भारतीय संविधान में हर नागरिक को अभिव्यक्ति की आजादी प्रदान की गई है।
इसमें केवल देश की संप्रभुता-अखंडता को खतरा पहुंचने, न्यायालय की अवमानना
होने, अश्लीलता, राष्ट्रद्रोह, सांप्रदायिक
वैमनस्यता और धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के आधार पर कटौती की या रोक लगाई जा
सकती है। लेकिन हाल के कुछ वर्षों में इसने वोट बैंक के चलते राजनीतिक चादर ओढ़ ली
है। आज अभिव्यक्ति के सशक्त समझे जाने वाले माध्यम- अखबार, पत्रिकाएं, फिल्में, पुस्तकें और सोशल
नेटवर्किंग साइटें बड़े पैमाने पर प्रतिबंध की राजनीति का शिकार हो रही हैं। इसका
ताजा उदाहरण कानपुर के युवा कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी की बेवसाइट ‘कार्टून अगेंस्ट
करप्शन डॉट कॉम’ पर प्रतिबंध लगाए जाने का है।
मुंबई के एक वकील राजेंद्र कुमार पांडेय ने शिकायत की कि ‘इनके कार्टूनों से
देश की भावना को ठेस पहुंची है’। इस पर मुंबई पुलिस
की अपराध शाखा ने असीम की वेबसाइट पर प्रतिबंध लगा दिया। ऐसी ही एक दूसरी शिकायत
पर महाराष्ट्र की बीड़ जिला अदालत ने उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाने का आदेश दिया
है।
शिकायतकर्ता राजेंद्र कुमार पांडेय पेशे से वकील और उत्तरी मुंबई जिला
कांग्रेस के महासचिव हैं। उनका आरोप है कि कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी ने राष्ट्रीय
प्रतीक चिह्नों, संविधान और संसद का मखौल उड़ाया है। गौरतलब है कि
मुंबई में अण्णा हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के पहले दिन यानी 27
दिसंबर को असीम त्रिवेदी के कुछ कार्टून ‘प्रहार’ नामक मराठी अखबार में
‘संसद, अशोकस्तंभाची विडंबना’ और 28
दिसंबर को ‘सामना’ में ‘संसद, शौचालय, अशोकस्तंभ, गीदड़’ शीर्षक से छपे थे।
इससे पहले ही 27 दिसंबर की दोपहर बेवसाइट को मुंबई पुलिस ने बिना किसी
पूर्व सूचना के बंद कर दिया। उसके बाद सात जनवरी को सत्य शोधक ओबीसी परिषद के
अध्यक्ष हनुमंत उमरे की शिकायत पर महाराष्ट्र की बीड़ जिला अदालत ने स्थानीय पुलिस
को कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी के विरुद्ध राजद्रोह का मामला दर्ज करने का आदेश
दिया।
असीम त्रिवेदी ने अपने कार्टूनों में संसद को ‘राष्ट्रीय टॉयलेट’ के रूप में चित्रित
किया, अशोक स्तंभ पर तीन भेड़िए दिखाते हुए उनके नीचे ‘भ्रष्टमेव जयते’ लिखा और
नेताओं-अधिकारियों को ‘भारत माता’ के साथ सामूहिक
दुराचार करते दिखाया है। इन कार्टूनों को महाराष्ट्र के अखबारों ने प्रमुखता से
अपने मुखपृष्ठ पर छापा था।
ध्यान देने की बात है कि आज के समय में अगर कोई प्रशासन, न्यायपालिका, शासन-व्यवस्था में
व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाता या सामाजिक न्याय की बात करता है तो उसके
खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा चलाया जाता या फिर उसे लंबे समय के लिए जेल भेज दिया
जाता है।
सामंती व्यवस्था में भी राजद्रोह के मुकदमे उन्हीं लोगों के खिलाफ चलाए
जाते थे, जो राजतंत्र या विभिन्न धर्मों में व्याप्त कुरीतियों
को उजागर करने का प्रयास करते थे। इतिहास में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं। जहां तक
कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी के संवैधानिक व्यवस्था का मजाक उड़ाने का सवाल है, क्या जब संसद के अंदर
नोटों की गड्डियां उछाली जाती हैं, जब हमारे माननीय
सांसद पैसा लेकर सवाल पूछते हैं या जब संसद में कुर्सियां फेंक कर शक्ति प्रदर्शन
किया जाता है तो वह संसद का मजाक नहीं है? सरेआम सदन के अध्यक्ष
का माइक तोड़ दिया जाता है, हमारे माननीय सांसद गाली-गलौज करते हैं तो क्या उससे
संसदीय व्यवस्था का अपमान नहीं होता? कई सांसद अपने पूरे
कार्यकाल में एक भी प्रश्न नहीं पूछ पाते, क्या वह संसद की
गरिमा का हनन नहीं?
