रंगमंच के क्षेत्र में आज कुछ विसंगतियाँ दिखाई दे रही हैं, पिछले कुछ वर्षों से हिंदी नाटकों के लेखन में कमी आई है
आप जिन्हें विसंगतियाँ कहती हैं, मैं उन्हें अंतरद्वंद
मानता हूँ. हर समाज और समय के अपने अंतरद्वंद होते हैं. हर कला के अपने अंतरद्वंद
होते हैं. समाज और समय के अन्तर्द्वन्द्वों से जब यथार्थ टकराता है तो रचना का
यथार्थ और रचना का सत्य उपजता है. और यह यथार्थ और सत्य जब कलाओं की संरचना के लिए
उपयोग में आनेवाली युक्तियों से टकराता है तब उसका सौन्दर्यशास्त्र विकसित होता है
और सम्प्रेषणीयता के नए आयाम विकसित होते हैं. हिन्दी रंगमंच का यह दुर्भाग्य रहा
है किवहाँ अन्तर्द्वन्द्वों से टकराहट कम है. अधिकांश रंगकर्म
अपने समय की हलचलों से कटा हुआ है या सतही रूप से जुड़ा हुआ है. भारतीय समाज में
पिछले कुछ सालों में व्यापक परिवर्तन हुए हैं. अन्तर्विरोधों की टकराहट बढ़ी है.
यथार्थ के नए रूप सामने आ रहे हैं और पुराना यथार्थ भी अपना रूप बदलकर प्रकट हो
रहा है. इसकी समझ और विवेचना के लिए जिस बौद्धिक अभ्यास की ज़रूरत है, रंगसमाज उससे कटा हुआ है. किसान भूमिहीन होते जा रहे
हैं. ज़मीन, जंगल और भूगर्भीय सम्पदा पर पूँजीपतियों का कब्ज़ा
होता जा रहा है. सत्ताधारी निरन्तर हिंसक, अराजक और क्रूर
होते जा रहे हैं. ज्ञान पर एकाधिकार की साज़िश जारी है. सामाजिक और सांस्कृतिक
आन्दोलनों को कुचला जा रहा है......क्या यह सब हिन्दी रंगमंच पर दिख रहा है? नहीं. ऐसे यथार्थ में हिन्दी रंगमंच की रूचि ही नहीं है....जहाँ तक नये नाटकों
की उपलब्धता का सवाल है, तो यह सच है कि नाटक कम लिखे जा रहे हैं. पहले भी
नाटक कम ही लिखे जाते रहे हैं. नाटक के लिए यह आवश्यक है कि रचना में दोनों मूल्य
यानी रंगमूल्य और साहित्यिक मूल्य हों. एक और संकट है कि अधिकांश निर्देशक रंगमंच
पर असफलता से घबराते हैं. वे सफलता के अपने पहले से अजमाए हुए नुस्खों के आधार पर
लिखे नाटक चाहते हैं. यह सच है कि रंगमंच का साहित्य से रिश्ता क्षीण हुआ है.
इधर नाटकों में लोक नाट्य का प्रचलन बढ़ा है और इसे
नाटक की मुख्य धारा माना जा रहा है…
मुख्य नाटक या गौण नाटक जैसा कुछ भी नहीं होता. नाटक, केवल नाटक होता है. स्वतन्त्रता के बाद हमारे रंगमंच का जैसा विकास होना चाहिए
था, वैसा नहीं हो सका. हमने अपने सुख-दु:ख को अपने
सामाजिक संघर्षों को, अपने जीवन के राग-द्वेष को अपनी रंगभाषा में अभिव्यक्त नहीं किया. हमने
प्रस्तुति की यथार्थवादी या नैचुरलिस्टिक पद्धतियों को अपनाया. हमने पश्चिम से
एब्सर्डिटी को भी ग्रहण किया. पर हम भारतेन्दु की रंग परम्परा को भूल गये. हमने
जगदीश चन्द्र माथुर के समग्र थिएटर यानी टोटल थिएटर के चिन्तन की अनदेखी की.
