सत्यव्रत राउत के आलेख why i call it anti thetare का अमितेश कुमार द्वारा हिंदी अनुवाद.
इधर कुछ सालों में भारतीय रंगमंच में क्रांतिकारी बदलाव हुआ है. इस बदलाव का स्वागत विनाशकारी प्रवृतियों के लिये नहीं बल्कि सामाजिक उत्थान और रचनात्मक मनः स्थिति के साथ. हुआ.
नयी दृष्टि को स्थापित करने के लिये और समय के साथ पुराने हुये तंत्र में सुधार के लिये इस तरह का परिवर्तन अनिवार्य था लेकिन दुर्भाग्य से यह परिवर्तन हमारे जनता के रंगमंच को एक अनदेखे खतरे की तरफ़ ले गया. प्रयोग और उत्तर आधुनिकता के नाम पर हर चीज को जायज ठहराया गया. विश्व में भारत को छोड़ कर कहीं भी उत्तर आधुनिकता के नाम पर अपनी संस्कृति और परंपरा को ठिकाने नहीं लगाया गया. जबकि उत्तर आधुनिकता की अवधारणा आधुनिकता की मजबुत नींव पर टिकी है जो वैग्यानिक, तार्किक और युक्तिपरक है. यह अपने पितृ रूप से पुर्णतया मुक्त नहीं हो सकता, यह आधुनिकता के उस जड़ को पार नहीं कर सकता जिस पर यह बढ्ता है. जैसा कि निक केस अपनी किताब “Postmodernism and performance” में संकेत करते हैं कि‘इस स्थिति में उत्तर आधुनिक को आधुनिक से पुर्णतः मुक्त नहीं कहा जा सकता.आधुनिकता जगह है जहां उत्तर आधुनिक खड़ा होता है, जहां से वह इसके साथ तकरार करता है और खुद अपने साथ तकरार करने में सक्षम होता है. कला की कोई भी अवधारणा अपने पितृ सरंचना को नष्ट करने के लिये जन्म नहीं लेती बल्कि इसकी क्षमता और संभावना को नये परिदृश्य में इस्तेमाल करने के लिये होती है. हम नई कला के नाम पर पुरानी कला को नष्ट नहीं कर सकते. हम अपने परंपरा को धो कर नहीं बहा सकते किसी उग्र परिवर्तन को सथापित करने के लिये उत्तर आधुनिकता का बहाना देकर.’
इन कुछ सालों में हम परंपरा से प्रस्थान कर गये हैं. गर्व से यह कहते हुए कि हमें अपनी कला को अभिव्यक्त करने के लिये किसी परंपरा कि जरूरत नहीं है. ऐसा कहते हुए हम जान बूझ कर एक नई परंपरा को थोप देते हैं क्योंकि कोई भी चीज जिसका आप सालों अभ्यास करें परंपरा में बदल जाती है. और यही नई परंपरा जो हम स्थापित कर रहें हैं निश्चित ही आधारहीन और जड़हीन होने जा रही है. अपने आप को उत्तर आधुनिक बोध के साथ प्रक्षेपित करते हुए हम समाज से और समाज में व्याप्त तत्वों कला, साहित्य और संस्कृति से साफ़ तौर पर बाहर का रास्ता ले रहें हैं. इस तरह हम जनता के रंगमंच से भी दूर हो रहें हैं और एक नये प्रकार की स्थापना कर रहें हैं जिसे मैं ‘प्रति रंगमंच’ या’ ‘एंटी थियेटर’ कहता हूं.
