संजय उपाध्याय |
एनएसडी से ग्रैजुएशन करने वाले संजय उपाध्याय पिछले तीस सालों से रंगमंच में सक्रिय हैं। उन्होंने पटना के निर्माण कला मंच से 'बिदेसिया' का मंचन कर राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की। पारंपरिक नाट्य रूपों और संगीत पर उनकी जबर्दस्त पकड़ है। पिछले दिनों वह भोपाल नाट्य विद्यालय के पहले निदेशक नियुक्त किए गए। उनसे राजेश चन्द्र की बातचीत:
आपके विचार से हिंदी रंगमंच की मौजूदा दशा-दिशा क्या है?
पिछले तीस सालों में पूरे परिदृश्य में काफी बदलाव आया है और अब वह वैश्विक हो गया है। नाटक के तत्व भी बदल गए हैं और सब कुछ डिजिटल हो गया है। आज थिएटर में पैसा भी मिलने लगा है जिसके बारे में हमलोगों ने कभी नहीं सोचा था। रंगमंच में अवधारणा और प्रतिबद्धता के स्तर पर भी बड़ा बदलाव देखने में आ रहा है। वह बाजार की तरफ उन्मुख हुआ है। बहुत से रंगकर्मी रंगकर्म के सहारे आजीविका जुटा पा रहे हैं। यह समझ बनी है कि रंगकर्म आजीविका और प्रसिद्धि दे सकता है। छोटे कस्बों और गांवों में भी थिएटर को लेकर अब पहले की तरह समर्पण नहीं दिखता। अब वहां भी पैसे की अपेक्षा की जाती है। रंगकर्म एक उद्योग की शक्ल ले रहा है। महिंदा जैसी कंपनियां इसमें आ रही हैं। 'अंधायुग' पर करोड़ों खर्च हो रहा है और गुड़गांव में 'किंगडम ऑफ ड्रीम्स' जैसी गतिविधियां सामने आई हैं। पारसी रंगमंच के दौर की व्यावसायिकता एक नई शक्ल में वापस आ रही है और इसको लेकर द्वंद्व भी तेज हुआ है। नाटक एक प्रदर्शनकारी कला है इसलिए फिल्मों एवं टीवी का भी उस पर प्रभाव पड़ता ही है। लोकप्रियतावाद का जो रुझान रंगकमिर्यों में दिख रहा है उसे हम टीवी और फिल्मों से जोड़ कर देख सकते हैं।
लोक और परंपरा के नाट्य रूपों एवं शैलियों में काम करना कितना संतोषदायक रहा?
यही मेरी बुनियाद है। जिन लोक नाट्य शैलियों एवं पारंपरिक नाट्य-रूपों को लेकर मैंने रंगमंच शुरू किया और उन्हें नए सामाजिक सरोकारों से जोड़ा, उस पर आज भी काम हो रहा है। पटना में झुग्गी बस्तियों के बच्चों को लेकर 'सफरमैना' की रंगयात्रा और 'बिदेसिया' के मेरे काम को पूरे देश में स्वीकृति प्राप्त हुई। नई नाट्य भाषा की खोज का यह काम आज भी कर रहा हूं। देश-विदेश के रंगमंच के परिदृश्य पर भी हम सबकी नजर है।
हिंदी रंगमंच की अपनी कोई अभिनय-पद्धति क्यों नहीं विकसित हो पाई?
अपने यहां एक बहुभाषीय, बहुधार्मिक संस्कृति है-हजारों हजार देवता हैं। हर धर्म, संस्कृति और परंपरा के अलग-अलग नायक हैं, एक अलग पद्धति है। इस बहुलता के कारण ही ऐसा हुआ है। यह दुखद है कि हमने अपनी परंपरा की प्रविधियों, पद्धतियों एवं परंपराओं को विकसित और संरक्षित करने की तरफ ध्यान नहीं दिया जबकि विदेशी पद्धतियों को पूरे मन से अंगीकार करते रहे। हमारे यहां भारतेन्दु से लेकर एक समृद्ध नाट्य परंपरा मौजूद रही है। विविधता कोई बुरी चीज नहीं होती। अलग-अलग संस्कृतियों और परंपराओं से हम समृद्ध ही होते हैं। जितना काम हमने शेक्सपियर को लेकर किया उतना ध्यान हम कालिदास पर नहीं दे पाए। वैसे भी थिएटर कोई शुद्ध कला नहीं एक मिश्रित कला है, इसलिए इसमें कोई घराना नहीं हो सकता।
बुनियादी समस्याओं से घिरे रंगमंच में उत्सवों पर अधिकाधिक धन खर्च किए जाने के बारे में आप क्या सोचते हैं?
हमारे यहां जब एक प्रस्तुति शुरू होती है तो सारे लोग सक्रिय हो जाते हैं। उत्सवों के मूल में पैसा है। प्रदर्शन कलाएं प्रदर्शन पर ही केंद्रित होंगी। हमारी पढ़ाई का हिस्सा है प्रदर्शन, पर यदि हम उत्सवधर्मिता की आड़ में रंगमंच की मूलभूत समस्याओं को दरकिनार करते हैं तो यह एक गंभीर विषय है। ये सारी प्रवृत्तियां बाजार ने ही पैदा की हैं। रंगमंच को लोकप्रिय बनाने के लिए अधिकाधिक उत्सव आयोजित करना उसकी विशेष आवश्यकता है। मेरी समझ से गंभीर रंगकर्मियों को इस बारे में थोड़ा ठहर कर सोचने की जरूरत है। यह सवाल उठाया जाना चाहिए कि थिएटर का बजट इतना कम क्यों है। क्यों देश के दूसरे हिस्सों में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जैसे संस्थान नहीं बनाए जा रहे? संस्कृति विभाग के पास थिएटर के विकास के लिए जो बजट है वह अपर्याप्त है। मैं उत्सवों का विरोधी नहीं हूं पर मूलभूत संरचनाओं के विकास की अवहेलना मुझे स्वीकार नहीं है।
भोपाल नाट्य विद्यालय के प्रमुख के तौर पर आपकी प्राथमिकताएं क्या होंगी?
किसी भी संस्थान की शुरुआत चुनौतियों के साथ होती है। एनएसडी की शुरुआत तो दो कमरों से हुई थी, इस लिहाज से देखें तो हमारे पास काफी संसाधन हैं-भवन, हॉस्टल और शिक्षक, हर मामले में। नीतिगत चुनौतियों का भी हम सामना कर रहे हैं। चार-पांच महीनों में ही विद्यालय ने अपनी गति पकड़ ली है। अभी वह शैशवावस्था में ही है। पहले ही बैच में काफी उत्साही छात्र आए हैं और यह मेरे लिए भी सीखने का एक अच्छा अवसर है।
INTERVIEW OF Mr. UPADHYAY IS VERY ENCOURAGING FR ME & ALL DEVOTED THEATRE WORKERS.HATS OFF TO SANJAY BHAIYA.
जवाब देंहटाएंThanks Punj Prakash bhai.
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