हालाँकि संस्कृत रंगमंच की महान परम्परा के कई रंगतत्व हमारे समय के रंगमंच के लिए
उपयांगी थे. संस्कृत रंगमंच के अवसान के बाद जिन पारम्परिक नाट्य पद्धतियों ने कई
सौ सालों तक हमारे जीवन की सांस्कृतिक भूख को तृप्त किया, हम उन्हें भी भूल गए. इन पारम्परिक नाट्यपद्धतियों में वंचितों-दलितों के
जीवनसंघर्षों को अभिव्यक्त करने की अपार क्षमता का रचनात्मक विस्फोट आज भी देखा जा
सकता है. कुछ समय बाद रंगकर्मियों को लगा कि उनकी अभिव्यक्ति के लिए यह
पश्चिमोन्मुख पद्धतियाँ पूरी तरह उपयोगी नहीं हैं और तब उन्होंने अपने लिए अपनी
रंगपरम्परा से रंगयुक्तियों की तलाश शुरु की. हबीब तनवीर के रायल अकादमी ऑफ
ड्रामेटिक आर्ट्स (लंदन) की पढ़ाई छोड़कर ब्रिस्टिल ओल्ड विक (लंदन) में
प्रशिक्षित होने के पीछे एक मात्र यही कारण था. सन् 1958 में वहाँ से लौटकर उन्होंने मृच्छकटिक मंचित किया और हिन्दी रंगमंच पर एक नवीन
अवधारण का जन्म हुआ. यहाँ हमें लोक की अवधारणा को भी समझना होगा. हमारा लोक पश्चिम
का फोक नहीं है. हमारा लोक बहुत व्यापक है. लोक या पारम्परिक नाट्य पद्धतियों या
शैलियों में सब कुछ आज के लिए यानी हमारे समय के लिए उपयोगी हो यह आवश्यक नहीं.
आधुनिक रंगमंच के लिए यह आवश्यक है कि हम अपने समय और समाज के लिए आवश्यक तत्वों
को ही वहाँ से चुने. परम्परा में बहुत कुछ मृत और अनुपयोगी भी होता है. उन्हें
छोड़ना होता है. और जो लिया जाता है उनमें भी नए भाव भरने के लिए उनकी भंगिमाओं को
तराशना होता है. अगर ऐसा नहीं होता तो हम पुनरुत्थानवादी बन कर रह जायेंगे. आज
भारतीय रंगमंच पर हबीब तनवीर के बाद कई रंगकर्मियों ने इस दिशा में महत्त्वपूर्ण
काम किया है.
कला पर उसके समय का प्रभाव होता है. वैश्वीकरण का
कलाओं पर प्रभाव ?
साहित्य समाज का एक कलात्मक उत्पाद है. रंगमंच भी. इस
वैश्वीकरण ने हमें और दरिद्र बनाया है. मनुष्य को वैचारिक रूप से दिवालिया बनाया
है. इसने मनुष्य के लालच को हवा दी है. इसकी अभिव्यक्ति रंगमंच पर भी हो रही है, पर जिस आवेग और वैचारिक सघनता की आवश्यकता है, वह कम है. हां, रंगमंच पर विपरीत प्रभाव कुछ ज़्यादा ही है. जैसे रातों रात वैश्विक और यशस्वी
बनने और धन कमाने के चक्कर में कर्इ निर्देशक अपनी ज़मीन और स्थानीयता से कटकर
अबूझ प्रयोगों में मुब्तला हैं. जबकि वही रंगमंच सार्थक और सफल होता है, जो स्थानीय हो. रंगमंच के संदर्भ में ब. व. कारंथ की यह टिप्पणी मैं भूल नहीं
पाता हूं कि‘’जो अपनी गली और अपने मोहल्ले का नहीं हो सकता, वह अपने नगर, प्रदेश या देश का भला कैसे हो सकता है!’’
आज समाज में बाजार एक ज़रूरी घटक के रूप में अपना
स्थान बना चुका है. रंगमंच पर बाज़ार का क्या प्रभाव दिखाई देता है?
