रंगमंच तथा विभिन्न कला माध्यमों पर केंद्रित सांस्कृतिक दल "दस्तक" की ब्लॉग पत्रिका.

शुक्रवार, 16 मार्च 2012

भारतीय रंगमंच एवं कला उर्फ़ कोई मालामाल तो कोई कंगाल : पुंज प्रकाश


कला, कला के लिए या कला समाज के लिए ? सवाल पुराना है पर उससे भी पुराना पड़ चुका है इस सवाल का जवाब | मनोरंजन के क्षेत्र में आई क्रांति ने जहाँ कला, कला के लिए के समीकरण को चुनौती दे डाली, वहीँ कला को सामाजिक क्रांति का एक अभिन्न हथियार मानने वाले समूह आज स्वं ही अपने बचाव के लिए हथियार तलाशने में लगें हैं | बात यहाँ ये भी है की कला अगर कला ना हो तो फिर उसके होने का क्या अर्थ है और अगर समाज के लिए न हो तो फिर उसका मतलब  ही क्या | ये बिलकुल पहले मुर्गी या पहले अंडा वाला गडबड-झाला है | हाँ, आज भी अगर कहीं-कुछ बहुत गहरे में गर नहीं बदला है तो वो है कला एवं कलाकार के प्रति समाज का रिश्ता या नज़रिया 
इतिहास गवाह है कि कला और कलाकारों के प्रति हमारे सुसंस्कृत तथा सभ्य समाज का नज़रिए कुछ बहुत ज़्यादा सम्माननीय नहीं रहा है | इस तबके में उस जमात को भी शामिल समझा जाये जिनके लिए क्रांति का माला फेरना आज एक तरह का खाज बन चुका है | सांस्कृतिक चेतना और क्रांति "पूंजी" पर जमी वो धुल है जिसे सदियों से झाडा नहीं गया है | रंगमंच सहित कला की लगभग अधिकतर विधाएँ कलाकार के व्यक्तिगत समर्पण और त्याग के सहारे ही पनपती रहीं हैं | समूह भी बना तो उसमें व्यक्तिगत समर्पण को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है | साथ ही जब-जब समाज ने कला या सच्चे कलाकार के प्रति अपना समर्थन दर्शाया है तब-तब एक नए इतिहास का सृजन हुआ है |

हम केवल उन्हीं को जान या समझ पातें हैं जो किसी न किसी कारण से प्रसिद्ध हैं, पर हमारे समाज में आस-पास ऐसे उम्दा कलाकारों की पूरी की पूरी फेहरिस्त है जो या तो उचित प्रोत्साहन या सहयोग के आभाव में मुर्झा गए या ताउम्र उपेक्षित और मुफलिसी में ही कला की सेवा करते रहे और मुफलिसी में ही प्राण त्यागे | आज हम जिस मोजार्ट को दुनियां का महानतम संगीतकार मानते हुए माला जपतें हैं वो ताउम्र मुफलिसी में ही जिया और मरने के बाद उसे कब्र तक नसीब नहीं हुआ था बल्कि उसे एक सार्वजनिक कब्र में राजकीय कर्मचारियों द्वारा दफनाया गया | हमारे यहाँ भी मोज़र्टों की कोई कमी नहीं है |

हमारा समाज बड़ा "औघड" है वो कला का आनंद लेना तो बखूबी जानता है पर उसे उचित सम्मान और समृद्धि प्रदान करने में हमेशा से ही कतराता रहा है | पुरुष कलाकारों की अपेक्षा स्त्री कलाकारों को तो आज भी समाज किस नज़र से देखता है वो किसी से छुपा नहीं है | स्त्री कलाकारों की समस्यायों को अलग से गौर करने की आवश्यकता और ज़रूरत है | इस पर बहुत कुछ लिखा भी गया है और लिखा भी जाना चाहिए | पर अभी बात कला - कलाकार की | 

वस्तुगत रूप से भले ही आज एक आधुनिक संसार में रहने का दावा हम करें पर क्या हमारी सोच आज भी उतनी ही रुढिवादी नहीं है ? है, और भरपूर है | इसे परखने के लिए कहीं दूर जाने की ज़रूरत नहीं है बल्कि हमें अपने अंदर झांकने की ज़रूरत है, जवाब अपने आप ही हाज़िर हो जायेगा | अभी कोई ज़्यादा समय नहीं बीता है कलाकारों को रोटी तक को तरसनेवाला हमारा महान भारतीय समाज हाथ में कटोरा लिए गणेश की पत्थर की प्रतिमा को दूध पीला रहा था और लगभग रोजाना ही कहीं ना कहीं "ओनर किलिंग" सह दहेज उत्पीडन का महायज्ञ बड़ी विनम्रता से संपन्न किया जाता है | हम क्या आज भी लकीर के वैसे फकीर नहीं हैं जो काम (work) से ज्यादा अर्थ (money) को सम्मान देता है ?

