ब्रजकुमार पाण्डेय का आलेख
भिखारी ठाकुर को मैं तब से जानता हूं – जब मेरी उम्र सात साल की थी। संभवतः 1944 का साल रहा होगा। मेरे गांव से तीन किलोमीटर की दूरी पर ओझवलिया नाम का एक गांव है। उस गांव में गृहस्थ जीवन में रहकर साधुवृत्ति वाले एक आचारी थे। उनसे गांव वालों का बांस की कोठी को लेकर झगड़ा था। आचारी पर बांस नहीं काटने की बंदिश थी। इस संकट में आचारी को एक चतुराई सुझी कि क्यों न भिखारी ठाकुर का नाच गांव में कराया जाये। नाच सुनकर लोगों की भीड़ उमड़ेगी। गांव और ज्वार के लोग नाच देखने में विभोर रहेंगे। ऐसे में आचारी का मकसद आसानी से पूरा हो जायेगा।
भिखारी ठाकुर उस दौरान कोलकाता में रहते थे। आचारी कोलकाता गये और भिखारी ठाकुर के नाम का अनुबन्ध कर आये। निश्चित तिथि पर भिखारी ठाकुर की मंडली ओझवलिया पहुंच गयी। हजारों की भीड़ नाच देखने उमड़ पड़ी। दस कोस पैदल चलकर लोग नाच देखने आये थे। लोगों का ध्यान जब नाच देखने में लगा था-आचारी ने बांस काटने की अपनी कार्रवाई शुरू करा दी। लोगों को बांस काटने की भनक जैसे ही लगी-मारपीट शुरू हो गयी। नाच बन्द हो गया। दूसरे दिन उस इलाके के लोगों को जब इस बात का अहसास हुआ कि यह भिखारी के प्रति इस इलाके की जनता का बहुत बड़ा अपमान है। अतः लोगों ने मेरे गांव में भिखारी का नाच कराने का निर्णय लिया और नाच हुआ भी। मैं बच्चा था इसलिए मुझे याद नहीं है कि नाच में क्या-क्या हुआ लेकिन मेरे इलाके में यह घटना किवदंती की तरह आज भी लोगों की जेहन में है। नाच की शुरूआत में भिखारी ठाकुर ने आचारी वाली घटना पर एक कविता लिखी थी जिसे उन्होंने गाकर सुनाया था। कविता की शुरू की पंक्तियां बहुत दिनों तक लोगों को याद थी जिसकी पहली पंक्ति थी-‘सबके ठगले भिखारी, भिखारी के ठगले आचारी।’
इस तरह भिखारी ठाकुर से मेरी पहली मुलाकात मेरे अपने गांव में हुई थी। भिखारी ठाकुर को मैंने दूसरी बार पटना के गांधी मैदान में महीनों पहले सरकारी प्रदर्शनों के दौरान देखा था और प्रदर्शनी के सांस्कृतिक मंच पर उनके गीत और कविताएं सुनी थी। वह 1958 का साल था और मैं बी.ए. का विद्यार्थी था। मेरी तीसरी और अंतिम मुलाकात 1965 में हुई। हिन्दी के जाने-माने साहित्यकार नई कविता पर बहस कर रहे थे। अचानक किसी का ध्यान भिखारी ठाकुर पर पड़ा। वे श्रोताओं के बीच अंतिम पंक्ति में बैठे थे। लोगों ने आग्रह करके उनको मंच पर बुलाया और उनसे कविताएं पढ़वायी। केदारनाथ सिंह ने हाल ही में इस प्रसंग को ‘हिन्दुस्तान’ में लिखा है और उसका शीर्षक दिया है-नयी कविता के मंच पर भिखारी ठाकुर। उस मंच पर केदारनाथ सिंह, विजय मोहन सिंह, चन्द्रभूषण तिवारी, बद्रीनाथ तिवारी, मधुकर सिंह आदि मौजूद थे।
महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने भिखारी ठाकुर को ‘अनगढ़ हीरा’ कहा था तो प्राचार्य मनोरंजन प्रसाद सिन्हा ने उन्हें ‘भोजपुरी का शेक्सपीयर’ कहा। डा॰ केदारनाथ सिंह लिखते हैं-‘भिखारी ठाकुर मौखिक परम्परा के भीतर से उभरकर आये थे, पर इनके नाटक और गीत हमें लिखित रूप में उपलब्ध हैं। कोरा मनोरंजन उनका उद्देश्य नहीं था। उनकी हर कृति किसी न किसी सामाजिक विकृति या कुरीति पर चोट करती है और ऐसा करते हुए उसका सबसे धारदार हथियार होता है-व्यंग्य।’ डा. उदयनारायण तिवारी लिखते हैं-‘भिखारी ठाकुर वास्तव में भोजपुरी के जनकवि हैं। इनकी कविता में भोजपुरी जनता अपने सुख-दुख एवं भलाई-बुराई को प्रतयक्ष रूप से देखती है।’ इस तरह बहुत सारे हिन्दी साहित्य के विद्वानों ने भिखारी ठाकुर की प्रशंसा की है।