बाज़ार तभी आपकी ओर देखता है जब आप बाज़ार के हित की
बात करते हैं. अगर आपसे बाज़ार का हित नहीं सधता तो वह आपको पूछनेवाला नहीं. यह
आपके ऊपर निर्भर है कि आप बिकने को प्रस्तुत हैं या लिये लुकाठी हाथ खड़े हैं. इस
मुनाफे के खेल में शामिल होनेवाले कला की हर विधा में हैं. रंगमंच अपवाद नहीं.
भिखारी ठाकुर के प्रभाव में कई मंडलियां बनी थीं ! जो
गांव में शादी ब्याह के अवसरों पर अपना प्रदर्शन करती थीं ! क्या लोक नाटय का
आकर्षण यही से माना जाये ?
भारतीय समाज में प्रदर्शनकारी कलाओं का उत्सवधर्मिता
से बड़ा गहरा रिश्ता है. आदिवासी समाजों में तो आज भी मृत्यु पर उत्सव मनाने की
परम्परा है. भिखारी ठाकुर का नाट्यदल भी शादी-विवाह जैसे मांगलिक अवसरों पर
प्रदर्शन करता था. पर लोक नाट्य के आकर्षण का यह कारण नहीं. इसका उत्स जीवन के
राग-विराग की सहज और आत्मीय अभिव्यक्ति में है.
कुछ रंगकर्मियों का आरोप है कि
हैं कि बड़े और नामी कलाकार बड़ी पूंजी के बंधुआ मजदूर बन गए हैं !
इसके बारे में तरह-तरह के तर्क
सामने आते रहे हैं. मैं यह मानने को तैयार नहीं कि रंगमंच के सभी बड़े और नामी
कलाकार वस्तुत: बड़ी पूँजी के बँधुआ मज़दूर बन गए हैं. प्रवीर गुहा का नाट्यदल
नाम मात्र का प्रोडक्शन शुल्क लेकर देश के कोने-कोने में प्रदर्शन करता है.
अभी-अभी पटना में नसीरूद्दीन शाह का नाट्यदल बिना कोई प्रोडक्शन शुल्क लिये
मंचन करने आया था. ये सब रंगजगत के बड़े नाम हैं. ऐसे और कई उदाहरण दिए जा सकते
हैं
पटना रंगमंच ने देश के रंग
परिद्रश्य पर अपनी एक विशेष पहचान बनाई है ! यहाँ के अनेक कलाकारों ने नाट्य विद्यालयों
में विधिवत शिक्षा पाई है और देश के विभिन्न हिस्सों में कार्य करते हुए अपना अलग
शहर चुन चुके हैं क्या इससे स्थानीय रंगमंच को नुकसान हुआ है?
नहीं.
किसी के चले जाने से कोई जगह ख़ाली नहीं रहती....जो हैं, वे पूरी निष्ठा से काम कर रहे
हैं. जो चले गए, उनमें
से अधिकतर अपना दायित्व मानकर या अपने गहरे लगाव के कारण आकर काम करते रहते
हैं. प्रशिक्षण के बाद नई समझ और सोच के साथ उनकी वापसी
या आवाजाही पटना या बिहार के रंगमंच को नई त्वरा और ऊर्जा देती है. पटना में गजब
की ऊर्जा है. यहाँ का रंगवातावरण बेहद प्राणवान् है और हमेशा स्पन्दित रहता है.
क्या यथार्थवाद के बरक्स फंतासी की लोकप्रियता घटी है?
यथार्थवाद एक दृष्टि है, पर नाटक की प्रस्तुतिशैली के सन्दर्भ में यह एक रूढ़ पारिभाषिक शब्द है. इस
सन्दर्भ में इसका वही अर्थ नहीं होता. यह आवश्यक नहीं कि यथार्थ की सघन अभिव्यक्ति
के लिए यथार्थवादी शैली में ही प्रस्तुति हो. भारतीय रंगपरम्परा ग़ैर यथार्थवादी
रंगशैली की रही है. प्रसाद के नाटक इसी भ्रम का शिकार हुए और उन्हें यथार्थवादी
शैली का नाटककार मानकर हमारा रंगमंच पश्चिम की शैली में उनके नाटकों की असफल
प्रस्तुतियाँ करता रहा. हमारे पास उधार ली हुई प्रयोगशाला थी. कारंथजी ने जब
स्कन्दगुप्त का मंचन किया, तब कई लोगों की आँख खुली. भिखारी ठाकुर के अभिनेता
अपने हाथ की लाठी को काँधे पर रखते तो वह बन्दूक बन जाती और धरती से टिकाते तो हल.
