निखर जायेगी,
इसमे कोई संदेह नहीं | देहाती नृत्य और
सम्मिलित संगीत, उस रंगमंच के महत्वपूर्ण अंग रहेंगें |
हर प्रदेश के अपने-अपने जन नृत्य हैं, जिनका
बड़े-बड़े नगरों की आत्याधुनिक रंगशालाओं में नए फैशन के युवक-युवतियों द्वारा
शौकीनी प्रदर्शन पिछले दिनों खूब किया गया है | लेकिन ठेठ
देहात में, जहाँ की यह चीज़ है, नैसर्गिक
वातावरण में, देहाती युवक-युवतियों को ही अपने रंगमंच पर
प्रदर्शन करने के लिए कहाँ तक उत्साहित और संगठित किया जा रहा है, इसमें मुझे बहुत कुछ संदेह है |
देहाती रंगमंच का संगठित रूप क्या है और उनकी अन्य
क्या विशेषताएँ होनी चाहिये, इस विषय पर सविस्तार भविष्य में
लिखूंगा | क्योंकि इस क्षेत्र में कुछ क्रियात्मक अनुभव
प्राप्त कर लेने के बाद ही मुझे विचार प्रकट करने का पूर्ण अधिकार हो सकता है |
पिछले छः वर्षों से वार्षिक वैशाली महोत्सव के अवसर पर मैं इस ढंग
के देहाती रंगमंच की कल्पना को कार्यरूप में परिणत करने की चेष्टा करता रहा हूँ |
कुछ सफलता भी मिली है, क्योंकि वैशाली तो एक
गांव ही है, रेलवे स्टेशन से २३ मील दूर और चाहने पर भी वहाँ
नगर के साधन उपलब्ध नहीं हो सकते | ग्रामीण अभिनेता, ग्रामीण दर्शक, ग्रामीण उपादान सभी मिल जातें हैं |
निर्देशन हम लोगों का होता है और विशेषतः सजावट का निर्देशन
उपेन्द्र महारथी का | फिर भी कार्यक्रम में कॉलेज के
नवयुवकों द्वारा प्रस्तुत नाटक शामिल करने ही पडतें हैं |
इस वर्ष से बिहार में सरकार की ओर से सांस्कृतिक
चेतना सम्बन्धी योजना में हमलोगों ने देहाती रंगमंच के विकास के उद्द्येश से
मोद-मंडलियों की स्थापना की है | योजना सरकारी है और इसलिए उसकी गति
गजगामिनी की-सी है | स्वरुप भी वैसा हो तो शिकायत की गुंजाईश
न रहेगी किन्तु सांस्कृतिक क्षेत्र में निश्चित रूप से यह पहला सरकारी कदम है और
फूंक-फूंक कर उठाया जा रहा है | लोगों को भी यकीन नहीं होता
कि इसके पीछे कोई और तो चाल नहीं है | यदि यह तजुर्बा अंशतः
भी सफल हुआ तो मैं एक या दो वर्ष बाद इसकी पूरी कथा हिंदी पाठकों के सामने रखूँगा |
ऊपर के विवरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि आज दिन
हिंदी भाषा-भाषी प्रदेशों में राष्ट्रीय रंगमंच का क्रमिक निर्माण तीन पहलुओं में
हो रहा है | मेरे विचार से इन्हीं तीन शैलियों में भावी हिंदी रंगमंच
की रूप-रेखा सन्निहित है, यानि १. यथार्थवादी, एमेचर ( शौकीनी ) रंगमंच, २. प्राचीन नाट्य परम्परा
से प्रेरित किन्तु आधुनिक व्यावसायिक साधनों से संपन्न नागरिक ( Urban ) रंगमंच और ३. परिमार्जित और संशोधित रूप में देहाती
रंगमंच | यदि हमारे उदिमान नाटककार और उत्साही निर्देशक और अभिनेता
इन प्रवृतियों को नज़र में रखते हुए अपनी कार्य प्रणाली निर्धारित करें, तो बहुत- सी बेकार मेहनत बच जाये और हिंदी राष्ट्रीय रंगमंच और नाट्य
साहित्य की वास्तविक उन्नति हो |
क्रमशः
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