संजीव ने ‘सूत्रधार’ नाम से एक उपन्यास उनके जीवन को आधार बनाकर लिखा है। कुछ लोगों ने पी.एचडी., डि.लिट्. और डिजरटेशन इनके नाटकों, गीतों और भजनों पर लिखे हैं। इनमें से कुछ का प्रकाशन भी हुआ है। भिखारी ठाकुर की स्मृति को संजोने के लिए उनके गांव कुतुबपुर (सारण) में भिखारी ठाकुर आश्रम भी निर्मित है जहां नियमित उन पर कार्यक्रम और गोष्ठियां आयोजित होती रहती है।
भिखारी ठाकुर ने अपना जीवन चरित लिखा है। यह जीवन चरित भोजपुरी कविता में है। इन्होंने स्वयं लिखा है कि उनका जन्म 1887 ई. पौष मास शुक्ल पक्ष पंचमी सोमवार के 12 बजे दिन में हुआ था। उनका देहावसान 1971 ई. में हुआ था। उनकी कोई विधिवत शिक्षा-दीक्षा नहीं हुई थी। उन्होंने अपने साधना से अक्षर ज्ञान प्राप्त किया था और स्वाध्याय से कुछ धार्मिक ग्रंथों का परायण किया था-जिसमें रामचरित मानस प्रमुख था। भिखारी ठाकुर एक अत्यंत पिछड़ी नाई जाति में जन्में थे। उनके घर में एक गाय थी और तीन-चार बछिया थी जिसे वे अपने सगे-साथियों के साथ बचपन में चराया करते थे। इन्हीं साथियों के साथ मिलकर वे रामलीला और दूसरे नाटकों के अभिनय की नकल करते थे। उनका कंठ सुमधुर था। उनकी सुरीली आवाज में जादू था। एक ओर वे परिवार के जीवन-यापन के सहयोग में पशुओं की देखभाल किया करते थे तो दूसरी ओर गृहस्थों और जजमानों के दाढ़ी-बाल बनाते थे।
कुछ लेखकों ने भिखारी ठाकुर पर बचपन में सवर्णों द्वारा शोषण-उत्पीड़न का सवाल बिना किसी जांच-पड़ताल के उठाया है और उनके द्वारा नाच मंडली स्थापित करने की वजह भी इसे ही बतला दिया है। लेकिन ऐसे लेखकों का इलजाम गलत है। अगड़ी जातियों द्वारा दलितों और पिछड़ी जातियों पर शोषण-उत्पीड़न उस काल में होता था लेकिन ये जातियां उस अवधि में प्रतिकार या प्रोटेस्ट की स्थिति में नहीं थी। इसलिए भिखारी ठाकुर ने किसी प्रतिकार में अपना पेशा छोड़ा था और नाच मंडली खड़ी की थी- ऐसा कोई साक्ष्य नहीं मिलता है।
भिखारी ठाकुर को बचपन से ही रामलीला, रासलीला, सत्संग, प्रवचन, भजन-कीर्तन आदि से बेहद लगाव था। परिणामतः काम से फुर्सत पाकर रात में वे ऐसे अनुष्ठानों में भाग लेते थे और उन पर इनका गहरा प्रभाव पड़ा था। उनके बचपन के दिनों में बंगाल और बिहार में जितने प्रकार के नाच, नाटक, गीत-संगीत प्रचलित थे-उनको वे बड़ी तन्मयता से देखते थे और उन सबों का प्रयोग उन्होंने अपने द्वारा गठित बिदेशिया नाच में किया था। उनके द्वारा तैयार बिदेशिया नाच बाद में चलकर एक शैली बन गया जो पचास-साठ वर्षों तक बिहार, उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों और कोलकाता में रहनेवाली हिन्दी भाषी जनता विशेष रूप से भोजपुरी भाषी किसान-मजदूर जनता के लिए मनोरंजन का महत्वपूर्ण साधन बना रहा।
