एक लोकगीत में कहा गया है कि श्रीराम और सीता के विवाह के समय राजा जनक ने उत्सव के आयोजकों-प्रबंधकों को निर्देश दिया था कि बारातियों के स्वागत-सम्मान में कोई कमी न रहे, लेकिन इतना ही खर्च किया जाए कि मेरी प्रजा के निर्धनतम पिता को भी यह लगे कि वह अपनी बेटी का ब्याह बिना किसी आर्थिक कठिनाई के आसानी से कर सकता है.
रंगकर्म भी मूलत: साधन-संपन्नता का प्रदर्शन नहीं, कल्पनाशीलता और रचनात्मकता के कुशल प्रयोग का कलाकर्म है. लेकिन आदि काल से आज तक साधन-संपन्न राज्याश्रित (शास्त्रीय) रंगमंच और सीमित-साधनों वाले जनसाधारण के रंगमंच में हमेशा जमीन-आसमान का फर्क रहा है. मुहावरे में कहें तो ‘कहां राजा भोज, कहां गंगू तेली?’
आंतरिक सर्जनात्मकता और प्रतिभा का स्थान जब साधन-संपन्नता लेती है तो कला का ह्रास होने लगता है. उदाहरण के लिए जब राज्याश्रित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की स्थापना हुई तो स्थान और साधन सीमित थे लेकिन सरोकार, लक्ष्य, हौसले असीमित. इस से ही ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘अंधायुग’ और ‘तुग़लक’ जसी अविस्मरणीय-कीर्तिमान प्रस्तुतियां संभव हुईं. रंगमंडल बना. प्रदर्शन-मूल्यों के नए प्रतिमान स्थापित हुए. फ़िरोजशाह कोटला, तालकटोरा और पुराना किला के खंडहरों में बड़े आयामों वाले नाटकों के प्रदर्शन किए गए. प्रदर्शन भव्य थे लेकिन उनमें संसाधनों की, धन की कैसी भी प्रदर्शनीयता नहीं थी. धीरे-धीरे संस्थान का विकास होता गया और उसके आर्थिक-संसाधन भी बढ़ते गए. आज राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के एक पूर्व निदेशक का दावा है कि रंगकर्म में कोई व्यावहारिक समस्या या चुनौती नहीं है और प्रशिक्षित कलाकारों के लिए जीविका चलाने के पर्याप्त अवसर हैं. आर्थिक संसाधन तो इतने ज्यादा उपलब्ध हैं कि ‘हम उन्हें इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं.’ जाहिर है कि ‘हम’ का अर्थ यहां देश के हजारों सामान्य रंगकर्मी नहीं राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निदेशक और उनके करीबी मुट्ठी भर विशिष्ट कलाकार हैं. यह संस्थान छात्र-प्रस्तुतियों, अपने रंगमंडल के प्रदर्शनों, किताबों-पुस्तिकाओं, नाट्य-समारोहों आदि के कार्यक्रमों पर करोड़ों रुपए प्रति वर्ष खर्च करता है. पर कैसी विडंबना है कि संस्थान में रचनात्मक काम और अधिकांश प्रदर्शनों में कल्पनाशीलता के स्थान पर धन का निरर्थक दिखावा बढ़ता जा रहा है. इनकी बेटी के ब्याह की तामझाम और फूहडपने से आतंकित होकर कोई आम बाप तो बेटी के ब्याह की कल्पना तक नहीं कर सकता. इन्हें राजा जनक और राजा भोज के बीच संतुलन तलाशना चाहिए. तभी रंगकर्म की मुख्यधारा को प्रेरित और प्रोत्साहित किया जा सकेगा.