एक चादर तानकर पूरी बारात का दृश्य और उसके दूसरी और दूल्हे को निरखती लड़की और
उसकी सखियों की ठिठोली का दृश्य. रतन थियम के कर्णभारम् में कुंती के काँधे की एक
चादर सरकती है और प्रसव की पीड़दायी प्रक्रिया समाप्त होती है. चक्रव्युह में
मृदंग के बजाता अभिनेता रथ के गतिशील पहिए में बदल जाता है. प्रोबीर गुहा के नमकीन
पानी में एक अभिनेत्री के पेट से लाल वस्त्र निकाल उसे चबाने का नाट्य करता
अभिनेता स्त्रीभ्रूण हत्या का ऐसा दृश्य रचता है कि....ऐसे अनगिनत उदाहरण हो सकते
हैं.
संगीत में आजकल ‘’फ्यूजन ‘’का ज़माना है क्या रंगमंच में भी इस प्रकार के कोई प्रयोग
किये जा रहे हैं ?
फ्यूजन के पीछे दृष्टि क्या है, यह ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है. कुमारजी ने अपनी शास्त्रीयता में मालवा के
निर्गुण गायन का रंग भरा और आज उनका संगीत हमारी धरोहर है. रंगमंच तो पहले से ही
फ्यूजन कला है. यानी यह कई कलाओं का समुच्चय है. यहाँ किसी भी तरह की शुद्धता के
लिए कोई जगह नहीं. इसकी विनम्र ग्रहणशीलता ही इसे अन्य कलाओं में विशिष्ट स्थान
दिलाती है. रंगमंच को प्रयोगभूमि भी कहा गया है.
कलाओं के ‘’अर्थपूर्ण ‘’और ‘’लोकप्रियता’’के बीच के
विभाजन को आप भी मानते हैं ?
रंगमंच पर जो अर्थपूर्ण होता है वह लोकप्रिय भी होता
है. अर्थपूर्ण होने का अर्थ दुरूह होना नहीं होता. अर्थपूर्ण रंगकर्म वृहत्तर समाज
में अपना स्थान बनाता है. रंगमंच अन्य कलाओं की अपेक्षा जीवंत कला है. उसका रचयिता
और भोक्ता दोनों रचे जाने के काल में साथ-साथ होते हैं, आमने-सामने या अगल-बगल. दर्शक भी रंग की सृजनप्रक्रिया का अभिन्न अंग होता है.
जो अर्थपूर्ण नहीं होता समाज उसे नकारता है. संस्कृत रंगमंच की महान परम्परा जब
अभिजन के बीच सिमटकर रह गई, जनता ने उसे नकार दिया. लोकप्रिय पारसी रंगमंच का
अवसान भी इसका उदाहरण है. हाँ, जो भी लोकप्रिय है, वह सब अर्थपूर्ण हो यह आवश्यक नहीं. अपने समय की लोकरूचिको परिष्कृत करना भी
एक दायित्व है. इसका निर्वाह भी रंगकर्म को करना होता है. भिखारी ठाकुर ने अपने
समय में यह काम किया और यही कारण है कि वे आज भी प्रासंगिक हैं. उनका रंगमंच
बेहद लोकप्रिय था. हज़ारों की संख्या में दर्शकों की भीड़ जुटती थी.
हृषिकेश सुलभ - कथाकार, रंगकर्मी, प्रकाशित पुस्तकें - पथरकट, वधस्थल से छलांग, बंधा है काल, तूती की आवाज़, वसंत के हत्यारे (कथासंग्रह). अमली, बटोही, धरती आबा (नाटक) , माटीगाड़ी (शूद्रक के नाटक मृच्छकटिकम्
की पुनर्रचना) , फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास 'मैला आंचल' का नाट्यांतर, रंगचिंतन की पुस्तक 'रंगमंच का जनतंत्र'
बहुत सार्थक और पढने योग्य.
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