प्रेम की भूतकथा का एक दृश्य |
नाटक का प्रचार-प्रसार एवं उसके शीर्षक से
दर्शकों में एक खास तरह के उम्मीद का संचार होता है. जब प्रस्तुति दर्शकों की उस
उम्मीद से इतर हो तो एक असहजता का प्रवाह भी होना स्वभाविक है. पूर्वाग्रह रहित
नाटक और नाट्य-रसिक की अवधारणा के साथ ही साथ नाटक के प्रचार-प्रसार में सावधानी
भी यहाँ एक ज़रुरी शर्त हो जाती है. वर्तमान भारत रंग महोत्सव में पस्तुत नाटक
‘प्रेम की भूतकथा’ पर एक त्वरित प्रतिक्रिया प्रस्तुत कर रहें हैं युवा शोधार्थी नवनीत कुमार. – माडरेटर मंडली.
पन्द्रवें भारत रंग महोत्सव में कल एलटीजी
सभागार में प्रस्तुत हुआ नाटक प्रेम की भूतकथा. नाटक के शुरुआत में सभागार को बंद
कर उसमें फॉग मशीन से ढेर सारा धुँआ भर दिया गया था और अजीबोगरीब डरावनी आवाजें आ रहीं थी. इन सबसे एक खास तरह का वतावरण बनाने का
प्रयास किया गया था. ताकि दर्शकों को यह लगे कि वो वाकई किसी कब्रिस्तान में आ गए
हैं. इसमें कोई दो राय नहीं कि एक माहौल बन भी रहा था. पर उतना भी नहीं कि डर की
कोई अनुभूति पैदा हो.
दिनेश खन्ना निर्देशित यह
नाटक विभूति नारायण राय के इसी नाम से प्रकाशित उपन्यास पर आधारित है, कथा सन 1909 में मसूरी में हुयी एक
नृशंस हत्या की है, जिसमें लेखक रस्किन बांड की मसूरी एंड लैंडर : डेज
ऑफ़ वाईन एंड रोज़ेज पढ़ रहा होता है, जिससे उसके सम्मुख एक अतियथार्थवादी
दुनिया बनती है जहाँ हत्या, रहस्य आदि कई अनसुलझी गुत्थियां उपस्थित हैं. लेखक (पत्रकार)
ऐसे सबूतों की तलाश में है जिनसे भूतों के अस्तित्व को साबित किया जा सके .
पत्रकार यह भी बताता है कि भूत उसके दोस्त भी रहे हैं. वह इस पूरे नाटक में मसूरी
से लेकर नैनी (इलाहाबाद) के जेल और देहरादून तक की यात्रा करता है. अंततः वह अपने
सवालों के जवाब को पाने में सफल होता है.
खोजी पत्रकार के रूप में टीकम
जोशी और कैप्टन यांग (एक भूत) की भूमिका में शाहिदुर्रह्मान ने अच्छा अभिनय किया. मैडम
रिप्ले बिन भी अपने अभिनय से दर्शकों को प्रभावित करने का प्रयास की परन्तु वह
दर्शकों के उम्मीद पर खरी नहीं उतर पाई. नाटक की मंच-परिकल्पना ( राजेश बहल) प्रस्तुति
और नाटक के कथानक के अनुकूल एक बेहतरीन वातावरण का निर्माण कर रही थी.
नवनीत कुमार |
नाटक से कई दर्शकों ने ये
उम्मीद पाल रखी थी कि नाटक में कुछ डरावना देखने को मिलेगा पर जब ऐसा कुछ नहीं हो
रहा था तो आस लगाये लोग बोर होने लगे और फुसफुसाहट भी शुरू होने लगी. बीच-बीच में
लोग उठ-उठाके सभागार से बाहर भी जाने लगे. हालांकि नाटक में बहुत सारी पोपुलर
चीज़ों का समावेश किया गया था पर शायद दर्शकों की उम्मीद कुछ और ही थी. नाटक के बाद
कुछ दर्शकों से बातचीत हुई, जामिया मिलिया इस्लामियाँ में शोधरत हेमंत रमन रवि
के अनुसार इस नाटक से जैसा उम्मीद किया था वह मुझे नहीं मिला और मैं अन्दर बोर
होने लगा. अभिनेताओं के बारे में अपने बगल में नाटक देख रहे एक साथी की
प्रतिक्रिया थी खोजी पत्रकार ही बढ़िया अभिनय कर रहा है बाकि तो बस ऐसे ही हैं.
इस नाटक में दिखाया गया भूत
वो भूत नहीं था जो हमारे जेहन में बसा है या बसा दिया गया है, हां इतना जरुर हो सकता है कि इस नाटक को देखने के बाद भूतों
के प्रति नजरिए में थोड़ी बदलाव आए.
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