भारत नें इस प्रति रंगमंच का प्रचलन दिन ब दिन बेवकुफ़ाना ढंग से बढ़ रहा है. यह उन हाथों में पोषित हो रहा है जिनका समाज, संस्कृति और परंपरा से कोई लेना देना नहीं है.यहां तक जिस समय और स्थान में वो रह रहें हैं उससे भी उनका कोइ भावनात्मक लगाव नहीं है. सभ्यता की शुरुआत के साथ रंगमंच ने समाज की कई प्रकार से सेवा की है. इसके पास वह शक्ति थी जिससे जनता को जोड़ कर प्रेरित और जागरूक कर सके. संप्रेषण के शक्तिशाली माध्यम के रूप में यह बचा हुआ है. रंगमंच समाज के भीतर ही जनता के द्वारा जनता के लिये पोषित हुआ और निखरा. इतिहास गवाह है कि जब भी और जहां भी रंगमंच ने अपने आप को जनता से अलग करने की कोशिश की इसने अपना अंत निश्चित कर लिया. हमारा देश भी रंगमंच के इसी रास्ते पर कुछ वर्षों से चल पड़ा है. यह आम आदमी की पहूंच से दूर जा कर चंद एलिट बुद्धिजीवियों के हाथ का गुलाम बनता जा रहा है जो अपने आप को और उसी प्रकार से अपनी कला को आम जनता से कभी नहीं जोड़ सकते. रंगमंच के अंत औरप्रति रंगमंच के प्रोत्साहन के जिम्मेदार यहीं हैं.
आइये हाल के संस्थानों और विश्वविद्यालयों की रंगमंचीय अकादमिक गतिविधियों को देखें. हम सभी जानते हैं कि रंगमंच का प्रशिक्षण दूसरे अकादमिक विषयों से भिन्न है. यह वह विषय है जो अभ्यास में ही पूर्णता प्राप्त करता है.
सभी अध्ययन,शोध और अकदमिक गतिविधियों को रंगमंचीय अभ्यास से जुड़ना होता है जिसका मतलब है कला को दर्शको के समक्ष मंच पर प्रस्तुत करना. नाट्यशास्त्र के अनुसार इस प्रदर्शन का संबंध अभिनेता के देह, आवाज और मस्तिष्क से है जिसे संस्कृत मेंशरीरानुभूति कहा गया है., मतलब अनुभव से सीखना. और शिक्षा के मानदंडो में इसे सीखने की सबसे अच्छी प्रक्रिया माना जाता है. प्राचीन शिक्षा व्यवस्था में गुरु या मार्गदर्शक विद्यार्थियों को अपने निजी अनुभव से सीखने के लिये प्रेरित करते थे. और इसी प्रकार का प्रशिक्षण रंगमंच जैसे व्यावहारिक माध्यम के लिये अनिवार्य है. लेकिन दुर्भाग्य से उन चंद हाथों (स्वघोषित एलिट बुद्धिजीवी) में पड़ कर रंगमंचीय अकादमिक व्यवस्था भी अभ्यासोन्मुखी होने की बजाय शोधोन्मुखी हो गई है. पारंपरिक क्लास रूप शिक्षण व्यवस्था को एसाईनमेंट कार्यक्रम और पैनल डिस्कसन कार्यक्रम से स्थानांतरित करदिया गया है. इस नई शिक्षण प्रक्रिया की अपना सकारात्मक प्रेरणा हो सकती है. संचार के नये साधनों (कम्प्युटर, इंटरनेट, मल्टीमीडिया आदि) की मदद से हम चमत्कार कर सकते हैं. लेकिन दुर्भाग्य से छात्र इन उपकरणों का गलत लाभ उठा रहें हैं. निस्संदेह इन स्रोतों से वे बहुत सारी सूचनायें एकत्र कर रहें हैं लेकिन ग्यान और समझ के अभाव में अपने आप को ग्यानी और शिक्षित समझ रहें हैं. उन संस्थानों और विभागों के शिक्षक अपने आप को अधिक बुद्धिजीवी और एलिट समझ रहें हैं. वे सूचना को ग्यान समझने की भूल कर रहें हैं. उन्हें जानना चाहिये कि ग्यान अनुभव से आता है जबकि सूचना नहीं. इस तरह से इस क्षेत्र में निरंतर काम करने वाले कलाकर इन शिक्षाविदों से अधिक ग्यानी हैं क्योंकि उनके पास व्यावहारिक अनुभव है. लेकिन दुर्भाग्य से ये चंद शिक्षक और उनके अनुयायी इसी को सर्वोपरि मानते हैं और हर चीज को इसी हिसाब से मोड़ना चाहते हैं वे सोचते हैं कि वे एकमात्र द्रष्टा हैं जिन्हें भारतीय रंगमंच का भविष्य सोचने, रूप देने और निर्मित करने के लिये नियुक्त किया गया है. वे चाहते हैं कि हर कोई उनके हिसाब से सोचे, उनके हिसाब से अनुभव करें और केवल उन्हीं की आंखो से देखे. और कोई दूसरे तरिके से सोचता और करता है तो निश्चित ही उसके लिये इस नई लहर की संस्कृति में स्थान नहीं है.और उसे बाहर किया जा सकता है. क्योंकि अपनी बौद्धिक शठता के द्वारा ये लोग राजनीतिक शक्ति को अपनी तरफ कर सकते हैं और दुसरे समझौतापरक रास्ते के द्वारा सामाजिक अधिरचना में उंचा स्थान ले सकते हैं और भारतीय कला और रंगमंच का नेतृत्व कर सकते हैं और आम जनता की आवाज को दबाया जा सकता है .