सीताराम पासवान 
सम्मान की बात चली तो ये स्वीकार करने में गुरेज़ नहीं है कि हाँ कुछेक कलाकारों को सम्मान नामक ये मृगतृष्णा खुशकिस्मती या बदकिस्मती से ज़रूर ही मिला है और आगे भी मिलता ही रहेगा | कुछ को जीते जी और कुछ को मरने के बाद | पर इनकी संख्या अपवादों जितनी हीं हैं | अब ये तो हम-सब जानते ही हैं की समय चाहे जैसा भी क्यों न हो अपवाद तो हर काल, हर समय, हर देश में होतें ही हैं | पर बात तो फिर भी वही कि आज के इस अर्थ प्रधान समाज में केवल सम्मान के सहारे क्या जीवन यापन किया जा सकता है ? जो कला और सम्मान के नाम पर माल बना रहें हैं वो खट से इस सवाल का जवाब हाँ में देतें हैं | प्रसिद्ध इतिहासकार स्व. राम शरण शर्मा हालाँकि ये बात धर्म के बारे में कहतें हैं पर चुकि कालाक्रम भी एक तरह का धर्म है सो उनकी बात पर ज़रा गौर करिये | वो कहतें हैं " इतिहास बतलाता है कि शासक वर्ग चाहे किसी भी धर्म के रहें हों उनका यह विशेषाधिकार रहा है कि वे अपनी प्रजा को और अपने दुश्मनों को लूटें और उनका उत्पीडन करें और जो मालमत्ता मिले उसकी मुख्यतः शासक वर्ग के उपरी तबकों के सदस्यों के बीच बंदरबांट कर लें |" शर्मा जी की ये बात आज भी प्रत्यक्ष रूप से हमारे मुल्क की गरिमा नहीं बड़ा रही ? अगर नहीं तो आखिर क्या वजह है कि भिखारी ठाकुर जैसे भारतीय पारंपरिक रंगमंच के अग्रणी कर्ता के नाट्य दल का एक सदस्य सीताराम पासवान को आज भीख तक मांगनी पड़ती है वो भी केवल अपने आप को जिलाए मात्र रखने के लिए | बात केवल एक सीताराम की नहीं है बल्कि "सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा" का नारा बुलंद करनेवाला इस मुल्क में पता नहीं कितने और सीताराम पासवान होगें, है हीं | ये लोग क्या उन "महान आत्माओं" से कम प्रतिभावान थे या हैं जो कलाकर्म का एडा बनके पेडा खा रहें हैं  हाँ इनके पास किसी नाट्य विद्यालय की डिग्री नहीं थी, है ना  ? खैर, डिग्री वाले का भी हाल कमोवेश यही है, एकाध उन अपवादों को छोडकर जिनका मूल स्वभाव "राग-दरबारी" वाला ही है और जो इस "मक्खन राग" का उतम सुर लगने में लोमडियों को भी मात देने का समर्थ रखतें हैं | 

सीताराम पासवान जैसे कलाकार मात्र दो घंटे में लथपथ हो जाने वाले "आधुनिक" कलाकार नहीं थे, ना ही उन्हें किसी अकादमी ने सम्मानित ही किया अथवा करेगा भी नहीं, बल्कि वे "सट्टा" पर रात-रात भर नाच-तमाशा कर मनोरंजन करने का दम रखने वाले लोग थे अथवा हैं , मौका चाहे जो भी हो | वे चालीस-पचास लोगों वाले सभागार में "House Full" का बोर्ड लगाकर "तू मेरी खुजा मैं तेरी खुजायूं" की पटकथा के आत्ममुग्ध होने वाले लोगों में से भी नहीं थे बल्कि हजारों-हज़ार की भीड़ लगती थी इनका नाच-तमाशा देखने के लिए | इनके नगाड़े की एक आवाज़ पर पूरा इलाका उमड़ पड़ता था | ये आज भारतीय रंग परिवेश से गायब से हो गए हैं तो क्या ये मात्र एक संयोग है ? नहीं बिलकुल ही नहीं | ये गायब हुए नहीं गायब हैं बंधू, गायब कर दिए गए हैं ? पूरी एक साजिश है | इस साजिश में हर वो व्यक्ति या संस्था शामिल हैं जिनके ऊपर इन्हें बचाने, संरक्षित करने और प्रोत्साहित करने की ज़िम्मेदारी और जवाबदेही थी ? आज हमारे मुल्क की पारंपरिक कला की  स्थिति धोबी के उस कुत्ते की तरह हो गई है जो ना घर का होता है ना ही घाट का | कौन दूध का धुला और कौन दागदार क्या कहा जाये | सफ़ेद कुर्तेवालों की तो बात ही छोडिये, इनके नाम पर दौलत और शोहरत कमानेवाले आधुनिक रंग-कलाकारों एवं बाबुओं की भी कोई कमी नहीं है | परम्परा और पारंपरिक कला के ही नाम पर हर साल कई "ताजमहल के टेंडर" निकलतें है और हर साल हज़ारों थैलियाँ भारी जाती है मुद्राओं से, परसेंटेज तय होता है, बटवारा होता है  और जिसके नाम पर ये सब हो रहा होता है वो किसी रेल के डब्बे में अपनी कांख बजाकर गाते हुए भीख मांगने को अभिशप्त है |