मुस्लिम और अंग्रेजी शासनकाल में औरतों पर हो रहे अत्याचारों ने उन्हें घरों की चहारदीवारी में कैद कर दिया था। उनका कोई सार्वजनिक चेहरा नहीं रह गया था। उनकी पर्दादारी और अशिक्षा एक तरह से उनके लिए काल बन गयी थी। ऐसी स्थिति में नाटकों में स्त्री पात्रों का मिलना असंभव था। इसके साथ ही अभिजात वर्ग के लोगों में यह धारणा विकसित हुई थी कि नचनिया-बजनिया का का निम्न जातियों का है। सवर्ण इसमें भागीदारी करें-ऐसी बात वे सोच भी नहीं सकते थे। भिखारी ठाकुर के नाचों में स्त्री पात्रों की भूमिका कम उम्र के लड़के किया करते थे। उनकी नाच मंडली में अधिसंख्य सदस्य दलित और पिछड़ी जातियों से ही आते थे। भिखारी ठाकुर के नाटकों में पात्रों के नाम भी वही होते थे जो दलित और पिछड़ी जातियों में प्रचलित थे। उन्होंने अपने नाटकों में दलित, शोषित, अशिक्षित और उपेक्षित तबकों के साथ घटित होनेवाली घटनाओं का विशेष उल्लेख किया है। बाल-विवाह, अनमेल विवाह, धन के लिए बेटियों को बेचने का अपराध, सम्पत्ति के लोभ में संयुक्त परिवार का विघटन, बहुविवाह, चरित्रहीनता, अपराध, नशाखोरी, चोरी, जुआ खेलना आदि कुछ ऐसी प्रचलित कुप्रवृत्तियां ऐसे वर्गों में व्याप्त थीं, जिससे उनका सामाजिक और आर्थिक जीवन दुखमय हो जाता था। भिखारी ठाकुर ने अपने नाटकों के माध्यम से इन कुरीतियों पर प्रहार करने का प्रयास किया। गांव-देहात के लोगों पर इन नाटकों का बड़ा प्रभाव पड़ा और लोगों ने इन कुरीतियों से निजात पाने की दिशा में पहल भी की।
विगत शताब्दी का पचास वर्ष विशेषकर 1915 से 1965 का कालखण्ड उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिले और बिहार के भोजपुरी भाषा-भाषी जिलों में आम लोगों के मनोरंजन के साधन, रामलीला, जात्रा, भांड, धोबी, नेटुआ, गोई आदि नाच होते थे। चैती फसल कटने और आषाढ़ में फसल लगने के बीच के समय में किसानी से जीवन-यापन करनेवाली जनता के मनोरंजन का एकमात्र साधन ये नाच होते थे जिसे लोग शादी-विवाह और उत्सव के अवसर पर मंगवाते थे। (इन क्षेत्रों में शादी-विवाह गर्मी के महीने में ही होते थे।) एक व्यक्ति के खर्च से हजारों लोगों का बिना अधेली खर्च किये मनोरंजन होता था। इन नाचों में गाये गीत गांव के चरवाहा, हलवाहा, बनिहारा सालों भर गुनगुनाता था और खेतों में किये गये श्रम से अपनी थकान मिटाता था। भिखारी ठाकुर के बिदेशिया नाच ने इस विधा में नया आयाम जोड़ा। भोजपुरी क्षेत्र की सामाजिक-आर्थिक सांस्कृतिक समस्याओं को केन्द्र में रखकर इस क्षेत्र की जनता की भाषा में उन्होंने अपने नाटक और गीत लिखे और उनका स्वयं मंचन किया। जनता अपनी समस्याओं को अपनी भाषा में सुनकर ज्यादा प्रभावित होती थी। इस तरह भिखारी ठाकुर के नाटकों के प्रभाव अन्य नाटकों की तुलना में ज्यादा प्रभावी होते थे।
भिखारी ठाकुर ने अपनी नाच मंडली को व्यवस्थित रूप देने के बाद अपना स्थायी निवास कोलकाता में बनाया था। इसका कारण था-भोजपुरी भाषा-भाषी जनता की एक बड़ी संख्या कोलकाता में रोजी-रोटी कमाती थी और भिखारी ठाकुर के नाचों से भरपूर मनोरंजन करती थी। वहां यह नाच सालों भर चलता रहता था। इसका एक कारण स्वयं भिखारी ठाकुर द्वारा लिखित बिदेशिया नाटक भी था। कोलकाता में रोजी-रोटी कमानेवाले परदेशियों में से किसी एक की कथा ही तो इस नाटक में लिखी गयी है।