ये सच है कि सरकारी आर्थिक सहायता और धन के बिना अर्थपूर्ण और गंभीर रंगकर्म नहीं हो सकता मगर नए मौलिक प्रयोगों के बिना भी किसी माध्यम का विकास नहीं होता. प्रयोग हमेशा सफल ही हों, ये जरूरी नहीं है. इसके बावजूद रचनाकार नए प्रयोग करते हैं. समकालीन रंगकर्म में भी कई नाट्य-निर्देशक अपने माध्यम में अनेक मौलिक रंग-प्रयोग कर रहे हैं. भरत मुनि ने नाट्य को सभी विधाओं, कलाओं और विद्याओं का संगम माना था. एक लंबी गोलाकार यात्रा के बाद आज हम फिर से उसी आरंभ-बिंदु पर पहुंच गए हैं. इधर तकनीकी क्रांति और संचार-माध्यमों ने जीवन और जगत का स्वरूप बिल्कुल बदल दिया है. नए रंग-प्रयोगों में तकनीकी उपकरणों का भरपूर इस्तेमाल हो रहा है. शब्द और अभिनेता की भूमिका लगातार घटती जा रही है. इस दृष्टि से अनुराधा कपूर, अमाल अल्लाना, नीलम मानसिंह चौधरी, माया राव, कीर्ति जन इत्यादि का काम विशेष रूप से ध्यानाकर्षक है. संयोग से ये सभी महिला-निर्देशक हैं. इनके रचना-कर्म पर काव्य की अपेक्षा दृश्य/बिंब हावी है. पिछले दिनों दिल्ली में प्रदर्शित रुद्रदीप चक्रवर्ती के ‘कर्ण: द वारियर ऑफ द सन’ में जिस व्यापक स्तर पर स्क्रीन, वीडियो, कंप्यूटर, सीजीआई प्रभावों और आधुनिक ध्वनि-प्रकाश यंत्रों का प्रयोग किया गया - वह समकालीन भारतीय रंगकर्म में पैसे और तकनीक के अतिशय इस्तेमाल का एक बड़ा उदाहरण है.
अगर देश में अंग्रेजी के रंगमंच की बात की जाए तो इसे अधिकांशत: औद्योगिक घरानों या विदेशी अनुदान द्वारा प्रायोजित किया जाता है. समृद्ध समाज का खाया-अघाया एक खास वर्ग इन नाटकों को सिर्फ इसलिए देखता है कि प्रदर्शन बेडरुम फार्स है या कामेडी, इसका आलेख विदेशी है और भाषा अंग्रेजी. इसकी टिकिट भी काफी महंगी होती है. कुछ बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने एक छोटा-सा रास्ता कुछेक हिंदी नाट्य-दलों के लिए भी खोला है. ये सुविधा-संपन्न रंगकर्म राजा भोज का रंगमंच है. शायद इसीलिए इस संपन्न रंगकर्म का एक रूप ‘भोज रंगमंच’(सपर थियेटर) भी है जिसमें मुख्यत: अंग्रेजी और थोड़ा-बहुत हिंदी रंगकर्म को पांच सितारा होटलों में खाने-पीने के साथ परोसा जाने लगा है. वातानुकूलित शानदार होटल के बार या हॉल में सिग्रेट के धुएं, शराब के जाम और फूहड़ हंसी-मजाक के बीच का थियेटर बड़े पैसे के बावजूद इसे एक बाजारू चीज बना देता है.
विदेशों में प्रदर्शित किए जाने के लिए ही खास तौर से तैयार किए नाट्य-प्रदर्शनों का भी एक अच्छा-खासा बाजार है. इससे पैसा भी मिलता है और प्रसिद्धि भी. फिल्म और टीवी के लोकप्रिय कलाकारों के रंगकर्म का भी एक अलग वर्ग है. उनकी लोकप्रिय छवि को ये नाट्य-प्रदर्शन खूब भुनाते हैं. इनके हाउस हमेशा फुल रहते हैं. परंतु एक नसीरूद्दीन शाह और कभी-कभी फिरोज खान को छोड़ कर शायद ही इन ग्लैमरस-प्रदर्शनों में कोई गंभीरता, ईमानदारी या प्रतिबद्धता दिखाई पड़ती है.
सातवें-आठवें दशक में मोहन राकेश और बादल सरकार ने एक अभिनेता के सम्मुख कई चरित्र निभाने की चुनौती प्रस्तुत की. बांग्ला एकपात्री नाटक ‘अपराजिता’ जैसे एकल भी कलाकार की अभिनय-प्रतिभा के लिए बड़ी कसौटी हैं. लेकिन अनेक समकालीन निर्देशक एक ही चरित्र के विविध रूपों और पक्षों को मंच पर मूर्त करने के लिए अनेक अभिनेताओं का प्रयोग करके कलाकार की अभिनय-चुनौती को खत्म करते जा रहे हैं.
परंतु राजा भोज के इस भव्य रंगमंच के बरक्स आर्थिक दृष्टि से विपन्न लेकिन अपनी रंग-निष्ठा, लगन, जिद और ईमानदार अभिव्यक्ति के लिए कटिबद्ध गंगू तेली का शौकिया रंगकर्म भी मौजूद है जो पूर्वाभ्यास स्थलों, सस्ते प्रेक्षागृहों, दर्शकों, अच्छे मौलिक नाटकों, श्रेष्ठ कलाकारों और आर्थिक संसाधनों के अभाव जैसी समस्याओं और इलैक्ट्रॉनिक माध्यमों की नई चुनौतियों से लड़ने के बाद भी बढ़ रहा है. इस रंगमंच का विस्तार और वैविध्य आश्चर्यजनक है, किंतु इसका चरित्र और स्तर भी हैरतंगेज ढ़ंग से ऊंचा-नीचा है. कहीं अपनी गंभीर कल्पनाशीलता और जीवंतता के कारण यह प्रोफेशनल रंगकर्म से टक्कर लेता है तो कहीं बिल्कुल अपरिपक्व और बचकाना भी नजर आता है.