कहा जाता है की कला और संस्कृति किसी भी समाज का आइना होता है | किसी भी समाज को समझने के लिए वहाँ की कला-संस्कृति को समझना ज़रुरी है | पर उस समाज को क्या कहेंगे जो कला का उपभोग करना तो जानता है पर कलाकार को सम्मान और समृद्धि प्रदान करना नहीं ? जहाँ कलाकर्म आज भी अद्घोषित रूप शूद्रों का पेशा है और कलाकारों का स्थान शरीफों की बसती से दूर ही उचित माना जाता हो ? जहाँ आज भी कमाऊ पूत शिक्षित और सजग पूत से हज़ार गुना बेहतर माना जाता है | तो क्या ये माना लिया जाय कि भारतीय समाज का असली चेहरा शरीफों की बसती से दूर ही बसता है ? तो फिर ये बेचारे शरीफ भी तो समाज के अंग हैं, इन्हें क्या कहा जाये फिर ?

भारतीय रंगमंच और कला के जिस धरातल पर आज हम खड़े हैं उसे अपने जुनून से सीचने का काम हमारे पूर्वजों ने किया है | वो भी वैसे एक ऐसे समय में जब नाटक-नौटंकी, गाना- बजाना और नाचना  ( सामाजिक भाषा में नचनियां-बजानियाँ ) करने वालों को ना तो समाज इज्ज़त की नज़र से देखता था ना ही परिवार | ना ही उस वक्त रंगमंच और कला से पैसा कमाने के ही बारे में सोचा जा सकता था | आज हालाँकि परिस्थितियां थोड़ी बदली हैं, पर इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता की ये परिवर्तन कुछ खास लोगों को ही रास आई है | एक ओर जहाँ रंगमंच, कला एवं साहित्य के नाम पर पैसा पानी की तरह बह रहा है, लोग मदिरा की नदियों में हिचकोले लगा रहें हैं, वहीँ इसका दूसरा पहलू एकदम उलटा है | आज भी हमारे भारत में कई ऐसे नाट्य दल हैं जिनके पास ना पूर्वाभ्यास की जगह है, ना नाटकों के आलेख की फोटोकापी करने के पैसे | वो जैसे-तैसे रंगमंच तो कर ले भर रहें हैं, कुछ हद तक अच्छा भी कर रहें हैं , परन्तु उनकी आर्थिक बदहाली किसी बेरोजगार की तरह ही है और so called मुख्यधारा के महात्मा उन्हें " एमेचर " कहके ठीक ऐसे ही नाक भों सिकोड़तें हैं जैसे कोई सामंत किसी दलित या आदिवासी को देख लिया हो अपने घर में |

सवाल ये नहीं है कि भारतीय रंगमंच और कला कहीं आर्थिक रूप से समृद्ध है तो उस पर हाय तौबा क्यूँ मचाई जाय, सवाल ये है कि बाकियों या यूँ कहें कि अधिकतर  दलों तथा कलाकारों के पास उस समृद्धि का एक भी अंश आज तक क्यों नहीं पहुँच पाई या पहुँच पाती है | क्या यहाँ किसी तरह की साजिश चल रही है ? एक ही काम करते हुए कोई लाखों में खेले और कोई भूखों मरे या अपना पेशा त्यागकर रोज़ी रोटी के लिए कहीं और खटने को मजबूर हो तो संदेह करना ही पड़ेगा कि आखिर इस देश में चल क्या रहा है | क्या ये वही बात नहीं कि हमारे देश का आमिर और ज्यादा अमीर होता जा रहा है और गरीब और ज्यादा गरीब ? हालाँकि सरकार का नजरिया भी कला और संस्कृति के प्रति लगभग उदासीन ही है फिर भी कला और संस्कृति के नाम पर करोड़ों रूपये का आदान-प्रदान हर वर्ष होता है | सरकार द्वारा संचालित अकादमियां और उसके कर्मचारी साल केवल पैसों का बन्दर-बाँट करने सिवा और क्या कर रहीं हैं ? ये रूपये आम जन की ही कमाई का एक हिस्सा होता है तो क्या ये जानने का अधिकार नहीं है की इतना भेद भाव क्यों ? आर. पा दत्त का कथन है India is a country of poor people. But it is not a poor country.” (India Today 1940) यहाँ हर साल गरीब और ज़्यादा गरीब और अमीर और ज़्यादा अमीर बन रहा है | ये हमारे समाज की भी सच्चाई है और रंगमंच तथा अन्य कला जगत की भी |

निवेदन - सीताराम पासवान का साक्षात्कार पढ़ने के लिए कृपया यहाँ क्लिक करें |

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