भिखारी ठाकुर साल के दो महीने खासकर सावन-भादो के महीने में सारण जिला स्थित चन्दनपुर गांव में बाबूलाल की दलान पर नाटयाभिनय, गायन, वादन आदि का प्रशिक्षण शिविर आयोजित किया करते थे। इनकी मंडली के सदस्य विभिनन नाटकों में अभिनय, गायन, वादन, नृत्य आदि का प्रशिक्षण लेते थे। विभिन्न नाटकों के विभिन्न पात्रों के संवाद याद कराये जाते थे अभिनय करना सिखाया जाता था। गायकों और वादकों के बीच ताल-लय का सामंजस्य बैठाया जाता था और उसको नृत्य के साथ समायोजित किया जाता था। विभिन्न नाटकों में सूत्रधार की भूमिका में स्वयं भिखारी होते थे, प्रवचन करते थे और भजन आदि प्रस्तुत कर वातावरण का निर्माण करते थे। इसके अतिरिक्त विभिन्न नाटकों में वे अभिनेता की भूमिका भी निभाते थे।
ऐसा कहा जाता है कि खुला मंच का प्रयोग सर्वप्रथम भिखारी ठाकुर ने ही किया था। भिखारी ठाकुर के नाटकों की एक विशेषता यह भी थी कि उनके पात्र सामयिक, प्रासंगिक एवं विनोदात्मक संवाद दर्शकों के साथ करते थे। नाटकों के सफल प्रदर्शन में दर्शकों की सार्थक एवं सक्रिय भागीदारी अत्यंत आवश्यक होती है। इस कला में भिखारी ठाकुर को महारत हासिल थी। यही कारण था कि दसों हजार की भीड़ को बिना किसी थाना-पुलिस की सहायता के नियंत्रित करने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती थी।
भिखारी ठाकुर ने अपने जीवन चरित में अपने वंशज, जन्म स्थान, जन्म तिथि तथा अपनी रचनाओं के बारे में सब कुछ लिखा है। इसमें उन्होंने अपनी रचनाओं की कुल संख्या 29 बतायी है। जबकि बिहार राष्ट्रभाषा परिषद द्वारा सम्पादित भिखारी ठाकुर रचनावली में 24 रचनाओं में 12 नाटक हैं-बिदेशिया, भाई-विरोध, बेटी-वियोग, विधवा-विलप, कलियुग प्रेम, राधे-श्याम बहार, गंगा स्नान, पुत्र वध, गबरघिचोर, बिरहा बहार, नकल भांड आ नेटुआ के, ननद-भौजाई। भजन-कीर्तन, गीत-कविता आदि किताबों के शीर्षक हैं- शिव विवाह, भजन-कीर्तन- राम, बूढ़शाला के बेयान, चैबर्णपदबी, नाई बहार, शंका-समाधान, विविध, भिखारी ठाकुर-परिचय आदि। भिखारी ठाकुर सामग्रियों के बार-बार देखने और उनका विवेकापूर्ण आकलन, समायोजन एवं वर्गीकरण करने के बाद उन्हें 24 जिल्दों ( 24 पुस्तकों) में सजाया गया है।
भिखारी ठाकुर द्वारा रचित बारह नाटकों में से दो नाटक ‘बिदेशिया’ और ‘गबरघिचोर’ आज भी खेले जा रहे हैं और भिखारी ठाकुर के जीवन काल की अपेक्षा आज उन्हें ज्यादा प्रसिद्धि मिल रही है। वे केवल बिहार में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण देश में उनका मंचन हो रहा है और लोगों द्वारा प्रशंसित हो रहे हैं। इन दोनों नाटकों की कथा वस्तु निम्न प्रकार है।
बिदेशिया: इस नाटक का मुख्य पात्र एक युवा है- जो खेती-बारी करके जीवन-यापन करता है। खेती में साल भर काम नहीं करता है। काम के अभाव में बेरोजगार होकर भटकता फिरता है। बेरोजगारी की हालत में ही उसकी शादी एक खूबसूरत युवती से हो जाती है। पत्नी के रूप लावण्य से अभिभूत हो वह अपनी पत्नी को प्यारी सुन्दरी नाम देता है। दोनों के बीच अगाध प्रेम विकसित होता है। कुछ दिन मौज-मस्ती में बीतता है। युवा लम्बी बेकारी और बिगड़ती आर्थिक स्थिति से बेचैन कोलकाता जाने की सोचता