जैसा कि मैंने कहा इन चंद लोगों के लिये हमारा लोकप्रिय रंगमंच इन वर्षों में कष्ट में रहा हैं जिसका कला संस्कृति और परंपरा से कोई लेना देना नहीं है. उनका समाज और सामाजिक गतिविधियों से कोई भावनात्मक लगाव नहीं है. मैं निश्चित हूं कि जिस कला का वे अभ्यास कर रहें हैं उसके व्याकरण से वे शायद ही परिचित होंगे. फ़ार्म की मौलिक समझ के बिना नया कैसे स्थापित किया जा सकता है? जो भी वे रचेंगे वह दूसरों के लिये अजनबी होगा और यहीं एकमात्र कारण है कि उनकी कला बाकी समाज से अलग है. यहां तक कि कई बार इस प्रकार की रंगमंचीय कला को, जिसका हमने दिल्ली, मुम्बई, बैंग्लोर जैसे बड़े शहरों में सामना किया है, नाटक करने के पीछे की व्याख्या और उद्देश्य को समझाना पड़ता है.शर्मनाक तरिके से ये अपनी प्रस्तुति में बाद में भी कुछ समय की पोस्ट प्रोडक्शन की छूट ले लेते हैं जिसमें नाटक तैयार करने की अपनी अस्पष्ट समझ और विचार को थोपकर दूसरों को मुर्ख बनाते हैं. रंगमंच की वस्तुनिष्ठता एक व्यक्ति के विषयनिष्ठ विचारधारा तक सीमित हो गई है. इस प्रति रंगमंच के लिये कुछ आधारभूत कारक जिम्मेवार है वो हैं
१, परंपरा की आधारभूत समझ की कमी
२. अहमकेन्द्रिकता की प्रवृर्ति
३. निजी हताशाओं का निकास
४.किसी की वैचारिक विचारधारा का प्रक्षेपण
५. जीवन और सोच की भ्रमपूर्ण समझ .