चित्रकार एमएफ हुसेन को भी इन्हीं कारणों से देश छोड़ कर जाने पर मजबूर किया
गया। इसी प्रकार गुजरात की नरेंद्र मोदी सरकार ने हरीश यादव नामक एक कार्टूनिस्ट
को, जो इंदौर के एक सांध्य दैनिक में ‘मुस्सविर’ नाम से कार्टून छापता
था, इतनी यातना दी कि वह अवसाद का शिकार हो गया।
पिछले साल गुजरात और महाराष्ट्र की सरकारों ने
अमेरिकी लेखक जोसफ लेलिवेल्ड की पुस्तक ‘ग्रेट सोल: महात्मा
गांधी ऐंड हिज स्ट्रगल विद इंडिया’ पर यह कहते हुए
प्रतिबंध लगा दिया कि इसमें गांधीजी को नस्लवादी और उभय-यौनिक बताया गया है।
नरेंद्र मोदी सरकार ने 2009 में जसवंत सिंह की पुस्तक ‘जिन्ना: इंडिया, पार्टिशन, इंडिपेंडेंट’ को यह कहते हुए
प्रतिबंधित कर दिया था कि इसमें उन्होंने सरदार पटेल की छवि को कम करते हुए
मोहम्मद अली जिन्ना की छवि को अच्छा बताया है। हालांकि वहां के उच्च न्यायालय ने
उस प्रतिबंध को गलत ठहराया था। इसी प्रकार 2009 में छत्तीसगढ़ सरकार
ने हबीब तनवीर के नाटक ‘चरणदास चोर’ पर यह कहते हुए
प्रतिबंध लगा दिया कि इससे सतनामी संप्रदाय की भावनाओं को ठेस पहुंची है। जबकि
पहली बार यह नाटक सतनामी संप्रदाय के बीच ही खेला गया था।
अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला और प्रतिबंध की राजनीति का खेल आजादी के बाद
पचास के दशक में ही शुरू हो गया था, जब यशपाल के नाटक ‘नशे नशे की बात’ को उत्तर प्रदेश की
तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने गांधी की आलोचना करने और मार्क्सवादियों का समर्थन
करने के आरोप में प्रतिबंधित कर दिया। साठ के दशक में गजानन माधव मुक्तिबोध की
पुस्तक ‘भारतीय इतिहास एवं संस्कृति’ पर मध्यप्रदेश सरकार
ने भारत का गलत चित्र प्रस्तुत करने के आरोप में प्रतिबंध लगा दिया था, जो आज तक जारी है।
अभिव्यक्ति पर हमले का दूसरा रूप फिल्मों पर देखा जा सकता है, जिसका ताजा उदाहरण सोहन राय की फिल्म ‘डैम 999’
पर प्रतिबंध के रूप में देखने को मिला। तमिलनाडु की जयललिता सरकार ने उस पर
यह कहते हुए रोक लगा दी कि इसमें मुल्लापेरियार बांध को दिखाया गया है और इससे
जनता की भावना आहत हो सकती है। इससे पहले प्रकाश झा की फिल्म ‘आरक्षण’ पर उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश और
पंजाब की सरकारों ने यह कहते हुए रोक लगा दी थी कि यह दलित और आरक्षण विरोधी है, हालांकि यह प्रतिबंध
कुछ परिवर्तनों के बाद समाप्त कर दिया गया। इसी तरह राहुल ढोलकिया की फिल्म ‘परजानिया’ को 2007
में बाबू बजरंगी के कहने पर गुजरात में बंद करा दिया गया था, जो 2002
के गुजरात दंगों पर बनाई गई थी। ऐसे अनेक उदाहरण हैं।
फेसबुक, ब्लॉग वगैरह पर अंकुश लगाने की कोशिश को इसी की एक
कड़ी के रूप में देखा जा सकता है।
किसी विचार या नीतिगत फैसले को लेकर विरोध-प्रदर्शन करना गलत नहीं है। मगर
आज शासन-व्यवस्था इसे नकारात्मक रूप से देखती है। जबकि अगर विरोध समाप्त हो जाए तो
लोकतंत्र के मायने ही बदल जाएंगे। लोकतंत्र में विरोध के जरिए ही बदलाव लाया और
सभी को सामाजिक न्याय दिलाया जा सकता है।
जाहिर है, साहित्य, कला और सोशल
नेटवर्किंग साइटों पर पाबंदी के पीछे वजहें राजनीतिक होती हैं। ऐसे कदम यथास्थिति
बनाए रखने और शासक वर्ग के हित साधने के लिए उठाए जाते हैं। यह व्यक्ति की आजादी
को समाप्त करने के साथ-साथ संविधान की अवहेलना है।
आलेख जनसत्ता 15 जनवरी, 2012 से साभार .
आज के सियासी दौर में भारत माता की जय का अर्थ होता है भारत सरकार की जय..
जवाब देंहटाएंजो सरकार के खिलाफ बोलता है वही देशद्रोही कहा जाता है...