है। प्यारी सुन्दरी को पति के कोलकता जाने का प्रस्ताव अच्छा नहीं लगता है। वह उसका घोर विरोध करती है। युवा बहाना बनाकर चुपचाप भागकर कोलकाता पहुंच जाता है। वह परदेशी ‘बिदेशी’ बन जाता है। वहां वह कड़ी मेहनत-मजदूरी कर अच्छी कमाई करने लगता है। इस बीच एक युवती उसके जीवन में आती है। और दोनों पति-पत्नी के रूप में रहने लगते हैं। वैसी पत्नी के तत्कालीन समाज रखैल समझता है। युवा कमाता है और दोनों इस कमाई से मौज-मस्ती में संलिप्त हो जाते हैं।
गांव पर उसकी ब्याहता पत्नी पति द्वारा किसी प्रकार की सूचना नहीं देने से अतयंत दुखी रहने लगती है। दिन-रात रोती-कलपती रहती है। उसके सिर पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ता है। एक दिन अचानक एक अधेड़ बटोही जो कमाने के लिए कोलकाता जा रहा था। प्यारी सुन्दरी को उस बटोही के बारे में भनक मिली और वह अपने पति का हुलिया बटोही को बता देती है। बटोही प्यारी सुन्दरी को आश्वासन देता है कि उसका पति अवश्य लौटेगा। कोलकाता पहुंचने के बाद घूमने-फिरने के क्रम में उस बटोही की भेंट प्यारी सुन्दरी के पति से हो जाती है। वह उसकी पत्नी की दारूण दशा का वर्णन करता है। उसकी पत्नी के अखंड पातिव्रत्य की पुष्टि करता है। विदेशी को अपनी पत्नी की स्मृतियां लौट आती है। वह अपने घर लौटने की बात अपनी रखैल से कहता है। वह विदेशी के घर लौटने के प्रस्ताव का विरोध करती है और वहां रह रहे साहूकार और गुण्डों से उसका सामान छिनवा लेती है। लेकिन युवा उसी दुरावस्था में घर की ओर चल पड़ता है।
इसी बीच गांव का एक मनचला, जिसकी आयु विदेशी से कम थी, प्यारी सुन्दरी के पातिव्रत्य की परीक्षा लेने के लिए तरह-तरह के प्रलोभन देता है और बलात्कार करने की चेष्टा करता है। प्यारी सुन्दरी द्वारा दृढ़ता से प्रतिरोध करने और पड़ोसन के आ जाने से उसका सतीत्व बच जाता है। इसी समय अपनी दुरवस्था में विदेशी घर पहुंचता है। बहुत विश्वास दिलाने पर और अपने पति की आवाज पहचान कर प्यारी सुन्दरी दरवाजा खोलती है। एक ओर परदेशी पति को देखकर खुश होती है तो दूसरी ओर उसकी दशा देखकर दुखी होती है।
इसी बीच विदेशी की कलकतिया रखैल अपने दोनों बच्चों को लेकर पूरे गहने-कपड़े के साथ विदेशी की खोज में उसके गांव चल पड़ती है। कोलकाता के चोर-डकैत उसके गहने-कपड़े छीन लेते हैं और यह भी विदेशी की ही तरह विपन्नावस्था में बिना आगा-पीछे सोचे विदेशी के घर पहुंच जाती है। विदेशी उसको देखकर आश्चर्यचकित होता है, वह रखैल जब प्यारी सुन्दरी के साथ रहने का अनुनय-विनय करती है-तो सभी मिलजुल कर रहने लगते हैं।
गबरघिचोर: नाटक में मात्र पांच पात्र हैं-गलीज, गड़बड़ी, घिचोर, पंच और गलीज बहू (पत्नी)। गलीज नामक युवा बेकारी का मारा जवान पत्नी को घर पर छोड़कर कमाने के लिए शहर जाता है। कड़ी मेहनत करने के बावजूद उसकी आय नहीं बढ़ती है। वह दुव्र्यसन में फंस जाता है और घर-द्वार एवं पत्नी को भूल जाता है।
गलीज की पत्नी गांव में अकेले पड़ी पास-पड़ोस का काम, खेत-खलिहान में रोपनी, सोहनी, कटनी, पिटनी आदि करके दोनों जून की रोटी जुटाती रहती है और पति के घर आने की प्रतीक्षा करती रहती है।