जैसा कि मैंने कहा कि हमारे स्वंयभू द्रष्टाओं का भारत और उसकी संस्कृति व परंपरा से कोई लेना देना नहीं है. निश्चित तौर पर उन्होंने मनुष्य की पीड़ाओं और त्रासदियों का ना तो अनुभव किया है और ना ही देश के किसी हाशिये या नुक्कड़ पर के जीवन को देखा है. वे महानगरों में रहते हैं और उन्होंने गरीबी का कभी एहसास नहीं किया. फ़िर कला में आम जीवन कैसे आयेगा? जीवनानुभव की यह कमी उन्हें ऐसे अनुपयोगी रंगकर्म की ओर ले जाती है जो हममें से बहुतों के लिये अजनबी है. उत्तर आधुनिकता के नाम पर की गई हर भारतीय प्रस्तुति किसी एक के निजी अहम को तुष्ट करने क एलिये होती है. ऐसे अनुपयोगी चीज को प्रस्तुत करना जो समझ के बाहर हो (कई बार उस के लिये भी जो इसे रचता है)उसको समझने की कोशिश करना भीड़ में विशेष होने का सुख देता है. लेकिन हमें इस तथ्य से सावधान रहना चाहिये कि अहमकेन्द्रिकता की ग्रंथि के साथ प्रस्तुत कला आपदा और विनाश का रास्ता तैयार करती है जो निश्चित ही किसी दिन जनक्रांति की ओर जायेगा. हमें कोई हक़ नहीं है कि अपने सामने में हम अन्य को नीचा दिखायें. कभी कभार हमारी निजी कुंठायें हमारे काम में आ जाती हैं जो हमें अपनी कृति में ही दास बना देती है. कला के निर्माण की यह प्रक्रिया कास्मोपोलिटन महानगरों में दिन ब दिन बढ्ती जा रही है. हमारा सामाजिक जीवन छोटे छोटे खंडो में सिकुड़ गया है. मशीन का हमारे आंतरिक जीवन में हस्तक्षेप बढ़ गया है. शारीरिक और मानसिक तौर पर हमने अपने आप को छोटे चैम्बर में बंद कर लिया है. स्वाभाविक रूप से हमारी कुंठायें हमारी कला में आयेंगी कला में निज की अभिव्यक्ति होती ही हैं. मशीन का जुड़ाव, स्थान का कईं खडों में विभाजन, व्यक्तिगत चरित्र, आधुनिक इलेक्ट्रानिक उपकरणों का अनियमित और असावधान इस्तेमाल और जान बुझ कर प्रस्तुति की विशेष और कालिक लय को तोड़ना उत्तर आधुनिकता के नाम पर, कुछ नहीं है बल्कि हमारी निजी कुंठाओं का प्रतिफ़ल है. यह बिना आत्मा की रची हुई कृति रूप है. निश्चित उपरोक्त कारण उत्तर आधुनिक प्रदर्शनों के मूल हैं लेकिन इन्हें हमारे देश में बेदिमाग हो कर अनुकरण नहीं किया जाना चाहिये. हर विचारधारा सामाजिक,आर्थिक, और क्षेत्रिय वातावरण की उत्पाद होती है. क्या कोई व्याख्यायित कर सकता है कि यथार्थवाद और सुक्ष्म यथार्थवाद युरोप् में क्यों विकसित हुआ भारत या एशिया के किसी मुल्क में क्यों नहीं? उत्तर सहज है. यह हमारे समाज का स्वभाव है कि यहां पर कठिन अवधारणाओं की कोई जगह नहीं है. भारतीय कला की नीवं जीवन के रूपकात्मक विचारधारा पर आधारित है जहां हर कुछ चक्र में चलता है जैसे जीवन चक्र में चलता है; एक दुसरे का अनुसरण करता है…!
रंगमंच इसका अपवाद नहीं जो यथार्थवाद को स्वीकार नहीं कर सकता जिस तरह हमारे लोग नहीं करते हैं. इसी तरह यह नया रंगमंच स्वीकार नहीं किया जायेगा जब तक यह समाज के भीतरी स्वभाव से नहीं निकले और तब तक यह अलग थलग पड़ा रहेगा और बावजुद इसके कि यह मजबुत हाथों में है इसकी आलोचना होगी.
Dr. Satyabrata Rout/Associate Professor; Dept. Of Theatre Arts, University of Hyderabad/India. Studied at National School of Drama. at present Lives in Hyderabad, Andhra Pradesh you can contact him on satya00191@yahoo.co.in .
prayog natkon ke karan aisi sthiti bani hai jaise jaise ham naya kuchh karna chahate hai janta ko samajhne me samay lagta hai vyastata jindagi ke rahan sahan me badlav ke karan ab ham jindagi se jude natko ko kam dekh pate hai yadi aap habib sahab ka play dekhe to aapko woh jamin se judi bate dikhengi
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