आज शौकिया रंगकर्म के कई रूप मौजूद हैं. अच्छे मौलिक रंग-नाटक लिखे तो जा रहे हैं लेकिन निर्देशक उन्हें करने के बजाए पूर्व-प्रकाशित-मंचित सफल भारतीय या विदेशी नाटकों के अनुवादों पर ही ज्यादा भरोसा करते हैं. स्वयं निर्देशक भी नाटक लिखने लगे हैं. कहानी-उपन्यासों के नाट्य-रूपांतर या उन्हें ज्यों-का-त्यों भी प्रस्तुत किया जाता है. कविताओं पत्रों, व्यंग्य-लेखों और जीवनियों को भी को भी मंच पर प्रस्तुत किया जाता है. लोक-नाटकों और शैलियों को लेकर भी नए रंग-प्रयोग हो रहे हैं और नाट्यधर्मी शास्त्रीय संस्कृत नाटकों को लेकर भी. एकल नाट्य की लोकप्रियता भी बढ़ रही है.
शंभु मित्रा, शीला भाटिया, ब.व. कारंत जसे वरिष्ठ निर्देशक रहे नहीं. हबीब तनवीर, कावालम नारायण पणिक्कर, बादल सरकार, सत्यदेव दुबे और श्यामानंद जालान, रजिन्दर नाथ वाली पीढ़ी अपना योगदान देकर थक चुकी है. इब्राहिम अल्काजी कब का रंगमंच से संन्यास ले चुके हैं और उनके प्रतिभावान शिष्यों में भी अब शिथिलता दिखाई देने लगी है. रतन थियम अपनी पीढ़ी के शायद अकेले ऐसे रंगकर्मी हैं, जिन्होंने निजी रंग-शैली बनाई है और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समकालीन भारतीय रंगमंच का प्रतिनिधित्व करते हैं. नई पीढ़ी सक्रिय है - संभावनामय भी है. लेकिन आज के घोर भौतिकतावादी समय में कब तक घर फूंक कर तमाशा करने की जुर्रत कर पाएगी. फिर इलैक्ट्रॉनिक माध्यमों का अदम्य आकर्षण भी है.
मुश्किल तो इस सवाल का जवाब देना भी है कि भविष्य में रंगकर्म बचा भी रहेगा या नहीं? यदि बचा भी रहा तो उसका रूप-रंग क्या होगा? पहले प्रश्न का उत्तर तो इतिहास देता है. आरंभ से लेकर आज तक, विपरीत परिस्थितियों और संकटों के बावजूद, रंगकर्म हमेशा जीवित रहा है. उसने समय और समाज के बदलाव के साथ-साथ अपने स्वरूप और सरोकारों को भी बदला है.
साहित्य में जैसे नई कविता को नए उपमानों की जरूरत पड़ी थी, उसी तरह अब रंगमंच को नए मंच-उपकरणों की जरूरत महसूस हो रही है. नए अनुभवों के संप्रेषण के लिए नए अभिव्यक्ति-रूप आ रहे हैं - आएंगे ही. अपने जीवन में जब हम पश्चिम की नकल और तकनीकी उपकरणों के उपयोग रोक नहीं पा रहे हैं तो रंगमंच को इससे कैसे अलग हो? मगर अभी तक हमारे यहां कथ्य और तकनीक से लदी-फदी प्रस्तुति शैली में रचनात्मक साम्य नहीं बन पाया है. यदि ऐसा हो पाया तभी यह सिर्फ चौंकाने के बजाए दर्शक को सहज ग्राह्य हो सकेगा.
रंगमंच मूलत: शब्द, अभिनेता और दर्शक की धुरी पर टिका है. इनमें से किसी भी तत्व को छोड़ देने पर वह चमत्कृत करने वाला कोई मनोरंजक प्रदर्शन भर रह जाएगा - रंगमंच नहीं रहेगा. भविष्य के रंगमंच का स्वरूप कैसा भी हो लेकिन इतना तो लगभग निश्चित है कि रंगकर्म में राजा भोज और गंगू तेली के रंगमंच की दो प्रमुख धाराएं बनी रहेंगी.
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