गांवों में शहरी हवा के लगने के कारण गांव में भी नशाखोरी का चलन शुरू हो गया है, गांवों में परम्परागत संबंध टूटकर बिखरे रहे हैं, बहन, भाभी, चाची, मामी कहलाने वाले पवित्र रिश्ते की डोर में बंधी महिलाएं सामान्य नारी और भोग्या बन रही हैं। ऐसी ही विवश नारी है गलीज बहू जिसका पति पन्द्रह वर्षों से गांव नहीं आया है। उपेक्षित गलीज बहू का पांव फिसल जाता है और गांव के ही एक मनचले युवक के साथ उसका अवैध संबंध हो जाता है। इस युवक का नाम गड़बड़ी है। गड़बड़ी के गलीज बहू के साथ दैहिक संबंध की परिणपति होती है कि उसे एक पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है जिसे लोग घिचोर नाम से पुकारने लगते हैं। गलत संबंध से पैदा होने के बावजूद गलीज बहू बड़े प्रेम से अपने पुत्र को पालती है। समाज की प्रताड़ना से डरती नहीं है। वह मातृत्व की गरिमा का पालन करती है।
इधर गबरघिचोर पन्द्रह साल का हो जाता है और मां के साथ सुख चैन की जिन्दगी जी रहा होता है। इसी बीच गांव से परदेश गया कोई व्यक्ति गलीज से मिलता है और उसकी पत्नी घिचोर और गड़बड़ी के संबंधों के बारे में बताता है।
गलीज गांव के व्यक्ति से अपनी पत्नी, नाजायज बेटे और गड़बड़ी के बारे में जानकारी पाकर विचलित नहीं होता है। वह सोचता है कि वह घिचोर को क्यों न शहर ले आये। वह भी कमायेगा और हमारी आमदनी बढ़ जायेगी।
गबरघिचोर को अपने साथ शहर ले जाने के उद्देश्य से गलीज गांव आता है और अपनी पत्नी से घिचोर को शहर ले जाने का प्रस्ताव रखता है। वह तैयार नहीं होती है। इसी बीच गड़बड़ी भी वहां पहुंच जाता है और गबरघिचोर को अपना बेटा घोषित कर देता है। मां अपने बेटे को अपना सहारा समझती है, गड़बड़ी अपने को उसका वास्तविक पिता मानता है और गलीज अपनी पत्नी से उत्पन्न उस बालक पर अपना परम्परागत हक मानता है। बात बहुत उलझ जाती है। इसे सुलझाने के लिए पंचायत का सहारा लिया जाता है।
पंच नियुक्त होता है। तीनों पक्षों ने अपनी-अपनी बातें रखी। पंच को बड़बड़ी और गलीज ने घूस देने की भी पेशकश की। और इस तरह पंच भी अपना निर्णय दे-दे कर पलटते रहे। जब पंच के निर्णय को मानने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ तो गबरघिचोर को ही तीन हिस्सों में काटकर तीनों के बीच बराबर बांट देने का भी अविवेकपूर्ण निर्णय हुआ, जैसे किसी वस्तु का बंटवारा हो। आदमी वस्तु बन गया।
जब तीन भाग में बांटकर देने की बात आयी तो गड़बड़ी और गलीज तो तैयार हो गये लेकिन मां तैयार नहीं हुई। मां ने दोनों में से किसी एक को गबरघिचोर को जिन्दा देने का प्रस्ताव रखा। अब गलीज और गड़बड़ी ने पंच को घिचोर को दो टुकड़ों में बांटने का प्रस्ताव रखा।
पंच में विवेक जागता है और वह दोनों को डांटता-फटकारता है और भर्सना करता है तथा उन दोनों की नीचता को समाज के सामने रखता है, और अंत में गबरघिचोर को उसकी मां को सौंप देता है।
आलेख बिहार खोज खबर से साभार.
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जवाब देंहटाएंबढि़या जानकारी। ऐसे 'अनगढ़ नगीनों' ने ही हिन्दी भाषा के साहित्य को वैविध्य प्रदान किया है यद्यपि दु:ख की बात है कि आज ऐसे साहित्यकारों की सुध नहीं ली जा रही है।
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